ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- II March  - 2022
Innovation The Research Concept
समकालीन कविता में आदिवासी समुदाय की पर्यावरणीय भावभूमि
Paper Id :  15867   Submission Date :  17/03/2022   Acceptance Date :  20/03/2022   Publication Date :  25/03/2022
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महावीर सिंह
सहायक आचार्य
हिंदी
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
टोंक,राजस्थान, भारत
सारांश आदिवासी संस्कृति प्रकृति प्रेमी, प्रकृति पूजक व प्रकृति संरक्षक संस्कृति है। आदिवासी जीवन दर्शन प्रकृति के साथ साहचर्य व सहअस्तित्व पर बल देता है। वर्तमान समय में उपभोक्तावादीसंस्कृति की चकाचौंध से सम्मोहित मनुष्यऔद्योगिकीकरणवनगरीकरण के नाम पर पर्यावरण विरोधी विकास मॉडलअपनाकर जल, जंगल,जमीन वपहाडों को नष्ट करता जा रहा है जिससे प्रकृति का पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ता जा रहा है और आदिवासी समुदाय को अपने प्राकृतिक आवासों से विस्थापन वपलायन का असह्य दंश झेलना पड़ रहा है।आदिवासी जीवन पर केन्द्रितसमकालीन कविता में आदिवासी समुदाय केप्रकृति प्रेम, आदिवासी समुदाय की पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धताव संघर्ष, आदिवासी समुदाय की अपने मूल आवास से विस्थापन की पीड़ा ,पर्यावरण विरोधी विकास मॉडल के कारण पर्यावरण को हुई क्षति और उसके भयंकर दुष्परिणाम तथा मानव जाति के अस्तित्व के लिए पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता आदि बिंदुओं के रूप में पर्यावरणीयभावोंव चेतना कीसशकत अभिव्यक्ति हुई है। समकालीन आदिवासी कविता भोगवादी स्वार्थ लिप्सामें अंधे पर्यावरणीयसंकट से बेखबर आजके तथाकथित विकसित व सभ्य किन्तु हृदयहीन मनुष्य को प्रकृति के प्रति संवेदनशीलव जाग्रत करने का सशक्त हथियार है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Tribal culture is nature lover, nature worshiper and nature protector culture. Tribal life philosophy emphasizes on companionship and coexistence with nature. In the present time, man hypnotized by the glare of consumerist culture, in the name of industrialization and urbanization, he is destroying water, forest, land and mountains by adopting the anti-environmental development model, due to which the ecological balance of nature is deteriorating and displacement of tribal community from their natural habitats is unbearable. Contemporary poetry centered on tribal life, the tribal community's love of nature, the tribal community's commitment to environmental protection, the pain of displacement of the tribal community from their original habitat, the damage caused to the environment due to the anti-environmental development model and its terrible There has been a strong expression of environmental sentiments and consciousness in the form of points like ill effects and need for environmental protection for the existence of mankind. Contemporary tribal poetry is a powerful weapon to awaken the so-called developed and civilized but heartless human beings sensitive to nature, oblivious to the blind environmental crisis in the indulgent selfishness.
मुख्य शब्द आदिवासी संस्कृति, प्रकृति, पर्यावरण विरोधी विकास मॉडल, औद्योगिकीकरण, नगरीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति, जल,जंगल, पहाड़ ,जमीन, पारिस्थितिकी, प्रदूषण, संरक्षण ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Tribal Culture, Nature, Anti-Environmental Development Model, Industrialization, Urbanization, Consumerist Culture, Water, Forest, Mountains, Land, Ecology, Pollution, Conservation.
