ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- IX October  - 2022
Innovation The Research Concept
भारतीय राष्ट्रवाद एवं क्षेत्रीय राजनीतिक दल: एक समालोचनात्मक अध्ययन
Indian Nationalism and Regional Political Parties: A Critical Study
Paper Id :  16645   Submission Date :  04/10/2022   Acceptance Date :  22/10/2022   Publication Date :  25/10/2022
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अभिषेक कुमार
शोधार्थी
राजनीति विज्ञान विभाग
बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय (केंद्रीय विश्वविद्यालय),
लखनऊ,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश इस शोध पत्र के द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद एवं क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की अन्तर-क्रिया पर एक समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया हैं। भारतीय राष्ट्रवाद प्राचीन काल से हीे एक अनवरत ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत विकसित हुआ हैं। जो कि अनेकता में एकता वाली संस्कृति से अनुप्राणित होती रही हैं। आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद का उदय एवं विकास औपनिवेशिक शोषण व अधीनता के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के रुप में हुआ। आधुनिक संचार साधनों व शिक्षा प्रणाली आदि कारको के परिणाम स्वरुप राष्ट्रीय चेतना का अभ्युदय हुआ। परिणाम स्वरुप स्वतन्त्रता आन्दोलनों के माध्यम से भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। शोध पत्र में राष्ट्रवाद पर क्षेत्रीय व स्थानीय राजनीतिक दलों के प्रभाव पर चर्चा किया गया है। क्योंकि स्वतंत्रता के बाद की प्रारम्भिक सरकारो में सभी विचारधाराओं, धर्मो, वर्गो, क्षेत्रों आदि को समावेशी प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया गया। क्योंकि धर्म तथा कौम आधारित राष्ट्रवाद के कारण ही देश का विभाजन हो चुका था। लेकिन कुछ वर्षो पश्चात् ही धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, जाति, क्षेत्र एवं अन्य पहचान आधारित राजनीतिक दल जड़े जमाने लगी।[1] जैसे- दक्षिण भारत में डी.एम.के. पार्टी व महाराष्ट्र में शिवसेना जो कि उत्तर भारतीयों से भेदभाव को बढ़ावा देती हैं। तेलंगाना मेें सक्रिय ए.आई.एम.आई.एम. पार्टी, पंजाब में अकाली दल तथा कश्मीर में सक्रिय पी.डी.पी., ये दल हमेशा एक सम्प्रदाय के लोगों के हित की ही बात करती है। वही पूर्वोत्तर में सक्रिय नगा पीपुल्स पार्टी व अन्य स्थानीय दल भी पृथकतावादी राजनीति को बढ़ावा देते है। इस प्रकार ये दल मुखर रुप से तो भारतीय राष्ट्रवाद को चुनौती नही देते लेकिन इनकी धर्म, भाषा, क्षेत्र एवं अन्य पहचान आधारित राजनीति के इस बुनियादी अंर्तविरोध के कारण राष्ट्रवाद की आत्मा आहत होती है।[2] अतः भारतीय राष्ट्रवाद भारतीयता से प्रेरित होनी चाहिए न कि किसी अन्य पहचान आधारित राजनीति से। अखिल भारतीय स्तर पर समावेशी राजनीति एवं नीतियों के माध्यम से सभी वर्गो, क्षेत्रो को प्रतिनिधित्व प्रदान कर पहचान आधारित दलों पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता हैं और यही हमारे अखण्ड भारत व राष्ट्रवाद के हित में है। इस प्रकार शोध पत्र में उपर्युक्त सन्दर्भो पर सारगर्भित व प्रभावी विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Through this paper, a critical study has been presented on the interaction between Indian nationalism and regional political parties. Indian nationalism has evolved since ancient times under a continuous historical process. Which has been inspired by the culture of unity in diversity. Nationalism emerged and developed in modern India as a reaction against colonial exploitation and subjugation. As a result of factors like modern means of communication and education system, there was emergence of national consciousness. As a result, India got independence through freedom movements.
The impact of regional and local political parties on nationalism has been discussed in the research paper. Because in the initial governments after independence, efforts were made to give inclusive representation to all ideologies, religions, classes, regions etc. Because the country was divided due to religion and caste based nationalism. But only after a few years, political parties based on religion, community, language, caste, region and other identities started taking root.[1] Like- DMK in South India and Shiv Sena in Maharashtra which promote discrimination against North Indians. Active A.I.M.I.M. in Telangana. Party, Akali Dal in Punjab and PDP active in Kashmir, these parties always talk about the interest of the people of one community only. The same Naga People's Party and other local parties active in the Northeast also promote separatist politics. In this way, these parties do not openly challenge Indian nationalism, but due to this basic contradiction of their religion, language, region and other identity based politics, the soul of nationalism gets hurt.
So Indian nationalism should be inspired by Indianness and not by any other identity based politics. Identity-based parties can be questioned by providing representation to all classes and regions through inclusive politics and policies at the all-India level, and this is in the interest of our united India and nationalism. In this way, a concise and effective analysis has been presented on the above references in the research paper.
मुख्य शब्द भारतीय लोकतंत्र, क्षेत्रीयता, राष्ट्रवाद, अलगाववाद, सद्भाव, अखण्डता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Indian Democracy, Regionalism, Nationalism, Separatism, Harmony, Integrity.
प्रस्तावना
भारतीय राष्ट्रवाद अनेकता में एकता वाली बहुलवादी संस्कृति पर आधारित है जो निरन्तर एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के आधार पर विकसित हुआ। स्वतन्त्रता के पश्चात देश के विभिन्न क्षेत्रो में धर्म, भाषा, क्षेत्र व अन्य मुद्दों के आधार पर बनने वाले क्षेत्रीय एवं पहचान आधारित राजनीतिक दलों एवं संगठनों ने समय-समय पर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के स्थान पर पहचान आधारित प्रतिबद्धता को प्राथमिकता दिया। राजनीति के इस बुनियादी अन्तर्विरोध के कारण समय-समय पर राष्ट्रीय भावना आहत होती रही हैं। इस प्रकार क्षेत्रीय विविधताओं एवं आकांक्षाओ को दबाने की बजाए हमें प्रजातान्त्रिक प्रक्रियाओं के तहत लोगों में राष्ट्रीय चेतना, सद्भाव, सहिष्णुता का विकास करना चाहिए। और क्षेत्रवाद व अलगाववाद के दुष्परिणामों के प्रति जागरुक करना चाहिए।[3]
अध्ययन का उद्देश्य भारतीय राष्ट्रवाद पर क्षेत्रीय एवं स्थानीय राजनीतिक दलों के प्रभावों का समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करना।
साहित्यावलोकन

