ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- VIII September  - 2022
Innovation The Research Concept
पुरातात्विक स्रोत मृदभांड: प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति के अति महत्वपूर्ण स्रोत
Archaeological Source Pottery: Very Important Sources of Ancient Indian History Culture
Paper Id :  16010   Submission Date :  19/09/2022   Acceptance Date :  22/09/2022   Publication Date :  25/09/2022
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मो॰ सरवर अंसारी
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
पटना विश्वविद्यालय
पटना,,बिहार, भारत
सारांश पुरातात्विक सामग्री में मृद-भांड अपना एक विशेष स्थान रखते हैं। मृदभांडों के आधार पर किसी स्थान की प्राचीनता का पता लग सकता है। मृदभांड का प्रयोग प्रत्येक युग में होता रहा है। मृदभांड के निर्माण में लोग अपनी कला व कौशल का परिचय देते थे। मृदभांडों के आधार पर पुरातत्वविद मनुष्य के सामाजिक और आर्थिक जीवन की जानकारी देते हैं। सांस्कृतिक अनुक्रम में पूर्णतया सहायक सिद्ध होने से दो संस्कृतियों तथा दो देशों के व्यापारिक संबंधों पर प्रकाश डालते हैं। मृदभांड के आधार पर पुरातत्वविदों ने काल तथा युग निर्धारित किए हैं। ब्रह्मगिरी से प्राप्त मृदभांडों के आधार पर ही सर मार्टीमर व्हीलर ने पाषाण महाश्म और आदिकालीम सांस्कृतिक युगों का निर्धारण किया था।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Pottery holds a special place in the archaeological material. The antiquity of a place can be ascertained on the basis of pottery. The pottery has been used in every age. People used to show their art and skill in making pottery. On the basis of pottery, archaeologists give information about the social and economic life of man. Being completely helpful in the cultural sequence, throw light on the trade relations of two cultures and two countries. On the basis of pottery, archaeologists have determined the period and era. It was on the basis of pottery found from Brahmagiri that Sir Martimer Wheeler determined the Stone Mahasham and the primitive cultural ages.
मुख्य शब्द पुरातात्विक स्रोत, मृदभांड, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Archaeological sources, pottery, ancient Indian history, culture.
प्रस्तावना
विभिन्न स्थानों के उत्खनन से प्राप्त मृदभांड काल विशेष पर प्रकाश डालते हैं। हड़प्पा, मोहन जोदड़ों, रोपड़, कालीबंगा आदि स्थानों से प्राप्त मृदभांड प्रागैतिहासिक युग के समाज, धर्म और कला को उजागर करते हैं।
अध्ययन का उद्देश्य यह शोध-पत्र निम्नलिखित उद्देश्यों को द्यान में रखकर लिखा गया हैं: 1. प्राचीन भारतीय इतिहास के महत्व को समझना। 2. पुरातात्विक सामग्री में मृदभाण्डों के महत्व को उजागर करना। 3. विभिन्न संस्कृतियों की कलात्मक विशेषताओं से परिचित कराना।
साहित्यावलोकन
कौशाम्बी हस्तिनापुर, अद्विच्छेत्र, राजगृह, नालंदा आदि स्थानों के उत्खनन से प्राप्त मृद्भाण्ड विभिन्न एतिहासिक युगों के जनजीवन पर प्रकाश डालते हैं। मृदभाण्डों के प्रकार, बनावट, आधार, रंग-रूप मिट्टी तथा उस पर बनी चित्रकारी संबंधित काल की महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं। मृद्भाण्डों के प्रयोग से आर्थिक विषमता का भी सटीक अनुमान लगाया जा सकता है।
सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोध पत्र ऐतिहासिक विश्लेषण विधि पर आधारित हैं। इसके लिए शोध सामग्री को अन्य पुस्तकों से संकलित किया गया है। चूंकि शोध कार्य द्वितियक आकड़ों पर आधारित हैं, इसलिए शोधकर्ता द्वारा आनुभाविक दृष्टिकोण अपनाकर शोध कार्य को गति देने का प्रयास किया है।
विश्लेषण

