P: ISSN No. 2231-0045 RNI No.  UPBIL/2012/55438 VOL.- XI , ISSUE- II November  - 2022
E: ISSN No. 2349-9435 Periodic Research
बुन्देली संस्कृति का प्रतीक सागर जिले का रानगिर ग्राम (मौखिक परम्पराओं के विशेष सन्दर्भ में)
Rangir Village of Sagar District, A Symbol of Bundeli Culture (With Special Reference to Oral Traditions)
Paper Id :  16747   Submission Date :  12/11/2022   Acceptance Date :  22/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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स्वाति सोनी
शोधछात्रा
इतिहास विभाग
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय
सागर,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश प्रस्तुत शोध-पत्र में बुन्देलखंड के सागर जिले में स्थित रानगिर ग्राम की ऐतिहासिकता के बारे में जानकारी एकत्रित की गई है, जिसमे रानगिर ग्राम के प्रसिद्ध हरसिद्धि देवी मंदिर जो कि भक्त गण की श्रद्धा का केंद्र बिंदु हैं के बारे में जानकारी दी गई है। शोध -पत्र में रानगिर मेला जो बुन्देली संस्कृति का प्रतीक है के बारे में , मेले के समय देवी के प्रति भक्तों की श्रद्धा जिसमें भक्तों द्वारा जवारे, कन्याभोज, गरीबों को दान देने आदि के साथ- साथ अन्धविश्वास जैसे स्वयं को शारीरिक कष्ट पहुँचाना, पशुबलि देना आदि कार्य के बारे में भी बताया गया है एवं देवी से सम्बंधित पारम्परिक मान्यताएं, लोक परम्पराएँ जैसे- लोक नृत्य, लोक गीत आदि की मौखिक साक्ष्यों के आधार पर जानकारी प्रस्तुत की गई है तथा वर्तमान में मेले के महत्त्व को शोध-पत्र में प्रस्तुत किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In the present research paper, information has been collected about the historicity of Rangir village located in Sagar district of Bundelkhand, therein information has been given about the famous Harsiddhi Devi temple of Rangir village, which is the point of reverence for the devotees. In the given research paper, Rangir Mela, which is a symbol of Bundeli culture, devotees' reverence towards the goddess during the fair, in which the devotees perform Jaware, Kanyabhoj, donation to the poor, etc., along with superstitions such as causing physical pain to themselves, animal sacrifice, etc. The work has also been explained in the paper and traditional beliefs related to the Goddess, folk traditions such as folk dances, folk songs etc. have been presented on the basis of oral evidence and the importance of the fair has been explained in the paper.
मुख्य शब्द मौखिक इतिहास, रानगिर ,मेला, हरसिद्धि देवी, बुन्देली संस्कृति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Oral History, Rangir, Mela, Harsiddhi Devi, Bundeli Culture.
प्रस्तावना