1. ए. एस. नारंग ने अपनी पुस्तक 'भारतीय शासन एवं राजनीतिमें स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय राजनीति की विकास यात्रा एवं उसमे विभिन्न राजनीतिक दलों की भूमिका का विश्लेषण प्रस्तुत किया है

2. अभय कुमार दुबे ने अपनी पुस्तक 'लोकतंत्र के सात अध्याय' में भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था पर सारगर्भित व प्रभावी विश्लेषण प्रस्तुत किया है

3.  एम. पी. सिंह ने अपनी पुस्तक 'स्टेट पॉलिटिक्स इन इंडिया' में भारत के राज्यों की राजनीति के विभिन्न आयामों का विश्लेषण किया है

मुख्य पाठ

शोध पत्र के द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के अर्न्तसम्बन्धों पर एक विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया गया हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में राष्ट्रवाद सनातन काल से ही निरन्तर ऐतिहासिक प्रक्रिया के तहत विकसित हुआ हैं। भारतीय राष्ट्रवाद के मुख्यतः दो पहलू विद्यमान है; पहला भौतिक दूसरा आध्यात्मिक। इसका मूल चरित्र अनेकता में एकता तथा भिन्नता में समन्वय व सहअस्तित्व वाली रही हैं। यद्यपि अखण्डता भारतीय राष्ट्रवाद की आत्मा को समय-समय पर विदेशी आक्रांताओं के द्वारा आहत करने का प्रयास किया गया। जिसमे वे भौतिक रुप से तो सफल रहे लेकिन आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में आशिंक रुप से ही सफल हुए।

आधुनिक भारत में 19वीं सदी भारतीय राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण रहा है। क्योंकि इस दौरान औपनिवेशिक शोषण व अधीनता के विरुद्ध भारत के मध्यम वर्गीय लोगो में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ। जो कि शोषण के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया का परिणाम था। यद्यपि की औपनिवेशिक शासन द्वारा भारत का सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक के साथ-साथ धार्मिक व साम्प्रदायिक शोषण किया गया, लेकिन उसने भारत को एकजुटता की तरफ भी प्रवृत्त किया।