प्रस्तावना
मानव और प्रकृति का अन्योन्याश्रित सनातन संबंध है। प्रकृति के बगैर मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि मानव शरीर की रचना जिन पंचमहाभूतों सेहोती है, वे प्रकृति के ही अजैविक घटक(मिट्टी, जल, ताप, वायु, आकाश) हैं तथा मानव जीवन का पोषण भी प्रकृति प्रदत विभिन्न उपादानों से ही होता है। राम भक्ति काव्यधारा के शिरोमणि कवि ‘तुलसीदास’ ने लिखा है - ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा।पंच रचित अति अधम सरीरा’।।१ अतः मानव का प्रकृति प्रेम नैसर्गिक है। साहित्यमानव जीवन की अभिव्यक्ति होने के नाते मानव के इसी प्रकृति प्रेम की अभिव्यक्तिकाव्य में हुई है।औरआदिकालीन संस्कृत काव्य से लेकर आधुनिक कालीन हिंदी कविता में मानवके प्रकृति प्रेम व पर्यावरणीय चेतना की प्रवृत्तिकिसी न किसी रूप में परिलक्षित होती है। मानव समाज में भी आदिवासी समुदाय का प्रकृति प्रेम अति अगाध है क्योंकि इस समुदाय का अपने परिवेश व प्रकृति के साथ गर्भनाल संबंध है।इस समुदाय के लिए प्रकृति व जीवन एक दूसरे के पर्याय हैं। प्रकृति इनके लिए मां है और प्राकृतिक परिवेश ही इनका घर है।आदिवासी संस्कृति पर्यावरण मैत्री संस्कृति है। समकालीन कविता में आदिवासी समुदाय के प्रकृति व पर्यावरण विषयक भावों की मार्मिक व सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र में समकालीन कविता में आदिवासी समुदाय की पर्यावरणीय भावभूमि का अध्ययन किया गया है ।
साहित्यावलोकन
‘आदिवासी -५’ कविता, राकेश कुमार पालीवाल, कविताकोश, ‘हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती’ कविता, अनुज लुगुन ,समकालीन आदिवासी कविता,(सं)हरिराम मीणा, अलख प्रकाशन, जयपुर। 
मुख्य पाठ

प्रकृति के प्रति जीवनदात्री भाव
आदिवासी संस्कृति अरण्य संस्कृति हैयहसमुदाय आदिकाल से ही प्रकृति की उन्मुक्त क्रोड- पहाड़ों व जंगलों में अपनी संपूर्ण जीवन यात्रा पूर्ण करता आया है।और तमाम भौतिक प्रगति के बावजूद आज भी विकास के तथाकथित अत्याधुनिक मॉडलों व महानगरों से दूरजंगलों व बीहडो़ का प्राकृतिक परिवेश ही इस समुदाय की जन्मस्थलीकर्म स्थली और और अंतिम शरणस्थली है। आदिवासी और पर्यावरण एक दूसरे के पूरक है। प्रकृति से कट कर आदिवासी अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकता है। जल,जंगल व जमीन ही उसके शारीरिक अवयव है। प्रकृति ही मानो उनकी सांसो में धड़कती है। और नदियों की जलधाराएँ ही मानोउनकी शिराओं में रक्त बनकर बहती है आदिवासियों के प्रकृति के प्रति सहज लगाव व आत्मीयता की अभिव्यक्ति कवयित्री ‘वंदना टेटे’ की ‘हम धरती की माड़ है’ कविता की इन पंक्तियों में हुई है -
हम सब/इस धरती की माड़/इस सृष्टि के हाड़/हमारी हड्डियाँ/विंध्य, अरावली और नीलगिरि/हमारा रक्त/लोहित, दामुदह, नरमदा और कावेरी/हमारी देह/गंगा-जमना-कृष्णा के मैदान/हमारी छातियाँ/जैसे झारखण्ड के पठार/और जैसे कंचनजंघा/हम फैले हुए हैं/हम पसरे हुए हैं/ हम यही इसी पुरखा जमीन में धंसे हैं सदियों से।२
