हिंदी साहित्य : एक अनुदित संकलन
ISBN: 978-93-93166-31-9
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कबीर के काव्य में सामाजिक एवं धार्मिक चेतना का अनुशीलन

डॉ. अरविंद कुमार उपाध्याय
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
केशव प्रसाद मिश्र राजकीय महिला महाविद्यालय
औराई, भदोही, उत्तर प्रदेश, भारत

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ज्ञान की आभा विकीर्ण करने वाले कबीर का हिन्दी साहित्य जगत में बहुत बड़ा योगदान है। मानव कल्याण की भावना से प्रेरित होकर धार्मिक पाखंड, आचरण की पवित्रता, कर्तव्य की परायणता पर बल‌ देते हुये सत्य की महत्ता का दृढ़ता से पहचान किया। महात्मा गांधी पर भी कबीर का प्रभाव पड़ा। नागार्जुन, निराला आदि  की मुद्रा कबीर से मिलती है। दादू, दयाल, नानक आदि का उदाहरण कबीर के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है। कबीर के भक्ति आंदोलन पर विशेष विचार व्यक्त किया गया। कबीर के सन्दर्भ में कहा गया है कि- "बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय।

जो दिल खोजा आपना मुझसा बुरा न कोय।।"

कबीर दर्शन से जुड़े हुए थे। कबीर के आदर्श पर जो चलते हैं,वे उसको सत्य की राह पर ले चलते है। कबीर कहते है कि राम को जानने के बाद दुनिया में और कुछ जानने को नही रहता। भक्ति दर्शन के प्रतिष्ठात्री के रूप में कबीर प्रवेश करते हैं वे कहते हैं कि यदि हम सच्चे हृदय से सत्संग में प्रवेश करते है तो हमारे  विचारों में शुद्धता आती है। कबीर का कथन है कि जब मानव के हृदय में ज्ञान का उदय हो जाता है तो उसमें समस्त दुर्गुण नष्ट हो जाते है। कबीर कहते है कि- 

'संतो भाई आई ज्ञान की आंधी रे !

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी रे।।'

कबीर ने ज्ञान के उदित होने पर साधक की दशा का वर्णन किया है। सांगरुपक के माध्यम से कबीर ने ज्ञान आदि का आरोप करते हुए यह निरूपित किया है कि ज्ञान का उदय होने पर माया, मोह, भ्रम आदि नष्ट हो जाते हैं। कबीर के विचारकों के अनुसार विद्वा‌नों का कथन है कि कबीर के जो भी मतावलम्बी है वे कहते है कि सभी के अलग-अलग कबीर होगें। कबीर सूर्य की भांति खड़े हैं लेकिन वे अकेले नहीं खड़े है। वे कहते है कि-

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहिं ।

सब अधियारा मिट गया जब दीपक देखा माहि।।"

कबीर अहं को मिटाते हुये माया,अज्ञान आदि को त्यागने के सन्दर्भ में अपने विचार समाज तक प्रेषित करना चाहते है।। कबीर कहते हैं कि अहंकार को त्यागे बिना ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती जब तक मेरे अंदर अहंकार व्याप्त था तब मुझसे ईश्वर दूर थे और जब मैंने अहंकार का त्याग कर दिया तब मैं ईश्वर को सदैव अपने सन्निकट पाता हूं। कबीर के कहने का अशय यह है कि अहंकार और भगवत प्रेम दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते।

कबीर के स्वरूप पर हमें गहराईयों से विचार करना चाहिए। कबीर अपनी कथनी और करनी में समानता का जीवन जीते थे। समाज संकुचित नहीं है संकुचित है आज के पढ़े-लिखे लोग जो अपने-अपने विचारों की अग्नि में जल रहे है। जिसको आज भी समाज में जीने के लिये उनको अपनी स्वत:भूमिका का निर्वहन करना पड़ रहा है। वह अपना-अपना विचार प्रदर्शित करते हैं। अपृश्यता ये मानवता के खिलाफ था। वाह्याडम्बर की यह एक भूमिका थी। समाज को एकता में बांधे रखने के लिए उसका भी समाज में योगदान होता है। राम नाम की श्रध्दा रखने वाले लोग नहीं मरते राम के नाम‌ का स्मरण करेगे तो भव की बांधा से मुक्ति‌ मिलेगी। राम के नाम का मर्म किसी को मालूम नहीं है यदि राम के नाम का मर्म मालूम हो गया तो मनुष्य के अंदर का अभय मिट जाएगा। इसलिये कबीर कहते हैं कि-

"दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।

राम नाम का मरम है आना।।"

कबीर पूजा-पाठ, हज,रोजा नमाज, जकात आदि के घोर विरोधी थे उन्होंने मूर्ति पूजा,मंदिर, मस्जिद से अपना उद्धार नहीं मानते थे उनका कहना था कि इन माध्यमों से मानव अपने चरमोत्कर्ष तक नहीं पहुंच सकता  इसलिए वे कहते हैं कि-

"हरि मेरा पिव मैं हरि की बहुरिया।"

और फिर कहते हैं कि-

"हरि जननी मैं बालक तेरा।"

और कभी कहते हैं कि-

"बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं,फल लागे अति दूर।।"