प्राचीन काल से ही मेले हमारे लिए मनोरंजन, आर्थिकी, धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत, सामाजिक मेल-मिलाप आदि द्वारा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रहे है। वर्तमान में भी वही मेले चिरस्थाई रूप से चलते आ रहे है, जो हमारे पूर्वजों के समय में उनके मनोरंजन का केन्द्र बिन्दु थे, परन्तु अगर मेले की ऐतिहासिकता की बात करें तो मेलों के संबंध में लिखित साक्ष्य बहुत कम मौजूद है । अर्थात मेलों के बारे में जानकारी का सबसे अच्छा साधन मौखिक परम्पराओं द्वारा इतिहास खोजना जो एक व्यक्ति द्वारा समाज तथा आस-पास के लोगों में प्रसारित किया जाता है, जिसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक विवृत करने से उनकी ऐतिहासिकता बनी रहती है, साथ ही समय के साथ इनमे कुछ गुण-दोष भी समाहित हो जाते है, जिसका समाज पर कुप्रभाव भी देखने को मिलता है | लेकिन इतिहासकार द्वारा तथ्यों का उचित प्रस्तुतीकरण कर मौखिक इतिहास के महत्त्व को समझा जा सकता है | प्रस्तुत लेख में रानगिर मेले के बारे में बताया गया है, जिसमें मौखिक साक्ष्यों का प्रयोग कर मेले की ऐतिहासिकता एवं मेले से सम्बंधित लोक मान्यताओं का प्रस्तुतीकरण किया गया है।
अध्ययन का उद्देश्य इस शोध-पत्र के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं– 1. बुंदेलखंड में स्थित सागर जिले के रानगिर ग्राम की प्रसिद्धि के बारे में जानना। 2. बुन्देली संस्कृति का प्रतीक रानगिर मेला जिसमे विभिन्न सांस्कृतिक परिदृश्य समाहित है का बारीकी से अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन
’लोक साहित्य की भूमिका’, उपाध्याय, डॉ.कृष्णदेव, 1957 द्वारा लिखित पुस्तक में लोक साहित्य की जानकारी दी गई है साथ ही इस पुस्तक में लोक संस्कृति को बढ़ावा देने में मौखिक इतिहास के योगदान तथा महत्व की भी चर्चा की गई है । ’बुन्देली समाज एवं संस्कृति’, तिवारी प्रो.बलभद्र; 1956 द्वारा लिखित पुस्तक में बुंदेलखंड के भौगोलिक परिवेश में बुन्देली समाज एवं संस्कृति के विभिन्न पहलुओ की चर्चा की गई है। साथ ही सांस्कृतिक समन्वय को मूर्त रूप देने में बुन्देली भाषा की भूमिका का विवेचन भी किया गया है । ’बुंदेलखंड का इतिहास 1531 से 1857’,श्रीवास्तव, प्रो.बी.के., 2019 द्वारा लिखित पुस्तक में बुंदेलखंड का इतिहास जिसमें चंदेल शासकों के पश्चात् बुंदेलखंड में शासन करने वाले बुंदेला राजाओं तथा अन्य शासकों द्वारा शासन किये जाने की संपूर्ण जानकारी मिलती है साथ ही पुस्तक में 1857 की क्रांति के दौरान गाये गए बुन्देली लोक गीतों का विवरण भी मिलता है ।
मुख्य पाठ

मौखिक इतिहास का प्रादुर्भाव समष्टि की अतीत की आवाज के रूप में होता है, अतीत की यह आवाज समाज की मौखिक परंपराओं एवं मौखिक साक्ष्यों में निहित होती हैं।[1] मौखिक इतिहास में मानवीय मूल्यों एवं परम्पराओं को लोगों द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने का अत्यन्त प्रभावशाली गुण समाहित है।
इसमें किवदंतियां तथा कहावतें शामिल हो सकती है इसके साथ ही लोक-कथालोक-विश्वासमिथकपहेलीकिस्से तथा व्यक्तिगत कथा आदि मौखिक स्रोत के अन्तर्गत आते हैं।
मौखिक इतिहास में लोक संस्कृति को बढ़ावा देने का महवपूर्ण गुण समाहित है। लोक साहित्य की यह विशेषता है कि इसमें जन सामान्यों कि अनुभूति की अभिव्यक्ति होती है इसमें भावों का मृदु कंपन कहानियों, नाटक, कहावतों, गीतों आदि के माध्यम से फूट पड़ता है । ऋग्वैदिक कालीन जन समाज भी आज की भांति विवाह के अवसर पर गीत गाता था। [2]
अर्थात भारत में प्राचीन काल से ही मौखिक परंपराओ का प्रचलन रहा है, जो आज भी ग्रामीण जनों में विद्यमान है। स्पष्ट है कि मौखिक लोक कला प्राचीन काल से चली आ रही है, लेकिन उसका संकलन नहीं हो सका।
