ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- IX October  - 2022
Innovation The Research Concept
राष्ट्रीय आंदोलन में ठाकुर केसरी सिंह बारहठ का योगदान
Contribution of Thakur Kesari Singh Barahath in the National Movement
Paper Id :  16626   Submission Date :  14/10/2022   Acceptance Date :  20/10/2022   Publication Date :  24/10/2022
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अशोक कुमार
सह-आचार्य
इतिहास विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
सीकर,राजस्थान, भारत
सारांश ठाकुर केसरी सिंह बारहट ने उदयपुर में शिक्षा प्राप्त करते हुए बंगला, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं के साथ इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान, खगोलशास्त्र, ज्योतिष का अध्ययन कर विद्वानता को प्राप्त किया। इन्होंने मैजिकी की को राजनीति के क्षेत्र में अपना गुरु माना। कोटा को अपनी कर्मस्थली मानते हुए इन्होंने राजस्थान के क्षत्रियों व अन्य लोगों को ब्रिटिश गुलामी के विरुद्ध एकजुट करते हुए उनको शिक्षित किया तथा जागृति फैलायी। केसरी सिंह राजस्थानी निरेशों की ब्रिटिश आटुकारिता से बहुत व्याकुल रहते थे। इस हेतु इन्होंने कई सोरठो व दोहो की रचना की तथा इन्ही के माध्यम से स्थानीय शासको में जोश भरा तथा हुकूमत के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत बंधायी। केसरी सिंह ने सामाजिक सुधारों के माध्यम से क्षत्रिय समाज में जागृति पैदा की। बारहठ के अनुसार बच्चों को ऐसे शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे उन्हें अपनी जाति, देश एवं इतिहास का वास्तविक ज्ञान हो और उनमें स्वाभिमान एवं देशभक्ति के संस्कार पैदा हो। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार- प्रसार की योजनाओं को मूर्तरूप दिया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Thakur Kesari Singh Barhat attained scholarship by studying history, philosophy, psychology, astronomy, astrology along with languages ​​like Bangla, Marathi, Gujarati etc. while getting education in Udaipur. He considered Magic Key as his guru in the field of politics. Considering Kota as his place of work, he united the Kshatriyas and other people of Rajasthan against British slavery, educate them and spread awareness. Kesari Singh was very disturbed by the British dependence of the Rajasthani rulers. For this, he composed many sorthos and couplets and through these, the local rulers got enthusiastic and got the courage to stand against the government. Kesari Singh created awareness in the Kshatriya society through social reforms. According to Barhath, children should be given such education, so that they have real knowledge of their caste, country and history and inculcate self-respect and patriotism in them. For this, he gave shape to the plans for the promotion of national education.
मुख्य शब्द बारहठ का योगदान, राजपूताना क्रांतिकारी गतिविधि, ब्रिटिश शासन की खिलाफत तथा समाज सुधार।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Contribution of Barhath, Rajputana Revolutionary Activity, Khilafat of British Rule and Social Reform.
प्रस्तावना
केसरी सिंह बारहठ सुधारवादी एवं जन जागृति के कार्यों में लगे रहे लेकिन उन्हें यह विश्वास था कि सत्ता परिवर्तन के बिना जातीय व राष्ट्रीय उत्थान संभव नहीं होगा। इसलिए उनका झुकाव सुधारवाद से क्रांतिवाद की ओर होता गया। उन्होने राजपूताने के नवयुवकों को व्यापक स्तर पर क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल करने के उद्देश्य से 'वीर भारत सभा' नामक क्रांतिकारी संगठन का सहारा लिया। उन्होंने संगठन के संचालन हेतु धन की आवश्यकता को महसूस किया तथा इस हेतु लूट व हत्या जैसे कार्यों को भी अन्जाम दिया। परिणाम स्वरुप जेल भी जाना पड़ा। बारहठ ने उस समय की शिक्षा व्यवस्था का भी विरोध किया, जो हमारे समाज को लगभग अलग-थलग कर पटककर आपस में हीनता, द्वेषता की भावना का विकास पैदा कर रही थी। इस प्रकार से केसरी सिंह ने हर क्षेत्र को छूते हुए समाज में क्रांति लाने का काम किया तथा जागृति के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंक दिया।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध प्रबंध का उद्देश्य केसरी सिंह बारहठ के द्वारा किये गये जागृति के कार्यों को अध्ययन पटल पर रखकर, आम जन को प्रेरित करने तथा ब्रिटिश हुकूमत को जोड़ झुकाने की व्यवस्था को प्रस्तुत करना है। अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किस प्रकार से शिक्षा व जागृति से लेकर, लूट तथा हत्या तक को किस प्रकार काम लिया जा सकता है।
साहित्यावलोकन

