ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- I February  - 2022
Innovation The Research Concept
भक्ति आन्दोलन एवं संत दादू दयाल का समाज दर्शन
Bhakti Movement and Social Philosophy of Sant Dadu Dayal
Paper Id :  15782   Submission Date :  14/02/2022   Acceptance Date :  19/02/2022   Publication Date :  20/02/2022
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महेश कुमार दायमा
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास एवं भारतीय संस्कृति विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर,राजस्थान
भारत
सारांश संत दादू दयाल ने सती प्रथा, पर्दा प्रथा की आलोचना की और हिन्दू-मुस्लिम समन्वयवाद का नारा दिया। संत दादू दयाल का उद्देश्य पवित्र और सन्तुलित जीवन यापित करने का संदेश देना था। ऐसा जीवन जो सहज हो जिसमें किसी प्रकार का आडम्बर न हो, स्वाभाविकता हो, बन्धुत्व हो, पारस्परिक सद्भाव हो तथा आचारगत और आन्तरिक पतिव्रता हो। इस प्रकार मध्ययुगीन सुधारकों में संत दादू दयाल का स्थान बहुत ऊँचा है। भारतीय धर्म साधना के इतिहास में सन्त दादू दयाल का समाज दर्शन अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। इसने अनेक धार्मिक एवं बौद्धिक परिस्थितियोे का सामना करते हुए सबसे समभाव एवं समन्वय करके चले वाले आन्दोलन के रूप में समूचे राजपूताना को प्रभावित किया। धर्म का मूल रूप बाह्य आडम्बरों में ओझल हो रहा था। ऐसी विषम घड़ी में दादू दयाल के समाज दर्शन ने आमजन में नयी ऊर्जा का संचार किया। मध्ययुग में राजपूताना की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति पतनोन्मुख दशा में पहुंच गयी थी। समाज में विभिन्न प्रकार की सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों का विकास होने लगा था जो हिन्दू समाज को खोखला बना रही थी। राजपूताना में सती प्रथा, बलि प्रथा, पर्दा प्रथा, बहु विवाह, जौहर प्रथा आदि से समुचित सामाजिक व्यवस्था लड़खड़ा रही थी। इस संक्रमण व परिवर्तन के काल में सन्त दादू दयाल ने आम जनता को अन्धकार, निराशा, विषमता से बाहर निकालकर प्रकाश की ओर चलना सिखाया तथा जीवन में आशा का संचार किया। सन्त दादू दयाल विनम्र, उदार, मृदुभाषी, सरल व्यक्तित्व के स्वामी थे जिसके कारण तत्वयुगीन समाज में उनके समाज दर्शन को राजपूताना में सबसे अधिक ग्राह्य किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Sant Dadu Dayal criticized the practice of sati, purdah system and gave the slogan of Hindu-Muslim syncretism. The purpose of Sant Dadu Dayal was to give the message of leading a holy and balanced life. Such a life which is easy in which there is naturalness, fraternity, mutual harmony and moral and internal piety. Thus the place of Sant Dadu Dayal among the medieval reformers is very high.
मुख्य शब्द दर्शन, समाज, भक्ति, सगा, वेलणहारा।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Philosophy, Society, Bhakti, Saga, Velanhara.
प्रस्तावना
मध्ययुगीन भारत में भक्ति आन्दोलन का उद्भव व विकास भारतीय समाज में एक प्रकार का पुनर्जागरण था। यह एक सांस्कृतिक जागरण भी था, जिसमें जनमानस को जागृत व चेतना का संचार किया। भारत की भक्तिधर्मी सोच पुरातन है। भक्ति के अंकुर आद्य-ऐतिहासिक है। श्वेताश्वस्तरोपनिषद में सर्वप्रथम भक्ति का महत्त्व दिया गया - ’’यस्यदेवे पराभक्ति यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता हृार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।। इस उपनिषद में शरणागति भाव की ओर भी संकेत दिया गया है। महाभारत व गीता में प्राप्त भक्ति विषयक रूप उपनिषदों की भक्ति से मेल खाता है। भक्ति भावना के विकास में