ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- III April  - 2022
Innovation The Research Concept
भारत की चुनावी राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण और भूमिका
Vision and Role of Rashtriya Swayamsevak Sangh in Electoral Politics of India
Paper Id :  16035   Submission Date :  10/04/2022   Acceptance Date :  15/04/2022   Publication Date :  25/04/2022
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आनंद मोहन द्विवेदी
अतिथि व्याख्याता
राजनीति विज्ञान विभाग
भेरूलाल पाटीदार शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय महू
इंदौर,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। इस लोकतान्त्रिक देश में संगठनों के माध्यम से काम करने की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है। ऐसी ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया से सन 1925 में जन्में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन कहा जाता है। संघ स्वयं को सांस्कृतिक संगठन कहता है जो अपनी शाखा के माध्यम से राष्ट्र निर्माण के उद्देश्य से व्यक्ति निर्माण के कार्य पर लगा हुआ है। इसके अनेक अनुशांगिक संगठन भी हैं जिनके कार्यकर्ताओं की संख्या लाखों करोड़ों में है। मीडिया और राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंध में सक्रिय राजनीति और चुनावी राजनीति को प्रभावित करने की बातें होती हैं। इस शोध में हमें पता चलता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संगठनात्मक रूप और सैद्धांतिक रूप से सक्रिय और चुनावी राजनीति में नहीं भाग लेता है। न ही इसके दायित्ववान कार्यकर्ताओं को ऐसी अनुमति या छूट होती है। कार्यकर्ता पद छोड़कर व्यक्तिगत क्षमता में हर कार्य कर सकते हैं। क्योंकि यह संगठन पिछले 97 वर्ष से भारत में सक्रिय रूप से काम कर रहा है, इतने बड़े कालखंड में इसके अनेक कार्यकर्ता समाज के अनेक वर्गों में प्रभाव निर्माण कर चुके हैं, क्योंकि यह पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण समाज के हर वर्ग में कार्यरत रहता है। आज राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ से निकले कार्यकर्ता व्यक्तिगत उद्यमों से देश में बड़े बड़े उप्रकम संचालित कर रहे हैं। इसी तरह राजनीति में रूचि रखने वाले संघ के कार्यकता भी राजनीति के उच्च शिखरों पर पहुंचे हैं। संघ ने प्रत्यक्ष संगठनात्मक रूप से राजनीति में कभी भाग नहीं लिया है और न लेता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद India is said to be the largest democracy in the world. In this democratic country, the tradition of working through organizations is going on for a long time. The Rashtriya Swayamsevak Sangh, born in the year 1925, is said to be the largest voluntary organization in the world through a similar democratic process. The Sangh calls itself a cultural organization, which through its branch is engaged on the task of person building with the aim of nation building. It also has many subsidiary organizations whose number of workers is in lakhs or crores. There is talk of media and political parties influencing active politics and electoral politics in relation to Rashtriya Swayamsevak Sangh. In this research we find that the Rashtriya Swayamsevak Sangh is organizationally and theoretically active and does not participate in electoral politics. Nor do its responsible workers have such permission or exemption. Workers can leave office and do everything in individual capacity. Because this organization is actively working in India for the last 97 years, in such a long period of time many of its workers have made an impact in many sections of the society, because it is working in every section of the society from east to west and north to south. Today, the workers who have come out of the Rashtriya Swayamsevak Sangh are running big enterprises in the country from individual enterprises. Similarly, Sangh workers who are interested in politics have also reached high peaks of politics. The Sangh has never and does not participate in direct organizational politics.
मुख्य शब्द राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आरएसएस, भारतीय राजनीति, चुनावी राजनीति ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Rashtriya Swayamsevak Sangh, RSS, Indian Politics, Electoral Politics.
