ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- II March  - 2022
Innovation The Research Concept
प्रसाद जी की ललकार का परिसर: सत्ता है नारी की!
The Premises of Prasad ji Challenge: Satta Hai Nari Ki!
Paper Id :  15876   Submission Date :  15/03/2022   Acceptance Date :  20/03/2022   Publication Date :  25/03/2022
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रामाश्रय सिंह
वरिष्ठ सहायक आचार्य
हिंदी विभाग
महात्मा गाँधी कशी विद्यापीठ
वाराणसी ,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश प्रसाद जी नाटककार फिल्मकार, संगीतकार और मनुष्यता के प्रतिमान गढ़ने वाले साहित्यकार हैं। कवि पक्ष उतना ही मजबूत है। जितना जीवन पक्ष। यानी जितना वे रचते हैं, उतना ही जीते भी हैं। मानवीय संवेदना के उनके परिसर में न केवल चिड़ियों के लिए, पेड़ों के लिए, पर्यावरण के लिए जगह है। बल्कि उससे ज्यादा नारी को परिष्कृत करने वाली सभी संवेदनाओं के लिए जगह है। वही मनुष्यता का ऐसा दस्तावेज जो अपने समय की क्रूरता और अन्याय को चुनौती देता हो। अतः यह शोध लेख वृहत्तर स्तर पर भारतीय समाज, जीवन और उसके विरोधा भाषों की छुअन और टीस को भी महसूस करायेगी।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Prasad ji is a playwrightes, filmmaker, composer and litterateur who created the paradigm of humanity. The poetic side is just as strong as much as life. That is, the more they create, the more they live. There is room not only for the birds, for the trees, for the environment in his complex of human sensibilities. Rather than that, there is room for all the sensibilities that refine the woman. The same document of humanity that challenges the cruelty and injustice of its time. Therefore, this research article will also make the Indian society, life and its contradictory languages ​​feel the touch and tear at a larger level.
मुख्य शब्द प्रसाद जी, नारी, राष्ट्ररक्षा, आन्दोलन।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Prasad ji, Women, National Defense.
प्रस्तावना
प्रसाद जी के समय नारी की स्थिति अच्छी नहीं थी। उन्हें समस्त अधिकारों से दूर रखा गया था। यही कारण है कि प्रसाद जी ने उन लोगों को ललकारा। उनके सामने नारी के अस्तित्व की पहचान करायी, जिनके निगाह में नारी दोयम दर्जे की थी। अस्तु विवाह के अलावा भी नारी का अपना अस्तित्व है। वह अपना ध्यान खुद रख सकती है। समाज के बेहतरी में सहयोेग दे सकती है। नारी को खुश रहने के लिए पति का होना आवश्यक नहीं है। वह स्वतंत्र है अपने लिए। तुम भूल गये पुरुषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की।। दरअसरल प्रसाद की नारी अलग खड़ी होती हैं। उनकी नारी राष्ट्ररक्षा के लिए लड़ती हैं। तलवार चलाती हैं। युद्ध में सैन्य संचालन करती हैं। इन सब के मूल में गाँधी का सुधारवादी आन्दोलन है। जिसको गति प्रसाद ने दिया। उसी से उन्होंने नाटक कहानी, उपन्यास गढ़ने में सफल भी हुए। यहाँ ध्यान देने की बात है कि प्रसाद के समय स्त्रियों को घर से बाहर निकलना कठिन