ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
भारतीय राजव्यवस्था की पुनर्निर्माण की आवश्यकता
The Need for Reconstruction of The Indian Polity
Paper Id :  16728   Submission Date :  22/11/2022   Acceptance Date :  30/11/2022   Publication Date :  02/12/2022
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राजेन्द्र कुमार गोठवाल
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय, राजगढ़,
अलवर ,राजस्थान, भारत
अरुण कुमार
सह-आचार्य
राजनीति विज्ञान
राजकीय स्नात्कोत्तर महाविद्यालय
राजगढ़, अलवर, राजस्थान, भारत
सारांश भारतीय संविधान को लागू हुए आज लगभग 75 वर्ष हो चुके हैं किन्तु संविधान निर्माताओं ने जो आदर्श संविधान की प्रस्तावना में निर्धारित किये थे, उन्हें हम आज तक प्राप्त नहीं कर पाये बल्कि उनके क्रियान्वयन का दायित्त्व जिन भावी नेताओं, नौकरशाहों आदि पर छोड़ा था, दुर्भाग्य से सभी चरित्रहीन हो गये और उनकी निष्ठा देश के प्रति न होकर स्वार्थ पर आधारित हो गई। भारतीय संविधान निर्मात्री सभा को संबोधित करते हुए जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि ‘‘इस सभा का प्रथम कार्य एक नये संविधान के माध्यम से भारत को स्वतंत्र करना, भूंखी नंगी जनता के लिए रोटी, कपड़े की व्यवस्था करना और प्रत्येक भारतीय को अपनी क्षमता के अनुरूप विकास करने का पूर्ण अवसर प्रदान करना है।’’[1] परकीय सत्ता की लम्बी गुलामी से मुक्त होने पर राष्ट्र के पुनर्निर्माण का संकल्प लेते हुए देश के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने कहा था कि ‘‘हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी (महात्मा गांधी) की तमन्ना यह रही है कि हर आँख के आँसू पोछें जाये और जब तक आँसू और पीड़ा है, हमारा कार्य अधूरा रहेगा।’’[2] सचमुच यह कार्य अधूरा है, आज भारतीय जनता के मन में पीड़ा और आँखों में आँसू हैं, आज देश में राजनीतिक अस्थिरता, प्रशासनिक अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार, संस्थाओं का विघटन, मूल्यों का पतन, वैचारिक शून्यता, आर्थिक विषमता, जनप्रतिनिधियों का अमर्यादित व्यवहार, अवसरवादिता, दिशाहीनता भी सुस्पष्ट है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद It has been almost 75 years since the Indian Constitution came into force, but we have not been able to achieve the ideals set by the framers of the Constitution in the Preamble of the Constitution; Everyone became characterless and their loyalty was based on selfishness instead of the country.
Addressing the Constituent Assembly of India, Jawaharlal Nehru had said that "The first task of this assembly is to liberate India through a new constitution, to arrange bread and clothes for the hungry naked people and to provide each Indian full opportunity to develop according to his capacity.
Taking a pledge to rebuild the nation after being freed from the long slavery of foreign power, as the first Prime Minister of the country, he had said that "The wish of the greatest man of our generation (Mahatma Gandhi) has been to wipe the tears from every eye and as long as there are tears and pain, our work will remain incomplete.''[2]
Really this work is incomplete, today there is pain in the mind and tears in the eyes of Indian people, political instability, administrative inaction, corruption, disintegration of institutions, collapse of values, ideological emptiness, economic disparity, unlimited behavior of people's representatives, opportunism in the country. Directionlessness is also obvious.
मुख्य शब्द संविधान, सरकार, भ्रष्टाचार, राजनेता, कर्तव्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Constitution, Government, Corruption, Politicians, Duty.
प्रस्तावना
भारतीय राजव्यवस्था में पुनर्निर्माण की चर्चा चलना संभव है। यहाँ राजव्यवस्था में पुनर्संरचना से तात्पर्य ‘‘संविधान में विशेष संशोधन करने या शासन प्रणाली में परिवर्तन से नहीं है, बल्कि यहाँ आवश्यकता है तो नीति-निर्धारकों एवं नीति के कार्यान्वयन से जुड़े राजनेताओं, नौकरशाहों एवं अन्य लोगों के चरित्रवान-निष्ठावान होने की। क्योंकि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जो आदर्श राष्ट्र के लिए समर्पित है उन्हें ईमानदारी कर्त्तव्य पूर्ण ढंग से क्रियान्वित किया जाये एवं मनसा, वाचा, कर्मणा से मौलिक अधिकारों एवं नीति निदेशक तत्त्वों को क्रियान्वित किया जाये। यद्यपि समय परिवर्तनशीलता के आधार पर भारतीय संविधान मे कुछ संशोधन आवश्यक है किन्तु उससे भी अधिक आवश्यकता देश के कर्णधारों को भारतीय संविधान में निष्ठा समर्पित करने की है। उनके द्वारा संविधान में दोष बताना, अपनी दुर्बलताओं को छिपाना है। वास्तव में संविधान असफल नहीं बल्कि वे लोग असफल हुए जिनके ऊपर देश चलाने की जिम्मेदारी है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. भारतीय राजनीति में बढ़ते बाह्य धन-प्रवेश पर अंकुश लगवाना। 2. राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा जनपूंजी को अनैतिक रूप से बहिर्गमन को रोकना। 3. राजनीतिक नेतृत्व को अपने उत्तरदायित्व का बोध करवाना। 4. भारतीय जनता को अपने कर्तव्य का बोध करवाना। 5. भारतीय राजनीतिक नेतृत्व, जनता एवं नौकरशाह को संवैधानिक नैतिकता का ज्ञान करवाना। 6. भारतीय राजनैतिक व्यवस्था के विकास में भागीदारी सुनिश्चित करना।
मुख्य पाठ