1. बी. एल. पनगड़िया के कृति 'राजस्थान में स्वतंत्रता संग्राम' (1985) में ब्रिटिश शासन काल में राजस्थान के विभिन्न रियासतों में हुये जन आंदोलन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। इसमें सन् 1857 से 1949 के काल में राजस्थान की रियासतों की जनता द्वारा देश के स्वतंत्रता संग्राम में दिये गये योगदान का विवरण दिया गया है।

2. कन्हैयालाल राजपुरोहित की पुस्तक 'स्वाधीनता संग्राम में राजस्थान की अाहुतियां' (1992) में विदेशी प्रभुत्व से देश के मुक्ति संग्राम में राजस्थान के योगदान का प्रमाणिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसमे राजस्थान की गौरवपूर्ण छाती से नई पीढ़ी को परिचित कराने का प्रयास किया गया है। राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम में केसरी सिंह बारहठ के योगदान का विस्तृत विवेचन दिया गया है।

3. शंकर सहाय सक्सेना की कृति 'देश जिन्हें भूल गया' (1982) में आजादी की लड़ाई के लिए अपना संपूर्ण जीवन मातृभूमि की बलिवेदी पर अर्पित करने वाले क्रांतिकारी वीरों की जीवनियां है। इसमें मैडम कामा, श्यामजी कृष्ण वर्मा, मदन लाल धींगरा, लाला हरदमाल, रासबिहारी बोस, सरदार सिंह राव राणा, केसरी सिंह बारहठ, जोराबर सिंह बारहठ, प्रताप सिंह बारहट इत्यादि क्रांतिकारी देशभक्तों की प्रेरणादायक जीवनियां लिखी है।

मुख्य पाठ

क्रांतिकारी कवि केसरी सिंह बारहठ का जन्म 21 नवम्बर 1872 ई. में कृष्णसिंह बारहठ के घर शाहपुरा राज्य की अपनी पैतृक जागीर के गाँव देवपुरा में हुआ। जब केसरी सिंह की आयु 1 माह थी तभी उनकी माता का निधन हो गया। इनके पिता कृष्णसिंह बारहठ की गणना तत्कालीन राजपूताना के माने हुए राजनीतिज्ञ, इतिहासकार और विद्वानों में की जाती थी। वे एक विद्वान पुरुष होने के साथ-साथ एक महान देशभक्त थे। उन पर दयानंद सरस्वती के विचारों का प्रभाव था। ऐसे देशभक्त परिवार में जन्म लेने के कारण केसरीसिंह को एक महान थाती विरासत में प्राप्त हुई। उनकी शिक्षा उदयपुर में प्रारम्भ हुई। उन्होंने बांगला, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं के साथ इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान, खगोलशास्त्र, ज्योतिष का अध्ययन कर विद्वता हासिल की। डिंगल-पिंगल भाषा की काव्य सर्जना तो उनके जन्मजात चारण-संस्कारों में शामिल थी ही, बनारस से गोपीनाथ नामक पंडित को बुलाकर उन्हें संस्कृत की भी शिक्षा दिलवाई गई। केसरीसिंह के स्वाध्याय के लिए उनके पिता कृष्णसिंह का प्रसिद्ध पुस्तकालय कृष्ण वाणी-विलास भी उपलब्ध था। राजनीति में वे इटली के राष्ट्रपिता मैजिनी को अपना गुरु मानते थे। प्रारम्भ में केसरीसिंह भी अपने पिता के मार्गदर्शन में मेवाड़ राज्य की सेवा में कार्य करने लगे। परन्तु 1900 ई. में वे उदयपुर छोड़कर कोटा महाराव की सेवा में आ गये। इसके पश्चात् इन्होंने कोटा को ही अपनी कर्मस्थली बना लिया।