था। हम उनके युद्ध की बात कर रहे हैं। इस शंका का समाधान उनकी ललकार है। जिस तरह से मारने वाले से ज्यादा अधिकार बचाने वाले का होता है वही मेरा मानना है कि उससे ज्यादा अधिकार ललकारने वाले का है। जैसा कि शीर्षक से जान पड़ता है। तो इस शोध लेख का सार यही है। कल्याणी सैन्य संचालन के रूप में दिखती है, अलका तीर चलाती है, बल्कि घायलों की रक्षा करती है, साथ ही साथ सेवा भी करती है। यानी प्रसाद की नारी कर्मण्य रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।[1] इस बात की पुष्टि प्रसाद जी ने आजादी के पहले ही विचार कर चुके थे। जो उस समय के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। प्रसाद के साहित्य में नारी की खोई हुई प्रतिष्ठा उनकी नजर में था।
अध्ययन का उद्देश्य कहना नहीं होगा प्रसाद की नारियाँ परिस्थितियों से जुझती है। लड़ती है। जैसा कि आजकल का नारा है लड़की लड़ सकती है। आत्म हत्या नहीं करती। क्लीव पति व पुनर्विवाह उनकी खोज है। पितृसत्तात्मक समाज इस तरफ ध्यान ही नहीं देता। इसका प्रमाण ’‘धु्रवस्वामिनी’’ नाटक है। प्रसाद रामगुप्त के राजा होते भी चन्द्रगुप्त गुप्त से पुनर्विवाह कराते है। यह सिद्ध भी कराते हैं कि पति पतित व आचरण से गिरा हो तो उससे सम्बन्ध विच्छेद कर सकती है। आज के समय में पति हत्यारा, लुटैरा, बलात्कारी हो तब तलाक की व्यवस्था है। प्रसाद की नारीपात्रा धु्रवस्वामिनी इससे आगे कई किलोमीटर जाती है। यहाँ पाठक, आलोचक को नई दृष्टि प्रदान करते हैं। ललकारते हैं कि सत्ता नारी की है। चाहे राजा कोई बने। मानो प्रसाद धु्रवस्वामिनी जैसे स्त्री पात्र की वाणी में क्रान्ति को आमंत्रण दे रहे थे।[2] .यह कारण है कि स्थान-स्थान पर जर्जर मान्यताओं, परम्परा, कुरीतियों तथा धर्मान्धता की खिल्ली उड़ाई है।
साहित्यावलोकन
प्रसाद के साहित्य में नारी पात्र जहाँ एक ओर भावुक, त्यागशील, कर्त्तव्य परायण, सेवा परायण, कोमल उदार हैं। यह उदारता स्कन्धगुप्त में दिखाई पड़ता है। उनके नारी पात्र सचमुच आसुओं से सींचे और मधु में डुबोए गये हैं। पात्रों में बुद्धि का वैशिष्ट्य दिखलाया गया है। यानी हृदय की सम्पूर्ण विभूतियों का प्रसार स्त्रियों में अंकित है। जैसे- राजनीति की आग से खेलने वाली राजमर्हिषियाँ, जीवन युद्ध में प्रेम का सम्बल लेकर कूदने वाली स्वामिमानिनी राजपुत्रियाँ, वही जीवन के भंवर में पड़ी हुई मध्यवर्गीय दुर्बल नारियाँ। स्कन्दगुप्त नाटक में देवकी, जय माला, अनन्त देवी, विजया, देवसेना तथा कमला आदि सब इस प्रकार की नारियाँ है।
मुख्य पाठ
अनन्तदेवी पात्रा से नारी सत्ता की महत्व स्थापित होती नजर आती है। सम्राट कुमार गुप्त की छोटी रानी है। वह अपने पुत्र पुरुगुप्त को सिंहासन पर बिठना चाहती है। इसके लिए वह अपने पति को विष पिला देती है। कुमार गुप्त की मृत्यु हो जाती है। उसका पुत्र सिंहासन पर नहीं बैठ पाता है। इसके बाद वह स्कन्द गुप्त पर भी लाक्षना लगाती है। षडयन्त्र रचती है। अंत में बंदी बना ली जाती है। वह स्कन्दगुप्त से क्षमा की प्रार्थना करती है। स्कन्दगुप्त उसे क्षमा कर देता है। उसके बेटे को (पुरुगुप्त) को युवराज पद प्रदान कर देता है। यहाँ अनन्त देवी शासन-मूलक मनोवृत्ति की नारी है। कहती है- भिक्षु समझ कर बोलो नहीं तो मुण्डित मस्तक भूमि पर लेटने लगेगा।[3]  यहाँ प्रसाद जी के ललकार को समझने में सुविधा होगी जिसको एक वाक्य में प्रस्तुत कर दिया है- एक दुर्भेद नारी हृदय में विश्व प्रहेलिका का रहस्य बीज है। वह विदेशी आक्रमणकारियों से भी सन्धि करने का प्रयत्न करती है। फिर भी उसका पुत्र गद्दी पर बैठता है।