उपनिषदों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। रामायण, महाभारत और पुराणों के काल में भक्ति का विकास अपने रूप में हुआ। भक्ति द्रविडों की देन मानी गई है। आलवार संतों ने वेद, उपनिषद, गीता आदि से विचारों को ग्रहण कर, उसमें युगानुकूल तत्वों का समावेश कर भक्ति धर्म को लोकधर्म का रूप दे दिया। भक्ति आन्दोलन रूढ़िवादी, सामाजिक तथा धार्मिक विचारों के विरूद्ध हृदय की प्रतिक्रिया तथा भावों का उद्गार है। भारतीय परिवेश में भक्ति आन्दोलन का विकास इन्हीं परिस्थितियों का परिणाम है। भक्ति के सिद्धांत, साधना के रूप में देश में बहुत प्राचीन काल से प्रचलन में है। इसी साधना या उपासना को भक्ति कहते हैं। भक्ति का लक्षण शाण्डिल्य सूत्र में इस प्रकार दिया गया है - ’’सा परानुरक्तिरीश्वरे’’ अर्थात ईश्वर के प्रति निरतिशय प्रेम को ही भक्ति कहते हैं। भागवत पुराण के अनुसार - श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम।।[1]
अध्ययन का उद्देश्य इस शोध पत्र का उद्देश्य भक्ति आन्दोलन एवं संत दादू दयाल का समाज दर्शन करना हैं।
साहित्यावलोकन
भक्ति आन्दोलन की जो चिनगारी दक्षिण भारत में आलवार व नायनार संतों ने सुलगाई थी उसकी प्रज्ज्वलित लपटें कुछ शताब्दियों में संपूर्ण भारत में फैल गई। इस ज्येाति को राजस्थान में उजास फैलाने का कार्य संत दादू दयाल ने किया। संत दादू दयाल ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों, मुस्लिम संप्रदाय को भक्ति के रंगमंच पर एक साथ लाकर समाज में अद्भूत सामंजस्य स्थापित किया। संत दादू दयाल पर मध्ययुगीन भारत की ऐतिहासिक घटनाओं तथा परिवर्तित हो रही धार्मिक आन्दोलन का प्रभाव उनके ऊपर अवश्य ही पड़ा होगा। संत दादू दयाल की साधना देश और काल की ही साधना है। हर संत, अपने युग को एक आवाज देता है। संत दादू दयाल का आविर्भाव भारतीय समाज में उस समय हुआ जब संपूर्ण उत्तरी भारत पर मुगल साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। बचपन से ही सामाजिक विषमता व आर्थिक विपन्नता से इनकी सोच को गहराई से प्रभावित किया। संत दादू दयाल अहिंसक क्रांति भावना द्वारा राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में क्रांति पैदा करना चाहते थे। संत दादू दयाल ने सामाजिक विषमता व धर्म को अकर्मण्यता से हटाकर कर्म योग की भूमि पर टिकाया था और उसे सहज बनाकर सर्वसाधारण के लिए ग्राह्य बनाया। उन्होंने किसी भी धार्मिक विश्वास, लोक तथा वेद के अन्धानुकरण को स्वीकार नहीं किया, बल्कि विवेक से उन धर्मों, विश्वासों तथा पाखण्ड़ों को अपनी ध्वंसात्मक भूमिका से तहस-नहस करके ही दम लिया। हिन्दू धर्म के आचार बाहुल्य अर्थात् उनकी पूजा, उत्सव, वेदपाठ, तीर्थयात्रा, व्रत, छूआछूत, अवतारोपासना तथा कर्मकाण्ड पर संत दादू दयाल ने निरंतर व्यंग्य किया। उनके वाणी में शील, क्षमा, समानता, दया, दान, धैर्य, संतोष आदि मानवीय गुणों का विशेष स्थान है। भक्ति आन्दोलन के इतिहास में जितनी महत्ता कबीरदास, नानक और रैदास आदि को मिली है, उतनी प्रमुखता संत दादू दयाल और उनके विचारों को नहीं मिली है लेकिन इस वजह से संत दादू दयाल के योगदान को कम नहीं किया जा सकता है। साहित्य समीक्षा पण्डित परशुराम चतुर्वेदी (सं.), दादू दयाल (ग्रंथावली), नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संवत् 2023 आचार्य सूरजनदास (सं.), श्री दादू महाविद्यालय रजत ग्रन्थ, श्री दादू महाविद्यालय, जयपुर, 2009 बाबू बालेश्वरी प्रसाद (सं.), दादू दयाल की बानी, वेलवेडियर प्रेस, प्रयाग (इलाहाबाद), संवत् 1928 काशीनाथ उपाध्याय (सं.), सन्त दादू दयाल, राधास्वामी सत्संग, ब्यास, डेरा बाबा जैमन सिंह, पंजाब, 1980 डॉ. भगवन्त व्रत मिश्र, सन्त कवि दादू और उनके काव्य, सिकन्दरराऊ दिनेश प्रकाशन, अलीगढ़, 1964
मुख्य पाठ