प्रकृति ही आदिवासियों के सुख-दुःख की चिर सहचरी है। आदिवासियों के जीवन के संपूर्ण अंगों एवं अवसरों यथा खानपान, वेशभूषा, नृत्य गीत,पर्व उत्सवों में प्रकृति ही साकार रूप में इनके साथ उपस्थित रहती है। प्रकृति ही इनकी रागात्मकता की प्रेरणा स्रोत वउसकी अभिव्यक्ति का साधन है। आदिवासियों की प्रकृति से अभिन्नताव नैकट्य को प्रकट करते हुए मंगलेश डबराल’ लिखते हैं-
इंद्रावती गोदावरी शबरीस्वर्णरेखातीस्ताबराक कोयल/सिर्फ़ नदियां नहीं उनके वाद्ययंत्र हैं/मुरिया बैगा संथाल मुंडा उरांवडोंगरियाकोंध पहाड़िया/महज़ नाम नहीं वे राग हैं जिन्हें वह प्राचीन समय से गाता आया है और यह गहरा अरण्य उसका अध्यात्म नहीं उसका घरहै’।
प्रकृतिके प्रति प्रेमभाव-
आदिवासी कविता में आदिवासी समुदाय का प्रकृति प्रेम उनकी आत्मा के संगीत की तरह स्वाभाविक लय के साथ अभिव्यक्त हुआ है। प्रकृति प्रेम ही उनके जीवन का आधार है| ‘निवेदिताझा’ द्वारा लिखित ‘आदिवासी’ कविता की पंक्तियां द्रष्टव्य है
प्रेम मिट्टी से भी होता है/ऐसे ही कुछ यकीं से जी लेते हैं आदिवासी'।४
एक आदिवासी प्रकृति की गोद में ही पैदा होता है। और प्राकृतिक परिवेश में ही पलता बढ़ता है इसी कारण उसके हृदय में अपने परिवेश के प्रति मातृ तुल्य सम्मान व सहज आत्मीय भाव होता है। प्रकृति से दूर वह अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकता है। यही कारण उसे अपने मातृवत प्राकृतिक परिवेश से दूर महानगरों में रहने वाले तथाकथित विकसित सभ्य समुदायों का सुख सुविधा पूर्ण जीवन भी स्वीकार्य नहीं है। एक आदिवासी युवती का अपने परिवेश से नैसर्गिक प्रेम ‘निर्मला पुतुल’ की ‘ उतनी दूर मत ब्याहना बाबा' कविता में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है।
बाबा!/मुझे उतनी दूर मत ब्याहना/…मत ब्याहना उस देश में/जहाँ आदमी से ज़्यादा/ईश्वर बसते हों/……ंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ/वहाँ मत कर आना मेरा लगन/……ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे/और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ/जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया/फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने/५
प्रकृति के प्रति मार्गदर्शिका का भाव:-
प्रकृति ही आदिवासियों की शिक्षिका है। औपचारिक रूप से किताबी ज्ञान प्राप्त करने से वंचित आदिवासी प्रकृति से ही जीवन के लिए आवश्यक जीवन दृष्टि व्यावहारिक जान सीखते है। प्रकृति के तत्वों से ही उनको दिन रात के समयचक्र व ऋतुचक्का बोध होता है । तथाकथित विकसित व सभ्य महानगर वासियों की तरह उन्हें अलार्म बजने व कैलेण्डर देखने की आवश्यकता नहीं होती है। प्रकृति ही उनके जीवन की प्रेरणा है। राकेश कुमार पालीवाल'की ‘आदिवासी-१' कविता की पंक्तियां इसी भाव की अभिव्यक्ति करती है -
‘आकाश के तारों की स्थिति से चलती हैं /उनके दिमाग की सूईयां/पेड़ के बनने फेरने से बदलते हैं /उनके मौसम, महीने और बरस /उनके पास नहीं है छपा कैलेन्डर/मुर्गे की बांग से टूटती है उनकी नींद /और जंगल की जगार से होती है सुबह’।६
