ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- VI July  - 2022
Innovation The Research Concept
सभ्यताओं में टकराव और महात्मा गांधी: एक अध्ययन
Clash of Civilizations and Mahatma Gandhi: A Study
Paper Id :  16344   Submission Date :  02/07/2022   Acceptance Date :  13/07/2022   Publication Date :  24/07/2022
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जी. एस. वीरकर
असिस्टेंट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
श्री पुंडलिक महाराज महाविद्यालय
नांदुरा,महाराष्ट्र, भारत
सारांश 'सभ्यताओं में टकराव एवं हिंदस्वराज' इस शोधालेख में लेखक ने सभ्यताओं में टकराव को कोट करते हुये वर्तमान अमेरिका के स्टॅनफोर्ड विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर फ्रान्सिस फुकूयामा (Francis Fukuyama) इन्होने 1990-2000 इस दशक में विश्व चर्चित ‘End of the History and the last men’ और सॅम्युअल पी. हंटिग्टन इनकी विश्व चर्चित रचना ‘The class of civilization’1996 इन दोनो अमेरिकन राजनीतिक विज्ञान के अध्यापको ने अपने-अपने चर्चित रचनाओं में सभ्यताओं मे टकराव इस पर पर्याप्त मात्रा में चर्चा कि हैं लेखक का यह मानना है सभ्यताओं में टकराव का उत्तर शायद राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का हिंद स्वराज हो सकता है। साथ ही मानवता के संस्थापक भगवान बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग में भी हो सकता ऐसा लेखक का मानना है। हम भारतीय 15 अगस्त 2022 को स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने जा रहे है। इस परिप्रेक्ष्य में गांधीजी की प्रासंगिकता अपने आप में सिद्ध होती है। इसका बहुत ही रोचक तरीके से इस शोधालेख में विवरण करने का नम्र प्रयास किया है। सभ्यता अथवा संस्कृति वास्तव में सामूहिक जीवन यापन करने का ढंग है। मनुष्य का चिंतन क्रियाकलाप से उत्पन्न भौतिक मानवी जीवन की पूर्णता करती है। सभ्यता या संस्कृति जितनी अधिक बदलती है। उतनी ही अपने मूल के निकट जाती है। तब सभ्यता और संस्कृति में टकराव नही होता। किंतु धर्म या मजहब के नाम पर स्वार्थ जन्म लेता है, तब सभ्यताओं में टकराव होता है। अमेरिका ने अपनी सीमाओं के पार दूसरे देश पर प्रभुत्व जमाने के कारण दूसरे राष्ट्रो में घुसपैठ करने, कभी लोकतांत्रिक सरकारों का तख्ता पलटवा कर, कई देशो पर अपना वर्चस्व जमाया। यही से वैश्विक स्तर पर टकराव पैदा हुआ, यहीं से आतंकवाद की भावना पनपी और शीतयुद्ध के दौरान अनेक राज्यों में दरारे पैदा हुई। उसी का नतीजा ओसामा बिन लादेन, सद्दाम हुसैन जैसे आतंकी पैदा हुये। साथ ही डॉलर का बढता वर्चस्व, विचारधारा में टकराव इसी के साथ खाजगीकरण, उदारीकरण, भूमंडलीकरण जैसे कारणों ने इस टकराव को ऊँचाई पर पहुँचाया। इन टकरावों को नही मिटाया तो इन्सानियत के लिए खतरा साबित होगा। जिससे मानवजाति कलंकित होंगी अगर इसे रोकना है तो प्रेम, भाईचारा और सर्वधर्म समभाव की भावना को अपनाना जरूरी है। साथ ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करने पर ध्यान बढ़ाना होगा।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद 'Clash of Civilizations and Hindswaraj' In this paper, author quote the conflict between civilizations, Francis Fukuyama, Professor of Political Science of Stanford University, USA, in this decade, 1990-2000, the world famous 'End of the History and the last men' and Samuel P. Huntington in his world famous work 'The class of civilisation'1996 Both these American political science teachers have discussed this in sufficient amount in their famous writings, author believes that the conflict between civilizations The answer may perhaps be the Hind Swaraj of Mahatma Gandhi, the Father of the Nation. At the same time, believes that the founder of humanity, Lord Buddha, can also be in the eightfold path. We Indians are going to celebrate the Amrit Festival of Independence on 15th August 2022. In this context, the relevance of Gandhiji proves in itself. author has made a humble attempt to describe it in a very interesting way in this paper.
Civilization or culture is actually a way of collective living. Man's thinking complements the material human life generated by activity. The more the civilization or culture changes. The same goes near its origin. Then there is no conflict between civilization and culture. But selfishness is born in the name of religion, then there is a conflict between civilizations. America has dominated many countries by infiltrating other nations, sometimes by overthrowing democratic governments, because of dominating other countries across its borders. This led to conflict at the global level, from this the spirit of terrorism grew and during the Cold War, many states were born into rifts. As a result of that, terrorists like Osama bin Laden, Saddam Hussein were born. At the same time, the increasing dominance of the dollar, the conflict in ideology, along with the reasons like Khazgization, liberalization, globalization, raised this conflict to the heights. If these conflicts are not eradicated, it will prove to be a threat to humanity. Due to which mankind will be tarnished, if it is to be stopped, then it is necessary to adopt the spirit of love, brotherhood and equality of all religions. At the same time, the focus has to be increased on developing the rural economy.