कहना न होगा ‘‘देवकी’’ मगघ सम्राट की बड़ी रानी है। वह स्कन्धगुप्त की माँ है। वह पतिव्रता है। शर्वनाग उसका बध करना चाहता है। तब भी उसका मन अच्छे भावों से पूर्ण होता है। जब स्कन्धगुप्त शर्वनाग को पकड़कर उसका बध करना चाहता है तब वह स्कन्द से उसे क्षमा दान दिलवा देती है। स्कन्द से आग्रह करती है- वत्स इसे किसी विषय का शासक बना कर भेजो, जिसमें दुःखिया रामा को किसी प्रकार का कष्ट न हो। सच में यह सत्ता नारी की है, वह उसके चरित्र की करूणामयता और आदर्श वादिता का ही प्रमाण है। इसी तरह स्कन्दगुप्त की पात्रा ‘‘जयमाला’’ यह राजस गुणों से सम्पन्न स्त्री है। उसमें राज्य एवं भोग-विलास के प्रति आसक्ति है। पर जब उसमें आदर्श वादी संस्कार जागते हैं तो वह अपने पति बंधुवर्मा से कहती है- पतिदेव आपकी दासी क्षमा माँगती है। मेरी आँखे खुल गयी। आज हमने जो राज्य पाया है वह विश्व साम्राज्य से ऊँचा है। महान है। यहाँ आदर्शवाद का पूरा का पूरा परिपाक हो जाता है। प्रसाद जी शायद यह नारी जाति की प्रतिष्ठा का पूरा ख्याल रखा है, इसी तरह ‘‘विजया’’ मालव के धन कुबेर की कन्या है। उसकी समस्त आकांक्षाओं का केन्द्र सौन्दर्य एवं ऐश्वर्य है। वास्तव में विजया का चरित्र सर्वाधिक गत्यात्मक है। वह अपने चरित्र की दुर्बलता और मन की चंचलता के कारण पुरूगुप्त भटार्क एवं स्कन्दगुप्त के बीच थपेड़े खाती फिरती है। ऐसे पात्रों को भी जयशंकर प्रसाद गढ़ते हैं। प्रसाद जी स्कन्दगुप्त नाटक में ही ‘‘देवसेना’’ यह मालव कुमारी है। इसका सम्पूर्ण नाट्य साहित्य की चिरन्तन उपलब्धि है। उसकी सारी अलौकिकता त्याग, देशप्रेम, सेवा, सहिष्णुता और रहस्योन्मुखी भावनाएँ दिखलाई देती है। मालव कुमारी देवसेना का पावन चरित्र प्रसाद जी की उर्वर कल्पना है। उसके चरित्र में नारी जीवन की आदर्श, त्याग, उदारता, समरसता, भावुकता, गम्भीरता आदि इस भॉति प्रतिष्ठित नहीं है। वह कण-कण के स्पन्द में संगीत स्पन्दित देखती है। उसका विचार है कि प्रत्येक परमाणु के मिलन में एक सम है। प्रत्येक हरी-भरी पत्ती के हिलने में एकलय है। मनुष्य अपना स्वर विकृत कर रखा है। इसी से तो उसका स्वर विश्ववाणी में शीघ्र नहीं मिलता। अन्य पात्र ‘‘कमला’’ व ‘‘रामा’’ के चरित्र की पड़ताल की जाय तो प्रसाद जी ने कमला के माध्यम से भटार्क को अपनी कोख का कलंक समझती है। जब उसको ज्ञात होता है कि भटार्क ने कुंभा का बाँध तुंडवा दिया है तो हृदय में गहरी पीड़ा का अनुभव करती है। वह यहाँ तक की भटार्क को नरक का कीड़ा तक कह डालती है। वही रामा शर्वनाग की पत्नी है। उसके हृदय में राष्ट्र के प्रति सम्मान है। वह राष्ट्र की रक्षा को अपना पहला कर्त्तव्य मानती है। इसके लिए अपनी पति का विरोध करने से नहीं चूकती। बाद में उसी के कारण स्कन्दगुप्त शर्वनाग की हत्या नहीं करता। इस प्रकार उसके राष्ट्र के प्रति समर्पण का भाव दिखाई पड़ता है। कुल