दादूवाणी में मध्ययुगीन समाज का स्वरूप

संत दादू दयाल एक महान समाज सुधारक थे। हिन्दू समाज की जाति प्रथानारी वर्ग का नैतिक अवमूल्यनपर्दा प्रथाबाल विवाहनिम्न जातियों पर उच्च वर्ग का घोर अत्याचारशिक्षा के अभाव में जादू-टोना शकुन-अपशकुनजीव हिंसामांस भक्षणवेश्यागमन आदि अंधविश्वास तथा कुरीतियाँ समाज की जड़ों को खोखली कर रही थी। 

वर्ण एवं जाति-व्यवस्था सम्बन्धी विचार

मध्ययुगीन संत ज्ञान-मार्ग के यात्री साधक संत भक्त थे। उनकी साधना सामाजिक जीवन को जीते हुए सामाजिक असंपृक्तता की रही है। मध्ययुगीन संतों में कबीरदास पहले ऐसे प्रमुख संत थे जिन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुरीतियों पर निर्भीक रूप से बड़ा ही तीखा प्रहार किया। संत दादू दयाल भी कबीर की ही परम्परा के संत थे और उन्हीं की भांति समाज के उपेक्षित वर्ग से आये थेकिन्तु उस समय तक संत कबीर द्वारा प्रसारित निर्गुण साधना विशेष रूप से चर्चित हो चुकी थी।

संत दादू दयाल का स्वभाव कबीर के फक्कड़पन के बदले विनय मिश्रित माधुर्य विशेष था। उन्होंने समाज की नब्ज टटोलते हुए बड़े ही समझ और प्रभावशाली तरीके से अपने विचारों को लोगों के सम्मुख रखा और मानवतावादी धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना कर उसके निर्माण में महती योगदान दिया। संत दादू दयाल समाज में एकता व समता के दृढ़ पोषक थे। इसलिए उन्होंने वर्ण एवं जाति व्यवस्था का भरसक विरोध किया। संत दादू दयाल के अनुसार जन्म से मनुष्य की जाति का निर्धारण नहीं किया जा सकता बल्कि व्यक्ति के कर्म ही उसे समाज में ऊंचा व नीचा बनाते हैंजैसे यदि एक सोने का सुन्दर कलश विष से भरा हो तो वह व्यर्थ है क्योंकि विष के सेवन से मृत्यु हो जायेगी। उसी प्रकार यदि किसी उच्च जाति के व्यक्ति के अंतःकरण में विषय विकार भरा हो तो उसकी उच्च जाति व्यर्थ हैइससे तो निम्न कुल में जन्मा व्यक्ति अधिक महान हैजिसके हृदय में अमरत्व भरा हुआ हैक्योंकि समाज हित में उससे लाभ ही होगा। जैसे- 

                दादू कनक कलश विष सौं भरासो किस आवे काम।

                सो धन कूटा चाम काजामें अमृत राम।।[2]