भारत के विभिन्न भागों में उत्खनन से प्राप्त मृदभांड को पुरातत्वविदों ने पांच वर्गों में विभाजित किया है।

1. काले और लाल मृदभांड:- इन मृदभांडों के अन्दर तथा बाहर का ऊपरी भाग काले रंग का होता है और बाहर का निचला भाग लाल रंग का होता है। ऐसे मृदभांड प्राय मध्य भारत के माहेश्वर, नागदा, नवदाटोली, गुजरात के लोथल और रंगपुर तथा बिहार के सोनपुर क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। नग्वेदिक काल से पहले की जातियां इस प्रकार के मृद्माण्डों को प्रयोग में लाती थी। ये सभी लौह-युग से संबंधित माने जाते हैं तथा इनका समय लगभग 2000 ई० पू० को निर्धारित किया है।

2. गेरूए रंग के मृदभांड:- ये मृदभांड गेरूए रंग तथा लाल रंग के होते हैं गंगा क्षेत्र में ये प्रचुरता से पाए जाते हैं। हरिद्वार, बिजनौर बदायूँ आदि स्थानों से उत्खनन में प्राप्त हुए इनका समय लगभग 1200 ई० पू० निर्धारित किया गया हैं।

3. चित्रित धूसर मृदभांड:- ये मृदभांड कास्य युग से संबंधित हैं। ये मृदभांड चाक पर निर्मित होते थे तथा आवे पर पकाए जाते थे। राजस्थान, पंजाब तथा उत्तरप्रदेश के अनेक स्थानों से प्यालियां और तश्तरियां प्राप्त हुई है। काली पालिश वाले मृदभांडों के नीचे भी इस प्रकार के मृद्भांड प्राप्त हुए है। प्रारम्भिक आर्य इस प्रकार के मृदभांड प्रयोग में लाते थे तथा इनका समय लगभग 600 ई० पू० निश्चित किया गया है।

4. उत्तरी काली पॉलिश ये मृदभांड:- ये मृदभांडा लौह युग के परिचायक है। पुरातत्वविदों ने इन मृदगाण्डों का काल 600 ई॰ पू॰ से 200 ई॰ पू॰ के मध्य निर्धारित किया है, मृद्भाण्ड उत्तर में पेशावर तथा तक्षशिला से, दक्षिण में अमरावती से पूर्व में बानगढ़ तथा शिशुपाल गढ़ से पश्चिम में नासिक तथा विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

5. दांतेदार पहिए से चित्रित मृदभांड:- इन मृदभांडों का समय इतिहासकारों ने 200 ई॰ तक का स्वीकार किया है। ये दक्षिणी भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं। बंगाल में भी ऐसे मृद्भांड पाए गए हैं।

निर्माण:

पुरातात्विक जानकारी के अनुसार लगभग 5000 वर्ष पू० सिंधु प्रदेश में चाको पर उत्तम किस्म के मृदूमांड बनाए जाते थे। प्रागैतिहासिक पुरातत्व जानकारी प्राप्त होती है कि दक्षिणी भारत में अनगढ़ मृदभांड़ों का निर्माण चाक के बिना ही होता था। सम्भवतः स्त्रियां चाक चलाती थी और पुरुष द्वारा लकड़ी से ठोककर निश्चित आकार बनाया जाता था। प्राप्त साक्ष्यों से जाता ने अनुमान लगाया कि मृदभांडों के निर्माण कार्य में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी और कुम्हार के द्रुतगति चाक का प्रयोग सदैव पुरुष ही करते रहे होंगे चाक पर बड़ी संख्या में सुन्दर बर्तन बनाना सिन्धु घाटी की सभ्यता की विशेष उपलब्धि थी। डी० डी० कौशाम्बी ने व्यक्त किया हैं कि आर्यों के कोई विशिष्ट मृगांड नहीं थे। यद्यपि उत्तरी चित्रित धूसर मृगांक शीघ्र ही यह स्थान ग्रहण कर लेते हैं। लगभग 1000 ई० पू० की ताम्रनिधियों जो गंगा के मैदान से मिली है। उसको देखकर यह माना जाता है कि ताम्र वस्तुएं पहले मुद्धांडों के आये से ही तैयार की गई थी। परन्तु इन ताम्रनिधियां के साथ जितने भी मृद्भांड मिले हैं ये सारे अनगढ़ अधपके तथा गेरू से पोते हुए हैं और खोदते वक्त वो क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। हस्तिनापुर के प्रथम स्तर में अधपके घटिया दर्जे के गेरू- पुते जो मृद्भांड प्राप्त हुए हैं, वे सम्भवतः परवर्ती नाग लोगों के हो सकते हैं।