भारतीय संविधान की पुनर्निमाण की आवश्यकता

विगत अर्द्धशताब्दी में विकास बहुत हुआ है इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, लेकिन गरीब और अमीर में जो अन्तर आया है वह भयावह है। चन्द लोगों के पास अधिकांश धन-दौलत, भयंकर प्रतिस्पर्धा, सेना और पुलिस पर तीव्र गति से बढता व्यय, जबरदस्त शहरीकरण जिसके कारण ग्रामीण सांस्कृतिक मूल्यों का पतन, बेरोजगारी, असमानता एवं सामाजिक विकृति, व्यवस्था एवं संस्थाओं में बिखराव, मानव की स्वतंत्रता पर अतिक्रमण कहीं सुरक्षा के नाम पर, कहीं व्यवस्था के नाम पर, कहीं देशभक्ति के नाम पर तो कहीं धर्म-संस्कृति के नाम पर, मानव जीवन पर बढता सामाजिक एवं सरकारी नियंत्रण, बड़े-बड़े कल-कारखानें, बड़े-बड़े भवन, बड़े-बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान, मीलों में बसे बड़े-बड़े शहर, विज्ञान की चकाचौंध, लेकिन खोया-खोया, बुझा-बुझा, थका-थका सा भयभीत, त्रस्त, मोहताज, अशान्त इन्सान। यह तस्वीर चाहे देश की आधी आबादी की न हो लेकिन करीब एक तिहाई लोगों की अवश्य है।

बहुत स्पष्ट है कि यह अधूरा कार्य है जिसके लिए संविधान में कमी ढूंढने के स्थान पर शासक वर्ग को अपनी नीयत ठीक करने की आवश्यकता है। संविधान में कमी नहीं है। इसके निर्माताओं ने जो सपना देखा था, उन्हें साकार बनाने हेतु विधि निर्माता, शासकों-प्रशासकों एवं अन्य नीति निर्धारकों की दुर्बलता रही है। निर्दिष्ट दिशा में ठोस एवं सार्थक प्रयास नहीं किये गये और यदि किये जाते तो आज भारतीय समाज, राजनीति एवं शासन के समक्ष आज की भयावह चुनौतियां उत्पन्न न होती, जिनसे राष्ट्र आज त्रस्त है।

इस भयावह स्थिति की अभिव्यक्ति करते हुए कवि धूमिल, जिसने शोषण के कारण उत्पन्न स्थिति का वर्णन किया है कि ‘‘एक व्यक्ति रोटी बेलता है, दूसरा रोटी खाता है किन्तु तीसरा व्यक्ति (शोषित व्यक्ति) की रोटी से खेलता है। (यह वर्ग पूछता है) कि यह शोषक कौन है, इसका उत्तर संसद के पास भी नहीं है, वह मौन है।

यह अधूरा एजेण्डा है जिसके मूल में संविधान नहीं है बल्कि वे कथित बड़े लोग हैं, जिनका संबंध नीति निर्धारण एवं उसके कार्यान्वयन से है। जैसा की पूर्व में भी कहा जा चुका है कि संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, नीति-निर्देशक तत्त्व इसकी आत्मा है जिनकी अनुपालना से स्वतंत्रता, समानता एवं न्याय जैसे मूल्य सामाजिक जीवन में प्रवेश करेंगे और लोकतंत्र के इस बहुआयामी स्वरूप को साकार करने में सहायक होंगे। इस गंतव्य तक जाने हेतु कई प्रकार के कानून भी बने किन्तु उनका कार्यान्वयन नहीं हो पाया।