 अर्थात मलिन चमड़े का कुप्प यदि अमृत से भरा हो तो अमर करने वाला होने से धन्य है। वैसे ही यदि शरीर तो भेषादि द्वारा सुन्दर है और अन्तःकरण विषय विकार-विष से भरा हैतो वह त्याज्य है। संत दादू दयाल ऊंची जाति को न देखकर उसके अंतःकरण की सुन्दरता को देखते हैं।

                दादू देखे वस्तु कोबासन देखे नांहिं।

                दादू भीतर भर धरासो मेरे मन मांहिं।।[3]

अर्थात् व्यक्ति अपने जन्म से नहीं वरन कर्मों से उच्च एवं निम्न जाति का होता हैतभी तो साधुओं की कोई जाति नहीं होतीचाहे वह किसी भी जाति में जन्मा हो -

                जे पहुँचे ते कह गयेतिन की एकै बात।

                सबै सयाने एक मतउनकी एकै जात।।[4]

उन्होंने ब्राह्मणक्षत्रिय व वैश्यवर्ण को अपनी वाणी का आधार न मानकर शूद्रों के प्रति किये गये भेदभाव की आलोचना की। मानव-मात्र में समता तथा विश्व-बन्धुत्व की स्थापना ही उनका प्रमुख लक्ष्य था-

                आये एकंकार सबसांई दिये पठाइ

                आदि अंत सब एक हैदादू सहज समाइ।[5]

संत दादू दयाल अपने पूर्ववर्ती मध्यकालीन संतों विशेषकर कबीर से बहुत प्रभावित थे और उन्हीं की भांति वे भी समाज में फैले वर्ण-भेदजाति-पांति एवं ऊँच-नीच की भावना के विकास का जिम्मेदार ब्राह्मणोंपुरोहितों और मुस्लिम धर्म गुरूओं को मानते थे। यद्यपि कबीर की भांति दादू दयाल ने इनके ऊपर कभी भी कठोर व तीक्ष्ण वाणी का प्रहार नहीं कियाफिर भी सहज रूप से सही दादू दयाल ने उनकी नीतियोंक्रियाकलापों व विचारों का हमेशा विरोध किया है। उनकी मान्यता थी कि ब्राह्मणों ने ही मानव रूपी जीव को अनेक नामवर्ण और जाति में विभाजित कर दिया है। संत दादू दयाल ने सभी को एक समान स्वीकार किया और सबका मालिक भी एक ही माना। मध्ययुगीन भारतीय समाज में ब्राह्मण व क्षत्रिय ही समाज के संचालक बने हुये थे। ब्राह्मणों का समाज में वर्चस्व और अछूतों को धािर्मक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता नहीं थी। ज्ञान व शिक्षा के क्षेत्र में ब्राह्मणों का ही प्रभुत्व था। सन्त दादू दयाल ने अपनी रचनाओं में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को नकारते हुए ऐसे ज्ञान का खण्ड़न किया और कहा कि वह ज्ञान व्यर्थ है जिससे व्यक्ति को न कोई लाभ होन ही सत्य मार्ग की प्राप्ति-

                पढ़े न पावे परमगतिपढे न लंघे पार।

                पढ़े न पहुँचै प्राणियाँदादू पीड़ पुकार।।[6]

संत दादू दयाल के अनुसार जाति मूलक सामाजिक व्यवस्था भ्रामक है। लोग भ्रमवश अपने को ऊँची जाति व निम्न कुल का कहने लगते हैं। जैसे एक ही कूप के जल को अपने-अपने बर्तनों में भर कर ब्राह्मण जल आदि कहने लगते हैं जबकि वास्तव में जल में कोई अन्तर नहीं है।  जैसे एक आत्मा में शरीर भेदों से जाति की कल्पना कर लते हैं -

                दादू पानी के बहु नाम धरनाना विधि की जात।

                बोलणहारा कौन हैकहो धौं कहाँ समात।।[7]