मुख्य शब्द समता भाईचारा, बंधुभाव टकराव, मुक्तबाजार, अमरिकी साम्राज्यवाद, प्राथमिकता आंतकवाद, शक्तिशाली आधुनिकतावाद, भूमंडलीकरण, प्राकृतिक संसाधन, पुनरावलोकन अवधारणा, सर्वव्यापीकरण, तानाशाही ऐतिहासिक वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, परिप्रेक्ष्य सभ्यता, हुकूमत अविश्वास, कम्युनिस्ट टकराव, विश्वशांती नैतिकता, करुणा दरिद्रता, जनजीवन, स्वभाविक भाईचारा, तकनीकि उपयुक्त विकसित शीतयुद्ध वर्चस्व, क्रियाकलाप।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Equity Fraternity, Fraternity Conflict, Free Market, American Imperialism, Priority Terrorism, Powerful Modernism, Globalization, Natural Resources, Revision Concept, Universalization, Dictatorship Historical Globalization, Liberalization, Privatization, Perspective Civilization, Government Distrust, Communist Confrontation, World Peace Ethics, Compassion Poverty, Peoples Life, Natural Brotherhood, Technologically Appropriately Developed Cold War Supremacy, Activities.
प्रस्तावना
सभ्यताओं में तनाव अथवा टकराव क्या है? यह समझने के पहले हम सभ्यता क्या है? यह देखना अनिवार्य है। सभ्यता अथवा संस्कृति वास्तव में सामूहिक जीवन यापन का एक ढंग है जो सामूहिक जीवन के सामने अनुभवों के परिणाम स्वरुप विकसित होती है। (राबर्ट बीयर स्टीड, द सोशल ऑर्डर पृष्ठ 156-179 में) सभ्यता में मुख्य रुप से तीन प्रकार के तत्व बतलाए है। (अ) मनुष्य की चिंतन प्रक्रिया से उदभूत विचार मानव चिंतन बहुत कुछ उसके सामूहिक जीवन के अनुभव का परिणाम होती है। (ब) मानव की क्रिया से सम्बन्धित क्रियाकलाप, जिस में समाज के द्वारा स्वीकृत कार्यविधियाँ और नियम आते हैं। (क) मनुष्य के चिंतन और क्रियाकलाप से उत्पन्न भौतिक उपलब्धियाँ जिन से वह अपनी भौतिक अनिवार्यता की पूर्ती करता है।(1) प्रत्येक संस्कृति में चाहे वह कितनी ही सरल अथवा विकसित क्यों न हो कमोवेश रुप में उपयुक्त तीनों प्रकार की सामग्रियाँ पाई जाती है। यह सभी किसी समूह के सामान्य जीवन से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित रहती है। विचार और नियम उस सामाजिक समूह के जनजीवन की रीति-नीति का निर्धारण करते है। भौतिक उपलब्धि उस सामाजिक समूह की भौतिक प्रगति का दिग्दर्शन कराती है। भौतिक प्रगति उस सामाजिक समूह के ज्ञान- विज्ञान और तकनीकि प्रगति पर निर्भर होती है। डॉ. रामधारी सिंह दिनकर सभ्यताओं के बारे में कहते है कि, ‘‘सभ्यता या संस्कृति जितनी अधिक बदलती है उतनी ही अपने मूल के अधिक निकट हो जाती है।‘‘(2) पाश्चात्य सभ्यता के साथ संपर्क, वैज्ञानिक प्रगति, औद्योगिक विकास और शिक्षा के प्रसार ने भारत में नवजागरण की लहर पैदा की थी किन्तु इन सबने भारत में किसी नई संस्कृति को जन्म नहीं दिया है। स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने युग और काल के अनुसार गीता, वेदांत और बौद्ध दर्शन की पुनर्व्याख्या करके शताब्दियों से चले आ रहे अंधःविश्वास, पाखंड, और कर्मकांड से ग्रसित संसार के साथ-साथ भारतीय जन-जीवन के लिए संस्कृति के मूल सत्यों को ही उजागर किया।‘‘(3) जब हम यह देखते है कि, एक और एक, एक न होकर दो होते है वहीं द्वंद आरंभ हो जाता है। इस सिद्धांत को यदि हम नहीं नकारते तो सभ्यताओं का टकराव स्वाभाविक है किन्तु अन्य संदर्भ में मेरा मानना है कि, कोई भी सभ्यता अपस में टकराव पैदा नहीं करती। जब सभ्यताओं के नाम पर, धर्म अथवा मजहब का नाम लेकर स्वार्थ जन्म लेता है तब सभ्यताओं में टकराव अथवा मेरी ही सभ्यता अन्य सभ्यता के तुलना में उच्च है या श्रेष्ठ है। तब पूरे संसार पर हुकूमत मेरी ही होगी यह भावना जब किसी में पनपती है तब सभ्यताओं में टकराव अथवा तनाव पैदा होती है। हर एक सभ्यता, भाईचारा, समानता, बंधुभाव को उजागर करती है। 11 सितम्बर 2001 को अमेरिकी नगर न्यूयार्क में हुई भयंकर घटनाओं ने दुनिया में अविश्वास तथा द्वंद की भावनाओं को एकाएक जबरदस्त हवा दी, लेकिन सभ्यताओं के संघर्ष अथवा टकराव की चर्चा इस समय तक काफी जोर पकड़ चुकी थी। अरुंधति राय का कहना है कि, ‘‘अमेरिका अपनी सीमाओं से बाहर दूसरों पर प्रभुत्व जमाने, अपमानित करने, अधीन करने की आजादी का वह प्रयोग आम तौर पर अमेरिका के असली धर्म मुक्तबाजार की सेवा के लिए करता है। इसलिए जब अमेरिकी सरकार जब किसी युद्ध को ऑपरेशन इनफाइनाईट जस्टिस (असीमित न्याय का अभियान) का नाम देती है हम तीसरी दुनिया के लोग मात्र डर से ही नहीं कांपते क्यों कि हम जानते है कि, कुछ लोगों के असीमित न्याय का अर्थ दूसरे लोगों के लिए असीमित अन्याय होता है।’’(4) स्थाई आजादी का मतलब दूसरों के लिए स्थाई अधीनता होता है। अमेरिका अपने सभ्यता का वर्चस्व स्थापित करने के लिए ‘‘यह संसार के लोकप्रिय राजतीतिज्ञों और नेताओं की हत्या करने के लिए उनकी सूची तैयार करती है, यह युद्ध शुरु कराने के लिए तनाव बनाती है और साथ ही, यह राष्ट्रो में घुसपैठ करती है।‘‘(5) लैटिन अमेरिका में प्रतिक्रिया वादी सेनापतियों के गुट को सी.आई.ए. और ब्राजील स्थित अमरीकी राजदूतो ने उकसाकर और प्रोत्साहन देकर वहा श्री लिंकन गोरडान की लोकतांत्रिक सरकार का तख्ता उलटवाए। अर्जेंटाईना में अमेरिका टँको ने अर्तुरो फ्रोजडीसी की नागरिक सरकार को कुचल डाला, केवल इस कारण कि मध्यमवर्गीय हितों का यह संकीर्ण विचारों वाला प्रतिनिधी अमरिकी साम्राज्यवाद के प्रति पर्याप्त कोमल नहीं था। वर्तमान अमरीकी, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक, ईरान, तालीबान मे जो नीतियाँ अपना रही है वह अमरीकी सभ्यता का वर्चस्व का द्दोतक ही है
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधालेख के उद्देश्य निम्नलिखित है। 1. सभ्यताओं में टकराव यह पाश्चात्य अवधारणा है इसकी जाँच पड़ताल करना प्रस्तुत शोधालेख का उद्देश्य है। 2. सभ्यताओं में टकराव एक सुझाव के रुप में हिंद स्वराज है। यह तथ्यों के आधार पर परखना यह शोधालेख का दूसरा उद्देश्य है। 3. सभ्यताओं में टकराव केवल इसाई एवम मुस्लिम सभ्यताओं में है यह विचार ही ईसाई मुस्लिम सभ्यताओं में टकराव पैदा करता है। यह मूलतः वर्चस्ववादिता की प्रेरणा है इससे और कुछ नही। यह परखना प्रस्तुत शोधालेख का महत्वपूर्ण उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन

1) Hungtington Samuel, P.
The class of civilization New Yark University Press – America – इस महत्वपूर्ण शोधग्रंथ में लेखक का यह मानना है की वर्तमान विश्व में इसाई और मुस्लिम सभ्यताओं में टकराव जो चल रहा है वह अपनी-अपनी वर्चस्व की लड़ाई चल रही है। इसका बहुत ही सुंदर वर्णन इस संदर्भ ग्रंथ में किया है।
2) Hungtington Samuel, P.
Hegemony or survival – 2002 इस संदर्भ ग्रंथ में लेखक का यह मानना है की ‘‘या तो अमेरिका का वर्चस्व स्वीकार करो या अपने अस्तित्व को बनाये रखो। एक प्रकार से अमेरिका का वर्चस्ववादी दृष्टिकोण लेखन ने स्पष्ट किया है।
3)हिंदस्वराज - महात्मा गांधी - राजकमल प्रकाशन न्यू दिल्ली-2002.
प्रस्तुत संदर्भ ग्रंथ में लेखक का यह मानना है कि अपना-अपना वर्चस्व थोपना यह मानवता के लिए हानिकारक हैइसलिए मेरा यह मानना है कि सभ्यताओं मे टकराव न होकर सभ्यताओं में सामंजस्यपूर्ण माहौल पैदा करना आज की अनिवार्यता है।
सभ्यताओं में टकराव एक बढ़िया दस्तावेज है। सैमुअल हंटिग्टन की गिनती दुनिया के जाने-माने राजनीतिक चिन्तकों में होती है। यह अमरीकी हावर्ड विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञानी है। उनकी लिखी 'क्लैश ऑफ सिविलाईजेशंस' पुस्तक ने 1990 के दशक से अभी तक बहस का कारण बनी है। ‘‘अभी जो कुछ हो रहा हैक्या यह सभ्यताओं का वही संघर्ष है जिसकी आपने लगभग एक दशक पहले चेतावनी दी थी।‘‘(6) बिल्कुल! ओसामा बिन लादेन आतंकवाद के जरिए इस्लाम और पश्चिम की सभ्यताओं के बीच संघर्ष चाहता है। अमरीकी सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह इसे सभ्यताओं का संघर्ष या टकराव न बनने दे। इस टकराव को न मानने वालेप्रो. महमूद ममदानी का कहना है किआतंकवाद धर्म से नहीं राजनीति से पैदा हुआ है। आतंकवाद पश्चिमी जगत की उपज हैअल कायदा द्वारा आतंकवाद यह अमरीका और युरोप की दादागिरी और अन्याय की प्रतिक्रिया हैं। वह इस्लाम सभ्यता का भाग नहीं है।(7) (गुड मुस्लिम अँड बॅड मुसलिमलेखक राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर- महमूद ममदानी) यह सही है किराष्ट्र राज्य विश्व राजनीति के एक शक्तिशाली सूत्रधार बने रहेंगे लेकिन मुख्य संघर्ष इन राष्ट्रो और विभिन्न सभ्यताओं को मिलाकर बने खेमों के बीच होगा। सभ्यताओं के इस टकराव का ही विश्वराजनीति पर प्रभुत्व रहेगा।
हंटिग्टन ने अपनी इस बुनियादी प्रस्थापना के पक्ष में ढेर सारे तर्क दिए है। "Professor Huntington claimed that the world primarily be divide in the future not by confliets among states but by confliets among major religious and ethnic groups. He predicted that the most important cleavage of all would pit “The west versus the Rest”. This influenticle article was often cited after the September 11, 2001 attacks on the Pentagon and World Trade Centre, Critics, how ever have asserted that cultures are not the homogeneous entities implied by ‘The clash of civilization’ they are coplex, internally divided and changing. Moreover, many scholars argues that states remain central, actors in world conflict.”(8) इन तर्कों से पता चलता है कि सभ्यताओं के टकराव का उनका सिद्धांत कुछ अस्पष्ट धारणाओं पर आधारित है। मसलनवह बात तो केवल सात-आठ मुख्य सभ्यताओं की करते हैं लेकिन टकराव बताते समय उनकी समझ एक तरफ इस्लाम है तो दूसरी तरफ पश्चिम की सभ्यताऐं। उनकी नजर हर सभ्यता के अपने अंदरुनी, अंतर्विरोधों पर नहीं जाती, न हीं उन्हें उसका गतिविज्ञान समझ में आता है।‘‘(9) वह पूरे पश्चिम को एक मानकर चलते है और इस्लाम के आपसी झगडे भी उन्हे दिखाई नहीं देते। हंटिग्टन अपनी पुस्तक में लिखते है किमुसलमानों में अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता का गर्व है लेकिन अपनी ताकत को लेकर हीन भावना है तो कहीं न कहीं वह भूल जाते हैं कि ऐसा घमंड ईसाईयों में भी दिखाई देता है।
‘‘इतिहास भी हमें यही बताता है कि इस्लाम का अभ्युदय ईसाई रोमन साम्राज्य की सरजमीं पर ही हुआ था। पश्चिमी सभ्यता के इस्लाम के तत्व आरंभ से ही मौजूद रहे है।‘‘(10) इसे महान दार्शनिक दाते जैसे कवि ने भी स्वीकार किया है किजो वैचारिक स्तर पर हजरत मुहम्मद के घोर विरोधी थे। 

