ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- V June  - 2022
Innovation The Research Concept
सोनांचल में बौद्ध धर्म
Buddhism in Sonanchal
Paper Id :  16158   Submission Date :  18/06/2022   Acceptance Date :  21/06/2022   Publication Date :  25/06/2022
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/innovation.php#8
अजय शंकर पाण्डेय
विभागाध्यक्ष
इतिहास विभाग
शासकीय ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय
रीवा,मध्य प्रदेश, भारत,
महेन्द्रमणि दिवेदी
प्राध्यापक इतिहास विभाग
शासकीय कन्या महाविद्यालय
रीवा, मध्य प्रदेश, भारत
पूनम उपाध्याय
शोधार्थी
इतिहास विभाग
शासकीय कन्या महाविद्यालय
रीवा, मध्य प्रदेश, भारत
सारांश प्रागैतिहासिक काल से मानव विकास का जो क्रम चला वह अबाध गति से चलता रहा। समय और परिस्थिति के अनुसार मानव अपने जीवन में बदलाव लाया साथ ही अपने आपको पहले परिवार और फिर समाज के रूप में संगठित किया जिससे की एक समतापरक समाज का निर्माण हुआ। समतापरक समाज की कडियों के टूटने की शुरुआत वैदिक काल से हुई और छठी शताब्दी ई.पू. आते-आते सामाजिक व्यवस्था सडांध मारने लगी जिससे सामाजिक ढांचा चरमराने लगा। इस व्यवस्था की जंजीरों को तोड़ने के लिए लोग व्याकुल हो गये। ऐसी स्थिति में महात्मा बुद्ध ने समाज की नब्ज को परखा, मर्ज की पहचान की और उसी के अनुरूप दवा दी। एक ऐसी सामाजिक की संकल्पना को लोगों के सामने प्रस्तुत किया कि जिसमें सभी को अपनी क्षमता के अनुरूप विकास का अवसर था सभी लोगों के बीच समरुपता थी। गौतम बुद्ध ने अपनी सामाजिक संकल्पना का प्रचार-प्रसार बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से किया। प्रस्तुत शोध क्षेत्र में बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार का बहुत कुछ श्रेय गौतम बुद्ध को स्वयं है। उन्होने अपनी 8वीं वर्षाकाल का समय सीधी जिले के समीपस्थ ’’सुसुमार गिरी’’ पर्वत पर तथा दसवी वर्षाकाल का समय मिर्जापुर के ’परिलेयक’ नामक स्थान पर व्यतीत किया। गौतम बुद्ध के इन बिताए गए वर्षावास ने निश्चित रूप से सीधी जिले में बौद्ध धर्म का बीजारोपण किया जिसका प्रभाव इस क्षेत्र में पड़ा। इसके साथ ही इस क्षेत्र और आस-पास से होकर निकलने वाले विभिन्न मार्गो ने भी प्रचार-प्रचार में अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया। इस सब कारणों की वजह से बौद्ध धर्म का सीधी जिले में प्रचार-प्रसार हुआ जिसके पुरावशेष सीधी जिले के बौद्धडाड, नगवागढ़, कदौली, मडवास, चन्द्रेह, खैरही आदि स्थानों में देखने को मिलते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The process of human development that went on since prehistoric times continued at an uninterrupted pace. According to the time and situation, man brought changes in his life as well as organized himself first in the form of family and then in the form of society, so that an egalitarian society was created. The breaking down of the links of egalitarian society began in the Vedic period and began in the 6th century BC. By the time the social system started to rot, the social structure started crumbling. People became anxious to break the chains of this system. In such a situation, Mahatma Buddha tested the pulse of the society, identified the merge and gave medicine accordingly. Presented to the people the concept of such a social, in which everyone had the opportunity to develop according to his potential, there was equality among all the people.