संत दादू दयाल के अनुसार मनष्य को इस जाति भेद नामक भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि आध्यात्मिक रूप में आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। उसी चरम सत्य के व्यापृत्व के कारण सभी प्राणी एकत्व पूर्ण है। सभी के शरीरान्तर में एक समान जाति का रक्त प्रवाहित होता है। सभी प्राणियों का शरीर एक ही प्रकार के हाड़-मांस से निर्मित है। सभी में समान रूप से प्राण व्यापत हैं। एक ही प्रकृति द्वारा सब निर्मित हैं। समाज में व्याप्त पारस्परिक भेदभाव का परित्याग करके सभी को समरसता के साथ रहना चाहिये। जातिवंशकुलवर्ण आदि पर अभिमान त्याग देना चाहिये क्योंकि सभी एक ही प्रभु की सन्तान है। एक ही प्रभु की सन्तान होने पर सभी व्यक्तियों की जाति एक ही है।

                दादू एक सगा संसार मेंजिन हम सिरजे सोइ।

                मनसावाचाकर्मना और न  दूजा कोइ।।[8]

निम्न जातियों पर संत दादू दयाल व अन्य समकालीन सन्तों ने जो उपकार कियेउनको भारतीय समाज कभी भुला नहीं सकता। समाज के निचले धरातल से उठकर उन्होंने यह साबित किया कि अनवरत तपस्या और साधना से वे उच्च जातियों से कहीं आगे बढ़ सकते हैं। उन्होंने न केवल निम्न जातियों को समाज में समानता का अधिकार दिलायाअपितु उन्हें समाज की मुख्यधारा में वापस लाते हुये इस्लाम धर्म की ओर प्रवृत्त होने से भी बचा लिया। संत दादू दयाल की साधनामानव धर्म की साधना थी। उनका किसी से कोई बैर नहीं था। बल्कि समाज में फैली घोर असमानता के लिये उनके हृदय में गहरी वेदना थी। वे मात्र यही चाहते थे कि मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी धनपद या वंश नहीं बल्कि शुद्ध रूप से कर्म होना चाहिए। संत दादू दयाल ने अपने विचारों से नये मानव मूल्यों की स्थापना के साथ ही समाज में समानताबंधुत्व और सौहार्द्र के वातावरण का विकास कर समतामूलक समाज की संरचना को साकार किया।

अस्पृश्यता सम्बन्धी विचार

मध्ययुगीन भक्तिकाल में वर्ण और जाति-पाँति के साथ-साथ समाज में फैली ऊँच-नीच और छुआछूत की भावना ने भी भारतीय समाज को पतनोन्मुख करने में अहम भूमिका अदा की थी। ऊँच-नीच एवं छुआछूत (अस्पृश्यता) की भावना हिन्दू समाज का पुराना कोढ़ हैजिसे समाप्त करने में संत कबीररैदासनानक एवं दादू दयाल जैसे संतों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। सर्वप्रथम कबीर ने छुआछूत को मानने वालों पर कटाक्ष करते हुये कहा -

                पंडित दुखहु मनमंह जानी

                कहु द्यौ छूति कहां ते उपजी

                तबहिं छुति तुम मानी।

एक संत कवि होने के नाते दादू दयाल समाज के संरक्षक और पोषक भी थे। वैमनस्यता और विषमता की प्रवृत्ति ही विनाश का कारक बनती हैइस तथ्य को समझते हुए उन्होंने मध्ययुगीन समाज में व्याप्त ऊंच-नीच एवं छुआछूत जैसी घृणित भावना का विरोध करते हुये इसे पूर्णतः समाप्त करने और समाज में समानता और भ्रातृत्व की भावना कायम करने का सराहनीय प्रयास किया।

                दादू सम करि देखिएकुंजर कीट समान।

                दादू दुवध्या दूरि करितजि आपा अभिमान।।

मनुष्य जन्म से नहीं वरन् कर्म से उच्च वर्ण का या निम्न वर्ण का होता है -

                दादू करणीउपरी जाति हैदुजा सोच निवार।

                मैली मध्यम है गयेउज्जवल ऊंच विचार।।

उनकी धारणा थी कि ब्राह्मण एवं शूद्र और हिन्दू-मुसलमान सभी एक ही परम ज्योति से उत्पन्न हुए और सभी में एक ही आत्मा का वास है। उनका मानना है कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त है और नीची से नीची जाति का व्यक्ति भी प्रभु की भक्ति कर सकता है। ईश्वर की उपासना मात्र उच्च वर्ण की सम्पत्ति नहीं हैक्योंकि परमात्मा का वास तो सर्वत्र हैउसके न कोई ऊँच हैन नीच। इस संदर्भ में उन्होंने अपनी वाणी में स्पष्ट कहा है-

