ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- X November  - 2022
Innovation The Research Concept
भारतीय राजव्यवस्था के प्राचीन एवं आधुनिक संन्दर्भ में राज्य की उत्पति, उद्देश्य एवं कार्यों का अध्ययन
Study of The Origin, Objectives and Functions of The State in Ancient and Modern Context of Indian Polity
Paper Id :  16729   Submission Date :  12/11/2022   Acceptance Date :  22/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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प्रेमसिंह दौलिया
सहायक आचार्य
राजनीति शास्त्र विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय
शिवगंज, सिरोही,राजस्थान, भारत
सारांश राज्य के ऐच्छिक अथवा वैकल्पिक वे कार्य हैं जिन पर राज्य का अस्तित्व टिका हुआ नहीं रहता परन्तु राज्य उनका पालन सार्वजनिक भावना से करता है। राज्य के ऐच्छिक कार्यो के सम्बन्ध में दो दृष्टिकोंण हैं। समाजवादी राज्य इन सम्पूर्ण कार्यों को अपने हाथेां में लेने का प्रयास करता है जिनसे प्रत्येक व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक जीवन को सफल बनाया जा सके। ऐसे कार्यो को निजी क्षेत्र में नहीं छोड़ा जाता। दूसरी ओर गैर समाजवादी राज्य व्यक्ति की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुये। अनेक कार्यों को अपने हाथों में नहीं लेता अर्थात राज्य का स्वरूप जैसा होगा। समाजवादी अथवा पूँजीवादी उसी की मान्यतानुसार राज्य द्वारा ऐच्छिक कार्यों का सम्पादन किया जाता है। राज्य के ऐच्छिक अथवा वैकल्पिक वे कार्य हैं जिन पर राज्य का अस्तित्व टिका हुआ नहीं रहता परन्तु राज्य उनका पालन सार्वजनिक भावना से करता है। राज्य के ऐच्छिक कार्यो के सम्बन्ध में दो दृष्टिकोंण हैं समाजवादी राज्य इन सम्पूर्ण कार्यों को अपने हाथेां में लेने का प्रयास करता है जिनसे प्रत्येक व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक जीवन को सफल बनाया जा सके। ऐसे कार्यो को निजी क्षेत्र में नहीं छोड़ा जाता। दूसरी ओर गैर समाजवादी राज्य व्यक्ति की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुये। अनेक कार्यों को अपने हाथों में नहीं लेता अर्थात राज्य का स्वरूप जैसा होगा। समाजवादी अथवा पूँजीवादी उसी की मान्यतानुसार राज्य द्वारा ऐच्छिक कार्यों का सम्पादन किया जाता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Voluntary or optional functions of the state are those on which the existence of the state does not rest, but the state follows them in public spirit. There are two viewpoints regarding the voluntary functions of the state. The socialist state tries to take all these functions in its hands. By which the social, economic and cultural life of every person can be made successful. Such works are not left in the private sector. On the other hand, the non-socialist state keeping in mind the freedom of the individual. Does not take many tasks in his hands, that means the form of the state will be like this. According to the belief of socialist or capitalist, voluntary works are performed by the state.
मुख्य शब्द दैवीय सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त, पितृ तंत्रात्मक सिद्धान्त, मातृ तंत्रात्मक सिद्धान्त, सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Divine Theory, Power Theory, Patriarchal Theory, Matriarchal Theory, Social Contract Theory.
प्रस्तावना
राजनीति शास्त्र के अध्ययन के विषयों में राज्य का केन्द्रीय स्थान है। राजनीति शास्त्र के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु राज्य एवं उसके अनेक पहलू ही हैं। अतःयह जानना आवश्यक है कि राज्य क्या है? तथा उसके उद्देश्य क्या है? तथा राज्य के प्रमुख कार्य क्या हैं? तथा राज्य के आवश्यक तत्व एवं राज्य के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन करने का प्रयास किया गया है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. शोध पत्र का उद्देश्य भारतीय शोध छात्रों व विद्यार्थियों को यह जानकारी प्रदान करना कि भारतीय राजव्यवस्था के अंतर्गत प्राचीन एवं आधुनिक दृष्टिकोणों के आधार पर राज्य की उत्पत्ति कैसे हुई? 2. छात्र-छात्राओं को एवं शोधकर्ताओें को यह ज्ञान प्रदान करना कि राज्य के उद्देश्य एवं कार्य जनता के प्रति प्राचीन काल में क्या थे? और वर्तमान समय में राज्य के लोक कल्याणकारी कार्य एवं उद्देश्य क्या हैं? जिन के माध्यम से जनता का हित सम्भव होता है । 3. इस शोध पत्र का उद्देश्य आम जनता को राज्य के अधिकारों एवं कार्य के ऐच्छिक एवं अनिवार्य कार्यों के बारे में जानकारी प्रदान करना है जिससे वे जागरूक होकर राज्य एवं शासक तथा शासन के शोषण के शिकार नहीं हो सके और स्वयं का एवं अपने परिवार राज्य एवं समाज का सर्वागींण विकास कर सके। इस शोध पत्र का उद्देश्य विद्यार्थियों एवं शोधकर्ताओं को यह जानकारी देने का प्रयत्न करना कि प्राचीन एवं आधुनिक विद्वानों के द्वारा राज्य की उत्पत्ति के किन किन सिद्धांतो एवं कार्यों का विवेचन किया गया है जिससे कि अध्ययनकर्ताओं को भारतीय राजव्यवस्था का ज्ञान प्राप्त हो सके। 4. इस शोध पत्र के माध्यम से विद्यार्थियों एवं शोधकर्ताओं को विभिन्न प्रकार की अध्ययन पद्धतियों एवं राज्य के उद्देश्य एवं कार्यों से अवगत कराना। इन अध्ययन पद्धतियों में वैज्ञानिक पद्धति, ऐतिहासिक पद्धति, वर्णनात्मक एवं परम्परागत एवं तुलनात्मक पद्धति तथा आगमन एवं निगमन अध्ययन पद्धतियाँ प्रमुख हैं। 5. नवीन तथ्यों का वर्गीकरण करना। 6. मानवता का कल्याण करना। 7. सामाजिक जीवन में ज्ञान को विकसित करना। 8. सामाजिक घटनाओं से संबधित परिस्थितियों का पता लगाना। 9. सामाजिक एवं राजनैतिक घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करना एवं उनका सामान्यीकरण करना एवं वैज्ञानिक सिद्धांतो का निर्माण करना। 10. सामाजिक एवं राजनैतिक भ्रान्तियों को जड से मिटाना। 11. राज्यों एवं राष्ट्र की प्रगति एवं विकास हेतु राज्य के द्वारा बनाई गई योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्व्यन में सहयोग करना। 12. राज्यों की राजनीति में उभरती हुई प्रवृतियों से विद्यार्थी लाभान्वित हो सकेंगे। 13. यह शोध पत्र राजनिति विज्ञान के छात्रों के लिए विशेष महत्वपूर्ण होगा। 14. राज्यों के राजनैतिक मुद्दों उनके विवाद एवं समाधान से विद्यार्थी अवगत हो सकेंगे।
साहित्यावलोकन