18 वीं सदी में सर विलियम जोन्स द्वारा बंगाल में ऐशियाटिक सोसायटी की स्थापना कर लोक संस्कृतिलोक साहित्य को समझने का प्रयास किया गया। बाद में अनेक ग्रंथों तथा पत्रिकाओं द्वारा लोक साहित्य को सामने लाया गया जैसे- एनेल्स डेज नामक ग्रंथइंडियन ऐटिक्वरी नामक पत्रिका। विदेशी विद्वानों कर्नल टाडडाल्टनमिस तथा देशी विद्वानों विनय कुमारगियर्सन आदि द्वारा महत्वपूर्ण कार्य किया गया।[3]
लोक गाथाएँ चिरकाल से मौखिक परम्परा के रूप में चली आ रही है। सिजविक का कथन नितांत सत्य है कि यदि किसी गाथा को आपने लिख लिया है तो निश्चय समझिये की आपने उसकी हत्या करने में योग प्रदान किया है जब तक यह मौखिक है तभी तक इसमें जीवन है। गूमर ने लिखा है मौखिक परंपरा किसी गाथा की प्रधान उपलब्ध कसौटी है।[4]
इन्ही मौखिक परम्पराओं से ओंत-प्रोत बुन्देलखण्ड की भूमि है, जिसमें संस्कृति के विभिन्न रंग समाहित हैं। बुंदेलखंड की धरती पर प्राचीन काल से ही अनेक मेलों का आयोजन होता रहा है जिनके बारे में अनेक जनश्रुतियां मिलती है। बुंदेलखंड में सागर के निकट रानगिर ग्राम है जिसकी अपनी महत्ता उसकी जनश्रुतियों में निहित है।
बुन्देलखण्ड का परिचयः- बुन्देलखण्ड मध्यभारत का एक प्राचीन क्षेत्र है। इसका प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति था। यह उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश राज्य के कुछ हिस्सों से मिल कर बना है तथा इस क्षेत्र मे बुन्देली बोली बोली जाती है। बुन्देलखण्ड नामक भू-भाग भारत के मध्य में स्थित है। भौगोलिक दृष्टि से बुन्देलखण्ड 21° उत्तरी अक्षांश से 27° उत्तरी अक्षांश एवं 78° पूर्वी देशांन्तर से 81° पूर्वी देशांतर के बीच विस्तृत है।[5]
बुन्देलखण्ड के सागर जिले का प्राचीनकाल से ही विशेष महत्व रहा है यहाँ मौर्य वंशशुंगवंशनागवंशगुप्तवंशवर्धनवंशगुर्जर प्रतिहार वंशकलचुरी वंशचंन्देलवंशबुन्देलावंश तथा अन्य शासकों के पश्चात् अंग्रेजों द्वारा शासन किया गया। स्वतंत्रता के पश्चात् 1956 में मध्यप्रदेश गठन के पश्चात् सागर जिले की वर्तमान स्थिति का पता चलता है। सागर जिला प्राकृतिक सुन्दरता तथा दर्शनीय स्थलों से धनी क्षेत्र है।
सागर जिले में स्थित रानगिर ग्राम सिद्ध ऐतिहासिक क्षेत्र है। रानगिर ग्राम 22°35' उत्तरी और 78°50' पूर्व में स्थित यह गांव सागर-रहली मार्ग पर रहली से 10 मील और सागर से 29 मील दूर देहार नही किनारे है।[6]
रानगिर ग्राम में हरसिद्धि माता का मंदिर देहार नदी के तट पर स्थित है। मंदिर वनों के बीचों-बीच होने से यह प्राकृतिक सुन्दरता का केन्द्र भी है। माता के मंदिर में वन्य जीवों का रहना यहाँ की मुख्य विशेषता है। रानगिर इतिहास के आरंभ से ही प्रकृति की नायाब संपदा से धनी क्षेत्र रहा है। यह स्थान महराजा छत्रसाल और धामोनी के मुगल फौजदार खालिक के मध्य हुए युद्ध का साक्षी है।[7]