एशियन ड्रामा में गुर्नार मिर्डल - ने स्पष्ट किया है कि ‘‘भारत एक सोफ्ट स्टेट है।‘‘ जब कानून और शक्तिशाली व्यक्ति में टक्कर होती है तो कानून की धज्जियां उड़ती है। यह स्पष्ट है कि राजनेता, नौकरशाह, उद्योगपति और माफिया का गठबंधन हो गया है। माफिया ने वस्तुतः एक समान्तर सरकार बना ली है, जिसके कारण राज्य निष्प्रभावी हो गया है।

सामाजिक, आर्थिक और विधिक समानता, व्यक्ति स्वतंत्रता एवं सामाजिक न्याय के द्वारा जनसशक्तिकरण नहीं हो पाया है। इसके लिए एक सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता थी जो नहीं हुई।

यद्यपि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ तो हुई लेकिन रफ्तार धीमी रही। इस यज्ञ में सबसे बड़ी आहुति राज्य की होनी चाहिए थी, लेकिन राज्य सक्रिय नहीं हो पाया। कई महत्वपूर्ण निर्णय लेने और लेकर क्रियान्वित करने में राज्य असहाय अनुभव करता है।

सदियों से पिछड़े वर्गों को मुख्य धारा से जोड़ने का एक महत्वपूर्ण कार्य अभी अधूरा है। प्रक्रिया प्रारम्भ हुई लेकिन अभी बहुत कार्य शेष है। दुर्भाग्य से जातिवाद बहुत बढ़ गया है, राजनीति का जातीयकरण हो गया है। वर्ग-संघर्ष समझ में आता है लेकिन जाति-संघर्ष विकराल रूप धारण करने लगा है। अभी भी दलितों का शोषण रुकने का नाम नहीं ले रहा है। महिलाओं का चीरहरण सरेआम हो रहा है।

संविधान निर्माताओं की भावना, धर्म, जाति के उपर उठकर सभी साधन विहीन, आर्थिक, शैक्षणिक दृष्टियों से पिछडे़ वर्गों को राष्ट्रीय मुख्य धारा में जोड़ने की रही है। यह कार्य अधूरा है जिसके कारण हिंसा बढ़ती जा रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कार्यपालिका, व्यवस्थापिका ने राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की परवाह नहीं की, जबकि संविधान निर्माता यह चाहते थे कि आने वाली सरकारें एवं व्यवस्थापिकाऐं इनके अनुसार आचरण करें।

सार रूप में स्पष्ट है कि भारतीय राजव्यवस्था की उपादेयता, गतिशीलता, विश्वसनीयता, स्थिरता एवं कार्यात्मकता पर विगत अनेक वर्षों से प्रश्न चिन्ह उभरते नजर आते हैं। इसमें स्थिरता के मुद्दे पर भी सभी लोग चिंतित है। 1990 के पश्चात् देश में बार-बार चुनाव होना, देश पर भारी बोझ डालना है। राजनीतिक अस्थिरता के कारण सरकारों की निष्क्रियता और अवसरवादिता, जनहित कार्यों के प्रति उदासीनता और विकास कार्यों में अपरिमित बाधाऐं सभी के लिए विचारणीय विषय है। सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता नरिमन ने हमारी असफलता के मुख्य 4 कारण बताये हैं।

1. व्यक्ति पूजा जो संसदीय जनतंत्र के लिए घातक है।

2. उच्च पदों के लिए व्यक्तियों की लालसा।

3. निर्वाचन व्यवस्था में कमियाँ/दोष।

4. राजनीतिक क्षेत्र में योग्यता-चरित्र का संकट।[3]

अतः आज देश की स्थिति भयावह है जिसे स्पष्ट करने के लिए बोहरा समिति एवं राष्ट्रीय विधि आयोग के सदस्य का चौंकाने वाला लेख बहुत गंभीर चिंताजनक एवं दर्दनाक है।

बोहरा समिति की रिपोर्ट के अनुसार ‘‘माफिया वस्तुतः एक समान्तर सरकार चला रहे हैं। राज्यतंत्र निरर्थक हो गया है। अपराधी एवं सशस्त्र गुटों, तस्करों एवं आर्थिक मामलों में अपराधियों ने नौकरशाहों, जनप्रतिनिधियों एवं प्रभावशाली व्यक्तियों के प्रत्येक स्तर पर संबंध स्थापित कर लिये हैं, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी इनके संबंध स्थापित हैं। कालेधन एवं हवाला लेन-देन के आधार पर एक समान्तर अर्थव्यवस्था का निर्माण हो चुका है। जो देश के अर्थतंत्र को नष्ट कर रही है। इन शक्तिशाली व्यक्तियों से लड़ने में पुलिसतंत्र अपने को असमर्थ पाता है। यहाँ तक कि न्याय व्यवस्था भी माफिया के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त नहीं है।’’[4]

