ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
Anthology The Research
सूचना के अधिकार की व्यापकता एवं उपादेयता
Scope and Utility of Right to Information
Paper Id :  16661   Submission Date :  10/11/2022   Acceptance Date :  21/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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राजेश कुमार यादव
एसोसिएट प्रोफेसर
समाजशास्त्र विभाग
डाॅ0 अम्बेडकर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
ऊंचाहार, रायबरेली ,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतांत्रिक देश अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझता है। वहीं दूसरी ओर सतत् जागरूकता लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है। सूचना का अधिकार अधिनियम इसी दिशा में एक सार्थक कदम है जो यह दर्शाता है कि शासन जनता के प्रति उत्तरदायी है और अपने आप को पारदर्शी बनाने के लिये कटिबद्ध है। सूचना का अधिकार का नियम शासन को पारदर्शी एवं उत्तरदायी बनाने में मील का पत्थर साबित हुआ है। लेकिन इस सन्दर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि सूचना का अधिकार ऐसा अधिकार नहीं है, जिस पर किसी तरह का कोई प्रतिबन्ध न हो। कई सूचनायें ऐसी होती है जिनको प्रकट करने के घातक परिणाम हो सकते हैं। जैसे देश की सुरक्षा से सम्बन्धी मामले की सूचना यदि सार्वजनिक कर दी जाये तो देश की सुरक्षा पर आघात पहॅुच सकता है। सूचना का अधिकार अधिनियम का यदि हम समग्र रूप से अवलोकन करें तो यह देखते हैं कि इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि जो सूचनायें गोपनीय रखीं जानी चाहिये, उन्हें प्रकट करने के बजाय रोक कर रखा गया है। उनका संरक्षण किया जाय। लोक कल्याणकारी राज्य में सरकार का कार्यक्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है। यहाॅ पर नौकरशाही के अधिकार क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर वृद्धि हुई है। ऐसी स्थिति में जनता भी शासन के कार्यों से अवगत होना चाहती है। यहाॅ पर सूचना का अधिकार अधिनियम जनता की इस इच्छा को पूरा करने में काफी सहायक रहा है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद India is the largest democratic country in the world. A democratic country considers it its ultimate duty to protect the rights of its citizens. On the other hand, continuous awareness is an essential condition of democracy. The Right to Information Act is a meaningful step in this direction, which shows that the government is responsible to the public and is determined to make itself transparent. The Right to Information Act has proved to be a milestone in making the government transparent and accountable. But the thing to be noted in this context is that the right to information is not a right on which there is no restriction of any kind. There are many types of information whose disclosure can have fatal consequences. For example, if the information related to the security of the country is made public, then the security of the country can be hurt. If we observe the Right to Information Act as a whole, we see that full care has been taken that the information which should be kept confidential is withheld instead of being disclosed. They should be protected.
In the public welfare state, the work area of the government has become very wide. Here the jurisdiction of bureaucracy has increased on a large scale. In such a situation, the public also wants to be aware of the works of the government. Here the Right to Information Act has been very helpful in fulfilling this wish of the public.
मुख्य शब्द राष्ट्रहित, गोपनीय, कैबिनेट सचिव, फोटोकाॅपी, प्रिन्टआउट, लोक सूचना प्राधिकारी।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद National interest, confidential, cabinet secretary, photocopy, printout, public information authority.