प्रकृति पूजक भाव
भारतीय सनातन संस्कृति प्रकतिपूजक  संस्कृति है और इसी कारण प्रकृति के तत्वों में देवत्व का उपादान कर उनके पूजन की परंपरा भारतीय समाज में रही है, परंतु वास्तव में प्रकृति पूजन का यह भाव व परंपरा आज केवल आदिवासी समुदाय में ही जिंदा है। आदिवासी प्रकृति को ही भगवान मान कर पूजा करते हैं। ‘सीमा आजाद' की ‘आदिवासी-१' कविता में आदिवासियों का प्रकृति के तत्वों के प्रति देवतुल्य पूज्य भाव अभिव्यक्त हुआ है-
‘पत्थर को /दूध पिलाते हो,/ तुम/इस धरती के/ विकसित और सभ्य वासी हो/हम/इस धरती के /पिछड़े और आदिवासी हैं/पूरे पहाड़ को ही देवता मानते हैं’। ७
प्रकृति के प्रतिसह- अस्तित्व का भाव
आदिवासियों का प्रकृति के साथ संबंध सह अस्तित्व का है। यह समुदाय अपने प्राकृतिक परिवेश के साथ सामंजस्य स्थापित कर उसके अनुकूलित जीवन यापन में ही अपने अस्तित्व की सार्थकता समझता है प्रकृति के संरक्षण व पोषण की पवित्र भावना उसकी रग-रग में बसी हुई है।यही वजह हैकि यह समुदाय विकसित व सभ्य होने के पैमानों से भले ही पिछड़ गया हो, परंतु उसने प्रकृति के घटकों को किसी प्रकार से कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है जिसकी अभिव्यक्ति राकेश कुमार पालीवाल के ‘आदिवासी-३' कविता में हुई है-
अंटार्कटिका की आदिम बर्फ पिघलने में/इनका कोई हाथ नहीं/न ही ये शरीक हैं उन बदमाशियों में /जिनकी वजह से छेद हुआ है/आकाश की बेशकीमती ओजोन परत मे/इन्होंने नहीं उजाडा हरा भरा जंगल/इन्होंने गदली नहीं होने दी/जंगल से बहती नदियों की अमृत धार’।८
आदिवासी जीवन दर्शन प्रकृति के साथ सहजीविता,सहभागिता एवं सहअस्तित्व पर बल देता हैआदिवासी समुदाय को यह भली-भांति एहसास है कि प्राकृतिक संसाधनों के विनाश का मतलब है ,उसका खुद का विनाश ,संपूर्ण मानवता का विनाशयही कारण है कि पर्यावरण संरक्षण व पोषण आदिवासी जीवन पद्धति का अनिवार्य अंग है। आदिवासी समुदाय पर्यावरण चेतना से संपन्न ऐसा समुदाय है जो संपूर्ण मानव समाज को पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ाने की कुव्वत रखता है|राकेश कुमार पालीवाल की आदिवासी-५ कविता की निम्न पंक्तियां द्रष्टव्य है
हम भी यदि सीखना चाहते हैं जीने के असल गुर/गुरू बनाना होगा आदिवासियों को ही/उन्ही के चरण कमल मे बैठकर सीखना होगा/प्रकृति संरक्षणऔर पर्यावरण संतुलन का/वह आईंस्टीनी समीकरण
जिससे साबुत रह सकती है हमारी धरती/जिससे जीवित रह सकती है हमारी प्रजाति/जिससे जीवित रह सकती है समग्र वनस्पति/जिससे जीवित रह सकती है सभ्यता संस्कृति|९
पर्यावरण संरक्षण का भाव
आदिवासी समुदाय अपने प्राकृतिक आवासव पर्यावरण के ्रति सचेत एवं सजग है। वह प्रकृति के जैविक व अजैविकघटकों में संतुलन बनाये रखने का आकांक्षीव पक्षधर है। , जंगलव जमीनको संरक्षित रखने का उसका संकल्प व संघर्ष अपनेआवास के साथसाथ पर्यावरण के पारिस्थिति की संतुलन को बनाये रखने के लिए है। आदिवासी कवि अनुज लुगुन की हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती' कविता की पंक्तियां है-