मुख्य पाठ

सभ्यताओं का नहीं, संस्कृतियों का संघर्ष

भारतीय चिंतक शिवनारायण सिंह कहते है कि, महात्मा गांधी जी से जब पूछा गया कि, ब्रिटिश सभ्यता के बारे में आपकी क्या राय है तो गांधीजी बोल पड़े कि यह एक अच्छा विचार होगा, यानी ब्रिटिश सभ्यता के अस्तित्व मात्र को ही महात्मा गांधी ने खारिज कर दिया था। ऐसे में लगभग दो सौ वर्षों के इतिहास वाले अमेरिका के संदर्भ में हंटिग्टन जब सभ्यताओं के युद्ध की बात कहते है, तो वे यूरो-अमरीकी, दृष्टिकोण से आधुनिक विश्व को देख रहे होते है। वैसे ही जैसे जब फुकुयामा द्वारा इतिहास के अंत या उत्तर आधुनिकवाद द्वारा आधुनिकतावाद के अंत का दावा होता है।‘‘(11) आज कोई भी इस बात से इंकार नही कर सकता कि आधुनिक विश्व औद्योगिकीकरण की सभ्यता पर आधारित है लेकिन उसके साथ यह मानना कि आज की तारीख में पश्चिम की सभ्यता से गैर पश्चिमी सभ्यताओं का युद्ध चल रहा है। यह गलत बात दिखती है। रिनेसां के दौर में खुद यूरोप ने अपनी सभ्यता की जडों की तलाश, करने पर ग्रीक सभ्यता में जाकर ढूंढी। अतएव दो सौ वर्षो पुराने अमरीकी सभ्यता से गैर पश्चिमी सभ्यताओं के युद्ध की बात गैर ऐतिहासिक भी है।

उत्तर औपनिवेशिक समाजों में पश्चिम के इस अंत विरोध पर प्रतिक्रिया होनी अवश्यभावी थी। मेरे दृष्टिकोण से पूँजी के भूमंडलीकरण के प्रतिरोध में समुदायों के स्थानीकरण के द्वंद्व के रुप में उभर रहा है, जिसके कारण स्थानीय संस्कृतियाँ पश्चिमी सर्चस्व को अस्वीकार कर रही है। इस तरह यह सभ्यताओं का युध्द नहीं, संस्कृतियों का संघर्ष है।

       पश्चिम के देश, जो जनसंख्या में विश्व के 15 प्रतिशत हैं, उनके पास विश्व की 85 प्रतिशत पूंजी है। जबकि गैर पश्चिमी देश जहाँ विश्व के 85 प्रतिशत लोग रहते हैं, वे विश्व की मात्र 15 प्रतिशत पूंजी में गुजारा करते हैं।‘‘(12) इस संदर्भ में प्रो. एडवर्ड सईद का कहना है कि, इस आर्थिक असमानता का प्रतिरोध आर्थिक आधार वाली विचारधारा यानी साम्यवाद से नहीं हो पाया तो गैर पश्चिमी समाजों ने अपना देशज-संस्कृतियाँ- समुदायों की जड़ों को टटोलना शुरु किया है। जिसने कहीं-कहीं धार्मिक कट्टरता का रुख भी ग्रहण कर लिया, जिसे पश्चिमी विमर्श ने फंडामेंटलिजम का नाम दिया है। संसार में भारत को छोड़ दिया जाए तो अन्य राष्ट्रों में सांस्कृतिक नैतिक नेतृत्व करने वाला नेता ही पैदा नहीं हुआ है। यदि ऐसा होता तो विश्व के हित में मुख्य रुप से जब भी कोई निर्णय लिए जाते हैं उसमें सभी देश के प्रमुख नेतृत्व को तहजूब दिया जाता लेकिन ऐसा नहीं दिखाई देता। अमरीका अपने हितो के लिए अन्य का विरोध सह नहीं सकती। इसलिए फिर टकराव के नाम पर अपनी हेजेमनी रखता है।