प्रस्तावना
हमारे देश मेें सूचना के अधिकार की विकास यात्रा 1952 से शुरू होती है जब भारत में पहला प्रेस आयोग बना। सरकार ने आयोग से प्रेस की स्वतंत्रता सम्बन्धी जरूरी प्रावधानों पर सुझाव मांगा। आयोग ने पारदर्शिता की वकालत तो की लेकिन सूचना के अधिकार को गैर जरूरी माना। इसके बाद 1967 में सरकारी गोपनीयता कानून में संशोधन के प्रस्ताव आए लेकिन उन प्रस्तावों को खारिज कर इस कानून को और सख्त बना दिया गया। 1977 में जनता पार्टी में अपने चुनाव घोषणा पत्र में सूचना का अधिकार देने का वायदा किया। सरकार बनने के बाद कैबिनेट सचिव के नेतृत्व में एक कार्यदल बना। उसकी रिपोर्ट भी आयी लेकिन कुछ नहीं हुआ और सरकार गिर गयी। 1978 में प्रेस आयोग बना। इस प्रेस आयोग ने और 1966 में बनी प्रेस परिषद ने कुछ सिफारिशें की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। फिर 1981-82 तथा 1986 में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णय आए जिनमें देश के आम नागरिकों के लिए जानने के अधिकार की जबर्दस्त वकालत की गयी थी। 1990 में न्यायमूर्ति सरकारिया की अध्यक्षता में प्रेस परिषद ने सूचना के अधिकार पर कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें की थीं। ये सिफारिशें आज भी मील का पत्थर मानी जाती है। 1996 तथा 1997 मेें सूचना के अधिकार से सम्बन्धित निजी विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किए गए किन्तु यह पारित न हो सका। नागरिकों को सूचना का अधिकार प्रदान करने से संबंधित विधेयक के प्रारूप को अगस्त 2002 में केन्द्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी मिली। दिसम्बर 2002 में देश में पहली बार सूचना के अधिकार को मान्यता देने वाले विधेयक को पारित किया गया। इस विधेयक का नाम सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम, 2002 था जो सूचना प्राप्त करने की स्वतंत्रता देता है। तकनीकी रूप से यह त्रुटिपूर्ण था तथा मावाधिकारों की सार्वभौम घोषणा की भावना के अनुकूल नहीं था। बाद में 12 मई 2005 को संसद द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 पारित किया गया। इसे 15 जून 2005 को राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया और 12 अक्टूबर, 2005 को अधिसूचित होने के बाद यह सम्पूर्ण भारत में लागू हुआ। इस अधिनियम के दायरे में केन्द्र एवं राज्य सरकार के सभी कार्यालयों के अतिरिक्त पंचायतों, स्थानीय निकायों, तथा सरकार से सहायता अनुदान अथवा किसी भी अन्य रूप में धन प्राप्त करने वाले गैर सरकारी संगठनों को रखा गया है। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अंतर्गत किसी भी नागरिक को सरकारी कार्यालय और अधिकारी से फाइलों को देखने, उससे नोट्स लेने, उसकी फोटो कापी लेने का अधिकार होगा। अगर जानकारी कम्प्यूटर पर हो तो प्रिंट आउट या फ्लापी ले सकेगा। मांगी गयी सूचना 30 दिन के अंदर उपलब्ध कराना कानूनन जरूरी होगा, किसी की जिंदगी या आजादी से जुड़ी सूचना 24 घंटे में देनी होगी, सभी मंत्रालय और विभाग इस काम के लिए खासतौर पर जनसूचना अधिकार नियुक्त करेंगे। हर राज्य में चुनाव आयोग की तरह मुख्य सूचना आयुक्त का कार्यालय होगा, जरूरी सूचना न मिलने पर मुख्य आयुक्त कार्यालय में शिकायत की जा सकती है और मानवाधिकार या भ्रष्टाचार का मामला हो तो खुफिया एजेंसियों से भी जवाब मांगा जाना सम्भव हो सकेगा।
अध्ययन का उद्देश्य 1. सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की अवधारणा का अध्ययन करना। 2. अधिनियम का मानव सशक्तिकरण के योगदान में अध्ययन करना। 3. लोक तान्त्रिक प्रणाली में सूचना के सन्दर्भ में बने इस विशेष कानून की भूमिका का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन
साहित्यावलोकन शोधकार्य की महत्वपूर्ण कड़ी है। यह अनुसंधान की समस्या से सम्बन्धित उन सभी प्रकार की पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशित-अप्रकाशित शोध प्रबन्धों एवं अभिलेखों आदि की ओर संकेत करती है जिनके अध्ययन से शोधकर्ताओं की अपनी समस्या के चयन, परिकल्पनाओं के निर्माण, अध्ययन की रूप-रेखा तैयार करने एवं कार्य को आगे बढ़ाने में सहायता मिलती है। इससे शोधकर्ताओं के शोध विधि का भी ज्ञान प्राप्त होता है। जनसूचना अधिकार अधिनियम 2005 से संबंधित निम्नलिखित पुस्तकें जैसे जय नारायण पाण्डेय की भारत का संविधान, एम0 लक्ष्मीकान्त भारत की राज व्यवस्था, अरूण सागर सूचना का अधिकार, एस के जैन सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अध्ययन के अवलोकन से पता चलता है कि जन सूचना अधिकार अधिनियम 2005 अपने आप में एक महत्वपूर्ण अभिलेख है। इस अधिनियिम में सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहल से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को दिया गया है। समयबद्ध सूचना की अनिवार्यता ने लोगों को इस कानून की जानने की इच्छा प्रबल की। इस कानून में आवेदन से लेकर सूचना प्राप्त करने की प्रविधियों का उल्लेख मिलता है। संवैधानिक संरक्षण के कारण उक्त अधिकार की उपादेयता का पता चलता है। सूचना पाने के लिए इस अधिनियम में एक सरल और सहज प्रक्रिया विहित की गयी है। इसमें सूचना पाने वाले व्यक्ति से मात्र इतनी अपेक्षा की गयी है कि वह सम्बन्धित लोकसूचना प्राधिकारी के समक्ष अंग्रेजी, हिंदी या उस क्षेत्र की अधिकारिक भाषा में नियत शुल्क के साथ आवेदन करे। आवेदन मेें सूचना मांगे जाने के कारण, उसके उपयोग के प्रकार इत्यादि के विषय में आवेदक से किसी जानकारी की अपेक्षा नहीं की गयी है। अधिनियम में निर्धारित रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए आवेदन के साथ शुल्क संबन्धी बाध्यता भी समाप्त कर दी गयी है। इसके अतिरिक्त यदि आवेदक अपना आवेदन त्रुटिवश किसी असम्बद्ध प्राधिकारी या कार्यालय को दे देता है तो उक्त प्राधिकारी का यह दायित्व होगा कि उक्त आवेदन संबन्धित कार्यालय या प्राधिकारी के पास भिजवाए। जहां तक एक ओर इस कानून के अन्तर्गत देश के सभी नागरिकों को सूचना पाने का अधिकार प्राप्त है वहीं दूसरी ओर इस तथ्य पर भी ध्यान दिया गया है कि कहीं सूचना के अधिकार के नाम पर समाज या राष्ट्रहित के नाम पर गोपनीय रखी जाने योग्य जानकारियों का प्रकटीकरण न हो जाय। इसी को ध्यान में रखते हुए अधिनियम कतिपय जानकारियों को सार्वजनिक न किए जाने का निर्देश देता है। इसके अंतर्गत लोक सूचनाधिकारी ऐसी सूचनाओं को प्रकट करने से इनकार कर सकता है जिनका सम्बन्ध देश की एकता, अखण्डता, सुरक्षा, वैज्ञानिक एवं आर्थिक हित तथा अन्य देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध से है। इसके अतिरिक्त ऐसी सूचना जिनके प्रकटीकरण पर न्यायालय द्वारा रोक लगाई गयी है, किसी व्यक्ति के जीवन एवं स्वतंत्रता को नष्ट करने की आशंका वाली सूचना, संसदीय, विशेषाधिकार का हनन करने वाली सूचनाएं, अपराध की प्रेरणा देने वाली सूचनाएं, न्यायालय की अवमानना करने वली सूचनाएं इत्यादि का प्रकटीकरण न किए जाने का प्रावधान अधिनियम में किया गया है। अधिनियम मेें सूचना न देने के दोषी पाये गए लोक सूचना अधिकारी के लिए दण्ड का प्रावधान भी किया गया है। बिना किसी तर्कसंगत कारण के सूचना उपलब्ध कराने में देरी के लिए सम्बन्धित लोकसूचना अधिकारी पर 250 रूपये प्रतिदिन की दर से अर्थदण्ड आरोपित किया जा सकता