हाल ही के वर्षों में बैंकों का पैसा लेकर भागने वाले भगोड़ों, कोविड-19 में अनैतिक व्यापारों ने जनता का जीवन संकट में डाल दिया है। ऑक्सीजन, जीवनरक्षक इंजेक्शनों की कालाबाजारी, यहाँ तक की  नकली दवाओं का व्यापार फला-फूला है। कौन जिम्मेदार है ?

हाल ही के वर्षों में बैंकों का पैसा लेकर भागने वाले भगोड़ों और सरकार की संलिप्तता की खबरों ने सत्ताधारियों की पोल खोल दी है। कोविड-19 जैसी महामारी के कठिन दौर में जनता का सरकार से विश्वास डगमगाता नजर आ रहा है। सरकार की नाक के नीचे ऑक्सीजन सिलेंडरों, जीवनरक्षक इंजेक्शनों की कालाबाजारी और नकली दवाओं का व्यापार फला-फूला है। सरकार और उसका प्रशासनिक तंत्र अराजकता को रोकने में नाकाम हो रहे हैं। बड़े-बड़े अस्पताल जो जनता को लूट रहे हैं, अनैतिक रूप से पैसा कमाने के लिए जनता के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं। इन अस्पतालों की लूट-खसोट और जनता के जीवन का सौदा करने वाली भयावह तस्वीरें समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ बनी हुई हैं, जिसने भारत के अन्तर्मन पर कड़ा प्रहार किया है।

सत्ताधारी दल, उसका प्रशासनिक तंत्र और उसकी शह पर अनैतिक कार्य करने वाले माफिया, प्रतिष्ठान आदि धन जमाकर विदेशी बैंकों में जमा कर रहे हैं और यह धन अनेकों बार उन्हीं देशों की संपत्ति बनकर भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट कर रहा है।

इसी प्रकार शिवकुमार शर्मा (राष्ट्रीय विधि आयोग के सदस्य) अपने लेख में लिखते है कि - उनके मित्र ने उन्हें मोबाइल फोन पर संदेश भेजकर सूचित किया कि ‘‘स्विस बैंक के एक डायरेक्टर की दृष्टि में यद्यपि भारत के नागरिक गरीब है किन्तु भारत एक गरीब देश नहीं इस डायरेक्टर के अनुसार स्विट्जरलैण्ड की बैंको में 280 लाख करोड़ भारतीय मुद्रा जमा है। इस धन राशि में 60 करोड़ भारतीय बेरोजगारों को नौकरी दी जा सकती है, 30 वर्षों तक भारत का कर मुक्त बजट बनाया जा सकता है, 500 से अधिक सामाजिक योजनाओं को निःशुल्क और तीव्रगति से प्रदान की जा सकती है तथा लगातार 60 वर्षों तक देश के प्रत्येक नागरिक को 2000 रुपये प्रति माह दिये जा सकते हैं।’’[5]

शनिवार 19 जून, 2021 के राजस्थान पत्रिका में ‘‘देशी लक्ष्मी का विदेशी ठिकाना‘‘ शीर्षक से प्रकाशित खबर में बताया गया कि ‘‘स्विस बैंक में भारतीयों का धन 20,700 करोड़ रुपये बढ़ गया है।[6] पत्रिका समाचार-पत्र ने यह खबर कोई हवा में नहीं छोड़ी बल्कि स्विट्जरलैण्ड के केन्द्रीय बैंक के द्वारा जारी आँकड़ों के आधार पर प्रकाशित की है। इस खबर के बाद गौर करने वाली बात यह है कि सत्ताधारी दल ने 2014 में सत्ता संभालने से पूर्व अपने चुनावी घोषणा-पत्र में स्विस बैंकों से कालाधन भारत में वापस लाने की प्रतिबद्धता दिखाई थी।‘‘ किन्तु इस खबर के पश्चात् लगता है कि राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्र मात्र जनता को भ्रमित कर सत्ता प्राप्ति तक ही सीमित हैं।

उपरोक्त उदाहरणों को देखकर लगता है कि वर्तमान में भारत गरीब देश नहीं, फिर भी इसकी जनता की आँखों में आँसू है। सोचने की जरूरत है।