राज्य का अर्थ यूनानी दार्शनिकों ने राज्य को एक नैतिक ईकाई माना है। ईसाई विचारकों ने इसे मनुष्य के पापों का परिणाम बतलाया है। जबकि आधुनिक आदर्शवादी विचारक राज्य को नागरिकों की स्वेच्छा पर आधारित संस्था मानते हैं वही यथार्थवादी विचारक इसे शक्ति का पुंज (समूह) स्वीकार करते हैं। हरबर्ट स्पेन्सर व्यक्तिवादी विचारक ने राज्य को ’एक आवश्यक बुराई माना है‘ वही कार्लमार्क्स ने राज्य को एक वर्गीय संस्था कहा है। साधारण शब्दों में राज्य एक ऐसा राजनीतिक संगठन है। जिसमें मनुष्यों का समुदाय होता है यह समुदाय किसी निश्चित भू-भाग या प्रदेश में रहता है। जिसकी अपनी सरकार होती है और जिसके पास सम्प्रभुता होती है अब तक यह स्वीकार किया गया है कि राज्य इन चारों तत्वों- जनता, भूमि, सरकार और प्रभुसत्ता पर आधारित एक संगठन है। प्रोफेसर सिजविक ने सरकार, भू-प्रदेश तथा जनता को राज्य के तत्व में सम्मिलित किया है। इसी प्रकार प्रो. विलोबी ने भी राज्य के तीन तत्वों को स्वीकार किया है ये तीन तत्व है-1. जनता का समुदाय 2. शासन तंत्र 3. शासकों के द्वारा अधिकारों को निश्चित करने वाला कानून। परन्तु वर्तमान समय में राज्यों के चार तत्वों (जनता, निश्चित, भू-भाग, प्रदेश की सरकार और प्रभुसत्ता) के संगठन को राज्य कहा जाता हैं। मैक्सबेवर का कथन हैं कि ’’राज्य एक मानवीय समुदाय हैं जिसके द्वारा यह दावा किया जाता हैं कि उसे किसी निश्चित भौगौलिक क्षेत्र में भौतिक शक्ति के प्रयोग करने का अधिकार है। राज्य की परिभाषाएं 1. प्रो. मैकाइवर ने अपने ग्रन्थ ’दा मॉडर्न स्टेट’ में राज्य की परिभाषा इस प्रकार दी हैं ’’The State is Structure not Coevel and Co-Extensive with Society but Bilt With in it as Determinate Order for the Attechment of Specificends" 2. प्रो. गार्नर के अनुसार “’राजनीति शास्त्र और सार्वजनिक कानून की धारणा के रूप में राज्य संख्या की दृष्टि से थोडे अथवा अधिक व्यक्तियों का समुदाय है जो किसी निश्चित भू-भाग पर स्थाई रूप से निवास करता हो और वह किसी बाहरी नियंत्रण से पूर्णतया स्वतंत्र हो और उसकी ऐसी संगठित सरकार हो जिसके आदेशों का पालन वहाँ के निवासियों के बहुल समुदाय द्वारा स्वेच्छा से किया जाता हो ।“ प्रो. फिलमेर के अनुसार राज्य की परिभाषा “उस जनसमूह को राज्य कहते हैं जो किसी निश्चित भू-भाग पर स्थाई रूप से निवास करता हो, जो एक समान कानूनों, आदतों तथा रीति-रिवाजों में बंधा हो, जो एक सगंठित सरकार के माध्यम से अपनी सीमा के अन्तर्गत रहने वाले सभी व्यक्तियों और वस्तुओं पर स्वतंत्र संप्रभुता के प्रयोग द्वारा नियंत्रण करता हो तथा जिसे विश्व के राष्ट्रों के साथ युद्ध एवं संधि करने तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंध स्थापित करने का अधिकार प्राप्त हो।“