प्रस्तावना
भारत के इतिहास में अनेकों संगठन बने और लुप्त हो गए। कुछ लुप्त होने की दहलीज पर हैं, कुछ नए संगठन भी बन रहे हैं। कुछ संगठनों में वैचारिक मतभेद होने के कारण कई और संगठन बन गए। राजनैतिक संगठनों में यह परम्परा अब समान्य होती जा रही है। लेकिन एक संगठन ऐसा भी है जिसकी स्थापना को हुए 96 वर्ष हो गए है लेकिन वह आज तक बिना किसी झगड़े अथवा फूट के अनवरत चल रहा है बल्कि और बड़ा होता जा रहा है।
अध्ययन का उद्देश्य उपरोक्त दावे सही हैं या संघ की कार्यशैली और दर्शन के बारे में समझ की कमी के कारण सामने आए हैं? इस शोधकार्य का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनैतिक दृष्टिकोण और भूमिका पर प्रकाश डालने का प्रयास करना है।
साहित्यावलोकन
इस संगठन का नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जिसकी स्थापना डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार[1] ने सन 1925 में विजयादशमी के दिन अपने 22 मित्रों के साथ मिलकर नागपुर में की थी। हालाँकि, इस संगठन का नाम अप्रैल 1926 में मतदान के माध्यम से तय किया गया था। नामकरण के लिए तीन नामों पर चर्चा की गयी थी, वो नाम थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जरीपटका मंडल और भारतोद्धारक मंडल। मतदान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 26 में से 20 मत प्राप्त हुए, जरीपटका मंडल को 5 और भारतोद्धारक मंडल को 1 मत मिला था।[2] प्रश्न यह है कि आखिर वह कौन सी शक्ति है जिसके कारण 2025 में 100 वर्ष का संगठन होने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ऊर्जावान बनाये हुए है? आज भी यह संगठन बच्चों, युवाओं और वृद्धों सहित हर आयु वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है, इसके अनेक प्रमाण आज देखने को मिलते हैं। ध्यानपूर्वक विश्लेषण करने पर पता चलता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बदलते समय के साथ स्वयं को बदलते हुए निरंतर प्रगति करता दिखता है। डॉ. हेडगेवार ने संघ की स्थापना करके इसकी बागडोर श्री गुरूजी[3] को सौंपी। श्री गुरूजी ने संघ की कार्यपद्धति और दर्शन का निर्माण किया। श्री गुरूजी के देहवसान के बाद मधुकर दत्तात्रेय देवरस[4] संघ के तीसरे सरसंघचालक बने फिर प्रो राजेंद्र सिंह[5] आये उनके बाद संघ की कमान के. सी. सुंदर्शन[6] संघ के हाथों में आयी और उनके बाद डॉ मोहन भागवत संघ प्रमुख के नाते संघ को लेकर चल रहे हैं। आज यह जानकारी सार्वजनिक है कि संघ का काम उसके एक तंत्र मैदान में लगने वाली शाखा के माध्यम से होता है। एक जानकारी के अनुसार वर्ष 2020 में सम्पूर्ण भारत में 62477 शाखायें थीं।[7] राजनीति एक ऐसा पहलु है जो समाज के हर अंग को छूता है, कोई चाहकर भी इससे दूर नहीं रह सकता। जब भी भारत में चुनावों की घोषणा होती है तब यह बात मीडिया में जोर शोर से उछलकर बाहर आती है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत सुनिश्चित करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बहुत बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है। यह रोचक होता है कि देश दुनिया की मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सबसे बड़े कारक के रूप में प्रस्तुत करते है। आम धारणा यह है कि भाजपा को चुनाव जिताने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर संभव प्रयास करता है और जब चुनावी प्रचार की बात आती है तो उसके कार्यकर्ता हर प्रकार से नेतृत्व करते हैं।[8]
मुख्य पाठ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और चुनावी राजनीति  