है। आवेदक के अनुरोध को न मानने, द्वेषपूर्ण भावना के साथ सूचना को नष्ट करने या जानबूझ कर गलत सूचना देने की स्थिति में 25000 रूपये तक के अर्थदण्ड का प्रावधान है। कुछ माह पूर्व ही इसी प्रकार के एक प्रकरण में आईआईटी दिल्ली के कुलसचिव पर 25000 रूपए जुर्माना लगाया गया था। सूचना का अधिकार अधिनियम के निर्माण के साथ ही हमारा देश गोपनीयता और पारदर्शिता के मामले में एक कदम और आगे बढ़ा है। यह लोकतंत्र को और मजबूत आधार प्रदान करता है तथा सत्ता के निरंकुश इस्तेमाल पर अंकुश लगाता है। यह सत्ता में समान भागीदारी को बढ़ावा देता है तथा सुशासन की प्रक्रिया को विस्तार देता है। सूचना के अधिकार को मान्यता देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने सर्वमत से कहा था कि अनुच्छेद 19 (1) के अंतर्गत जानने के अधिकार के बिना स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की कल्पना नहीं की जा सकती है। न्यायालय के अनुसार प्रत्याशी का पूर्व आचरण, सम्पत्ति का ब्यौरा, शिक्षा का स्तर मतदाता को सही व्यक्ति को चुनने में सहायक होता है। खण्डपीठ के इस निर्णय के बाद ही प्रत्याशियों द्वारा नामांकन पत्र के साथ ही निम्नलिखित पांच सूचनाएं देना अनिचार्य कर दिया गया है - 1. प्रत्याशी पूर्व में सिद्ध दोष है या था जुर्माने से दंडित किया गया है। 2. नामांकन पत्र भरने के 6 माह पहले प्रत्याशी पर लगे ऐसे आरोप का विवरण जिसमें दो वर्ष या अधिक की सजा का प्रावधान है। 3. प्रत्याशी उसके परिवार के सदस्यों तथा आश्रितों की चल-अचल सम्पत्ति तथा बैंक या अन्य संस्था में जमा सभी धनराशियों का विवरण। 4. प्रत्याशी पर विशेष कर वित्तीय संस्थानों अथवा सरकारी संस्थानों का बकाया। इसमें लागत, बिजली का बिल, ऋण जैसी देनदारियों को शामिल किया जाता है। 5. प्रत्याशी की शैक्षिक योग्यता का विवरण। निर्वाचन आयोग द्वारा सूचना के अधिकार को न केवल मान्यता दी गयी है बल्कि इसका कड़ाई से पालन भी सुनिश्चित कराया जा रहा है। वास्तव में यह एक बड़ा कदम है क्येांकि लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनाव एक अतिमहत्वपूर्ण आधारिक प्रक्रिया है।
सामग्री और क्रियाविधि
जन सूचना अधिकार की उपादेयता का मूल्यांकन करने हेतु शोध प्रविधि के निम्नलिखित आधार तय किये गये :- 1. जन सूचना अधिकार के अंतर्गत लोगों द्वारा माॅगी गयी सूचनाओं के आवेदन पत्रों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके तहत स्पष्ट एवं सही जानकारी की दर में वृद्धि हुयी है। 2.प्रश्नावली विधि के माध्यम से जन सूचना अधिकार सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने पर पता चला कि लोगों में इस अधिकार के प्रति काफी सजगता दिखी। 3. जन सूचना अधिकार को संवैधानिक दर्जा देने के कारण अधिकारियों में अपने कर्तव्यों के प्रति विषेष रूप से सजग रहने की आवश्यकता पर बल पड़ा। 4. शहरों की अपेक्षा ग्रामीणांचल में तुलनात्मक रूप से जन सूचना अधिकार के प्रति कम जागरूकता है। 5. जन सूचना अधिकार का दायरा बड़ा होने के कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में सजगता का समावेष देखने को मिला है। टी0वी0 चैनलों, अखबारों में प्रतिदिन होने वाली चर्चाओं तथा उनके द्वारा दिखायें गये सर्वेक्षणों से इस कानून की उपदेयता का पता चला।
परिणाम