उस समय के दौर में हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग कबीर को अपना हितैषी नहीं स्वीकार करते थे। कबीर तो ऐसी विचारधारा के कवि थे जो समस्त धर्मों के प्रति अपनी आस्था दिखाकर सभी को एक साथ जोड़ने का काम करते थे। उनका कथन था कि सभी ईश्वर की संतान हैं। कबीर केवल मानव को अपना सर्वोपरि मानते थे और उसी में उनका पूर्ण विश्वास भी रहता था। 

कबीर सदैव अच्छे कर्मों के लिए सब को सलाह देते थे। कबीर कहते हैं कि जिस प्रकार  पानी का बुलबुला थोडे ही समय में नष्ट हो जाता है उसी प्रकार मानव का जीवन क्षणभंगुर है जैसे  प्रभात होने के बाद तारे छुप जाते हैं वैसे ही मानव का शरीर को एक दिन नष्ट होकर मिट्टी में विलीन हो जाना है। कबीर कहते है कि-

"पानी केरा बुदबुदा असमानस की जात।

एक दिना छुप जाएगा ज्यों तारा परभात।।"

तुलसी और कबीर की हम यदि सम्यक विवेचना करें तो तुलसी और कबीर दोनों परस्पर भारतीय चिंतन धारा को मजबूत करते हैं। कबीर की वाणी में नैतिक आचरण की शुद्धता देखने को मिलती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने  कबीर को समाज सुधारक के रूप में माना है। कबीर की लड़ाई अन्याय के प्रति थी। संत कबीर का साध्य मानव कल्याण ही है। कबीर की वाणी, वचन, संदेश सदैव कड़वे और कटु हुआ करते थे लेकिन इनकी बातों में शत-प्रतिशत ईमानदारी रहती थी। जिस सामाजिक न्याय को पाने के लिए हमने सदियों तक संघर्ष किया,उनको कबीर उस दौरान में अपने दोहों के माध्यम से प्रस्तुत किए थे परस्पर प्रेम और सत्य शोधन के मार्ग को वे सीधे से नकारने का साहस कर लेते थे।

आज के दौर में प्रत्येक कबीर दूसरे के दु:ख ही ओढ़ लेते है। कबीर की कविता सामाजिक चिंतन की दशा और दिशा को बदल देती है। कबीर एक बहुत बड़े डॉक्टर थे। कबीर लोगों को अमृत बांटने का कार्य करते थे।‌ सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक बीमारियों का समाधान बताते हुए उसका निस्तारण भी कबीर के द्वारा किया गया। कबीर सुलझाने वाली संस्कृति के वाहक थे, वे उलझाने वालों से दूर रहते थे। कबीर एक समता मूलक संस्कृति चाहते थे, वे कहते हैं कि मैं जगने की कोशिश करता हूं तुम सुलाने की कोशिश करते हो। समाज वाह्याडम्बरों से जकड़ा रहे,मुझे भले ही इसके लिए रोना पड़े। कबीर सब कुछ झेलने के बाद कभी समाज को जगाना चाहते है तो कभी खुद जागकर दूसरों को जगाने का प्रयास करते हैं।

कबीर कहते है कि हम समाज से अंधकार को दूर कर सकते हैं तो आप हमारे साथ आ सकते हैं। कबीर का समग्र जीवन सामाजिक रुढ़ियों, अन्धविश्वासों और मानवता के नाम पर कलंक लगाने वाली कुरीतियों पर प्रहार करते हुये बीता। कबीर की ही तरह निराला भी कहा पीछे हट सकते है। निराला को भी सबसें अधिक विरोधों का हलाहल पीना पडा़।

आज हम लोगों को  कबीर की वाणी को व्यावहारिक धरातल पर लाने की आवश्यकता है। हम सब को अपनी कथनी और करनी में सुधार करने की आवश्यकता है। जब हमारे कथनी और करनी में अंतर नहीं मिटेगा तब तक स्थितियां नहीं बदलेंगी। कबीर इसी लिये लड़ रहे थे। कबीर के काव्य में सामाजिक ए‌वं धार्मिक चेतना का दिग्दर्शन होता रहता है। हमें आज भी कबीर के विचारों को अपने जीवन में ढा़लने की आवश्यकता है।

संदर्भ ग्रंथ सूची-

1. डॉ० भोलानाथ तिवारी,कबीर और उनका काव्य।

2. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 1971

3. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, कबीर साहित्य की परख भारतीय भंडार लीडर प्रेस इलाहाबाद, प्रथम संस्करण संवत 2011 वि. ।

4. डॉ० धर्मवीर, कबीर के आलोचक वाणी प्रकाशन दिल्ली द्वितीय संस्करण,1998

5. रामकुमार वर्मा,संत कबीर, साहित्य भवन प्रा०लि० इलाहाबाद से चतुर्थ आवृति 1997 ई०

6. रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास

7. कबीर से संबंधित आलोचनात्मक ग्रंथों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित।

8. डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी,हिन्दी साहित्य का उद्भव व विकास

9. कबीर साहेब का बीजक, कबीर ग्रंथ प्रकाशन समिति।

10. डॉ० गोविंद त्रिगुणायत, कबीर की विचारधारा, साहित्य निकेतन, कानपुर, प्रथम संस्करण, संवत 2009 वि०

11. श्याम सुन्दर दास कबीर ग्रन्थावली

12. संत सुधारक, खण्ड -1   

13. डॉ० पारसनाथ तिवारी, कबीर वाणी संग्रह

14. माता प्रसाद, कबीर ग्रन्थावली

15. कबीर बीजक।