मुख्य पाठ

राज्य के उत्पत्ति के सिद्धान्त

राज्य की उत्पति कैसे हुई? इस प्रश्न का उत्तर अनेक  विद्वानों ने अलग अलग तरीके से दिया है अत: राज्य कि उत्पति के सिद्धान्तों का विवेचन निम्नाकिंत रूप से किया गया है-

1. दैेवीय सिद्धान्त

2. शक्ति सिद्धान्त

3. पितृ तंत्रात्मक सिद्धान्त

4. मातृ तंत्रात्मक सिद्धान्त

5. सामाजिक अनुबन्ध का सिद्धान्त

6. विकासवादी सिद्धान्त

उपरोक्त सिद्धान्तों में से विकासवादी सिद्धान्त को राज्य की उत्पत्ति का विश्वसनीय सर्वमान्य सिद्धान्त कहा गया हैं । 

1.राज्य की उत्पति का दैवीय सिद्धांत

राज्य कि उत्पति कैसे हुई इस प्रश्न का उत्तर अनेक विद्वानों के द्वारा दिया गया है। दैवीय सिद्धांत सबसे प्राचीन सिद्धांत है। मनुष्य के विकास की प्रारम्भिक अवस्था में ईश्वर औेर धर्म की प्रधानता थी।

इस सिद्धांतो की प्रमुख विशेषता यह थी कि राज्य ईश्वर द्वारा निर्मित संस्था है। औेर राज्य की उत्पत्ति का दैवीक कारण है। अतः राज्य एक दैवीक संस्था है। 

संसार के कानून का निर्माणकर्ता ईश्वर ही है जो या तो प्रत्यक्ष रूप से स्वयं का अपने प्रतिनिधि राजा के द्वारा संसार पर शासन करता है। क्योंकि राजा मनुष्य का सर्वोच्च स्वामी या शासक है। उसने अपनी प्रजा के हित में राज्य का निर्माण किया है। अतः राज्य एक धार्मिक एवं दैविक संस्था है।

संतपोल का कथन है कि प्रत्येक व्यक्ति को दैवी शक्तियों के अधीन रहना चाहिए क्योंकि परमात्मा के अलावा अन्य कोई दूसरी शक्ति ही नही है। इस संसार में जो भी शक्ति है वह परमात्मा के द्वारा ही नियुक्त है मार्टिन लूथर ने राज्य को दैवीय संस्था माना है औेर राजा को देवदूत के रूप में देखा जिसकी आज्ञाओं का पालन करना ही धर्म बतलाया गया कालांतर में राज्य कि उत्पति का देवीय सिद्धांत राजाओं के दैवी अधिकार के सिद्धांत के रूप में अवतरित हुआ इंग्लैण्ड के सोलहवी एवं सत्रहवीं सदी के इतिहास में यह सिद्धांत वहाँ के शासकों द्वारा अपनाया गया था जेम्स प्रथम ने अपने ग्रन्थ दा ला. ऑफ. फ्री. मोनार्की’ में राजा के दैविक अधिकार के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। राजाओं के दैविक अधिकार सिद्धांत की मान्यता यह है कि राजसत्ता ईश्वर द्वारा नियुक्त है। राजा ईश्वर के प्रति उतरदायी होता हैं और विधिवत प्रस्थापित राजा के विरूद्ध प्रतिरोध करना अपराध ही नहीं अपितु पाप है। 