भारत में राजनैतिक चुनावों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा निभाई गई भूमिका को समझने के लिए राजनीति के बारे में आरएसएस के दृष्टिकोण और 1977 तक भारतीय जनसंघ के साथ उसके संबंधों और उसके उत्तराधिकारी भारतीय जनता पार्टी के साथ 1980 के बाद के संबंधों के विकास पर दृष्टि डालने की आवश्यकता है और इसके लिए हमें लगभग सात दशक पीछे जाना होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को राजनीति से कैसे निपटना चाहिए, इस पर पहली बड़ी बहस जुलाई 1949 में इस पर महात्मा गांधी की हत्या को लेकर लगाए गए प्रतिबंध को हटा दिए जाने के बाद शुरू हुई थी। विभाजन के दौरान हिंदुओं और सिखों को बचाने में अग्रणी भूमिका निभाने के कारण आरएसएस के बढ़ते प्रभाव से कांग्रेस सावधान होती जा रही थी। उसको महात्मा गांधी की हत्या के लिए दोषी ठहराकर और इस पर प्रतिबंध लगाकर संघ को कुचलने का अवसर मिला। लेकिन आरएसएस के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला और नेहरू सरकार को प्रतिबंध हटाना पड़ा।[9]
आरएसएस पर लगे प्रतिबंध के दौरान इसके कार्यकर्ताओं का बहुत उत्पीड़न हुआ लेकिन उन दिनों राजनीतिक मोर्चे पर कोई भी आवाज संघ के समर्थन में नहीं उठी। इसलिए प्रतिबंध हटने के बाद संघ में विभिन्न स्तरों पर बहस शुरू हो गई। इसके कार्यकर्ताओं का एक वर्ग चाहता था कि इसे एक राजनीतिक दल में परिवर्तित हो जाना चाहिए और राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए। लेकिन संघ के दूसरे सरसंघचालक श्री गुरूजी ने स्पष्ट रूप से कहा संघ का सक्रिय राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होगा और यह सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करना जारी रखेगा। तब से लेकर आज तक संघ का यही दृष्टिकोण रहा है। संघ का दृढ़ विश्वास है कि एक सामाजिक संगठन के रूप में कार्य करके समाज में स्थायी परिवर्तन लाया जा सकता है।
भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
भारतीय जनसंघ जो ​​भाजपा का मूल संगठन था, की स्थापना 1951 में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी। डॉ मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नहीं थे। वह नेहरू कैबिनेट के पूर्व सदस्य थे और हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे। मुखर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध करते हुए नेहरू कैबिनेट से त्यागपत्र दे दिया था।
मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना से पहले श्रीगुरुजी से मुलाकात की और उनसे संघ के कार्यकर्ता देने आग्रह किया ताकि मुखर्जी को पार्टी बनाने में मदद मिल सके। इसके कारण अगले कुछ वर्षों में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख उन लोगों में शामिल थे जिन्होंने भारतीय जनसंघ के निर्माण में मदद की। यह व्यवस्था 1977 तक जारी रही लेकिन आपातकाल के कारण भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया। इसके बाद जब 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा संगठन प्रबंधन के लिए भाजपा को प्रचारकों को उधार देने की प्रथा फिर से शुरू हुई और अब तक जारी है। भाजपा में काम करने वाले प्रचारकों को आमतौर पर भाजपा की राष्ट्रीय और राज्य स्तर की इकाइयों में संगठन मंत्री आदि पदों पर नियुक्त किया जाता है। उनका मुख्य कार्य संगठनात्मक स्तर पर भाजपा को मजबूत करने में मदद करना होता है।
हमारे शोध अनुसार जहां तक संघ का संबंध है, इसका प्राथमिक कार्य अपनी दैनिक 'शाखा' आयोजित करना और अच्छे चरित्र वाले स्वयंसेवकों यानी कार्यकर्ताओं को निर्मित करना है। ये सभी स्वयंसेवक किसी भी राजनीतिक दल के लिए काम करने के लिए स्वतंत्र हैं और उन्हें केवल भाजपा के लिए काम करने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल, संघ के वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत से सितंबर 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में संघ के तीन दिवसीय संवाद कार्यक्रम में विशेष रूप से पूछा गया था कि संघ के प्रचारक केवल भाजपा के लिए संगठन मंत्रियों के रूप में काम क्यों करते हैं, वे किसी अन्य राजनीतिक दल के लिए काम क्यों नहीं करते ?