मिलाकर देखें तो प्रसाद जी की ललकार सभी पात्रों में स्पष्ट दिखाई पड़ती है। कही भावुक तो, कहीं त्याग, तो कहीं स्नेह करना भी जानती है। वह बलिदान की ऊँची से ऊँची सीढ़ी चढ़कर मानव का पथ प्रदर्शक बनती हैं। प्रसाद जी के नाटकों, कहानियों तथा उपन्यासों आदि में नारी की इस श्रद्धा, त्याग एवं उदार रूप का चित्रण मिलता है। उनके नारी पात्रों में जिन आदर्शों का मंजुल समन्वय हुआ है उनमें प्रेम सम्बन्धी आदर्श, राष्ट्र एवं जाति सम्बन्धी आदर्शों की पराकाष्ठा व्यंजित हुई है। ये सभी नारी पात्र जीवन की एक नूतन संदेश देते हैं। भूखे मन को विचार सामाग्री प्रदान करते हैं। कर्तव्या कर्त्तव्य का समुचित ज्ञान कराते हैं। इस बात को इस उदाहरण से समझा जा सकता है आपको अकर्मण्य बनाने के लिए देवसेना जीवित नहीं रहेगी सम्राट। यही कहकर बात रूकती नही है। उसका प्रेम साधना मय है। इसलिए उसकी मान्यता हैं। कष्ट हृदय की कसौटी है। तपस्या अग्नि है सम्राट। यदि इतना भी नहीं कर सके तो क्या।[4]
प्रसाद की कहानियों में भी स्त्री पात्र स्वामिनी, स्वाभिमानी, त्याग शील संघर्षशीला, स्वालम्बी एवं प्रेम और कर्त्तव्य निर्वाह करने वाली हैं। मधुलिका नायिका है। अपनी पैतृक सम्पत्ति बेचना नहीं चाहती है। राजा का दिया हुआ मूल्य को भी नहीं चाहती है। यहाँ तक की कुछ स्वर्ण मुद्राएँ भी उसे स्वीकार नहीं है। बल्कि जीविका का कोई साधन भी नहीं है। यहाँ प्रसाद जी ‘‘पुरस्कार’’ के माध्यम से नारी सत्ता को बहुत ही सम्मान पूर्वक स्थापित करवाते हैं। राजा को ललकारते हैं। जो उनकी स्त्री पात्र मधुलिका है राजा द्वारा उसके धन को ले लिया जाता है, फिर भी वह दूसरे के यहाँ काम करती है। अपनी सत्ता स्थापित करती है। इसी तरह ‘‘आकांशदीप’’ कहानी की चम्पा में दिखाया है। चम्पा मानसिक द्वन्द्व को झेलती है। वह कभी जलदस्यु बुद्धगुप्त से प्रेम करती है। कभी हत्यारा समझकर घृणा करती है। अंतिम में वह बुद्धगुप्त को स्वदेश लौटने की प्रेरणा देती है। स्वयं द्वीप के भोले-भाले प्राणियों की सेवा करने में अपना समय व्यतीत करती है। मातृ-पितृ भक्ति की याद में उस दीप-स्तंभ में दीपक जलाती है आज भी आकाश में आकाशदीप जलते रहते है। सालवती अत्यन्त द्ररिद्र है। दरिद्र होना अच्छी बात है। लेकिन स्वाभिमानी होना उससे बड़ी बात है। यही कारण है कि राजा अभय कुमार उसे दान देता है पर वह दान को अस्वीकार करती है। प्रसाद की नारी अपनी स्वावलम्बी रूप का परिचय देती हैं। ‘’सालवती’’ कहानी में प्रसाद की ललकार की झलक दिखाई पड़ती है। ‘‘आंधी’’ कहानी की कंजर युवती साथिया मजदूरी करके जीने में ही सुख का अनुभव करती है। वह फूलों का व्यवसाय करती है। यानी फूल बेचती है। सेमर की रूई बीनती है। लकड़ी इकट्ठा कर बेचती है। उसको किसी का सहारा नहीं है। खुद का सहारा है। वह खुद पर कितना ज्यादा विश्वास पैदा करती है। सच में ये पुरूषों की प्रेरक शक्ति भी है जो प्रसाद के युग की एवं उस युग की नारी की विशेष आवश्यकता थी।