राजकीय सेवा के दौरान केसरीसिंह विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों एवं विचारधाराओं के संपर्क में आये। वे भारतीय समाज की पतित अवस्था से काफी दुखी थे। उन्होंने राजस्थान के क्षत्रियों और अन्य लोगों को ब्रिटिश गुलामी के विरुद्ध एकजुट करने, शिक्षित करने एवं उनमें जागृति लाने के लिये कार्य किया। उनका विश्वास था कि यदि राजस्थान की राजपूत और चारण जातियाँ एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा लें तो फिर राजस्थान में ब्रिटिश शासन का अंत हो जायेगा। और फिर एक बार जब राजपूताना से उनके पैर उखड़ जायेंगे तो अंत में वे भारत को भी छोड़कर जाने के लिये मजबूर हो जायेगे। केसरीसिंह राजस्थानी नरेशों की ब्रिटिश चाटुकारिता से भी अत्यंत दुखी थे। अपने प्रतापी पूर्वजों की तुलना में उनका यह गर्हित आचरण बारहठजी की नजर में एक कलंक था। वे उन्हें उनके लुप्त गौरव का स्मरण दिलाकर उठ खड़े होने के लिए प्रेरित करना चाहते थे। भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन ने 1 जनवरी 1903 को महारानी विक्टोरिया के उत्तराधिकारी एडवर्ड सप्तम के ब्रिटिश सम्राट बनने के उपलक्ष्य में दिल्ली में एक विशाल दरबार का आयोजन किया। इस अवसर पर जब मेवाड़ के महाराणा फतहसिंह को भी अन्य शासकों की भाँति ब्रिटिश के प्रति राजभक्ति व्यक्त करने के लिये दरबार में उपस्थित होने हेतु विवश किया गया। ऐसे समय में केसरीसिंह ने 13 सोरठों की रचनाकर मेवाड़ महाराणा को भिजवाया। चेतावनी रा चूंगट्याके नाम से प्रसिद्ध इन दोहों को जब मेवाड़ महाराणा ने पढ़ा तो उनका स्वाभिमान और गौरव जाग उठा। यही कारण था कि दिल्ली पहुँचकर भी महाराणा ब्रिटिश सम्राट के दरबार में नहीं गये।

1900 से 1914 की कालावधि में केसरीसिंह ने समाज सुधार के कार्योें में उत्साहपूर्वक भाग लिया। उनका मानना था कि यदि क्षत्रिय जाति को सामाजिक पतनावस्था के गर्त से निकाल लिया जाये तो देश का इतिहास बदल सकता है। उन्होंने क्षत्रिय समाज में व्याप्त कुरीतियों और रूढ़ियों के विरुद्ध जन जागृति एवं संगठन का कार्य आरंभ किया। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के माध्यम से राजपूताना के लोगों में जनजागरण की योजनाएँ बनाई। इस समय अजमेर में मेयो कॉलेज में राजाओं और राजकुमारों के लिये अंग्रेजों ने ऐसी शिक्षा प्रणाली लागू कर रखी थी, जिसमें ढ़लकर वे अपनी प्रजा और देश से कट कर अलग-थलग पड़ जायें। उनका मानना था कि ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली भारतीय बच्चों में दासता व हीनता के संस्कार उत्पन्न कर रही है। उनके अनुसार बच्चों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिये जिससे उन्हें अपनी जाति, देश एवं इतिहास का वास्तविक ज्ञान हो और उनमें स्वाभिमान एवं देशभक्ति के संस्कार पैदा हो, उनमें आत्मविश्वास और आत्मबल की भावना जागृत हो। इस उद्देश्य के लिये उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार की योजनायें बनाई। इस योजना में राजस्थान के कई बुद्धिजीवी उनके साथ थे। यद्यपि वे सुधारवादी एवं जन जागृति के कार्यों में लगे रहे लेकिन उन्हें वह विश्वास हो गया था कि सत्ता परिवर्तन के बिना जातीय एवं राष्ट्रीय उत्थान का कार्य संभव नहीं होगा। अतः उनका झुकाव सुधारवाद से क्रांतिवाद की ओर हो गया।