इस प्रश्न के उत्तर में डॉ मोहन भागवत ने भाषण देते हुए कहा था, “संघ संगठन मंत्री को उन लोगों को देता है जो इसकी मांग करते हैं। अभी तक किसी और ने इसकी मांग नहीं की है। अगर कोई इसके लिए पूछेगा, तो हम इस बारे में सोचेंगे। अगर वे कुछ अच्छा काम करना चाहते हैं, तो हम उन्हें प्रचारक जरूर देंगे, क्योंकि 93 साल में हमने किसी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं किया है। हमने एक नीति का समर्थन किया है और जब हम किसी नीति का समर्थन करते हैं तो जैसे-जैसे हमारी ताकत बढ़ती है, इसका लाभ राजनीतिक दल जो इस नीति का समर्थन करता है उस तक भी पहुंचता है। इसलिए जो इसका लाभ उठा सकते हैं, वे ऐसा करते हैं। हमने पार्टियों के लिए काम नहीं किया है और हम ऐसा नहीं करेंगे। अब अगर हमारी वजह से कोई फायदा उठा सकता है, तो यह उन्हें सोचना है कि वह फायदा कैसे मिले। हम राजनीति नहीं करते, राजनीति करने वाले करते हैं।"[10]
चुनावी राजनीति के बारे में आरएसएस के दृष्टिकोण और इस संदर्भ में इसकी भूमिका को लेकर सुनील आंबेकर अपनी पुस्तक 'दी आरएसएस रोडमैप्स फॉर थे 21st सेंचुरी' में लिखते हैं, "निस्संदेह, संघ परिवार के संगठनों का काम राजनीति और चुनावी राजनीति को प्रभावित करता है। जो भी राजनितिक दल संघ परिवार के संगठनों के मुद्दों या अभियानों के प्रति संवेदनशील होगा उसे सत्ता की दौड़ में लाभ होगा। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदुत्व के विचार ने राजनीति के अनेकों पहलुओं को प्रभावी रूप से चुनौती दी है और इसका देश के राजनीतिक विमर्श में बहुत महत्व है। चुनाव अपने आप बहुत व्यापक लोकतांत्रिक घटनाएं हैं और उनके दौरान संघ परिवार के संगठन जो काम करते हैं उसके बारे में बहुत उत्सुकता रहती है। हालांकि, सैद्धांतिक रूप से संघ और अनुषांगिक संगठन विशुद्ध रूप से राजनीतिक अभियानों या राजनीति में शामिल नहीं होते हैं। किसी भी अनुषांगिक संगठन का कोई भी वरिष्ठ पदाधिकारी चुनाव प्रचार में भाग नहीं लेता है। इस पहलू के बारे में पूर्ण स्पष्टता है, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर कार्यकर्ता भाग ले सकते हैं।”[11]
सुनील आंबेकर आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत और संघ के वरिष्ठ अधिकारी सुनील आंबेकर एक ही बात कह रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दलगत राजनीति और चुनावी राजनीति से प्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं है। लेकिन इसके कार्यकर्ता व्यक्तिगत रूप से भाग ले सकते हैं इसके लिए उन्हें संघ के पदों को छोड़ना होता है। इसलिए जब मीडिया में संघ के भाजपा के लिये प्रचार करने या काम करने की बातें होती हैं, वास्तव में संघ के सिद्धांतों से सर्वथा विपरीत होती हैं। देश के नागरिक होने के नाते हर व्यक्ति संविधान प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करके अनेक कार्य कर सकता है और संघ के स्वयंसेवक भी इस देश के नागरिक हैं।

निष्कर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सैधांतिक रूप से एक सांस्कृतिक संगठन है और हिन्दू संगठन का काम करता रहता है। इसका यह काम शाखा के माध्यम से होता है। लेकिन जैसा की हमने प्रस्तावना में लिखा है कि देश के इतिहास में अनेकों संगठन बने और गायब हो गए लेकिन संघ 2025 में अपनी शताब्दी अर्थात 100 वर्ष पूरे करने जा रहा है। यह बात अन्य संगठनों के विपरीत है क्योंकि वे सभी या तो लुप्त हो गए या टूट गए, जबकि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ अपनी स्थापना से लेकर वर्तमान समय तक बढ़ा है। बल्कि इसने 40 के लगभग अनुशांगिक संगठन भी खड़े किये हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, राष्ट्र सेविका समिति जैसे कई देशव्यापी संगठन इसके अनुशांगिक संगठन हैं। इन सभी संगठनों