मराठा सूबेदार गोविंदराव पंडित जिन्होंने सागर नगर का विकास किया, उन्होंने अपना मुख्यालय रानगिर को बनाया। अतः रानगिर ग्राम का ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्व है | इसके साथ ही रानगिर ग्राम धार्मिक दृष्टि से भी सिद्ध क्षेत्र है। नवरात्रि में नव दिन उपवास करकेदिन-रात्रि भगवती माँ के संबोधन से उच्चारण करकेशिव की शक्ति के रूप में स्वीकार करकेआदि शक्ति के रूप में दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है | प्रत्येक गाँव के पास देवी के नाम अलग-अलग हो गए है। उत्तर बुंदेलखंड में मिर्जापुर की विंध्यवासिनी का नाम अधिक है। पूर्व की ओर मैहर की शारदा देवीपश्चिम और मध्य बुन्देलखण्ड में रानगिर हरसिद्धि तथा दक्षिण बुंदेलखंड में नर्मदा देवी या दुर्गा की प्रतिमा की पूजा इन त्यौहारों में की जाती है। समस्त बुन्देलखण्ड शैव और शाक्त सम्प्रदायों से विशेष रूप से प्रभावित है।[8]
यहाँ देवी हरसिद्धि के प्रति भक्तगण अनन्त श्रद्धा रखते है तथा देवी द्वारा उनके रूप बदलने के चमत्कार का उल्लेख करते है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि देवी हरसिद्धी तीन रूपों में भक्तों को दर्शन दिया करती हैं सुबह के समय बालअवस्थादोपहर के समय युवावस्था तथा शाम समय देवी वृद्धावस्था में भक्तों को दर्शन देती है।[9]
देवी हरसिद्धि की आराधना में ही रानगिर में चैत्र तथा अश्विन माह में मेले का आयोजन होता है। जिसमे चैत्र मेले का महत्व अधिक है। मेले में हजारों की संख्या में भक्त दूर-दूर से आया करते हैं तथा अपनी माँगी गई मन्नतों के अनुसार भक्तों द्वारा देवी के प्रति आस्था प्रकट की जाती है। जिसमें- जवारेबारीवानेमुंडनसरे भरनाउपवास करना आदि शामिल है।
रानगिर मेले का महत्त्व इसलिए और अधिक बढ़ जाता है क्योंकि यहाँ दिन के समय से शाम तक मेले का आयोजन होता है तथा मेले में तमाम प्रकार की बुन्देली वस्तुएं जैसे- पत्थर का बना सिलवट, हाथ से बनी देवताओं की प्रतिमा, विभिन्न प्रकार की घरेलू वस्तुएं इसके साथ ही देशी फलों, बिरचुन, गूजा, बरा, पपडिया. बेसन की बर्फी, गुड से बने विभिन्न प्रकार के पकवान बना कर बेचे जाते है।
शाम के समय मेला समाप्त होते साथ ही गाँव वालों तथा दूर-दूर से आये बुन्देली कलाकारों द्वारा अपनी कला का प्रदर्शन किया जाता है| ग्राम में मंदिर के निकट बुन्देली नृत्य राई का आयोजन किया जाता है, बुन्देली गायकों द्वारा लोकगीत गाए जाते है, महिलाओं द्वारा माता के मंदिर में भजन गाए जाते है जो पूर्ण रूप से बुन्देली संस्कृति का प्रदर्शन करते है।
बुन्देली भजन- 1. मोरी मैया के भुवन परि भीड़, भुवन कैसे लीपे जाएँ........|
2. डूब चलो दिन माई डूब चलो दिन, डूब चलो दिन माई डूब चलो दिन
साँझ भई मैया को डूब चलो दिन, डूब चलो दिन माई डूब चलो  दिन
काहे के मैया दिवला बनो है, काहे की डारी डोर मोरी मैया..........|[10]
जैंसे भजन महिलाओं द्वारा गए जाते हैं जो मेले की शोभा और भी अधिक बढाने का कार्य करते है |
रानगिर ग्राम में यह प्रथा बहुत समय से चली आ रही है, इसका कारण यह हो सकता है कि देवी हरसिद्धि की प्रसिद्धि के कारण यहाँ दूर-दूर से लोग आया करते थे तथा रात्रि विश्राम रानगिर ग्राम में ही किया करते थे, क्योकि रानगिर ग्राम घने जंगलों के मध्य स्थित है अतः शाम के समय से जानवरों के खतरे के भय से रात्रि विश्राम करना अनिवार्यत था | इसी दौरान लोगों द्वारा नृत्य एवं गान का आयोजन किया जाता था जो लोगों के मनोरंजन का कार्य करता था |
रानगिर मंदिर के निकट बूढ़ी रानगिर स्थित हैजिसका भी अपना महत्व है। जनश्रुति के अनुसार रानगिर में स्थित हरसिद्धि देवी का मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। 51 शक्तिपीठों का उल्लेख रामचरित मानस के बालकाण्ड में मिलता है जिसके अनुसार-