2- शक्ति सिद्धांत

शक्ति सिद्धांत राज्य की उत्पत्ति को बतलाने वाला दूसरा सिद्धांत है इस सिद्धांत की मान्यता है कि राजा कि उत्पत्ति शक्ति अथवा बल से होती है। मनुष्य के विकास की प्रारंम्भिक अवस्थाओं में जब राज्य का अभाव था तब किसी शक्तिशाली व्यक्ति ने अपने बल के आधार पर अन्य लोगों को परास्त करके अपने अधीन किया औेर इस प्रकार शक्ति के कारण राज्य की उत्पत्ति हुई। दार्शनिक हयूम की यह धारणा है कि राज्य कि उत्पत्ति उस समय हुई होगी जब किसी मनुष्य दल के नेता ने शक्तिशाली व प्रभावशाली होकर अपने अनुयायियों पर अधिकार स्थापित कर उन पर अपना शासन थोपा होगा। संक्षेप में शक्ति सिद्धांत की मान्यता है यह कि राज्य बलप्रयोग से स्थापित हुआ है। थै्सीमैक्स ने कहा है कि न्याय शक्तिशाली लोगों का हित है। ईसाई विचारकोण ने भी राज्य को शक्ति पर आधारित संस्था माना है।

3- पितृ तंत्रात्मक सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार राज्य का क्रमिक विकास कुटुम्ब से होता है प्रारम्भ में समाज का स्वरूप पितृतंत्रात्मक था कुलपिता ही परिवार का सर्वोच्च स्वामी था। जिसकी सत्ता परिवार पर सम्पूर्ण थी वह परिवार का शासक था उसका वह राजा था परिवार में कुलपिता का प्रभुत्व ही कालांतर में राज्य के रूप  में स्थापित हो जाता है। परिवार में जिस प्रकार कुलपिता की सत्ता थी वही सत्ता राज्य की सत्ता में परिवर्तित हो जाती है। परिवार से पितृतंत्रात्मक समाज से एक ही नस्ल के व्यक्तियों की जाति ओैर जाति से राज्य का उदय हुआ है राज्य के विकास की यह प्रक्रिया है जिसके प्रारंम्भ में कुलपिता की सत्ता का शासन था। सर हेनरीमैन के ग्रंथो में पितृतंत्रात्मक सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। उनके अनुसार कुल पिता की सत्ता ही प्रारंम्भिक सत्ता थी ओैर सत्ता का विकसित स्वरूप राज्य की सत्ता में प्रकट होता है। 

4- मातृ तंत्रात्मक सिद्धांतः

इस सिद्धांत के अनुसार प्रारंम्भिक समाज में माता की शक्ति की प्रधानता थी। बेचोफेंनमेकलेनानमॅार्गन तथा जैंक्स आदि विद्वान इस सिद्धांत के प्रतिपादक हैं। इन विचारकों का मत है कि प्रारम्भिक समाज पितृतंत्रात्मक न होकर मातृ प्रधान था इस सिद्धांत के प्रतिपादकों की मान्यता है कि प्राचीन समाज मातृ तंत्रात्मक थे ओैर इन्हीं समाजों ने आगे चलकर राज्य को स्वयं धारण कर लिया। प्रारंभ में कुल का अधिकार माता को प्राप्त था। माता के नाम पर कुल की पहचान थी। संतान का निर्धारण माता के सम्बंध से होता था पिता के कारण नहीं। मातृ प्रधान सिद्धांत माता की सत्ता को कुटुम्ब का केन्द्र मानता है यह सत्ता समाज के विकास के साथ राज्य की संस्था में रूपांतरित हो जाती है। पितृ तंत्रात्मक समाज की स्थापना होने के पूर्व मातृ प्रधान समाज का अस्तित्व या प्रारंम्भिक समाज इस प्रकार के मातृप्रधान समुहों का योग था।

प्रोफेसर मेकाईवर ने राज्य के विकास को अपने ग्रन्थ दा.मार्डन.स्टेट“ में बतलाया है कि सरल सम्बन्ध समाज का निर्माण करता है। औेर कालांतर में समाज राज्य को जन्म देता है। मनुष्य का प्रारंम्भिक संगठन कुटुम्ब हैं। विवाह प्रथा से एक कुटुम्ब और कुटुम्ब से दूसरे कुटुम्ब का नाता जुडता है इस प्रकार वैवाहिक नातों के तानों-बानों से समाज का विकास होता है। समाज में सुरक्षा संगठन दण्ड व्यवस्था आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये एक दीर्घ कालावधि में राज्य का उदय होता है समाज की गोद से राज्य के उदय होने तक अन्य तत्व विकास की प्रक्रिया को गति प्रदान करते हैं। ये प्रभावशाली तत्व है रक्त-सम्बंध धर्म शक्ति युद्ध इत्यादि सम्पत्ति औेर राजनीतिक चेतना का विकास।

