शैक्षिक उन्नयन में यूजीसी, विश्वविद्यालय या महाविद्यालयों का योगदान
ISBN: 978-93-93166-32-6
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उच्च शिक्षा में कक्षा पलायन: उभरती विसंगति

 राजेंद्र कुमार यादव
प्राध्यापक
शिक्षाशास्त्र विभाग
ग्राम्यांचल पी जी कालेज
हैदरगढ़ बाराबंकी  उत्तर प्रदेश, भारत  

DOI:
Chapter ID: 16605
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भारतीय शिक्षा व्यवस्था को उन्नतशील बनाने के लिए शिक्षा आयोगका गठन किया गया था। जिसे कोठारी कमीशन भी कहते हैं। तत्कालीन शिक्षा के प्रत्येक पहलू का अध्ययन करके 1984 में इस कमीशन ने अपनी रिर्पोट भारत सरकार को सौंपी थी। जो आज भी भारत की शैक्षिक व्यवस्था में एक मील का पत्थर साबित हो रहा है। कोठारी कमीशन ने अपनी रिर्पोट में लिखा था कि भारत का भविष्य उसकी कक्षाओं में पनप रहा है। कोठारी कमीशन में कही गई बातें आज पांच दशक बाद भी अपनी सत्य निष्ठा प्रमाणित कर रही हैं। कोठारी कमीशन में दशकों पूर्व कही गई बातें शिक्षा की गहराईयों को बयां करती हैं।  साथ ही साथ हमें यह भी बताती हैं कि हमें अपनी स्कूली शिक्षा को मजबूत बनाना होगा।

यह अत्यंत ही खेदपूर्ण है कि अब हमारी कक्षाओं का स्वरूप काफी बदल गया है। स्कूल की कक्षाएं उपस्थिति मात्र का मानक हो गई हैं। सीखने सिखाने वाली कक्षाएं भीड़़तंत्र का एक व्यापक रूप हो चुकी हैं। अनुशासन का हवाला देकर कक्षाओं में उपस्थिति तो बढ़ा ली जाती है। लेकिन लर्निंग अउटकम का उद्देश्य पूरा नही हो पता है। जिसका परिणाम यह निकलता है कि धीरे धीरे छात्र कक्षाओं से दूरी बना लेते हैं। जॉन डीवी कहते हैं कि ’’विद्यालय समाज का लघुरूप होता है।’’ अर्थात जैसा विद्यालय होगा वैसा समाज बन जायेगा। यदि हमारे विद्यालय श्रेष्ठ होंगे तो निश्चित ही हमारा समाज श्रेष्ठ होगा। अब शिक्षार्थी विहीन कक्षाओं द्वारा भारत का भविष्य कैसा होगा इस परिकल्पना मात्र से ही मष्तिस्क शून्य होने लगता है। फिर भी शिक्षा में इस दोष के पनपने के कारण और निवारण तो ढूंढने ही होगें।

कक्षा से छात्रों का पलायन देश की एक वृहत समस्या है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। जैसे- सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति, भौगोलिक स्थिति, क्षेत्र में लगातार संघर्ष व शिक्षण के प्रति शिक्षकों की अभिरूचि का न होना आदि अनेक कारण हो सकते हैं। स्कूली कक्षाओं से छात्रों का मोहभंग इसलिए भी होता है कि स्कूलों में सहानुभूति पूर्ण शिक्षा की उपेक्षा ही नही, वरन उसका कठोरता पूर्वक दमन भी किया जाता है। जैसे- भूगोल की शिक्षा देने के लिए बालक को मिट्टी से दूर ले जाया जाता है। व्याकरण की शिक्षा देने के लिए बालक को उसकी भाषा से दूर करके दूसरी भाषा में सिखाया जाने लगता है। बालक को इतिहास की शिक्षा देने के लिए उसे ऐतिहासिक तथ्यों से दूर किया जाता है। बालक ऐसी विरोधी शिक्षा प्रणाली का मानसिक रूप से विरोध करता है। परन्तु दण्ड के भय से खामोशी के आँचल में सबकुछ बरदाश्त करता है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था में बालक धीरे धीरे कक्षाओं से दूरी बनाने लगते हैं। इस प्रकार स्कूली कक्षाओं मे न जाना बालक का स्वभव बन जाता है। महान शिक्षाशास्त्री टैगोर ने भी बंधनयुक्त कक्षाओं पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि ’’हम लोग किसी अजायबघर में रखी हुई निश्प्राण वस्तुओं के समान कक्षा में बैठे रहते थे और पढा़ये जाने वाले पाठों की छात्र रूपी पुष्पों पर ओलों की वर्षा की जाती है। शिक्षा जीवन के परिवेश से दूर भटक गई है। प्रकृति के स्वस्थ एवं पूर्णता की ओर अग्रसर करने वाली प्रथाओं से उसका सम्बंध समाप्त हो गया है।’’ वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था ने भी शायद ऐसा ही आवरण ओढ़ लिया है। जिसने शरीर और मष्तिष्क के तारतम्य को बाधित करके रख दिया है।