में देश के नागरिक ही कार्यकर्ता होते हैं, जिनका अपना अपना सामाजिक स्तर और प्रभुत्व होता है और वे हर स्तर पर लोकतंत्र के हर पहलु को प्रभावित करते हैं। कदाचित राजनीति भी उन पहलुओं में से एक है। इसलिए संघ से निकले हुए कार्यकर्ता आज देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और बड़े बड़े मंत्री हैं। लेकिन संगठन के रूप में संघ एक सांस्कृतिक संगठन हैं। इसके कार्यकर्ता संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार के शब्दों का अनुपालन करते हैं," संघ कुछ नहीं करेगा, स्वयंसेवक सब कुछ करेंगे।" राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन कहलाता है। भारत के साथ साथ दुनिया के अनेक देशों में इसका काम है। भारत के बाहर यह हिन्दू स्वयंसेवक के नाम से जाना जाता है। इसके 40 के लगभग अनुशांगिक संगठन है। जिनका काम देशव्यापी है और शायद ही समाज का कोई ऐसा वर्ग है जिसमें संघ का काम नहीं है। यह किसानों, मजदूरों, व्यवसायियों, महिलाओं, विद्यार्थियों, संस्कार के क्षेत्र, शिक्षा के साथ साथ बहुत से सामजिक क्षेत्रों में अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से काम करता है। सैद्धांतिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सक्रिय राजनीति और चुनावी राजनीति से कोई संबंध नहीं है। इसका काम केवल दैनिक शाखा का आयोजन करना ही है। शाखा के माध्यम से राष्ट्र निर्माण के लिए चरित्रवान लोग निर्मित करने का काम यह करता है। शाखा प्रतिदिन खुले मैदान में लगने वाला एक घंटे का कार्यक्रम होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वर्तमान में 60000 से अधिक दैनिक शाखाएं देशभर में चलती हैं। जिनमें लाखों कार्यकर्ता भाग लेते हैं। साथ ही इसके अनुषांगिक संगठनों के करोड़ों कार्यकर्ता भी हैं जो अपने संगठनों के मुद्दों के अनुसार काम करते हैं। ये सभी कार्यकर्ता अलग-अलग पृष्ठभूमि और सामर्थ्य वाले होते हैं। स्वाभाविक है जहाँ वे रहते हैं उनका समाज में प्रभुत्व होगा ही। इसी समार्थ्य और प्रभुत्व के कारण संघ के कार्यकर्ता समाज के अनेक कामों को प्रभावित करते हैं। कदाचित इससे राजनीति भी प्रभावित होती है। लेकिन यह प्रभाव कार्यकर्ताओं का व्यक्तिगत होता है न कि संघ के संगठन का। क्योंकि संघ सैद्धांतिक तौर पर सांस्कृतिक संगठन है न कि राजनीतिक।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. श्याम बहादुर वर्मा, हमारे हेडगेवार जी, 2107, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 1- 232 2. एन. एच. पालकर, डॉ हेडगेवार, 2000, भारतीय विचार साधना, पुणे, पृष्ठ 136 3. संदीप देव, हमारे गुरूजी, 2017, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 1-312 4. रामबहादुर राय, राजीव गुप्ता, हमारे बालासाहब देवरस, 2019, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 1-456 5. देवेंद्र स्वरुप, ब्रिज किशोर शर्मा, हमारे रज्जु भैया, 2016, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 1-420 6. बलदेव भाई शर्मा, हमारे सुदर्शन जी, 2017, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 1-536 7. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा वर्ष 2021 की रिपोर्ट के अनुसार 8.https://navbharattimes.indiatimes.com/elections/assembly-elections/uttar-pradesh/news/rss-active-in-62-assembly-seats-of-gorakhpur-area-as-up-assembly-election-2022/articleshow/89922140.cms 9. रतन शारदा, 2020, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: परत दर परत, ब्लूम्सबरी, दिल्ली, पृष्ठ 328 10. यशस्वी भारत, 2021, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 264-265 11. सुनील आंबेकर, 2019, दी आरएसएस रोडमैप्स फॉर थे 21st सेंचुरी, रूपा प्रकाशन, दिल्ली, 144-145