5- सामाजिक अनुबंध का सिद्धांत-

सामाजिक संविदा सिद्धांत के समर्थक  प्रमुख रूप से तीन विद्वान हैं। ये विचारक हॉब्स, लॉकरूसो हैं। ये विचारक मानते हैं कि राज्य की उत्पत्ति मनुष्यों के बीच आपसी समझौते अथवा व्यक्तियों औेर शासक के बीच हुए समझौते (संविदा) के कारण हुई है। राज्य की उत्पत्ति के पूर्व की प्राकृतिक अवस्था मनुष्य का स्वभाव सामाजिक समझौेते द्वारा स्थापित राज्य का स्वरूप तथा उस राज्य में व्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति के अधिकार जैसे प्रश्नों पर तीनों विचारकों में मतभेद हैं जैसे सामाजिक समझौता सिद्धांत के आधार पर हॉब्स निरंकुश राज्य काजान लॉक व्यक्तिवाद का एवं सीमित संवैधानिक शासन कातथा रूसो लोकतंत्र का समर्थन करता है। इस वैचारिक मतभेद के उपरांत भी तीनों विचारक एक मत हैं कि राज्य की उत्पत्ति सामाजिक समझौते के कारण हुई है। 16वी. एवं 17वी.शताब्दी में राज्य की उत्पत्ति की व्याख्या एक नवीन सिद्धांत के द्वारा की गई जिसे सामाजिक सिद्धांतों के नाम से जाना जाता है 16वी शताब्दी के पूर्व के समय में राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवी सिद्धांत की मान्यता थी परन्तु सामाजिक संविदा के सिद्धान्त के विकास के साथ- साथ दैवी सिद्धान्त का पतन हो गया। सामाजिक संविदा के सिद्धान्त की मान्यता है कि राज्य और मनुष्य के बीच हुए समझौते अथवा संविदा का परिणाम है राज्य कोई दैविक अथवा प्राकृतिक संस्था नहीं है। राज्य का निर्माता मनुष्य स्वयं है उसने आपसी समझौेते के द्वारा राजनीतिक सत्ता का निर्माण किया है अतः राज्य मनुष्य द्वारा निर्मित संस्था है। जिसका निर्माण किसी सामाजिक समझौते द्वारा किया गया है।

6. विकासवादी सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार राज्य का क्रमिक विकास हुआ है और इस विकास में अनेक तत्वों व कारकों का योगदान रहा है। इसके विकास में सहायक तत्व 1. संगोत्रता 2. धर्म 3. सम्पत्ति तथा रक्षा की आवश्यकता 4. सैनिक शक्ति तथा युद्ध 5. राजनीतिक चेतना है। विकास वादी सिद्धांत की मान्यता है कि राज्य का कृत्रिम रूप से शक्ति अथवा समझौते के द्वारा निर्माण नही किया गया है अपितु इसका क्रमिक विकास हुआ है। जिस प्रकार अन्य संस्थायें विकसित होती हैं। उसी प्रकार राज्य भी एतिहासिक विकास का क्रमिक प्रक्रिया का परिणाम है। अनेक तत्वों के योगदान से राज्य का विकास हुआ है।

राज्य के विकास के विभिन्न तत्वः                                                            

1. संगोत्रता-परिवार तथा समाज की एकता को उन्हें एक सूत्र में बांधे रखने का कार्य संगोत्रता ने किया है भाई- बहिनमाता- पिता का अपनी संतान से सम्बंध रक्त- सम्बंध के कारण जुडा रहता है। जिससे पारिवारिक एकता जुडी रहती है। विकासवादी सिद्धांत के प्रतिपादकों की मान्यता है संगोत्रता कुटुम्ब का प्रारम्भिक कारण है जिसके आधार पर अन्य सामाजिक संस्थायें विकसित होती हैं औेर राज्य इस विकास की प्रक्रिया की उपज है। 

2. धर्म-राज्य के विकास का दूसरा उपयोगी तत्व धर्म है। राज्य के विकास में धर्म का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जब समाज को अनुशासित करने की कोई शक्ति नहीं थी तो धर्म ने उस भूमिका का निर्वाह किया।

3. सम्पत्ति एवं रक्षा-आदिम समाज की सम्पत्ति व्यवस्था ने तथा उसकी रक्षा की आवश्यकता ने राज्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है। आदिम समाज में तीन प्रमुख आर्थिक अवस्थाएं विकसित होती हैं।