तेजिहउ तुरत देह तेहि हेतु । उर धरि चन्द्रमौली वृषकेतु ।।
अस कहि जोग अगिनी तनु जरा । भयउ सकल मख हाहाकार ।। [11]
इसके अनुसार माता सती योगाग्नि में अपना शरीर महम कर देती है अर्थात् जनश्रुति के अनुसार जब माता सती का शरीर भस्म हो जाता है तो शिव का ताण्डव देखकर विष्णु जी ने उनके अंगो को 51 हिस्सों में बांट दिया। अतः वह 51 भाग शक्तिपीठ कहलाए जिनमें से एक रानगिर का हरसिद्धि मंदिर है।
जनश्रुतियों में कहा गया है कि रानगिर में माता सती का 'जननांग' गिरा जिसे बुन्देली भाषा में रानकहा जाता है। अतः कहा जाता है कि रानगिर का नाम रान‘ शब्द से निकला है। रान अर्थात् जननांग। अतएव जननांग शरीर का बहुत ही अहम भाग है। इसलिए लोकमान्यता के अनुसार माता हरिसिद्धि का आर्शीवाद लेकर बांझ महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है। इसी मान्यता के अनुसार भारत के अनेक भागों से लोग यहाँ आया करते हैं तथा मनोकामना पूर्ण होने पर अपने द्वारा लगाई गई बोली के अनुसार अलग-अलग विधि द्वारा देवी का पूजन करते है। शक्ति की उपासना करने वाले बलि देते है।[12]
रानगिर मंदिर में भी अत्यधिक संख्या में पशुओं की बलि दी जाती थी। यहाँ पशु हिंसा देख पं. रामचंद्र शर्मा वीर ने बलि प्रथा रोकने के अथक प्रयास किये गए। जिस पर पं. रामचंद्र शर्मा वीर द्वारा आन्दोलन करके रोक लगवाई गई। स्वामी रामचंद्र वीर ने 1000 से अधिक मंदिरों में धर्म के नाम पर होने वाली पशु बलि को बंद कराया था।[13]
साक्षात्कार पं. संतोष द्वारा लिये गए साक्षात्कार के अनुसार - चौदह पीढ़ियों से मन्दिर के पुजारी है। शिवपुराण में माता का उल्लेख है, रानगिर की माता हरसिद्धी 51 शक्तिपीठों में से एक है। साधन की कमी के कारण पहले लोग बैलगाड़ीपैदल यात्रा द्वारा माता के दर्शन के लिए आते थे। साधन सम्पन्नता होने से माता के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं का मेले के ग्यारह दिन तक तांता लगा रहता है। पुजारी जी के अनुसार- रानगिर मेले में माता हासिद्धी की आराधना में नर बछड़ाबकरे साथ ही मुर्गा की बलि प्रथा मौजूद थी।[14]
हर्षत पाठक द्वारा लिये गए साक्षात्कार के अनुसार - पीढ़ियों से मेले में आ है | मेले में अपनी आर्थिकी के लिए दुकान लगाया करते हैं | जिसमे देवीहा-देवताओं की प्रतिमा साथ ही हिन्दू धर्म से सम्बंधित समस्त ग्रन्थ तथा व्रतों से पुस्तिका का विक्रय कार्य करते हैं | मेले में सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध होती है। मेले में दिन के समय लोग दर्शन के लिए आते हैं। रात्रि के समय लोक-नृत्यलोक-गीतों तथा नाटक का आयोजन होता है।[15]
आलोक सिंह द्वारा लिये गए साक्षात्कार के अनुसार - मेले में सभी जाति-वर्गों के लोग शामिल होते हैं तथा मन्नते पूर्ण होने पर वानेजवारे साथ ही पैदल यात्रा कर माता के प्रति पूज्यभाव समर्पित करते हैं।[16]
रामदास जी द्वारा लिये गए साक्षात्कार के अनुसार - माता की कृपा से वाने लगाने से लोगों को कोई नुकसान नहीं होती। लोग 10-25 वानों को धारण कर माँ की शरण में आते हैं। (वाने- लोहे की धारनुमा सरिया को कहा जाता है)।[17]
पं.अनिल दुबे शास्त्री द्वारा लिये गए साक्षत्कार के अनुसार- माता भक्तों को तीन रूपों में दर्शन देती हैं। माता के आर्शीवाद से बांझ महिलाएँ मंदिर आती है और बोली लगाकर जाती है अतः जब उनकी मनोकामना सिद्ध हो जाती हैतो अपने बच्चे के साथ लगाई गई बोली अनुसार माता को धन्यवाद ज्ञापित करती हैं।[18]