राजपूताना में क्रांतिकारी गतिविधियों को गति देने के उद्देश्य से रासबिहारी बोस से संपर्क स्थापित किया और अभिनव भारत समितिनामक क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गये। उन्होंने राजपूताना में इस क्रांतिकारी संगठन की स्थापना करवाई और अमीरचन्द तथा बृजमोहन माथुर को इसका संचालक बनाया। उन्होंने राजपूताने के नवयुवकों को व्यापक स्तर पर क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल करने के उद्देश्य से 1910 ई. में वीर भारत सभानामक गुप्त क्रांतिकारी संगठन बनाया। इस संगठन में उनके साथ अर्जुनलाल सेठी, राव गोपालसिंह एवं सेठ दामोदरदास राठी भी जुड़े हुए थे। केसरी सिंह को जब सूचना मिली कि रास बिहारी बोस भारत में सशस्त्र क्रांति की योजना बना रहे हैं तो राजस्थान में उन्होंने क्रांति का कार्य स्वयं संभाला और अपने भाई जोरावर सिंह, पुत्र प्रताप सिंह और जामाता ईश्वरदान आसिया को रासबिहारी बोस के पास भेज दिया। उन्होंने स्वतंत्रता की आग में अपने पूरे परिवार को झोंक दिया।

इसी दौरान जब क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन हेतु धन की कमी आड़े आई तो इससे उबरने के लिए उन्होंने अपने दल के साथ जोधपुर के रामस्नेही रामद्वारे के महंत प्यारेलाल को लूटने की योजना बनाई और इसी क्रम में 25 जून 1912 ई. को महंत प्यारेलाल की हत्या कर दी गई। अब ब्रिटिश सरकार ने महंत प्यारेलाल की हत्या के केस में 1914 ई. में केसरीसिंह को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें 20 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। ब्रिटिश सरकार ने उनकी पैतृक जागीर और संपूर्ण संपत्ति जब्त कर ली। कारावास की सजा होने के कुछ समय पश्चात् उन्हें कोटा जेल से बिहार की हजारीबाग सेंट्रल जेल भेज दिया गया। जेल में उन्होंने बिना विचलित हुए अनेक यातनायें सहन की।

निष्कर्ष हजारी बाग जेल से छूटने के बाद अप्रैल, 1920 में उन्होंने राजपूताना के एजेंट गवर्नर जनरल (आबू) को एक पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने राजस्थान और भारत की रियासतों में उत्तरदायी शासन-पद्धति कायम करने के लिए सूत्र रूप से एक योजना प्रस्तुत की। इसमें राजस्थान महासभा के गठन का सुझाव था जिसमें दो सदन प्रथम, भू-स्वामी प्रतिनिधि मंडल (जिसमें छोटे बड़े उमराव, जागीरदार) और द्वितीय सदन सार्वजनिक प्रतिनिधि परिषद (जिसमें श्रमजीवी, कृषक, व्यापारी) रखने का प्रस्ताव था। सन् 1920-21 में सेठ जमनालाल बजाज द्वारा आमंत्रित करने पर केसरीसिंह सपरिवार वर्धा चले गये। देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले इस क्रांतिकारी ने 14 अगस्त, 1941 को अंतिम सांस ली।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. क्रांतिकारी बारहठ केसरीसिंह: व्यक्तित्व एवं कृतित्व (संपादक-ब्रजमोहन जावलिया, फतेहसिंह, देवीलाल पालीवाल) भाग-1, उदयपुर, 1984 2. कन्हैयालाल राजपुरोहित, स्वाधीनता संग्राम में राजस्थान की आहुतियाँ, जोधपुर, 1992 3. शंकर सहाय सक्सेना, देश जिन्हें भूल गया, बीकानेर, 1982 4. प्रकाश नारायण नाटाणी, राजस्थान निर्माण के 50 वर्ष, जयपुर, 1999 5. शिवचरण मेनारिया, राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी, जयपुर, 1995 6. पृथ्वीसिंह मेहता, हमारा राजस्थान, इलाहाबाद, 1950 7. बी.एल. पनगड़िया, राजस्थान में स्वतंत्रता संग्राम, जयपुर, 1985 8. के.एस. सक्सेना, द पॉलिटिकल मूवमेंटस एण्ड अवेकनिंग इन राजस्थान, जयपुर, 1990