1. आखेट व्यवस्था 2.पशुचारण 3. कृषि व्यवस्था 

4. सैनिक शक्ति औेर युद्ध की व्यवस्था

राज्य का औेचित्य- राज्य का अस्तित्व क्या है  इसकी स्थापना अथवा उसकी उत्पत्ति क्यों हुई और वर्तमान में भी इसका अस्तित्व क्यों हैइसके उद्देश्य क्या हैइसके अतिरिक्त राज्य के नकारात्मक अथवा सकारात्मक कार्य क्या हैराज्य से सम्बन्धित यह महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जिनका उतर भिन्न-भिन्न विचारधाराओं और दृष्टिकोणों  में दिया गया है उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर निम्नलिखित विचार धाराओं में दिया गया है 

1. अराजकतावादी दृष्टिकोंण

2. मार्क्सवादी दृष्टिकोंण

3. बहुलवादी दृष्टिकोंण 

4. अनुबंधवादी दृष्टिकोंण

5. उपयोगितावादी दृष्टिकोंण

6. आदर्शवादी दृष्टिकोंण।

1. अराजकतावादी दृष्टिकोंण- लियो टालस्टाय प्रिंस क्रोपोटकिन एवं बाकुनिन जैसे अराजकतावादी विचारकों का मत है कि राज्य शक्ति पर आधारित एक संस्था है। अतः एक व्यक्ति को नैतिक बनने का अवसर देने की बजाए उसे अनैतिक बना देती है राज्य के कानून उसकी दण्ड व्यवस्था उसकी जेलों आदि की व्यवस्था व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक है राज्य की शक्ति का वही रूप है। जैसे कि किसी पागल व्यक्ति के हाथों में तलवार दे दी गई हो अतः अराजकतावादियों का विश्वास है कि व्यक्ति का नैतिक जीवन तभी निखर सकेगा जब राज्य के द्वारा धर्म सम्पति जैसी संस्थाओं को समाप्त कर दिया जायेगा इनकी दृष्टि में  राज्य व्यक्ति के लिए एक निरर्थक संस्था है क्योंकि राज्य के रहते व्यक्ति का नैेतिक विकास नहीं होगा।

2मार्क्सवादी दृष्टिकोंण- कार्ल मार्क्स की दृष्टि में राज्य एक वर्गगत संस्था है जो शासक वर्ग का हमेशा समर्थन करती है। मार्क्स के अनुसार मानव जाति का इतिहास वर्गसंघर्ष का इतिहास रहा है। मार्क्स के अनुसार प्रारंभिक सामाजिक अवस्था आदि साम्यवाद की थी। जिसमें वर्गों का अभाव था इतिहास के विकास का दूसरा युग दासता का है जिसमे समाज स्वामी और दासों के बीच दो वर्गों में बँटा रहता था दासता के युग के बाद सामंतवादी युग का उदय हुआ जिसमें समाज सामंतों और अर्द्धदासों के बीच दो परस्पर विरोधी वर्गों के बीच बँटा रहता था सामंतवाद के बाद पूँजीवादी युग का उदय हुआ। इस युग के परस्पर दो विरोधी वर्ग पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग थे। केवल सामंतवाद की अवस्था में ही इनका अन्त होगा इतिहास के वर्ग-संघर्ष में राज्य सदैव ही शासक अथवा शोषक वर्ग की संरक्षक संस्था रही है। वही राज्य का वर्गीय स्वरूप है जिस वर्ग के हाथों में उत्पादन की शक्तियाँ होती है राज्य सदैव उस वर्ग की रक्षक संस्था है। जिसके द्वारा साधनहीन श्रमिक तथा कृषक वर्ग का शोषण किया जाता है राज्य किसी प्रकार की अनिवार्य संस्था नहीं है।

3. बहुलवादी दृष्टिकोंण- राज्य समुदायों का समुदाय है। अरस्तु एवं टी.एच ग्रीन ने राज्य को समुदायों का समुदाय माना है। कुटुम्बग्रामधार्मिक एवं व्यापारिक संघ जैसे समुदाय राज्य रूपी विशाल समुदाय का निर्माण करते हैं बार्करलास्कीमैकाइवर का यह मत है कि राज्य की असीमित प्रभुसत्ता के विरोधी तथा व्यक्ति एवं समुदायों की स्वतंत्रता के समर्थक विचारकों का मत है कि राज्य की असीमित सत्ता के विरोध तथा व्यक्तिएवं समुदायों की धार्मिकआर्थिकराजनीतिक समुदायों के समान रचनात्मक भुमिका रही है। राज्य इन्हीं समुदायों के समान स्वयं एक समुदाय है। जैसे समुदायों के उद्देश्य सीमित है। उसी प्रकार राज्य जैसे समुदाय का उद्देश्य भी सीमित है। जैसे कानून के माध्यम से व्यवस्था की स्थापना करना।