वास्तव में यह अधिनियम एक पारदर्शी शासन प्रणाली की वकालत करता है। अधिनियम के उद्देश्य खण्ड में स्पष्ट रूप से अंकित है कि लोक प्रशासन में खुलापनपारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए इस विधि को पारित किया जा रहा है। वास्तव में यह एक सकारात्मक पहल है जो निश्चित रूप से सराहनीय है। यह अधिनियम आम आदमी को भी सरकार के गिरेबान में झांकने का हक देता है। हलांकि इसमें कोई शक नहीं कि इस अधिनियम के बावजूद देश की नौकरशाही अभी भी सूचनाएं देने में आनाकानी करती हैं। प्रायः कार्यालयों के अधिकारी इस अधिनियम को ही नकारते नजर आते हैं। और किसी न किसी भांति आवेदक को न केवल सूचना देने से परहेज करते हैं बल्कि इसके आवेदन को लेने से इनकार कर दते हैं।
हालांकि सूचना के अधिकार को मान्यता देने तथा इसको कानूनी जामा पहनाने वाला यह अधिनियम अपने आप में सम्पूर्ण है और यदि इसका कड़ाई से पालन किया जाय तो हमारे देश के प्रशासन में और पारदर्शिता तथा चुस्ती लाई जा सकती है। सूचना के अधिकार को और सशक्त बनाने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं -
1. सूचना का अधिकार कानून चूंकि अभी नया है और इसे लागू हुए बहुत समय नहीं हुआ है इसलिए इस कानून के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा किया जाना आवश्यक है। इसके लिए गैरसरकारी संगठनोंजनसंचार माध्यमों इत्यादि का सहारा लिया जा सकता है।
2. सभी कार्यालयों तथा विभागों को इस अधिनियम के बारे में पर्याप्त जानकारी दी जानी चाहिए तथा आवश्यक होने पर प्रशिक्षण की सुविधा भी उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
3. सूचना के अधिकार को सार्थक बनाने के लिए प्रवर्तन निकायों का गठन किया जाना चाहिए। प्रवर्तन निकायों का दायित्व ऐसे व्यक्तियों को सौंपा जाना चाहिए जिनकी सत्यनिष्ठा पर कोई धब्बा न हो।
4. निजी क्षेत्रों के सभी प्रतिष्ठानों को इस अधिनियम के दायरे में लाना चाहिए।
5. सभी राज्य सरकारों तथा केन्द्र सरकार को चाहिए कि वे अपने अधीनस्थ सभी कार्यालयों के क्रिया-कलाप को पारदर्शी बनाने हेतु उपाय करें तथा एक उत्तरदायित्वपूर्ण संस्कृति के विकास हेतु अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराएं।
6. सूचना के अधिकार से सम्बन्धित सभी प्रकार के नियमों की जानकारी सभी कार्यालयों में मुख्य स्थान पर लिखवाया जाय ताकि साधारण व्यक्ति भी इससे अवगत हो सके।

निष्कर्ष निश्चय ही यदि ये सब उपाय किए जायं तो देश में एक कुशल तथा पारदर्शी शासन व्यवस्था स्थापित हो सकती है। इस कानून द्वारा लोकसेवकों की जवाबदेही तय करके ही उनकी अकर्मण्यता, पक्षपातपूर्ण व्यवहार, निरंकुशता, अनुशासनहीनता इत्यादि पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि इससे न केवल देश की निरीह जनता का उत्पीड़न बंद होगा बल्कि एक निश्चित समय में बिना भाग-दौड़ के उनका काम भी होगा। यदि इस अधिकार का सही ढंग से उपयोग हो तो न केवल देश की प्रशासनिक व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव आयेगा बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वरूप भी निखरेगा।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. प्रकाशन और विक्रय प्रबंधक, विधि साहित्य प्रकाशन, भारत सरकार, भारतीय विधि संस्थान भवन, नई दिल्ली, 2019 2. प्रकाशन-नियंत्रक, भारत सरकार, सिविल लाइन्स दिल्ली, 2018 3. रंजन, सुधीर: भारत मेें सूचना के अधिकार का महत्व, (लेख) कुरूक्षेत्र हिन्दी मासिक पत्रिका मार्च, 2020 4. अरोड़ा, संजय: सूचना के अधिकार की उपादेयता, लेख योजना मासिक पत्रिका अगस्त, 2019 5. यादव, रामजी: सूचना के अधिकार की उपादेयता एवं व्यापकता, अर्जुन पब्लिीशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2017 6. श्रीवास्तव, मनोज: भारत मेें सूचना का अधिकार (लेख) हिन्दुस्तान हिन्दी दैनिक समाचार पत्र, सितम्बर, 2018 7. शुक्ला, अभिषेक: समाज में सूचना के अधिकार का महत्व, (लेख), कुरूक्षेत्र हिन्दी मासिक पत्रिका जनवरी 2020