Gautam Buddha propagated his social concept in a very scientific way. Gautam Buddha himself has a lot of credit for the propagation of Buddhism in the present research area. He spent his 8th rainy season at Susumar Giri mountain near Sidhi district and Parileyak of 10th rainy season at Mirzapur. These spent rainy days of Gautam Buddha certainly planted the seeds of Buddhism in Sidhi district which had an impact in this area. Along with this, various routes passing through this area and surrounding also played an important role in the promotion. Due to all these reasons, Buddhism spread in Sidhi district whose antiquities are seen in places like Buddhdad, Nagwagarh, Kadauli, Madwas, Chandreh, Khairhi etc. of Sidhi district.
मुख्य शब्द सोनांचल में बौद्ध धर्म, प्रागैतिहासिक काल, समतापरक समाज।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Buddhism, Prehistoric times, Egalitarian society in Sonanchal.
प्रस्तावना
अमरकण्टक से निकलकर पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली विन्ध्य की जीवनदायिनी ’सोन नद’ बघेलखण्ड के महत्वपूर्ण एवं सिद्ध स्थल सीधी जिले की जीवन रेखा बनती हुई पूर्व की ओर प्रवाहित हो जाती है। सोन नदी अपने आँचल तले आदिम युग से युगों-युगों तक का इतिहास समेटे हुए है। सीधी जिले की जीवनदायिनी सोन के सानिध्य तले न जाने कितनी संस्कृतियाँ पुष्पित और पल्लवित हुई जो कि आगे चलकर इतिहास के पन्नों में दफन हो गई। सोनांचल का यह क्षेत्र न जाने अपने आँचल तले कितना इतिहास समेटा हुआ है जिसकी परते एक-एक करके धीरे-धीरे सामने आ रही है।
अध्ययन का उद्देश्य मानव के इतिहास की शुरुआत आदि मानव के काल से मानी जाती है तब से लेकर अब तक जितनी भी संस्कृतियाँ सीधी जिले में पनपी उन सभी के अमिट हस्ताक्षर किसी न किसी रूप में यहाँ मौजूद है। यह बात जरूर अलहदा है कि सीधी जिले के इतिहास को उतना अधिक खोजने का प्रयास नहीं किया गया और न ही इस क्षेत्र के इतिहास को उतना अधिक महत्व नहीं मिला जितना की अन्य क्षेत्रों को मिला। सीधी जिले के इतिहास की कई परते अभी भी खुलना शेष है। इतिहास की दृष्टि सोनांचल का यह क्षेत्र अति महत्वपूर्ण है।
साहित्यावलोकन

प्रागैतिहासिक काल से मानव विकास के क्रम का पहिया आगे बढ़ना शुरू होता है और वह निरन्तर निर्बाध गति के साथ आगे बढ़ता रहता है। विकास के कई सोपानों को पार करके मानव घुमक्कड जीवन को त्याग कर अब एक निश्चित ठिकाना बनाकर रहना सीख लिया, बदलते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार मानव अपने जीवन में कई बदलाव लाया और आगे चलकर परिवार और परिवार से समाज के रूप में अपने आप को संगठित किया, धीरे-धीरे एक समतापरक समाज का उद्भव हुआ। सम्रतापरक समाज की कड़ियों के टूटने की शुरुआत वैदिक युग से हुई। उत्तर वैदिक काल के आते-आते ये कड़िया और भी कमजोर होती चली गई। वैदिक सभ्यता के प्रवर्तक आर्यजन कहाँ से आये यह विवाद का विषय है पर वैदिक युगीन आर्यो की सामाजिक व्यवस्था में वर्णगत् होने के लक्षण प्राप्त होते हैं, तत्कालीन समय और परिस्थितियों के अनुसार हो सकता है कि वैदिक आर्यो की सामाजिक वर्णगत व्यवस्था उत्तम रही हो लेकिन जैसे समय अपनी गति से आगे बढ़ता है इस सामाजिक व्यवस्था ने अपना निकृष्टतम