4. अनुबंधवादी दृष्टिकोंण- इस दृष्टिकोंण के विद्वानों के मतानुसार राज्य की आधारशिला व्यक्ति की सहमति है। व्यक्ति ने अपनी स्वतंत्र इच्छा से राज्य का निर्माण किया है। अतः स्वयं के द्वारा निर्मित संस्था की आज्ञाओं का पालन करना व्यक्ति का कर्तव्य है ऐसे राज्य की आज्ञाओं का पालन करने से व्यक्ति पराधीन नहीं होता क्योंकि उसकी स्थापना उनकी सहमति के आधार पर हुई है। सत्ररहवीं एवं अठारहवीं शताब्दियों में अनुबंधवादी सिद्धांत प्रचलित था।

5. उपयोगितावादी दृष्टिकोंण- डेविडहयुमजर्मी बेथमऔर जे. एस. मिल ने राज्य के उपयोगितावादी दृष्टिकोंण को प्रतिपादित किया है। राज्य व्यक्ति के लिए कुछ उपयोगिता प्रदान करता है इसी कारण उसका औचित्य है। राज्य व्यक्ति के लिये व्यवस्था और कानून की स्थापना करता है। बाहरी और आन्तरिक शत्रुओं से रक्षा करता है। संविदाओं को लागू करता है। साहित्य कला और संस्कृति के विकास में योगदान देता है। व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बधों को लागू करता है। अतः उपयोगितावादी दृष्टिकोंण राज्य को व्यक्ति के कल्याण का साधन मानता है अतः उसे न्याय संगत एवं उचित संस्था स्वीकार करता है। बैंथम के मतानुसार राज्य का उद्देश्य अधिकतम लोगों का अधिकतम हित की व्यवस्था करना है ओैर वह राज्य की आज्ञाओं का पालन भी उपयोगिता की दृष्टि से करता है।

6- आदर्शवादी दृष्टिकोंण- आदर्शवादी दृष्टिकोंण की मान्यता है कि राज्य मनुष्य के अन्दर की सर्वोच्च नैतिक शक्ति की अभिव्यक्ति है। अतः इसकी आज्ञाओं का पालन किया जाता है। आदर्शवादी मानते हैं कि राज्य व्यक्ति का शत्रु नहीं है और न ही तटस्थ रहता है। वास्तव में राज्य व्यक्ति का सच्चा हितैषी है। राज्य में ही व्यक्ति का नैतिक विकास होता है और उसको स्वतंत्रता प्रदान करता है। आदर्शवादी विचारक हीगल के अनुसार राज्य स्वतंत्रता का यथार्थ रूप है। वास्तव में राज्य व्यक्ति की आन्तरिक चेतना का विस्तृत और संगठित रूप है। यह व्यक्ति के विकास के लिये अधिकारों का रक्षक और न्याय का संगठित स्वरूप है इन तर्कों के आधार पर आदर्शवादी राज्य के औचित्य को स्वीकार करते हैं। आदर्शवादी विचारक टी.एच.ग्रीन ने भी राज्य के औचित्य को इन्हीं आधारों पर सिद्ध किया है। 