                दादू सब रंग रंगि रहयादूजा कोई नाहिं।

                सब रंग तेरे तै रंगेतू ही सब रंग माहिं।।[9]

उन्होंने समस्त मानवों चाहे वह किसी भी धर्मजाति या वर्ण के होंसमान माना है तथा निम्न जातियों में आत्म विश्वास जागृत करते हुए ईश्वर की कोख से ही सबकी उत्पत्ति बतायी है -

                दादू किस सौ बैरी हैरहया दूजा कोई नाहिं।

                जिसके अंग तै उपजेसोई है सब माहिं।।

सभी प्राणियों की  उत्पत्ति या प्रजनन एक ही ब्रह्म या बीज से हुई हैइसलिए सभी मनुष्य एक ही परिवार के सदस्य हैं - 

                आतम भाई जीव सबएक पेट परिवार।

                दादू मूल विचारिएतौ दूजा कोण गंवार।।

इस प्रकार सन्त दादू दयाल ने अपने विचारों और कार्यों के द्वारा समाज में व्याप्त विषमता एवं वैमनस्यता के भाव का खण्डन करते हुए समाज में समन्वय की भावना कायम करने पर बल दिया। वे चाहते थे कीरी से कुंजर तक सबको एक ही दृष्टि से देखा जाए। उनका कहना था कि सभी में एक ही आत्मा विद्यमान है और सभी एक है।

धार्मिक विचार

सन्त दादू दयाल मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन के एक प्रमुख सन्त साधकविचारक एवं समाजहित चिन्तक थे। इन्होंने अपने विचारों एवं कार्य प्रयासों द्वारा समाज की सामाजिक-धार्मिक परिस्थितियों को सुदृढ़ बनाने में महती भूमिका अदा की थी। संत दादू दयाल ने सम्प्रदाय और मतवाद से ऊपर उठकर प्रेम पर विशेष जोर देते हुएप्रेम को भक्तों का सम्प्रदाय और पथ को खुदाय बताते हुए कहा है-

                दादू इश्क अलाह काजे कबहूँ प्रगटे आई।

                तौ तन मन दिल अरबाह कासब पड़दा जलि जाई।।

उन्होंने हिन्दू-इस्लाम दोनों धर्मों में व्याप्त जड़-मूल्यों का प्रभावी तरीकों से खण्ड़न किया। इस सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट करते हुए उन्होंने कहा कि यदि किसी व्यक्ति का मन और हृदय पवित्र है तो वह इन्सान सच्चा धार्मिक है। ऐसे इन्सान को बाहरी आडम्बरों का आश्रय लेना ही नहीं चाहिए। बाह्याचारों एवं जड़ हो चुके मूल्यों को नकारते हुए उन्होंने कहा है -

                रहे निराला सब करैंकाहू लिपत न होई।

                आदि अन्त भानै घड़ेदादू समरथ सोई।।[10]

भारतीय समाज में झूठे भ्रम एवं कर्म के लिए एक मात्र ब्राह्मण एवं पुरोहित वर्ग को ही संत दादू दयाल ने कारण माना है। उनके कथानानुसार- 

                दादू पंडित निबरे नांव बिनझूठे कथै गियान।

                बैठ सिर वाली करैंपण्डित वेद-पुराण।।

उन्होंने सभी को अपने-अपने धर्म को मानने तथा प्रभु-भक्ति करने का समान अधिकार प्रदान करते हुए भक्ति को वर्ण-जाति से निरपेक्ष बताया है। 