भारतीय पुरातत्ववेत्ता ईसा पूर्व की पांचवी और चैथी सदियों को उत्तरी ओपदार काले मृदभांड की प्रचुरता के युग के रूप में पहचानते हैं ये उन्नत किस्म के मृदनांड थे और 6ठी शताब्दी ई पू० में इनका प्रयोग द्वारा सम्भवतः तेल व मंदिरा रखने के पात्रों के रूप में किया जाता था। ईसा की प्रथम सदी पूर्व इनका प्रचलन बंद हो गया था।

काल निर्धारण:

भारत में नम पाषाण (युगीन सभ्यता के 6000 ई० पू० से मिले अवशेषों में गेहू और जो का उत्पादन, कच्ची ईंटों के आयताकार मकान, बड़े पैमाने पर पशुपालन आदि प्रमुख हैं। इस क्षेत्र में मृगांडों के अवशेष 5000 ई० पू० के आस-पारा मिलते हैं यो में उपलब्ध अवशेषों में प्राचीनतम हैं। इन समस्त विशेषताओं से युक्त इस क्षेत्र का प्राचीनतम और विस्तृत क्षेत्र मेहरगढ़ था। जहां की कृषक बस्ती 7000 ई० की स्वीकार की जाती है। पुरातत्वविदों का मत है कि कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने मृदभांड के निर्माण की कला भी इसी क्षेत्र से ली होगी।

उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में ही कश्मीर घाटी में 'बुजाहोम' और 'गुफकराल' नव पाषाण युग के अन्य महत्वपूर्ण केन्द्र थे यद्यपि इनका विकास 2500 ई० के 3 पू० के लगभग हुआ था तथा यहाँ भीअनेक प्रकार के मृदुभाङ प्राप्त हुए है। नव-पाषाण युग के पूर्वाेत्तर भारत विशेषकर असम व मेघालय की पहाड़ियों से प्राप्त मृदभांड विशिष्ट हैं जिन पर रस्सी से कलाकृतियां बनाई गई हैऔर गोली चिपकाएं गए हैं इनका समय लगभग 5000 ई० पू० निर्धारित किया गया हैं। पश्चिमी, पूर्वी एवं मध्यभारत में फैली ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में लाल स्तर पर काले रंग से चित्रित मृद्भाडों का प्रयोग होता था। इन ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में कायथ संस्कृति सबसे पुरानी हैं जो लगभग 2000 ई० पू० चम्बल नदी के क्षेत्र में फैली हुई थी। ताम्रपाषाणिक संस्कृति के अन्य प्रमुख केन्द्र थे उदयपुर के समीप बनारस संस्कृति, राजस्थान की धग्घर घाटी में साथी संस्कृति, नवदाटोली में मालवा संस्कृति, बिहार में चिरांद तथा दाइमाबाद और इनामगांव में जोखे। सिन्धु सभ्यता के मृदभांड चमकीले, गहरे लाल रंग के तथा मजबूत व अच्छी तरह से पके हुए हैं। ये चित्रित तथा सादे दोनों प्रकार के हैं। सादे मृदभांड अधिकत्तर लाल रंग के मिले हैं जबकि चित्रित मृदभांड काले व लाल दोनों रंगों के हैं। मृद्धांडों को सजाने के लिए विभिन्न तरीकों का प्रयोग किया जाता था। इन पर त्रिभुज, वृत, वर्ग तथा ज्यामितीय आकृतियों को उकेरा जाता था। वृक्ष, पौधे, पीपल के पत्तों के अतिरिक्त विभिन्न जीव-जन्तुओं के चित्र इन मृदभांड पर बनाए जाते थे। इनका आकार गोल घुन्डीदार, छिद्रयुक्त, घुमावदार होता था। चमकीले हड़प्पा मृदभांड प्राचीन विश्व में अपनी तरह के प्राचीनतम उदाहरण है। मृदभांड में प्याले, थालियां, कलश, मर्तबान, गिलास, कटोरियां, अनाज मापक इत्यादि सभी होते थे। सिन्धु सभ्यता में पाए गए मृदभांड के निर्माण में समरूपता विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं और इनका समय काल 2600 ई० पू० से 1800 ई० पू० के लगभग माना गया है। उत्तरवैदिक काल पुरातात्विक दृष्टि से चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति का काल हैं (1000 ई० पू० से 600 ई० पू०)। इस काल में अनेक प्रकार के मृदभांड मिले हैं -लाल मृदभांड़, काला - लाल मृदभांड, ओपदार काले मृदभांड तथा लाल मृदभांड सबसे ज्यादा मिले है क्योंकि यह सामान्य लोगों द्वारा प्रयोग में लाए गए होंगे और चित्रित धूसर मृदभांडों की संख्या कम हैं जो सम्भवतः विशिष्ट लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाते थे।

मौर्यकाल में काले ओपदार मृदभांड प्रचलित थे। पुरातत्वविदों ने इनका समय 323 ई० पू० से 184 ई॰ पू० माना है। ये उत्तरी जोपदार कृष्ण मृदभांड इतिहास की महत्वपूर्ण निधि हैं। मौर्याेत्तरकाल (184 ई॰पू॰ से 320 ई॰) में लाल पॉलिश वाले मृदभांड और टोटी लगे मृदभांड का प्रचलन था जो सम्भवतः मध्य एशिया की कला से प्रभावित थे।

निष्कर्ष भारतीय इतिहास में मृदभांडों के आधार पर तीन प्रमुख युगों का निर्धारण किया जा सकता यह क्रमशः चित्रित धूसर, उत्तरी कृष्ण मार्जित और रुलेट युक्त मृदभांड हैं चित्रित घूसर मृदभाण्ड का सम्बन्ध कास्य युग से तथा उत्तरी कृष्ण मार्जित मृदभांडों का सम्बन्ध लौह युग से हूँ। रुलेटे युक्त मृदभांड सबसे पहले अरिकमेंडू के उत्खनन में 1945 ई॰ में प्राप्त हुए थे। इस प्रकार भारतीय पुरातत्व अनुसंधान और तिथी निर्धारण में मृदभांड का महत्वपूर्ण योगदान है। हड़प्पा सभ्यता के विस्तृत क्षेत्र का वृतान्त मृदभांडों से ही पहले मिला था। ये वास्तव में प्राचीन इतिहास के महत्वपूर्ण प्राथमिक स्त्रोत हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. An Encyclopaedia of Indian Archaeology , Amalananda Ghosh,135. 2. WWW. Vivacepanorama.com/chalcolithie age 3. Harappan Civilization: Homogeneity and Heterogeneity, Vijnesh Mohan, 36. 4. Pottery- Making Cultures and Ludian Civilization: BaidyanathSaraswati, 102. 5. Material Culture & Social Fomations in Aucient India, R.S. Sharma,261. 6. The Character of the Maurya empire Brathindra Nath Mukherjee,88.