प्रयुक्त उपकरण 1.इण्डिया टुडे (साप्ताहिक पत्रिका) कनाट पैलेस नई दिल्ली।
2.बढाना (राष्ट्रीय मासिक पत्रिका) बढ़ाना पब्लिकेशन वर्ल्ड; गाँधी नगर चोैरसिया बास रोड अजमेर।
3.चेतना (वार्षिक पत्रिका) चेतना प्रकाशन पुरानी मंडी अजमेंर।
4.कुरूक्षेत्र (मासिक पत्रिका) मंत्रालय कृषि भवन,नई दिल्ली।
5.योजना (मासिक पत्रिका) ए,योजना भवन,संसद मार्ग नई दिल्ली।
6.राजस्थान पत्रिका-दिनांक 13 व 14 नवम्बर 2022 पृष्ट संख्या क्रमशः(4एवं07)
जाँच - परिणाम सत्ता की राजनीतिक शक्तियों एवं परिस्थितियों की परिभाषा: अ. क्षेत्रीय, स्थानीय, राष्ट्रीय, कार्यात्मक 1.राजनीतिक सेवाओं का विभाजन एवं परिभाषा। 2.व्यक्तियों एवं समुदायों के सुनिश्चित अधिकारों एवं कर्तव्यों का निर्धारण। 3. आर्थिक जगत में मुद्रा, आर्थिक संविदा का नियत्रंण। 4. सामाजिक सम्बन्धों में व्यवसायिक उद्योगीय पद की स्थिति का निर्धारण, पंजीयन कार्य आदि सांख्यिकीय तथ्यों का संकलन । ब. राज्य के सुरक्षा से सम्बन्धित कार्य:- 1. पुलिस कार्यों द्वारा जीवन एवं सम्पत्ति की रक्षा करना। 2. राजनीतिक दृष्टिकोंण से निर्धारित सत्ताओं की सुरक्षा एवं भरण- पोषण का कार्य। 3. अधिकारों एवं कर्तव्यों की सुरक्षा। 4. सम्पूर्ण समाज के लिये उचित जीवन व्यतीत करने के लिये न्यूनतम प्रतिमान जैसे न्यूनतम वेतन और रोजगार की व्यवस्था करना । 5. सामाजिक विघटन को रोकना स. संरक्षण एवं विकास से संबंधित कार्य 1. स्वास्थ्य,मकान निर्माण, व्यावसायिक मनोरंजनात्मक जैसी परिस्थितियों का निर्माण एवं नियंत्रण करना। 2. प्राकृतिक साधनों का सरक्षंण एवं सदुपयोग। 3. शहरी एवं ग्रामीण विकास की सामान्य योजनाओं पर नियंत्रण। 4. शिक्षा की सुविधाओं की स्थापना एवं विकास करना। 5. सभी को समान अवसर प्रदान करना । 6. राष्ट्रीय संग्रहालयों की स्थापना वैज्ञानिक शोध, एवं संस्कृति को प्रोत्साहन। 7. सामान्यहित के औद्योगिक कृषि, वाणिज्य और वित्तीय विकास को बढ़ावा । 8. सार्वजनिक महत्व की सामाजिक समस्याओं के शोध की व्यवस्था करना।
निष्कर्ष राज्य के ऐच्छिक अथवा वैकल्पिक वे कार्य हैं जिन पर राज्य का अस्तित्व टिका हुआ नहीं रहता परन्तु राज्य उनका पालन सार्वजनिक भावना से करता है। राज्य के ऐच्छिक कार्यो के सम्बन्ध में दो दृष्टिकोंण है समाजवादी राज्य इन सम्पूर्ण कार्यों को अपने हाथेां में लेने का प्रयास करता है जिनसे प्रत्येक व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक जीवन को सफल बनाया जा सके। ऐसे कार्यो को निजी क्षेत्र में नहीं छोड़ा जाता। दूसरी ओर गैर समाजवादी राज्य व्यक्ति की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुये। अनेक कार्यों को अपने हाथों में नहीं लेता अर्थात राज्य का स्वरूप जैसा होगा। समाजवादी अथवा पूंजीवादी उसी की मान्यतानुसार राज्य द्वारा ऐच्छिक कार्यों का सम्पादन किया जाता है।
भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव 1. राज्य द्वारा व्यक्तियों के आवश्यक कार्यो में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं लगाये जाने चाहिये जैसा कि जे.एस.मिल ने कहा है। कि राज्य के द्वारा लगाये गये प्रतिबन्धों से राज्य में निवास करने वाले नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन होता है।
2. राज्य सरकार के कार्यों मे केन्द्र के प्रतिनिधि राज्यपाल एवं केन्द्र सरकार के द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिये।
3. राज्य सरकार के द्वारा संवैधानिक नियमानुसार अपने कार्यों को जनहित में सुचारू एवं प्रभावी तरीके से किया जाये।
4. राज्य के द्वारा सम्पूर्ण जनता के कल्याण हेतु कल्याणकारी योजनाओं को निष्पक्ष रूप से निर्मित करके यथा समय लागू किया जाये जैसा कि एक विद्वान ने लिखा है-
नजर को बदलो तो नजारे बदल जायेंगे।
सोच को बदलो तो सितारे बदल जायेंगे।
अरे एक बार खुद को तो बदल कर देखो यारो’ खुद को बदलेंगे। तो देश एवं राज्य के कार्य एवं उद्देश्यों के मायने स्वतः ही आपके हित में बदल जायेंगे।
(ये नफरत बुरी है ना पालो इसे दिलों में कालिख है निकालो इसे। ना तेरा ना मेरा ना इसका ना उसका राज्य व देश तथा शासन, सरकार तो सबकी है यारो बचालो इसे।)
आभार लेखक महाविद्यालय के समस्त स्टाफ विशेषकर प्राचार्य एन एस देवड़ा और सह-शिक्षकों डॉ. पंकज नागर, डॉ. राजेंद्र कुरी, संगीता रौतेला, रविकांत शर्मा व इस शोध पत्र के सफल प्रकाशन में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देने वालों के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता है ।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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