सभ्यताओं में टकराव नहीं यह तो वर्चस्व की लड़ाई है

हंटिग्टंन का मानना था कि, शीत युद्ध के बाद की दुनिया में एक बहुत पुरानी ऐतिहासिक सांस्कृतिक दरार उभर कर सामने आयी। उनका मानना था कि, पश्चिमी सभ्यता का अंदरुनी अंतर है वह समाप्त हो जाएगा और पश्चिम एक समग्र और अंदरुनी रुप से सामंजस्य वाली सभ्यता के रुप में उतरेगा।‘‘(13) यहाँ पर समस्या यह पैदा होती है कि, पश्चिमी सभ्यता का मुकाबला किससे होगा? हंटिग्टंन का मानना है कि, पश्चिमी सभ्यता का मुकाबला इस्लाम से होगा। तमाम इस्लामी देश चाहे वह मित्र हो या ईरान, इराक या मध्यपूर्व रशिया अथवा अफ्रीका के देश हो वे अंततः अपनी सांस्कृतिक धार्मिक एकता के आधार पर एकजुट हो जाऐंगे और उनका पश्चिमी सभ्यता से संघर्ष होगा। विश्व इतिहास इससे बड़ा और प्रभावी एवं भयावह खेमा कभी नही बना। वर्तमान घटनाक्रम सही अर्थाे में सभ्यताओं का संघर्ष या टकराव नहीं है, सही अर्थो में कोई युद्ध भी नहीं है जो हकीकत है वह सभ्यताओं के संघर्ष से ज्यादा भयावह है। सभ्यताओं का टकराव हिंसक तो होता है लेकिन उसमें कहीं ना कहीं सकारात्मक दृष्टि भी होती है। ‘‘पश्चिमी सभ्यता का विरोध ओसामा बिन लादेन या सद्दाम हुसैन नहीं कर सकता। पश्चिम का विरोध गांधी कर सकता है, माओ कर सकता है, डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर कर सकता है, संभवतः नेल्सन मण्डेला भी कर सकता है।(14) पश्चिमी सभ्यता का एक तरफा आक्रमण का विरोध करने के लिए जब तक सांस्कृतिक और वैचारिक दूरियाँ मिटाई नहीं जाती तब तक सभ्यताओं में संघर्ष की बात करना बेमानी है। लेखक को लगता है कि, सभ्यताओं के संघर्ष की आड़ में पश्चिमी सभ्यता तीसरी दुनिया के बचे खुचे संसाधन बटोरने का इंतजाम कर रही है। उन्हें हमारे प्राकृतिक संसाधन और हमारा बाजार चाहिए। तीसरी दुनिया के लोग पश्चिमी सभ्यता के बारे में गलत सोच ही नहीं सकते। इस संदर्भ में प्रो. सॅम हॅरिस, 2004 द एंड ऑफ फेथ-रिलिजन, टेरर अँड द फ्युचर ऑफ रीझन के लेखक का मानना है कि, ‘‘तिब्बत के लोगों पर चाइना द्वारा अनन्वित अत्याचार किये गये फिर भी तिब्बत लोग चीन पर हिंसा के बारे में सोच नहीं सकते। क्योंकि, सॅम हॅरिस आगे कहते है कि, तिब्बत के लोग बौद्ध धर्मी होने के कारण हिंसा नहीं कर सकते।‘‘(15) यदि उनमें से किसी को भी हिंसा करने का मोह भी हुआ तो भी वह धर्म के नाम पर नहीं कर सकता क्योंकि बौद्ध धर्म में हिंसा को स्थान नहीं है। जैनों के बारे में यही है, किन्तु मुसलमान और ईसाई धर्म के अनुयायी आतंकवादी हो सकते है, क्योंकि उनके धर्म में हिंसा को जगह है।

सभ्यता में टकराव के नाम पर भय-भ्रम फैलाने की साजिश

       हिन्दी लेखक और समीक्षम मैनेजर पांडे इसे हंटिग्टन का सभ्यताओं के संघर्ष का सिद्धांत अमरीकी मानसिकता की उपज मानता है। अमरीका विश्व भर में अपना प्रभाव और प्रभुत्व बनाये रखने के लिए तरह-तरह के संघर्षो को बढ़ावा देता रहा है। जब सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी व्यवस्थाएँ थी तब अमरीकी सत्ता से जुड़े बुद्धिजीवी सामाजिक व्यवस्थाओं के संघर्ष की बात करते थे। उसका अर्थ पूँजीवादी समाज-व्यवस्था से समाजवादी समाज व्यवस्था का टकराव होता था। उस दौर में वे विचारधाराओं के टकराव की भी बाते किया करते थे।’’(16) बाद में जब समाजवादी व्यवस्थाएँ टूट कर बिखर गयी और सोवियत संघ का विघटन हो गया, तब उनके सामने किसी नये टकराव का सिद्धांत गढ़ने की समस्या थी। इसी मानसिकता का परिणाम माने हंटिग्टन का सभ्यताओं का टकराव का सिध्दांत सामने लाया गया। जब नये दुश्मनों की तलाश शुरू की तो दूसरी सभ्यतायें उन्हें दुश्मन दिखाई देने लगीं और उनके साथ या उनके बीच टकराव का सिद्धांत गढ़ा गया।