रूप अख्तियार कर लिया, जिसकी वजह से यह सामाजिक वर्ण व्यवस्था समाज में सडान्ध मारने लगी। आर्यो की सामाजिक वर्ण व्यवस्था के जो निचले पायदान पर थे वो इस व्यवस्था में अपने आप को फसा हुआ महसूस कर रहे थे उन्हें चारो ओर अन्धकार ही अन्धकार नजर आ रहा था शोषण अपने चरर्मोत्कर्ष में था, निरन्तर बढ़ते कर्मकाण्डों के कारण समाज में अशान्ति उत्पन्न हो गई और इस वर्णगत व्यवस्था के शिकार लोग मुक्ति का मार्ग तलाशने लगे। स्थिति कुछ इस प्रकार निर्मित हो गई कि समाज के छिन्न-भिन्न होने के कगार पर आ गया।

मुख्य पाठ

वर्णगत समाज में जो क्रिया चल रही थी तो उसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। इस क्रिया कि जबरदस्त प्रतिक्रिया को छठी शताब्दी ईसा पूर्व में देखने को मिली जब गौतम बुद्ध का आगमन हुआ। गौतम ने बुधत्व प्राप्ति के बाद समाज की नब्ज को परखा और मर्ज को पहचान कर उसके अनुरूप दवा दी जिसकी वजह से वर्णगत समाज के सबसे निचले तबके को आशा की एक रौशनी दिखाई दी। गौतम बुद्ध ने वर्णगत समाज के तबके के सामने एक ऐसे समाज की संकल्पना को उनके सामने प्रस्तुत किया जिसमे न तो कोई छोटा था न कोई बड़ा था सभी लोग अपनी क्षमता के अनुसार अपना विकास कर सकता था। गौतम बुद्ध की इस सामाजिक संकल्पना को वर्णगत समाज के आखिरी हिस्से ने आगे बढ़कर स्वीकार किया और उन्हें इस संकल्पना में समतापरक समाज का मार्ग दिखाई दिया जिसकी वजह से वो गौतम के बताएं मार्ग की ओर अग्रसार हो गये।
गौतम ने बुधत्व की प्राप्ति के बाद अपनी सामाजिक संकल्पना के प्रचार-प्रसार हेतु सर्वप्रथम वाराणासी आये और यही पर उन्होंने अपने बिछड़े हुए साथियों को प्रथम दीक्षा दी। गौतम ने अपनी सामाजिक संकल्पना और बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार का प्रबन्धन बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से किया। उन्होने भ्रि-रत्नों और चार आर्य सत्यों की व्यवस्था की जिससे बौद्ध धर्म का उत्तरोत्तर प्रचार एवं विकाश समुचित ढंग से हो सके।[1] बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में संघोका विशेष महत्व है। संघ के सदस्य रात्रि विश्राम संघाराम में करते थे। संघाराम में भिक्षुओं के रुकने के लिए कक्ष होते थे साथ ही एक सभा कक्ष भी होता था जहाँ पर विचार-विमर्श किया जाता था। इन भिक्षुओं के सहयोग से बौद्ध धर्म का प्रसार बड़ी ही तीव्रता के साथ हुआ, गौतम स्वयं 80 वर्ष की अवस्था तक प्रचार-प्रसार करते रहे।
गौतम बुद्ध के प्रति उनके भिक्षुको भी बड़ी आस्था थी वे उनको पूजनीय मानते थे यद्यपि गौतम बुद्ध ने स्वयं मूर्ति पूजा का विरोध किया किन्तु बाद में संघाराम में मूर्ती पूजा शुरू की गई, बौद्ध स्तूपों का निर्माण किया जाने लगा, जिसमे प्रतीक स्वरूप महात्मा बुद्ध के अलावा बौद्ध धर्म के प्रमुख बौद्ध धर्मी मिक्षुओं की अस्थियाँ संग्रहित कर उन पर आस्था व्यक्त की गई। जगह-जगह पर बौद्ध स्तूपों का निर्माण किया जाने लगा। इन स्तूपों ने भी बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गौतम बुद्ध के महानिर्वाण के बाद बौद्ध धर्म में विभेद उत्पन्न हो गया परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म निकायों में विभक्त होने लगा।[2] इस विभाजन के परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म में तीन प्रमुख निकाय ’’वैशाली, कौशाम्बी और मथुरा उभरकर सामने आये।[3] इस निकाय विभाजन के फलस्वरूप बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को और गति प्राप्त हो गई जिससे की अधिक तीव्रता के साथ चारो ओर गौतम बुद्ध की सामाजिक संकल्पना का प्रसार हुआ और बौद्ध धर्म का क्षेत्र विस्तृत होता चला गया।