सामग्री और क्रियाविधि
यह ऐतिहासिक शोध कार्य है । जो मध्यप्रदेश के सागर जिले के ग्राम रानगिर के इतिहास के बारे जानकारी एकत्रित करेगा। प्रस्तुत शोधकार्य में ऐतिहासिक विधि, साक्षात्कार विधि का प्रयोग किया जाएगा तथा इन विधियों के द्वारा रानगिर ग्राम तथा उसमें लगने वाले मेले की जानकारी एकत्रित करने के लिए प्राथमिक स्त्रोत के रूप में स्थानीय समुदाय से साक्षात्कार कर मौखिक परंपरा का महत्त्व समझते हुए महत्वपूर्ण तथ्यों को प्रदर्शित करने का प्रयास किया जाएगा |
जाँच - परिणाम आधुनिक समय में व्याप्त अन्धविश्वास को दूर करने की अत्यधिक आवश्कता है | जिससे समाज में जो कुरीतियाँ फैली हैं, उन समस्याओं की और लोगों का ध्यान आकर्षित हो तथा समस्याओं को दूर करने का प्रयास किया जा सके। इस शोध- पत्र में बुंदेलखंड की संस्कृति में व्याप्त अच्छाई एवं बुराई दोनों पर प्रकाश डाला गया है।
निष्कर्ष बदलते परिदृश्य में मोबाइल फोन, सोशल मिडिया आदि से निकल कर पुरानी ऐतिहासिक परम्परा को बनाए रखने वाले लोग अपने मनोरंजन के लिए परिवार के साथ मेला आया करते हैं। लेकिन दूसरे पक्ष की बात करें तो श्रद्धालु गण अंधविश्वास के चलते माता के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं, जिसकी वजह से आज खान-पान में बदलाव आदि के चलते अनेक रोग पनपने का खतरा भी पैदा हो सकता है। साथ ही श्रद्धालु गण द्वारा आज भी पशु बलि माता को भेंट की जाती है जिसके पीछे यह भावना होती है कि बलि देने से माता प्रसन्न होकर भक्तों के कष्ट हर लेगी। अतएव मेले मनोरंजन का लोगों की आर्थिकी का साधन है जो अपनी परंपरानुसार चलते आ रहे है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में लोक मान्यताओं को बढ़ावा देने के साथ-साथ उससे सम्बंधित कुप्रथाओं अंधविश्वसों पर भी कार्य करने की आवश्यकता है। प्रस्तुत साक्षात्कार से हमें यह पता चलता है कि रानगिर में अवस्थित देवी हरसिद्धी का मन्दिर प्राकृतिक सुन्दरता से धनी क्षेत्र एक सुन्दर पर्यटन स्थल हैं। इसके साथ ही देवी हरसिद्धी के प्रति भक्तों की श्रद्धा होने से बहुत ही सिद्ध क्षेत्र है। माता के प्रति श्रद्धा भाव चाहे वह हिन्दू हो, मुस्लिम हो या आदिवासी वर्ग या अन्य समुदाय के लोग सभी सिद्ध क्षेत्र के प्रति पूज्यभाव रखते हैं तथा मेले का आयोजन होने पर यहाँ लोग आते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में लोगों में लोक-विश्वास की पूर्णता तो है, लेकिन समय बदलाव के कारण आस्था को नया रूप देने की आवश्यकता है। अतः मौखिक इतिहास को बढावा देना हमारी जिम्मेदारी है, लेकिन इतिहास से सीख लेकर वर्तमान कि ओर ध्यान देना भी हमारा परम कर्तव्य है।
भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव लोक संस्कृति को बढ़ावा देना साथ ही साथ अंध भक्ति तथा अंध श्रद्धा से बचकर आधुनिक समाज को नई सीख लेने की आवश्यकता है |
अध्ययन की सीमा प्रस्तुत साक्षात्कार उन व्यक्तियों द्वारा लिया गया है, जो रानगिर मेले में उपस्थित थे |
आभार साक्षात्कारकर्ता के प्रति आभार ज्ञापित करती हूँ कि उन्होंने रानगिर ग्राम से सम्बंधित विशेष जानकारी उपलब्ध कराई।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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