आधुनिक संचार (डाक, तार, टेलीफोन), यातायात (ट्रेन, मोटर), समाचार पत्र-पत्रिकाऐं, पश्चिम पद्धति पर आधारित आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था आदि कारको ने देश के विभिन्न क्षेत्रों के बुद्धजीवियों, राष्ट्रवादियों में राष्ट्रीय प्रेरणा को जन्म दिया। परिणाम स्वरुप इन मध्यम वर्गीय राष्ट्रवादियों एवं बुद्धजीवियों के नेतृत्व मेें विभिन्न स्वतंत्रता आन्दोलनों के माध्यम से देश को आजादी मिली। इस शोध पत्र में मुख्यतः क्षेत्रीय एवं स्थानीय राजनीतिक दलों के द्वारा राष्ट्रवाद को किस प्रकार से प्रभावित किया जाता है, आदि मुद्दों पर समग्रता से विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। क्योंकि भारत मे बहुलवाद सम्बन्धी प्रवृत्तियाँ व्यापक स्तर पर विद्यमान है इसलिए भारत की प्रारम्भिक सरकारो में विभिन्न वर्गों, क्षेत्रों एवं विचारधारा के पोशक तत्वों को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया गया। क्योंकि भारत का धर्म एवं साम्प्रदायिकता आधारित राष्ट्रवाद के कारण ही दो भागों भारत एवं पाकिस्तान के रुप में विभाजित हो चुका था। इसलिए प्रारम्भिक सरकारे सभी धर्मो, सम्प्रदायों, जातियों, वर्गो, भाषाओं व क्षेत्रों आदि समूहों की आकांक्षाओ को समायोजित करने में असफल रहें। फलस्वरुप पहचान आधारित राजनीति, विभिन्न दलों के माध्यम से जड़ जमाने लगी।[4] इन आधारों पर गठित विभिन्न राजनीतिक दलों का विवरण निम्नलिखित है-

दक्षिण भारत में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम(डी. एम. के.) व आल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (ए. आई. ए. डी. एम. के.) द्रविड़ समुदाय को लुभाने के लिए लम्बे समय तक द्रविड़ आन्दोलन चलाया तथा इस आन्दोलन के माध्यम से उत्तर भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व हिन्दी भाषा का विरोध किया तथा अपनी क्षेत्रीय अस्मिता को बनाये रखने के लिए गौरवगान किया।

महाराष्ट्र में शिवसेना एक क्षेत्रीय दल है जो महाराष्ट्र मराठीयों के लिए तथा भूमि पुत्र सम्बन्धी अवधारणा के आधार पर महाराष्ट्र में रहने वाले उत्तर भारत के लोगो के साथ भेदभाव को बढ़ावा देती है। तेलंगाना में सक्रिय आल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमान (ए. आई. एम. आई. एम.) की बुनियाद ही साम्प्रदायिकता पर आधारित है। इस दल की बुनियाद हैदराबाद के नवाब के दौर में रखी गयी थी। तब इस दल का नाम मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (एम. आई. एम.) था। यह दल हमेशा से सम्प्रदाय विशेष के लोगो के हित की बात करती है। पंजाब में खालिस्तान की मांग समय-समय पर उठता रहा है। यहाँ पर 1920 से सक्रिय अकाली दल मूल रुप से सिख हितों पर केन्द्रित राजनीतिक करती रही है। इसने अलगाववादी मांगो का कभी खुलकर विरोध नही किया। जम्मू कश्मीर देश का एक संवेदनशील राज्य है यहाँ अनेक अलगाववादी संगठन सक्रिय है जो समय-समय पर भारत विरोध में कार्य करते रहे है। लेकिन यहाँ पर क्षेत्रीय दल सक्रिय क्षेत्रीय दल नेशनल कांफ्रेस व पी.डी.पी. ने कभी भी मुखर होकर इन अलगाववादी संगठनो का विरोध नही किया।[5] 

इस प्रकार पूर्वोत्तर भारत में भी स्वतन्त्रता के बाद से ही समय-समय पर अलगाववादी आन्दोलन होते रहे है। मिजोरम में सक्रिय मिजो नेशनल फ्रन्ट 1966 से ही आजादी की मांग करते हुए सशस्त्र अभियान प्रारम्भ कर दिया जबकि नागा नेशनल काउंसिल ने भारत से अलग होने व वृहत नागालैण्ड की मांग की। 1980 के दशक से असम में उल्फा गुट व छात्र संगठन आसू (ए.ए.एस.यू) ने देश के अन्य क्षेत्रों के लोगो का विरोध व अधिक स्वायत्तता की मांग को लेकर लम्बा आन्दोलन चलाया।