हमारे सपनों में रहा है/कोइल नदी के किनारे एक घर/जहाँ हम से ज़्यादा हमारे सपने हो/……हमने चाहा कि/पंडुकों की नींद गिलहरियों की धमा-चौकड़ी से टूट भी जाए/तो उनकेसपने न टूटें/हमने चाहा कि/फ़सलों की नस्ल बची रहे/खेतों के आसमान के साथ/हमने चाहा कि जंगल बचा रहे/अपने कुल-गोत्र के साथ/पृथ्वी को हम पृथ्वी कीतरह ही देखें/पेड़ की जगह पेड़ ही देखें/नदी की जगह नदी/समुद्र की जगह समुद्र और/पहाड़ की जगह पहाड़/.१०
पर्यावरण विरोधियों के प्रति आक्रोश भाव
आज औद्योगिकीकरण व नगरीकरण के नाम पर जंगलों व पहाडोंको नष्ट किया जा रहा है जिससे आदिवासियों को अपने प्राकृतिक आवासों से विस्थापन की पीड़ा भोगनी पड़ रही है। अपने प्राकृतिक आवास व पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध आदिवासी समुदाय, भोगवादी स्वार्थ लिप्सा सेपूरित होकर पर्यावरण कोक्षति पहुंचाने वाले पूंजीपतियों व सत्ताधीशों को प्रकृति के मूकतत्वों का प्रतिनिधि बनकर कड़े स्वर में चुनौती देता है। ‘अनुज लुगुन’ की‘सुनो ’कविता की पंक्तियां है-
माँ के वक्ष-सा/ भू पर बिखरे पर्वत/ आसमान को थाह लेने की आकांक्षा में/ ज़मीन पर खड़े वृक्ष/ धूप में सूखती नदी के गीले केश/ पान कराते हैं जो दैनिक/ चिड़ियों और जानवरों के आहट से संगीत/ मूक खड़े कह रहे हैं/ कातर दृष्टि से-/ मतललकारों हमें/ मूक हैं किन्तु/ अपना अधिकार मालूम है/ जो भी प्रतिक्रिया होगी/ वह प्रतिशोध नहीं/ हक़ की लड़ाई होगी/ क्यों तोड़ रहे हो/ हमारे घरौन्दों को/ हमें क्यों सिमटा कर रख देना चाहते हो/ क्या ये जग केवल तुम्हारा है?/ न तेरा न मेरा/ हम दोनों का यह संसार/ कुछ कहता हमसे मूक संसार।११
पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता का भाव
महानगरीकरणवबाजारवाद के इस दौर में आदिवासियों से अधिक प्रकृति के नजदीक व प्रकृति का सच्चा संरक्षक कौन हो सकता है,जिन्हेंमहानगरों  की सम्मोहक चकाचौंध भी अपने परिवेश से दूर नहीं कर पाती है। प्रकृति आदिवासियों की जीवनसंगिनी है। आदिवासियों कोप्रकृति से तदाकर अपने जीवन में किसी भी तरह की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं है।ये अपनी प्रकृति मां की सुरक्षा के लिएजान की बाजी भी देने को तत्पर रहते हैं।ये अपने प्राकृतिक आवासों को नुकसान पहुंचाने वाले पर्यावरण के दुश्मनोंको पर्यावरण संरक्षण के लिए किसी भी हद तक जाने की कड़ी चेतावनी देते हैं। आदिवासियोंकी अपने परिवेश व पर्यावरण के संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता को व्यक्त करती ‘सीमा आजाद’ की ‘आदिवासी-२’ कविता की पंक्तियां है
‘याद रखो/हम सबसे करीब है प्रकृति के/पाल पोश कर इसने ही हमें बनाया है /जुझारू और लड़ाकू/ नहींबख्शती जैसे प्रकृति/ अपने से छेड़छाड़ करने वालों को/ वैसे ही हम भी/ और/ धरती को बचाने के लिए /धरती में मिल जाने की हद तक/ हम जूझते हैं/ लड़ते हैं/……. किसी भी हद तक जा सकते हैं हम /बचाने के लिए/ अपने नदी पहाड़ धरती’।१२