हिन्दू कर्मकाण्ड सम्बन्धी विचार

संत दादू दयाल के समय धर्म का स्वरूप अत्यन्त ही विकृत हो चुका था और धर्म के क्षेत्र में अनेकों तरह के बाह्याचारोंआडंबरोंपाखण्डों का बोलबाला था। समाज में मूर्ति-पूजातीर्थ-व्रतस्नानसिर-मुण्डनमाला-जाप बहुदेववादनमाजरोजा आदि बाह्यचारों की निन्दा करते हुए उनको नकार दिया।

संत दादू दयाल के अनुसार जो लोग मूर्ति पूजन के रूप में कंकड़-पत्थर की उपासना करते हैंवे भक्ति के सार तत्व को खो देते हैं। उन्हें न तो सत्य का ज्ञान है और न ही सत्य तत्व उन्हें दिखायी पड़ता है परमात्मा तो घट-घट में व्याप्त हैउसकी उपासना के लिए मंदिरों में जाना व्यर्थ है -

                दादू जिन कंकर पत्थर सेवियासो अपना मूल गँवाई।

                अलख देव अंतर बसेक्या दूजी जगह जाई।।[11]

जैसे कागज का मानव बनाकर उसे मानवों का शिरोमणि चक्रवर्ती राजा बना दिया जाय तो भी वह राज्य शासन की व्यवस्था तो नहीं कर सकेगा-

                कागद का मानुष कियाछत्रपति शिरमौर।

                राज पाट साधे नहींदादू परिहर और।।[12]

लकड़ी की कामधेनु दूध नहीं दे सकती -

                कामधेनु के पटतरेकरे काठ की गाई।

                दादू दूध दूझे नहींमूरख देहु बहाइ।।[13]

स्फटिक जाति के पत्थर का भी सूर्य बनाया जाय तो भी उससे अंधकार नष्ट न होगा -

                सूरज फटिक पषाण काता सौं तिमिर न जाई।

                सचा सूरज परकटेदादू तिमिर नशाई।।

किसी पत्थर को पारस मान ले तो भी उससे लोहा सुवर्ण नहीं बन सकता-

                पारस किया पषाण काकंचन कदे न होई।

                दादू आतम राम बिनभूल पड़या सब कोई।।

अज्ञानी प्राणियों को सत्यपरमात्मा का स्वरूप तो दिखाई नहीं देता। इसलिए उन्होंने पत्थर की मूर्ति घड़ कर उसे ही भगवान बना दिया -

                मूर्ति घड़ी पाषाण कीकीया सिरजनहारा।

                दादू साच सूझे नहींयों डूबा संसार।।[14]

तीर्थ-व्रत और यात्रा का खण्डन करते हुए संत दादू दयाल कहते हैं कि यह बड़े आश्चर्य की बात है कि कुछ लोग द्वारिकाकाशीमथुरा आदि तीर्थ स्थलों पर जाकर परमात्मा तथा मोक्ष को प्राप्त करना चाहते हैंसंत दादू दयाल ने इनकी निंदा करते हुए परमात्मा को मानव के हृदय में विराजमान माना है - 

                दादू केई दौड़े द्वारिकाकेई काशी जांहि।

                केई मथुरा को चलेंसाहिब घट ही मांहि।।[15]

उनका कहना है कि तीर्थ-व्रत करने से बुरे कर्मों का फल तो नहीं चला जाता और न ही इससे किसी को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। यह सब कुछ पण्डितों का ही भ्रम है। उन्होंने ही इस भ्रमजाल में सभी को उलझा रखा है-

                सबहीं ज्ञानी पंडितासुर नर रहे उरसाई।

                दादू गति मोव्यंद की क्यों ही लषी न जाई।।

संत दादू दयाल ने धार्मिक क्षेत्र में फैले आडंबरों के पीछे काजी व ब्राह्मण का हाथ बताते हुए दोनों को बावरा कहा है-

                दादू जिहिवरियां यह सब कछुभया सौं कछु करौं विचार।

                काजी-पंडित बावरेक्या लिखि बंधे भार।।

                काजी कजा न जानहीकागज हाथ कतेब।

                पढ़तां पढतां दिन गयेभीतर नाहीं भेद।।[16]