इस प्रकार हमें राष्ट्रवाद को कमजोर करने वाली राजनीति व सत्ता की लोलुपता के प्रति सचेत होना पडे़गा। इन दलों ने किस प्रकार से हमारे वातावरण को अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्रवाद के सामने एक गम्भीर चुनौती उत्पन्न कर दिया है। ऐसा मानना कदापि अतिशयोक्ति नही होगा कि इनकी क्षुद्र एवं सस्ती राजनीतिक चाहत ने राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अलगाव की भावनाओं को उभारकर हमारे राष्ट्रवाद के लिए गम्भीर समस्या पैदा कर दिया हैं। अपने धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र या पहचान से लगाव व प्रेम करना कदापि गलत नही, लेकिन दूसरे की अस्मिता धर्म, क्षेत्र, भाषा एवं रिति रिवाजो के प्रति घृणा की भावना को बढ़ावा देना, राष्ट्रीयता की भावना व राष्ट्रीय एकता, अखण्डता के लिए चुनौती उत्पन्न करता है[6] तथा यह राष्ट्र के हित में नही हैं। कोई भी धर्म या सम्प्रदाय नफरत करने की इजाजत नही देता बल्कि आपसी सद्भाव, सहयोग व समन्वय का सन्देश देता है। वैसे भी राष्ट्रीय राष्ट्रवाद राष्ट्रीयता से प्रेरित होना चाहिए न कि क्षुद्रता पूर्ण क्षेत्रीयता से।[7]

 हमारे देश में बहुत अधिक बहुलता है इसी सन्दर्भ में अनेक यूरोपीय विद्वानों का मानना था कि भारत कभी एक स्थायी राष्ट्र का स्वरुप नही ले सकता। लेकिन हमने पिछले 75 सालो में छोटी-मोटी अलगाववादी प्रवृत्तियों को छोड़कर, एक सफल राष्ट्र का संचालन किया हैं। हमें क्षेत्रीय दलों एवं अन्य संगठनो की क्षेत्रीय या स्थानीय जायज आकांक्षाओ को बल पूर्वक कूचलने या दबाने की जरुरत नही है बल्कि लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओ के आधार पर समन्वय व सन्तुलन बनाने की आवश्यकता है।[8]

निष्कर्ष अन्त में हम यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि हमारे राष्ट्रवाद का मूलस्वरुप रचनात्मक राष्ट्रवाद है जिसका आधार अनेकता मे एकता व क्षेत्रीयता के प्रति सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय पर आधारित है। हमारी शैक्षिक व्यवस्था इस तरह की होनी चाहिए जो भावी पीढ़ियो मे राष्ट्रव्यापी दृष्टिकोणों का विकास कर क्षेत्रीयता व प्रान्तीयता के दुष्परिणामों के प्रति जागरुक कर देश की एकता अखण्डता व सम्प्रभुता को अक्षुण्ण रख सके।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. नारंग, ए.एस. (2011), ”भारतीय शासन एवं राजनीति, गीतांजलि पब्लिकेशन, नई दिल्ली 2. श्री कांत, एच (2003), ”आइडेंटिटी पॉलिटिक्स इट्स कंजरवेटिव क्रिटिक्स, इकोनोमिक एण्ड पॉलिटिकनल वीकली 3. दुबे, अभय कुमार (2014), ”लोकतंत्र के सात अध्याय“ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 4. पाई, सुधा (1990), ”रीजिनल पार्टिज एण्ड द इमर्जिंग पैटर्न आफ पॉलिटिक्स इन इण्डिया, द इण्डियन साइन्स एसोसिएशन 5. सिंह, एम.पी. (2017), ”स्टेट पालिटिक्स इन इण्डिया प्रीमस बुक्स, नई दिल्ली 6. सेन, रोनोजॉय (2012), ”द परसिस्टेन्स ऑफ कास्ट इन इण्डियन पालिटिक्स“ पैसिफिक अफेयर्स 7. देसाई, आई. पी. (1967), ”कास्ट एण्ड पॉलिटिक्स“ इकोनामिक एण्ड पॉलिटिकनल वीकली 8. कुमार, विवेक (2003), ”पॉलिटिक्स आफ चेन्ज“ इकोनोमिकली एण्ड पॉलिटिकल वीकली