प्रकृतिके प्रति संवेदनशीलताका भाव
भूमंडलीकरण के इस दौर में एक रेखीय विकास से मोहबिष्ट व भोगवादी स्वार्थ लिप्सा में अंधा मनुष्य प्रकृति पर स्वामित्व के अहम भाव से पूरित हो ,विज्ञान एवं तकनीक के सहारे पर्यावरण विरोधी विकास मॉडलको अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों का अमर्यादित व असीमित दोहन कर रहा है जिसके फलस्वरूपप्रकृतिमेंपारिस्थितिकीय  असंतुलन उत्पन्न हो रहा है। आज औद्योगिकीकरण वशहरीकरण के कारण मनुष्य जमीन, जंगल, जल व पहाड़ को नष्ट करता जा रहा है जिससे प्रकृति के जैविक व अजैविक घटकों कासंतुलन बिगड़ता जा रहा है और जल,वायु व मृदा प्रदूषण निरंतर बढ़ता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप मानवीकरणशैली में कहा जाए तो धरती रूपी माँ के  फेफड़े टीबी ग्रस्त हो गए हैं, धरती की रक्त वाहिनी नदियां विषाक्त जल रूपी रक्त को ढो  रही हैं, धरती का पहाड़रूपी हृदय विदीर्ण  हो गया है ,परंतु उपभोक्तावादी संस्कृति की चकाचौंध में सम्मोहित होकर  प्रकृति के आँचल से कटा हुआ आज का महानगरवासी असंवेदनशील मानव अपनी जन्मदात्री व पालनकर्त्री प्रकृति मां की इस पीड़ा को अनुभूत नहीं कर रहा है। आदिवासी समुदाय प्रकृति के नजदीक होने के कारण इस पीड़ा को महसूसकर व्यथित होता है। आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल अपनी कविता ‘बूढ़ी पृथ्वी का दुःख’ में आज के भौतिक विकास से मोहग्रस्त होकर प्रकृति के प्रति असंवेदनशील बने मनुष्य में पारिस्थिति की सजगता जाग्रत करने के लिए उसे धरती की इस पीड़ा से मानवीकरण  शैली में परिचित करवाती है-
‘क्या तुमने कभी सुनी है /सपनों में चमकती कुल्हाडियों के भय से/पेडों की चीत्कार?...... सुना है कभी /रात के सन्नाटे में अंधेरे से मुंह ढाँप/किस कदर होती है नदियां?…..कभी महसूस किया कि किस कदर दहलता है/मौन समाधि लिए बैठे पहाड़ का सीना/ विस्फोट से टूटकर जब छिटकता है दूर तक कोई पत्थर?.....खून की उल्टियां करते/देखा है कभी हवा को ,अपने घर के पिछवाड़े? अगर नहीं तो क्षमा करना !मुझे तुम्हारे आदमी होने पर संदेह है!!१३
पर्यावरण विरोधियों के प्रति चेतावनी का स्वर
आज वैश्विक मानव समुदाय जिन गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है उनमें पर्यावरण संकट सबसे प्रमुख है। बढ़ते प्रदूषण के कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि, ग्लेशियर का पिघलना, धरती पर बंजर भूमि का प्रसार,रेगिस्तानों का विस्तार, महानगरों में वायुप्रदूषण का उच्च स्तर, अतिवृष्टि व अनावृष्टि, ओजोनपरत का क्षतिग्रस्त होनाजैसी गंभीर समस्याओं के कारण सम्पूर्ण मानव समुदाय का जीवन संकट में है। पर्यावरण का विनाश केवल आदिवासी समुदाय का संकट नहीं है, अपितु संपूर्ण मानवता के अस्तित्व पर संकट है। आदिवासी कवियत्री ग्रेस कुजूर अपनी कविता ‘समय के पहरेदारों' में इसी वैश्विक विनाश की ओर संकेत करती है और पर्यावरण के इस संकट सेमानवजाति  को बचाने के लिए पर्यावरण संरक्षण की जोरदार वकालत करती है जो आदिवासी समुदाय की सामूहिक चेतना की भावात्मक अभिव्यक्ति है