इन सब के पीछे चरित्रहीन नीति-निर्माता, शासक और प्रशासकीय कर्मचारी तथा मूर्ख जनता है। हकीकत तो यह भी है कि आज जनता भी अपने किसी कार्यों को परेशानी पाकर नहीं बल्कि ले-दे कर निपटाने की आदत का शिकार होती जा रही है। अतः भारतीय राजव्यवस्था की इस दुर्दशा पर ठोस रूप से चिंतन करने की जरूरत है एवं इसे कठोर सुधार की सख्त की आवश्यकता है।

भारतीय राजव्यवस्था के पुनर्निर्माण में सुझाव:-

1. नीति-निर्माता प्रशासक, प्रशासनिक कर्मचारी, प्रशासक एवं अन्यों का चारित्रिक सुधार आवश्यक। इसके लिए संविधान में प्रावधान आवश्यक।

2. अनु-37 को संविधान से निकालने की आवश्यकता ताकि उसकी अनुपालना में जनता न्यायलय के दरवाजे तक पहुँच सके।

3. बहुदलीय प्रणाली जो भ्रष्टाचार, राजनीतिक अस्थिरता का मुख्य कारण है, इसके लिए बहुदलीय प्रणाली को द्वि-दलीय प्रणाली में परिवर्तन करना होगा।

4. जनता को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार स्पष्ट प्रदान किया जाना चाहिए।

5. दल-बदल कानून को कठोर बनाया जाना अनिवार्य ताकि अपने निर्वाचिकों को कोई प्रतिनिधि धोखा न दे सके एवं उन्हे किसी लाभ पद से नहीं नवाजा जाये।

6. चारित्रिक पतन वाले प्रतिनिधियों और परिवार के किसी भी सदस्यों को चुनाव नहीं लड़ने पर कठोर प्रतिबंध आवश्यक है।

7. संवैधानिक पदों पर नियुक्ति एक स्वतंत्र निष्पक्ष राज्य परिषद्के द्वारा की जानी चाहिए एवं वह राजनीतिक हस्तक्षेप से पूर्णतः मुक्त हो।

8. सूचना के अधिकार को मजबूत बनाया जाए एवं जनता को प्रयोग हेतु प्रोत्साहित किया     जाए।

9. ईमानदार, योग्य व्यक्तियों को सीधा मंत्री बनाकर, स्वतः ही व्यवस्थापिका की सदस्यता प्राप्त होने का प्रावधान होना चाहिए ताकि ईमानदार, योग्य व्यक्ति धनाभाव-जोड़ तोड़ की दूषित प्रणाली से बच सके।

10. आरक्षण व्यवस्था का कठोरता से पुनःविश्लेषण करते हुए, केवल उन्हीं लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाये जो हकीकत में आज भी राष्ट्र की मुख्य धारा से नहीं जुड़    सके।

11. सरकार की तथ्यात्मक आलोचना पर देशद्रोह के मुकदमे को पुनः पारिभाषित करने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष भारत ने लंबे संघर्ष के पश्चात् गुलामी की जंजीर तोड़ी। नये भारत के भाग्य-निर्माता (संविधान-निर्माता) सद्नियति और पुण्यात्मा थे। उन्होंने नवभारत को सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक समानता के आदर्शों पर स्थापित किया। सभी प्रकार के शोषण को समाप्त करने का संकल्प भारत की जनता से करवाया था। उन्होंने आशा की थी कि आगामी पीढ़ी समयानुकूल परिवर्तन के साथ उनके द्वारा निर्मित नीतियों में परिवर्तन करे किन्तु ईमानदारी के साथ। लगता है कि वे भारतीयों के चारित्रिक सुधार की काल्पनिक आशा कर गये। आज राजसत्ता बाहुबली और जालसाजों के हाथों में है जिसका दुरुपयोग आम बात हो गई है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. कमल, के.एल. ‘‘भारतीय संविधान की पुनर्सरंचना राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, 2007, पृ.सं. 12 2. कश्यप, डॉ. सुभाष, ‘‘संसदीय लोकतंत्र का इतिहास‘‘ हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली वि.वि.1998, पृ.सं. 116 3. कमल, के.एल. ‘‘भारतीय संविधान की पुनर्सरंचना‘‘ पृ.सं. 64-65 4. वही पृ.सं. 65 5. शर्मा, प्रो. शिवकुमार (राष्ट्रीय विधि आयोग के पूर्व सदस्य) लेख ‘‘राजस्थान पत्रिका‘‘ समाचार-पत्र, नवम्बर, 2010 6. "देसी लक्ष्मी का विदेशी ठिकाना" लेख, "राजस्थान पत्रिका" समाचार पत्र, 19 जून 2021