स्वार्थो का संघर्ष में प्रो. इम्तियाज अहमद, समाजशास्त्री एवं राजनीतिक चिंतक मानते है कि, सभ्यताओं का टकराव क्या है? इसे जानने से पहले हंटिग्टन के तर्क को समझना जरूरी है। दस साल पहले जब सोवियत संघ टूटा, उससे पहले अमरीकी अवधारणा का टकराव साम्यवादी विचारधारा से था लेकिन रुस के हटने के बाद अमरीका को लगा कि अब टकराव की खास गुंजाइश नहीं है, क्यों कि अब दुनिया में सिर्फ लोकतंत्र और पूँजीवादी व्यवस्था ही रह जाएगी, जिसका प्रतिनिधित्व अमरीका करता है। उस समय भी एक आशंका इस्लाम से टकराव होने की जताई गई थी।

अमरीका का मानना रहा है कि, इस्लाम एक ऐसा धर्म है, जो किन्ही मान्यताओं को नहीं मानता। इस स्थिति में कभी संघर्ष की स्थिति बनी तो अमरीका की लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ इस्लाम की धार्मिक अवधारणा खड़ी होगी। यह परिस्थिति सभ्यताओं के टकराव को आगे बढ़ाएगी। ‘‘मध्य एशिया में चीन और रुस को नियंत्रित करने के लिए अफगानिस्तान में उसे ऐसे शासक की जरुरत है, जो उसकी अंगुलियों पर नाचे।‘‘(17) तालीबान इससे बागी हो चुके थे, इसलिए अब उसे किसी दूसरे की तलाश है। इसलिए इस राजनीतिक नफा-नुकसान की लड़ाई को सांस्कृतिक रुप देना ठीक नहीं। सोवियत संघ के पतन के उपरांत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक टकराव में विचारधारा का हास हुआ तथा धार्मिक और जातीय नकारात्मक प्रतिरोध को नई ताकत मिली। इसी दौरान पश्चिम में बढ़-चढ़कर यह बहस चली कि विश्व में सभ्यताओें के बीच टकराव होगी और तीसरा विश्वयुद्ध इस्लाम और पश्चिम के बीच होगा। लेकिन वर्तमान अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को ऐसा नहीं लगता क्योंकि वर्तमान समय में अमरीका में आर्थिक संकट गहरा गया है। दूसरी और बराक ओबामा विश्व के सभी मुसलमान देशों से दोस्ती चाहते थे। दुश्मनी नहीं। एक तरफ सभ्यताओं मे टकराव की बहस जोरों पर होने के बावजूद भारतीय बुध्दजीवियों की त्रासदी यह है कि, उनका सम्पूर्ण अध्ययन और चिंतन पश्चिम से अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित बहुचर्चित पुस्तकों तक सीमित रहती है। वे इन पुस्तकों के दायरे में ही बहस करते रहते है। अपने देश के इतिहास और चिंतन परम्परा का स्वतंत्र रुप से गहरा अध्ययन करते नहीं दिखते।

सभ्यताओं का टकराव या फिर डालर की तानाशाही मजहब की लादेनशाही

सभ्यताओं के संघर्ष के बारे में कभी खाटि रहे कम्युनिस्ट नेता मिखाईल गोर्बाचेव और पूंजीवादी विचारक सेमुइल पी हंटिग्टन के बीच किसी सीमा तक समानता होना अनेक अभ्यासकों को आश्चर्यजनक लग सकता है लेकिन जहाँ तक श्वेत नस्ल और सर्व यूरोपिय संस्कृति व सभ्यता का प्रश्न है, दोनो की दृष्टियों में बुनियादी समानता दिखाई देती है। 1987 में प्रकाशित गोर्बाचेब की विश्व चर्चित पुस्तक पेरोस्त्रोइका और 1996 में निकली हंटिग्टन की अत्यंत विवादास्पद पुस्तक ‘‘क्लैश ऑफ सिविलाईजेशंस एण्ड द रीमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर‘‘ के पुनरावलोकन से यही निष्कर्ष निकलता है। हंटिग्टन का मत है कि सभ्यताओं के टकराव से विश्वशांति को सबसे अधिक खतरा है और सभ्यताओं पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था विश्व युध्द के विरुध्द एक विश्वस्त सुरक्षा है।‘‘(18) इसमें कला, संस्कृति, धर्म, दर्शन, विज्ञान, नैतिकता, करुणा जैसी शक्तियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसके बारे में समाजवादी चिंतक मधु लिमये और भाजपा नेता के.आर. मुल्कानी और महाराष्ट्र के दलित बौद्ध विचारक डॉ. वामन गवई इन्होने हंटिग्टन के उपरोक्त अवधारणा की खासी आलोचना की थी। डॉ. वामन गवई ने इसे नस्लवादी व खतरनाक चिंतन बताया था।