  कहना नहीं होगा प्रसाद जी ने प्रेम को बहुत महत्व दिया है। ऐसी बहुत सी पात्र हैं, जैसे- श्रद्धा, मल्लिका, तितली, देवसेना, देवकी वासवी इत्यादि जिनकी क्षमामयी मूर्ति के सामने पुरूष भी नतमस्तक होते हैं, उनकी छाया में विश्रांति पाते हैं। प्रसाद जी  अपने ललकार से एक नये युग का सूत्रपात किया है। आधुनिक नाट्य साहित्य के अग्रदूत हैं। इसकी झलक नारी पात्रों में मिलती है। जैसे पुरूष क्रूरता है। स्त्री करूणा है। जो अन्तर्जगत का उच्चतम् विकास है। जिसके बल पर समस्त सदाचार ठहरे हुए हैं। इसलिए प्रकृति ने उसे इतना सुन्दर और मनमोहक आवरण दिया है। सच में प्रसाद जी ने अपने नाटकों में नारी को इसी रूप में प्रस्तुत किया है। प्रसाद जी की नारी पात्रा कविता कानन से उतरी अप्सरायें हैं। भावना, कर्त्तव्य, संगीत और संघर्ष, अतृप्ति बलिदान के धूप-छाही रंगो से अनुरंजित व्यक्तित्व हमारे मन मस्तिष्क पर छा जाता है। प्रसाद के नारी पात्रों में दूर की रागिनी, जीवन के संघर्ष में अपनी सहज उदारता, साहस एवं सहानुभूति से अपने युग पर, अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप डाल देती है। पावन प्रेम की व्यंजना व संगीत प्रियता इन दोनों की धूप-छॉह में हँसती खेलती वह जीवन संग्राम में नई उर्जा भर देती है। इनकी नारी भावना का चरम आदर्श सभी पात्रों में भरा है। प्रसाद जी युगधर्म का निर्वाह करते हुए ही कालातीत मानवधर्म को सर्जनात्मकता प्रदान की है। उन्होंने इतिहास के धरातल पर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित किया है। कारण कि युग बदल रहा था। जब सत्याग्रह आन्दोलन में कंधे से कन्धा मिलाकर नारियों ने भाग लिया। उसी समय समाज के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। नारी पुरूष की दासी एवं सम्पत्ति न रह कर सहचरी के रूप में देखी जाने लगी। स्त्री के इसी महत्व को दार्शनिक दृष्टि से समझा जा सकता है-
’’समय पुरूष और स्त्री की गेंद लेकर दोनों हाथों से खेलता है।’’ स्त्री आकर्षण करती है, पुरूष उछाल दिया जाता है। पुरूष है कौतूहल और प्रश्न स्त्री हैं। विश्लेषण यानी सभी बातों का समाधान।

वस्तुतः देश के लिए सब कुछ लुटा देने की भावना ही देश प्रेम का मेरूदण्ड है। प्रसाद जी इसको इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
जिये तो सदा उसी के लिए,
यही अभिमान रहे, यह हर्ष
निछावर कर दे सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष।।
निष्कर्ष हम शोध लेख के माध्यम से कह सकते हैं कि प्रसाद जी ने केवल अपने अतीत पर रीझते हैं, न वर्तमान पर खीझते हैं। उनके पास विराट् संस्कृति चेतना है। वे नारी सत्ता को अतीत की स्वर्णिम सीमाओं से बाहर निकाल कर वर्तमान की भौतिकवादी पथरीली धरती तक फैला देते हैं समाज को ललकारते हैं, और कहते हैं नारी संस्कृति चेतना, राष्ट्रीयता और युगधर्म की त्रिवेणी है। इस लिहाज से उनकी नारी दृष्टि आज के युग में प्रासंगिक है [5] समस्त विडम्बनाओं से जकड़ने के बावजूद आज समाज को चुनौती दी हैं। दरअसल स्त्री कमजोर नहीं है, उसे झूठा पाठ पढ़ाया गया है। उसे महानता और त्याग का जामा पहनाया गया है। जिससे बाहर निकलना जरूरी है। आज की अपनी अस्मिता भूल अपने आत्म सम्मान को दबाकर यदि कोई चोट करें तो उसे सहन करके जीते रहने से उसे इनकार है। प्रसाद जी ने अपने नाटकों के विषय भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग अर्थात् बौद्धकाल, मौर्यकाल तथा गुप्त काल से चुने हैं। नारी दृष्टिकोण से