‘इसलिए फिर कहती हूँ/ ना छेड़ो प्रकृति को/ अन्यथा यही प्रकृति / एक दिन/माँगेगी/ हमसे तुमसे/ अपनी तरुणाई का/ एक-एक क्षण /और करेगी /भयंकर बगावत/ और तब /नतो तुम होंगे/ न हम होंगे'/१४
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‘एक बूंद पानी के लिए/ तड़प तड़प जाएगी/ हमारी पीढ़ियां/ इसलिए मैं सच कहती हूं/हे समय के पहरेदारों/ तुमने अवश्य सुना होगा/ एक वृक्ष की जगह/ लगाओ दूसरा वृक्ष१५

निष्कर्ष अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आदिवासी संस्कृति प्रकृति प्रेमी, प्रकृति पूजक व प्रकृति संरक्षक संस्कृति है।समकालीन कविता में आदिवासियोंके प्रकृति व पर्यावरण विषयक भावों की सटीक, सुन्दर व यथार्थवादीअभिव्यक्ति हुई है। यदि अत्यधिक भौतिक विकास व उपभोक्तवादी जीवन दर्शन से सम्मोहितहोकर पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलबना हुआ मानव समुदाय भी आदिवासियों से प्रेरणाग्रहण कर पर्यावरण विरोधी विकास मॉडल के स्थान पर प्रकृति के साथ साहचर्यव सहअस्तित्व के सिद्धांत को अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों का सीमित व मर्यादित उपभोग करे,तभीजीवदायिनी प्रकृति रुपी अमूल्य धरोहर को हम भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रख पाएंगे और मानव जाति के अस्तित्व को सुरक्षित कर सकेंगे। समकालीन आदिवासी कविता पर्यावरणीय संकट से बेखबर आज के तथाकथित विकसित व सभ्य किन्तु हृदयहीन सुषुप्त मनुष्य को प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनाने का एक सार्थक एवं सशक्त माध्यम है
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
१. ‘रामचरितमानस’(किष्किंधाकाण्ड), तुलसीदास, गीताप्रेसगोरखपुर २. ‘हम धरती कीमाड़है’कविता, वंदना टेटे, कविताकोश ३. ‘आदिवासी’,मंगलेशडबराल सेतु समग्र, सेतु प्रकाशन नईदिल्ली ४. ‘आदिवासी’कविता -निवेदिताझा, कविता कोश ५. ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’रूपांतरितकाव्यसंग्रह -निर्मलापुतुल, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ६. ‘आदिवासी -१’ कविता, राकेश कुमार पालीवाल, कविता कोश ७. ‘आदिवासी -१’कविता,सीमाआजाद, इंटरनेशनल जर्नलऑफ़साइंटिफिकएण्डरिसर्चस्टडीज ८. ‘आदिवासी-३’कविता, राकेश कुमार पालीवाल, कविताकोश ९. ‘आदिवासी -५’ कविता, राकेश कुमार पालीवाल, कविताकोश १०. ‘हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती’कविता, अनुज लुगुन ,समकालीन आदिवासी कविता,(सं)हरिराम मीणा, अलख प्रकाशन, जयपुर ११. ‘सुनो'’ कविता, अनुज लुगुन, कविता कोश १२. आदिवासी -२’कविता,सीमाआजाद, इंटरनेशनलजर्नलऑफ़साइंटिफिकएण्डरिसर्चस्टडीज १३. नगाड़ेकीतरहबजतेशब्द’रुपांतरितकाव्यसंग्रह -निर्मलापुतुल, भारतीयज्ञानपीठप्रकाशन १४. ‘हे समय के पहरेदारों’ कविता, ग्रेसकुजूर, समकालीन आदिवासी कविता,(सं) हरिराम मीणा, अलख प्रकाशन, जयपुर १५. वही कवितापृ.सं.२५