लेखक का मानना है कि, अमरीका की ताजी राजनीतिक व्यवहार इस अवधारणा की कोख से पैदा हुई। वर्तमान टकराव आतंकवाद के खिलाफ युध्द नहीं है, बल्कि सभ्यताओं का टकराव है, ईसाइयत और इस्लाम ने एक दूसरे के खिलाफ निर्णायक टकराव का विगुल बजा दिया है और हिन्दू सभ्यता सहित शेष सभी सभ्यताओं को दोनों में से एक शिविर का चुनाव करना होगा। मेरा मानना है कि, ‘‘हंटिग्टन के पहले भी यूरोपीय सभ्यता की वर्चस्वता की बात गूंज चुकी है, प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी स्वयं यह कह चुके है। लेखक ने पढ़ा है कि, उनकी एक वर्चस्ववादी टिप्पणीं से कलकत्ता में मुसलमान भड़क उठें थे। उन्होनें इस्लाम के खिलाफ 1964-65 में टिप्पणी की थी।(19) हंटिंग्टन के कुछ समय पहले यानिकि 1985 दौरान पूर्व सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्बाचेव्ह ने अपनी पुस्तक में पेरास्त्रईका यानी पुनर्निमाण में करीब 19 पेजों में साक्षी यूरोपीय सभ्यता व विरासत, पूर्व यूरोपिय नीति, यूरोप की सम्भावनाएँ यूरोपीय सहयोग और नया चिंतन इत्यादि विषयों पर एक तरह की श्रेष्ठवादी जातीय टिप्पणियॉं की थीं। हंटिंग्टन कहते हैं, कि मुसलमानों की बढती आबादी, पश्चिम द्वारा अपने मूल्यों व संख्याओं का सर्वव्यापीकरण करना, विश्व पर अपनी सामाजिक व आर्थिक सर्वाेच्चता बनाए रखना और मुस्लिम दुनिया में हस्तक्षेप करता। पश्चिम की इस प्रवृत्ती ने मुस्लिम दुनिया में उग्रवाद को प्रोत्साहित किया है।‘‘(20) हकीकत में देखा जाए तो सभ्यताओं में टकराव की बात 1990 में ही इस्लाम धर्म के पश्चिमी विद्वान बर्नाल्ड लेविस भी कह चुके थे। लेखक को लगता है कि वर्तमान दौर में जरुरत है डालर की तानाशाही और इस्लाम में लादेन की तानाशाही के खिलाफ जेनुइन टकराव को जन्म देने की जिसका उद्देश्य सभ्यताओं का टकराव नहीं होगा। बल्कि नव हाईटेक बल्कि भूमंडलीकृत उपनिवेशवाद का अंत होगा। अगर हम इतिहास पर नजर डालते हैं तो स्पष्ट रुप से दिखता है कि अमरीकी धोरण, में तेरहवी सदी में इस्लाम, बीसवी सदी में कम्यूनिज्म और अब इक्कीसवी सदी में पुनः इस्लाम ये तो पश्चिम के बड़े सभ्यतावादी डरों का लेखाजोखा है। कई छोटे-मोटे नन्हे मुन्ने सभ्यता मूलक डर भी बीच-बीच में सर उठाते रहे हैं। जर्मनी के आर्यवादी सभ्यता की बात करने वाले हिटलर का प्रेत जब सताने लगा तो उसके निवारण के लिए कम्युनिष्ट से उन्होनें हाथ मिलाया और जर्मनी को दो टुकड़ों में बाँट दिया। और जब जापान से डर लगा तो हिराशिमा और नागासाकी में बम गिरा दिये।‘‘(21) तब संभावतः यूरोप, एशिया की बौद्ध सभ्यता से डर रहा होगा। वियतनाम और कंपूचिया में बुध्द कम्युनिष्ट बनते नजर आये, तो वहाँ युद्ध छेड़ दिया। कट्टरपंथी, मध्यकालीनतावादी इस्लामी तालीबान नेता सिर्फ बामियान की पहाड़ चट्टानों पर बने बुध्द की पत्थर की मूर्तियों को रॉकेटलांचरों से तोड़ा, यूरोप और अमरीका की आधुनिक और उदार ईसाई सभ्यताओं ने तो जीती जागती बौद्ध आबादी पर बम बरसाए। आप किसे ज्यादा हिंसक ओर बर्बर कहेंगे?

 ‘‘यह एक मार्मिक ऐतिहासिक सच है कि, आज तक इस तथाकथित सभ्यताओं के टकराव की सबसे बड़ी कीमत हिंदू और मुसलमानों ने नहीं, यहूदी और बौद्ध ने चुकाई है।(22) लेखक को लगता है वर्तमान में सबसे ज्यादा बौध्दों ने टकराव की कीमत चुकाई है। भारत आजाद होने के 74 वर्ष बीत जाने पर भी सभ्यताओं के टकराव में बौद्धों का ज्यादा नुकसान हुआ है।

हंटिंग्टन का दावा है कि, बीसवी शताब्दी में राष्ट्र राज्यों के बीच टकराव की जगह वैचारिक टकराव ने ले ली। द्वितीय विश्व युध्द हो या प्रथम महायुध्द में टकराव राष्ट्र राज्यों के बीच पाया गया। मगर द्वितीय महायुध्द के बाद यह टकराव को वैचारिक खेमों में लाया। चार फरवरी 1999 को कोलोराडो कॉलेज के 125 वे वार्षिक महोत्सव के अवसर पर बोलते हुए हटिंग्टन ने कहा: बीसवी शताब्दी प्रतिस्पर्धा, साम्यवाद, उदारतावाद, सत्तावाद, जनतंत्र का केंद्र था। अब यद्यपि इतिहास का अंत नहीं हुआ है फिर भी कम से कम विचारधारा का अंत हो गया है।(23) 21 वीं सदी कम से कम संस्कृति की शताब्दी के रुप में शुरु हो रही है जिसमें संस्कृतियों के बीच अंतर, अंतक्रियाएँ और टकराव रंगमंच के केंद्र में आ रहा है। मुझे लगता है कि, लैटिन अमरीकी संस्कृति वहाँ के आर्थिक पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हटिंग्टन के विचारो के एक खुदरा व्यापारी कौशिक बसु ने अपने एक ताजा लेख में पिछड़ेपन के लिए संस्कृति को जिम्मेदार माना है। सर विद्यासागर नायपॉल का उदाहरण है उन्हे 2004 के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। उन्होनें अपने किताब में इस्लाम दूसरों को गुलाम बनाने वाला तथा दूसरों की संस्कृतियों को मिटानेवाला बतलाया गया है मुझे लगता है कि इसके लिए उन्हे नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया।