हमारे अधिकांश विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा महज अक्षर ज्ञान तक ही सीमित रह गई है। यह अक्षरज्ञान प्राइमरी स्तर तक तो ठीक है। लेकिन जब यही अक्षर ज्ञान उच्च स्तर की कक्षाओं का उद्देश्य बन जाता है तो छात्र ही नही, समाज का प्रत्येक स्तम्भ इससे प्रभावित होने लगता है। मसलन यदि छात्र ने महज अक्षरज्ञान आधारित शिक्षा प्राप्त की है और उसे व्यवहारिक ज्ञान नही है तो समाज मे अकुशल कार्मिक हो जायेंगे। जिनसे किसी प्रकार के उद्देश्य परक कार्य की उम्मीद नही की जा सकती है। शैक्षिक व्यवस्था ही समाज को कुशल चिकित्सक, कुशल प्रशासक, कुशल अभियन्ता कुशल राजनीतिज्ञ, कुशल प्रशिक्षक, कुशल श्रमिक, कुशल कृषक आदि का निर्माण किया जाता है। इसलिए हमे स्कूली शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाये रखना होगा। इस मजबूती का आधार केवल एक ही है, कि स्कूलों में छात्रों की उपस्थित पूर्ण रहे। इसके लिए विद्यालयों में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जाय कि छात्र स्वतः विद्यालयों में अधिकांश समय व्यतीत करें। यदि शिक्षक और शिक्षर्थी के सम्बंध मधुर और भावात्मक रूप मे स्थापित होगा तो हमारे विद्यालयों का वातावरण आकर्षक होगा। जिसके प्रभाव से शैक्षिक व्यवस्थायें उन्नतशील होंगी

वर्तमान समय की शिक्षा व्यवस्था में अधिकांशतः सैद्धान्तिक ज्ञान ही दिया जाता है। जिसके कारण छात्रों को व्यवहारिक और क्रियात्मक ज्ञान नही मिल पाता है। विद्यालयों में व्यवहारिक ज्ञान न मिलने से छात्रों में कार्यकुशलता में कमी आ जाती है। जिससे वह सीखे गये ज्ञान को वास्तविक परिस्थितियों में प्रयोग नही कर पाते है। इसके साथ ही साथ शिक्षा व्यवस्था में उपयोगी पाठ्यक्रम का समावेश न होने से भी छात्र कक्षाओं से दूरी बना लेते हैं। यदि उपयोगी एवं रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रम द्वारा कक्षा में छात्रों को शिक्षित किया जाय तो कक्षा में उपस्थित बढा़यी जा सकती है। इसके साथ ही साथ अध्यापन में रोचक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाय। रोचक शिक्षण विधियां ज्ञान को विस्तारित करने मे मुख्य भूमिका निभाती हैं और छात्रों को विषयवस्तु सीखने में मदद मिलती है। टैगोर ने अपनी पुस्तक माई स्कूलमें विश्वभारती विश्वविद्यालय के शिक्षक सतीशचन्द्र राय के बारे में लिखा है कि ’’वसंत ऋतु में साल के वृक्ष जब फूलों से लद जाते थे तो वह छात्रों के साथ बगीचों में जाता था। वहां पर वह प्रभावपूर्ण शैली में शेक्सपीयर और ब्राउनिंग की कविताएं छात्रों को सुनाता था। छात्र इतनी तन्मयता से सुनते थे कि जब कभी बैठने की जगह नही मिल पाती थी, तो छात्र पेड़ पर चढ़ कर सुनते थे।’’ यदि हम विद्यालयों में ऐसा वातावरण तैयार करें तो निश्चित रूप से कक्षाओं को मजबूत कर सकते हैं। जिनसे निकलने वाले विद्यार्थी अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। फलस्वरूप देश और समाज को एक मजबूत आधार प्राप्त होगा।

उपर्युक्त आलेख के आधार पर हम देखते हैं कि स्कूलों से छात्रों के पलायन करने के अनेक कारण सामने निकल कर आते हैं। जिसमें मुख्य रूप से विद्यालयों का पाठ्यक्रम, अव्यवहारिक शिक्षण विधियां, क्रियात्मक/प्रायोगिक शिक्षण का अभाव, भावात्मक शिक्षण का अभाव, शिक्षक का शिक्षण कार्य में रूचि न लेना आदि प्रमुख हैं। यदि इन पर गम्भीरता से विचार किया जाय तो निश्चित ही छात्रों का रूझान स्कूलों की ओर होगा। शिक्षा बालक के लिए है, बालक शिक्षा के लिए नही। यदि इस विचारधारा को शैक्षिक परिस्थितियों में अपनाया जाय तो स्कूल एक घर के स्वरूप में आ जायेगा। गृहस्वरूप विद्यालय में अध्ययन करने में बालक को किसी प्रकार का कोई संकोच नही होगा। अनुशासन बनाये रखने में भी किसी प्रकार की कोई समस्या नही आयेगी। परिणामतः विद्यालय से छात्रों के पलायन की समस्या स्वतः दूर हो जायेगी।