संत दादू दयाल ने पंडितोंयोगियों व ढोंगी साधुओं के वेशभूषा धारण करके जनता को ठगते हैं।

                उसका चित्रण करते हुए दादू दयाल कहते हैं -

                कुम्भ गाड़ि आसन तलेदीपक धरि ढकि मंहिं।

                लोकन कूं कहि रात कूँब्रह्म जोति दस्साहिं।।

संत दादू दयाल ने हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों द्वारा किये जाने वाले हज यात्रारोजानमाज को भी मिथ्या और बाहरी आडंबर मानते हुए हृदय में खुदा का नाम स्मरण करने की बात कही है -

                हर रोज हजूरी होइ रहुकाहे करे कलाप।

                मुल्ला तहां पुकारियेजहँ अर्श इलाही आप।।[17]

संत दादू दयाल ने काया रूपी महल में नमाज पढ़ने की बात कही है -

                दादू काया महल में नमाज गुजारूंतहँ और न आवन पावे

                मन मणके कर तसबीह फेरूंतब साहिब के मन भावे।।[18]

संत दादू दयाल ने ईश्वर की व्यापकतागुरू की महत्ता पर विशेष बल दिया। सभी मनुष्यों में समानता की भावना जाग्रत करने तथा निम्न वर्गों के लोगों के लिए जाति भेदवर्ग भेदलिंग भेद आदि को अनुचित ठहराया है। मनुष्य-मनुष्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव को संत दादू दयाल ने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने हिन्दू धर्म में बुराई की अंतिम सीमा तक व्याप्त जाति भेद एवं छुआछूत की संकुचित दृढ़ भावनाओं को चुनौती दी और पर्याप्त अंशों तक सफलता प्राप्त की। संत दादू दयाल के फलस्वरूप शूद्रों में भी धार्मिक नव चेतना का जागरण हुआ और उन्होंने सामाजिक महत्व प्राप्त करने के साथ-साथ आध्यात्मिक क्षेत्र में भी पर्याप्त उन्नति की। संत दादू दयाल की वाणी ने ढूंढाड क्षेत्र में मानवतावाद के लिए उचित वातावरण उत्पन्न किया। साथ ही दो परस्पर विरोधी धर्ममतावलम्बियों में एक दूसरे के धर्मों के प्रति सहिष्णुता की भावना उत्पन्न करने का श्रेय दिया जा सकता है। उनके वाणी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता का मंत्र फूंका और पर्याप्त सीमा तक एकता बढ़ाने में सफलता भी प्राप्त की।

निष्कर्ष संत दादू दयाल ने अपनी वाणी में पूर्वकाल में प्रचलित धार्मिक आडम्बरों एवं जटिल क्रियाकलापों पर कुठाराघात किया गया। तीर्थ यात्राओं, हज यात्रा एवं व्रतों को महत्वहीन सिद्ध किया। अध्ययन एवं चिन्तन मनन के महत्व को क्षीण किया और हृदय के प्रेम व भक्ति द्वारा की जाने वाली रामनाम या नाम रूपी ईश्वर पूजा को ही ईश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग बताया। उत्तरी भारत में भक्ति भाव को प्रतिष्ठित करने में सन्त दादू दयाल का महत्व कबीर व नानक के समान हैं। मध्ययुगीन समाज में जिन परिस्थितियों में सन्त दादू दयाल का आविर्भाव हुआ और जिन राजनीति, सामाजिक एवं धार्मिक विकृतियों का सामना इन्हें करना पड़ा उसके कारण उनके व्यक्तित्व एवं काव्य को विशेष दृष्टि मिली है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का खण्डन एवं मानव एकता तथा सहअस्तित्व की भावना को जाग्रत करना ही संत दादू दयाल के समाज दर्शन का मुख्य उद्देश्य रहा है। उन्होंने अपनी वाणी में सामाजिक विचारों एवं जनमानस की आवाज को निर्भीक परन्तु विनम्र भाव से मुखरित किया है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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