स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी विशेष महत्वपूर्ण है। इसके पीछे कारण साफ है कि प्रसाद जी प्रयोगधर्मी नाटककार थे। बाल विवाह, अनमेल विवाह, छुआछूत, वर्ण व्यवस्था, नारी स्वातंत्रता धार्मिक अन्धविश्वास जैसी समस्याओं को नाटकों के माध्यम से हल ढूढ़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। प्रसाद के ललकार में औरतों की बहुत जानी पहचानी दुनिया थी। एकदम हम जैसी, हमारे बीच से उठी हुई। सहज जीवंत, मुहावरेदार भाषा में अनकहे को कहती है। उनकी भाषा। जीवन और माटी से फूटता उनका लेखन सीधे दिल की गहराइयों में उतरता है। जहाँ सिर्फ कला थी, कोई कौशल नहीं था और थी ईमानदारी अपने भोगे हुए सत्य की ईमानदार अभिव्यक्ति की। इसके पीछे मूल कारण वे यथार्थ से चेतना, चेतना से रचना और रचना से जीवन सत्यों तक पहुँचती है। इसलिए वे कभी भी बनावटी नहीं लगते हैं। शायद इसीलिए उनकी रचनाओं को पढ़कर हम विश्वसनीय रूप से उस समय की स्त्री चेतना और उसके इर्द-गिर्द फैले समय और समाज के भीतर झुलसती, करवट लेती और अपने लिए स्पेस तलाशती स्त्रियों को समझ सकते हैं। बहरहाल इस दुनिया ने उन्हें बहुत कुछ दिया। इज्जत, दौलत और प्रतिष्ठा के अलावा अवसाद पीड़ा भी। शायद सितारों की दुनिया में सुकून मिले उन्हें। प्रसाद की साहित्य ने स्त्रियों को बेहतर नागरिक खुद के प्रति सुदृढ़ अपने अधिकारों को समझकर उसके लिए रास्ता बनाना सिखाया, खुद के अस्तित्व को स्थापित करने के संघर्षों को धार देने का काम किया। प्रसाद जी के नारी पात्रों को समझने के लिए उदाहरण के रूप में मन्नू भण्डारी की कहानी ’’स्त्री सुबोधिनी’’ से शिक्षा ली जा सकती है- जो कटु सत्य से भरी है- इस देश में प्रेम के बीज मन और शरीर की पवित्र भूमि में नहीं, ठेठ घर-परिवार की उपजाऊ भूमि में ही फलते-फूलते हैं। भूलकर भी शादी शुदा आदमी के प्रेम में मत पड़िए। दिव्य और महान प्रेम की खातिर बीबी बच्चों को दांव पर लगाने वाले प्रेमवीरों की यहाँ पैदावार करो।... उससे लगता कहने को न जाने कितना कुछ है। उनके अन्दर भरा हुआ कोई धधकती हुई ज्वालामुखी है। उनके भीतर जिसका निकल जाना और बाहर आना बेहद जरूरी है। मेरा चुपचाप सुनते जाना भी बस यही सच है। मेरे उदाहरण देने का तात्पर्य यह है कि स्त्री की सत्ता कितनी मजबूत है। मन्नू जी, राजेन्द्र यादव जी से अलग बेटी के विवाह के समय भी थी। इससे साफ जाहिर होता है कि कहीं न कहीं यह जरूर साबित करता है कि बंटी उनमें अटका और बचा हुआ रहा गया था। यानी प्रसाद जी की ललकार विल्कुल जायज है। स्त्री कहीं से कमजोर नहीं है। उसकी भी अपनी सत्ता है। इस उदाहरण से सिद्ध होता है। फिर भी एक सवाल अनुत्तरित रह जायेगा कि समाज का पितृसत्तावादी ढाँचा कब टूटेगा? और कब तक मुक्त होगा? प्रसाद जी की लेखनी के कमाल से नारी की वेदना विस्तार या पाठक की वेदना बन चुका है। इससे कब निजात मिलेगी?
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. आजकल नवम्बर 2021, पृ0 29 लेख-यशस्विनी पांडेय 2. वही पृ0 30 3. स्कन्दगुप्त- जयशंकर प्रसाद की रचना से 4. स्कन्दगुप्त- जयशंकर प्रसाद पुस्तक से 5. आजकल नवम्बर 2021 पृ0 31 6. आधुनिक युग के संदर्भ में जयशंकर प्रसाद की स्त्री दृष्टि- यश्वस्विनी पाण्डेय