वर्तमान मे अगर हम भारत की परिस्थितियों के बारे में सोचे तो यहाँ पर 23 अब्जाधिश अकेले महाराष्ट्र में है तो 3 करोड़ 17 लाख नागरिक दरिद्रता के नीचे रहकर अपनी जिंदगी बिता रहे हैं। वह एक दिन में केवल 20 रुपया से भी कम खर्च करते है मुझे लगता है सभ्यताओं के टकराव से ज्यादा यहाँ पर अमीरी और गरीबी में टकराव दिखाई देता है। गांधीजी ने अपने हिंद स्वराज में जैसे यूरोपीय सभ्यता और आधुनिक सभ्यता को विरोध किया था और साथ में यह भी कहा कि गांव को आजाद करो मतलब गावों को स्वयंपूर्ण करने पर जोर दिया था। छोटे-छोटे उद्योग का निर्माण करने पर गाँधीजी ने हिंद स्वराज में विश्वास जताया था। लेकिन वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के परिप्रेक्ष्य में गाँव रेगिस्तान बन कर रह गए हैं और चारों ओर आर्थिक अशांति फैली दिखाई दे रही है। यदि हमारे राज्यकर्ता गांधीजी के हिंदस्वराज को समझ लेते और देहातों की तरफ ध्यान देते तो आज वह परिस्थिति पैदा नहीं होती। इसलिए सभ्यताओं के टकराव में गांधीजी के हिंद स्वराज की प्रासंगिकता हमे दृष्टिगोचर दिखाई देती है। गांधीजी ने यंग इंडिया के जनवरी 1921 अंक में लिखा कि, ‘‘हिंदस्वराज में आधुनिक सभ्यता की सख्त आलोचना की थी। वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान आधुनिक सभ्यता का त्याग करेगा तो उससे लाभ ही होगा।‘‘(24) उसी अंक में गांधीजी ने हिंदस्वराज के बारे में लिखा था कि, ‘‘हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रुप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करें, तो स्वराज स्वर्ग से हिन्दुस्तान की धरती पर उतरेगा।‘‘(25) स्वराज भोगने की इच्छा रखनेवाली प्रजा अपने बुजुर्ग का तिरस्कार नहीं कर सकती। अगर दूसरों की इज्जत करने की आदत हम खो बैठे तो हम निकम्मे हो जाएँगें। जो प्रौढ़ और तजुर्बेकार है, वे ही स्वराज भोग सकते थे, न कि बेलगाम लोग। मुझे लगता है कि, दूसरों के ख्याल गलत और हमारे सही हैं, या हमारे ख्यालों के मुताबिक न बकनेवाले देश के दुश्मन है ऐसा मान लेना बुरी भावना है। इस धारणा के आधार पर भी विश्व भर के सभ्यताओं में टकराव टालकर गांधीजी के हिंदस्वराज का अमल करना अनिवार्य हो गया है। गांधीजी ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर स्वयंपूर्ण होने पर बल दिया था। लेकिन आज हम भारतीय अर्थव्यवस्था के तरफ ध्यान दें तो दिखाई देता है कि, यहाँ पर राष्ट्रिय गुन्हें शाखा के अनुसार 1997 से 1 लाख 82 हजार 936 किसान भाईयों ने आत्महत्याएँ की उनमें से 37 हजार किसानों ने अकेले महाराष्ट्र राज्य में आत्महत्याऐं की। 1995 में महाराष्ट्र में 40 हजार 600 आत्महत्याएँ हुई है। ऐसी विकट समय में गांधीजी का हिंदस्वराज याद आना स्वाभाविक हो जाता है। आजादी से ही हम ग्रामीण भागों में ज्यादा ध्यान देते तो आज यह स्थिति पैदा नही होती। जैसे हंटिग्टन ने सभ्यताओं टकराव कहा है। मैं कहता हूँ अब अमेरिका से भी बदतर हालत भारत की है जहाँ पर अमीर और गरीब में, जातिगत अस्मिता बनाने, धार्मिक श्रेष्ठता में निरंतर टकराव दिखाई देते है। यदि यह टकराव नहीं मिटाये गये तो इन्सानियत के लिए खतरनाक साबित होगा। जिससे मानवता कलंकित होगी। 

निष्कर्ष प्रस्तुत शोधालेख सभ्यता माने क्या इसका तो विवरण करता ही है किंतु सभ्यताओं में टकराव यह पाश्चात्य वर्चस्ववादिता की धारणा का प्रारंभ भी होते दिख रहा है। मुख्य रुप से इसाई एवं मुस्लिम यह दो सभ्यताएँ अपने आप में अपना प्रभाव अन्य विश्व पर जमाने की फिराक में है। हकीकत यह है की वैश्विक परिदृश्य में केवल इसाई या मुस्लिम सभ्यता ही नही है बल्कि हिंदू सभ्यता, यूरोप सभ्यता एवम अन्य सभ्यता भी है। सभ्यताओं में टकराव हो ही नहीं सकता। क्योंकि सभ्यताएँ अपनी पहचान होती है किन्तु जब हम अपने आप को अन्य की तुलना में श्रेष्ठ समझने लगते है तब कहीं जाकर टकराव तो होना ही है। लेखक का यह मानना है वैश्विक शांतता के लिए सभ्यताओं में टकराव न होकर विभिन्न सभ्यताओं में भाईचारे के साथ समन्वय स्थापित होना ही वक्त की माँग है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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