सोनांचल के सीधी क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में निकायों के विभाजन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे की इस क्षेत्र के प्रचार-प्रसार में तेजी आई। इस सम्बन्ध में श्री नरेन्द्र देव ने कहा कि ’’मध्य प्रदेश में ब्राम्हाणों के प्रभाव से बौद्ध रूप (बौद्ध मत) में परिवर्तन होने लगा। यहाँ दो निकाय हो गये एक कौशाम्बी का जो दक्षिण की ओर झुकता था और जिससे स्थविर निकाय निकला प्रतीत होता है दूसरा कौशाम्बी का निकाय जो उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ा जिसमे सर्वास्तिवादी निकाय की उत्पत्ति हुई।[4]
सोनांचल में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का बहुत कुछ श्रेय गौतम बुद्ध को स्वयं जाता है। गौतम बुद्ध ने अपने जीवन काल के 44 वर्षा काल के समय को अलग-अलग स्थानों में व्यतीत किया था। इन 44 वर्षा काल के 8वीं वर्षा काल का समय सीधी जिले के समीपस्थ के सुसुमार गिरीपर्वत पर तथा दसवी वर्षा काल का समय मिर्जापुर के परिलेयक (519 ई.पू.) नामक स्थान पर व्यतीत किया। इन्ही स्थानों पर समतापरक समाज की परिकल्पना को लोगों के सामने रखा साथ में बौद्ध धर्म तथा दर्शन का उपदेश दिया।[5] गौतम बुद्ध के वर्षा काल के समय व्यतीत किए समय और इस प्रकार की यात्राओं ने समीपस्थ क्षेत्र सोनांचल में निश्चित रूप से बौद्ध धर्म का बीजारोपड़ कर दिया।
गौतम बुद्ध के बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का कार्य उनके महानिर्वाण के सम्राट अशोक एवं अन्य शासकों ने किया। इन्होंने बौद्ध धर्म को राज्यश्रय प्रदान कर राजधर्म बना दिया, जिससे की शीघ्रता से प्रचार-प्रसार हो सका। इन शासकों द्वारा दिये गये प्राश्रय का प्रतिफल था कि बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं को लांघकर सुदूर देशों में फैलता चला गया। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु सम्राट अशोक ने अपना सर्वस्व लगा दिया इसी कड़ी में अशोक ने तीसरी बौद्ध संगति का आयोजन करवाया, इस बौद्ध संगीति के बाद उद्धत भिक्षुओं को प्रचार-प्रसार के लिए भेजा। इसी कड़ी में उन्होंने रक्षितको आटविआँचल में प्रचार-प्रसार के लिए भेजा था।[6] ज्ञातव्य हो कि इसी क्षेत्र को आटविआँचल कहा जाता था जिसकी पुष्टि समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्तिसे होती है।[7] रक्षित के प्रचार-प्रसार के लिए आने से निश्चित रूप से इस क्षेत्र में प्रभाव पड़ा होगा।
सोनांचल का यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश और बिहार से जुड़ा था। इस क्षेत्र में प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में लिखा गया है कि ’’लंका में चैत्य की स्थापना में विन्ध्यवन के उत्तर में स्थविर अपने साठ हजारमिक्षुओं को लेकर गये थे। प्राचीन काल में विन्ध्यवन विन्ध्यांचल के पूर्वी भाग का ही नाम था जिसका विस्तार नर्मदा नदी के उत्तर की ओर भूपाल से दक्षिण बिहार तक था।[8]
गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रबन्धन बड़े ही व्यवस्थित रूप से किया था, उनके प्रारंभिक शिष्य तपस्सू, वामल्लिक व्यापारी थे उनकी देखा-देखी बाद में कई व्यापारियों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। ये व्यापारी प्रायः व्यापार के लिए देशाटन करते रहते थे। ये जहाँ भी जाते वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। प्राचीन काल में बघेलखण्ड से होकर कई मार्ग गुजरते थे। इन मार्गो में से एक प्रमुख मार्ग भरहुत (सतना) से होकर गुजरता था। इस काल तक भरहुत प्रमुख चात्वर के रूप में विकसित हो चुका था। वहीं दूसरी ओर यह मार्ग दक्षिण-पश्चिम में कौशाम्बी से जुड़ता था।[9]
सोनांचल में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार का एक अन्य बड़ा कारण इसके समीपस्थ क्षेत्रों मं बौद्ध धर्म की बढ़ती हुई गतिविधियाँ तो थी साथ ही सोनांचल से कई छोटे एवं बड़े मार्ग होकर गुजरते थे। पूर्व में मगध से भी सोनघाटी से होकर एक (सभवतः बान्धवगढ़ के आस-पास से) राजमार्ग कौशाम्बी से भरहुत तथा दक्षिण-पूर्व में बान्धवगढ़ से होता हुआ कलिंग को जाता था। सम्राट अशोक ने अवन्ति जाने के लिए इसी मार्ग का अनुसारण किया था। इस क्षेत्र से अनेक मार्ग उत्तर से दक्षिण तथा पश्चिम की ओर जाते थे।[10]
गौतम बुद्ध ने जिस धर्म का बीजारोपड़ किया था वह सम्राट अशोक का काल आते-आते अपने पूरे लय में आ चुका था। मौर्य काल में यह क्षेत्र अशोक के अधीन था और उस समय तक रूपनाथ का बौद्ध धर्म में धार्मिक महत्व आदि बढ़ चुका था। सभंवतः वह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग भी था। पाटलिपुत्र से रूपनाथ के पठार होते हुए सोन घाटी तक और नीचे की ओर नर्मदा घाटी होता हुआ भडौच तक यह राजमार्ग जाता था। कैमूर की पहाड़ियों से रूपनाथ होते हुए इलाहाबाद को भड़ौच से जोड़ने वाला एक अन्य मार्ग अवश्य रहा होगा।[11] इस क्षेत्र से निकलने वाले राजमार्गो ने सोनांचल में बौद्ध धर्म के प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। सोनांचल के इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रमुख स्थल बौद्ध डाड, नगवागढ़ कंदौली, मडवास, खैरही है।[12] इन स्थानों पर बौद्ध धर्म के पुरावशेष बिखरे पड़े है। इसके साथ ही सोन-बनास नदी के संगम स्थल चन्द्रेह के भौगोलिक सर्वेक्षण के दौरान चन्द्रेह-भवरसेन के पास स्थित ग्राम बागढ़-धवैया मे एक छोटी बुद्ध की प्रतिमा देखने को मिली।[13] इस प्रतिमा को ग्रामवासी भ्रमवश माई की मूर्ति मानकर आराधना-पूजा करते है।  

निष्कर्ष सोनांचल में प्राप्त हुए बौद्ध धर्म के पुरावशेषों से इस बात की पुष्टि होती है कि सोनांचल के इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार था।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. देवनाथ सिंह आनन्द गौतम-बौद्ध धर्म में निर्वाण की अवधारणा, शोध-पत्र-इतिहास अनुशीलन पृ. 45 अंक 9-12 2. नरेन्द्र देव-बौद्ध दर्शन पृ. 35 3. डॉ. राधेशरण-विन्ध्य क्षेत्र का इतिहास, पृ. 123 4. वहीं पृ. 129-30 5. नरेन्द्र देव-बौद्ध दर्शन पृ. 35 6. डॉ. सन्तोष सिंह चौहान-अनिल कुमार सिंह-सोनांचल नमामि, पृ. 65-66 7. डॉ. राधेशरण-विन्ध्य क्षेत्र का इतिहास, पृ. 131 8. वही पृ. 124-125 9. डॉ. सन्तोष सिंह चौहान-अनिल कुमार सिंह-सोनांचल नमामि, पृ. 65 10. वही पृ. 28-29 11. वही पृ. 67-68 12. उक्त प्रतिमा लगभग 5’’ इचं लम्बी ओर 3.5’’ चौड़ी है। 13. चन्द्रेह-भॅवरसेन का स्वयं भौगोलिक सर्वेक्षण किया।