ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- X November  - 2022
Innovation The Research Concept
संघीय शासन: केन्द्र-राज्य सम्बन्ध (वर्तमान सन्दर्भ में विविध यक्ष प्रश्न)
Federal Government: Centre-State Relations (Various Yaksha Questions in The Present Context)
Paper Id :  16742   Submission Date :  16/11/2022   Acceptance Date :  23/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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रमा शर्मा
सह आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश भारत संघीय व्यवस्था वाला देश है। संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप संघीय शासन की प्रमुख विशेषताऐं हमारे यहां उपस्थित है। बदलते समय के अनुरूप संघ में अनेक समस्याओं का आगमन हो गया है। विधायी प्रशासनिक एवं वित्तीय प्रावधानों के कारण केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में समय-समय पर अलग-अलग मुद्दो पर तनाव के प्रश्न उभरते रहे है। अनके बार ये विवाद अप्रीतिकर स्थितियां पैदा भी करते है। संघीय व्यवस्था को स्वस्थ बनाये रखने हेतु सुधार की दृष्टि से अनेक प्रयास होते रहे है और होते रहेगें। समय के साथ संवैधानिक आदर्श स्थिति और व्यावहारिक राजनीति के मध्य संतुलन बैठाने की आवश्यकता है, ता कि केन्द्र-राज्य के तनाव को कम करने में सहायता मिले जिससे संघीय व्यवस्था में निरन्तर विश्वास बना रहे।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद India is a country with a federal system. According to the constitutional provisions, the main features of the federal government are present here. According to the changing times, many problems have come in the Sangh. Due to legislative, administrative and financial provisions, questions of tension have been emerging from time to time on different issues in the Centre-State relations. Many times these disputes also create unpleasant situations. In order to keep the federal system healthy, many efforts have been made and will continue to be made in terms of improvement. There is a need to strike a balance between constitutional ideals and practical politics over time, so as to help reduce Centre-State tensions, thereby continuing to have faith in the federal system.
मुख्य शब्द संघीय शासन, विधायी, प्रशासनिक, वित्तीय, संवैधानिक तनाव, केन्द्र-राज्य सम्बन्ध, संघसूची, राज्यसूची, समवर्ती सूची, संसदीय शासन, केन्द्रीकरण, शक्तियां, अवशिष्ट विषय, संतुलन, सरकार, अभिकरण, प्रावधान राजस्व, वैधता, विश्वसनीयता, महत्ता, राजनैतिक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Federalism, Legislative, Administrative, Financial, Constitutional Tension, Center-State Relations, Union list, State list, Concurrent list, Parliamentary Rule, Centralization, Powers, Residuary Subject, Balance, Government, Agency, Provision, Revenue, Legitimacy, Credibility, Importance, Political .
प्रस्तावना
भारतीय संविधान संघीय शासन, राज्यसत्ता का दोहरा विभाजन, दोहरी सरकार, स्वतन्त्र न्यायापालिका, इकहरी नागरिकता। लिखित सर्वोच्च व कठोर संविधान की विशेषता वाला देश है, जिससे संघात्मक तत्वों के साथ-साथ एकात्मक तत्वों की प्रधानता रही है, हमारे संविधान में दोहरी सरकार, राज्य व केन्द्र सरकार के मध्य सम्बन्धों में निरन्तर उतार-चढ़ाव रहा है। आपसी सम्बन्धों का यह प्रश्न भारतीय राजनीति में अनके मुद्दों को उत्पन्न करता है, जिससे राज्य स्वायत्तता की मांग करते है, और केन्द्र राज्य सुरक्षा के नाम पर राज्यों के विषयों में हस्तक्षेप करता है, यही भारतीय राजनीति में तनाव का एक प्रमुख कारण है, जिसका अध्ययन हम इस शोध पत्र में करने जा रहे है।
अध्ययन का उद्देश्य संघ-राज्य सम्बन्धों की अवधारणा में विभिन्न पहलुओं के अध्ययन के साथ-साथ वर्तमान सन्दर्भ में तनाव के प्रमुख मुद्दों को सामने लाने का प्रयास किया गया है। हमे ये देखना है कि केन्द्र-राज्य सम्बन्ध में कौन-कौन से प्रश्नों पर असहमति से तनाव उभर कर सामने आ रहे है जो कि समस्त राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करता है।
साहित्यावलोकन

भारतीय शासन एवं राजनीति के विभिन्न पहलुओं पर भरपूर अध्ययन सामग्री विद्यमान है, सभी का अध्ययन, अवलोकन मेरे लिये सम्भव नहीं था, फिर भी मेरे द्वारा भारतीय संविधान पर दुर्गादास बसु, एम.बी. पायली, डा. एस.एल. वर्मा की संघीय शासन व्यवस्था, जे.सी. सिवाच की राज्यपाल के पद पर पुस्तक एवं केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर सुषमा यादव की पुस्तकों के साथ-साथ दैनिक सामचार-पत्र, पत्रिकाओं, ऑनलाईन चालने वाली विविध वार्ताओं, लल्लनटॉप की नेतागरी की समीक्षा आदि के माध्यम से समस्या तक पहुँचने का भरपूर प्रयास किया गया है।

मुख्य पाठ

सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् स्वीकृत भारतीय संविधान द्वारा भारत में संघीय शासन की व्यवस्था अपनाई गई। एक राजनीतिक साधन के रूप में संघवाद ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है, जहां अनके शक्ति केन्द्रों के मध्य विचार-विमर्श, समन्वय और सौदेबाजी के राजनीतिक सिद्धान्तों के आधार पर विकेन्द्रीकृत शक्ति केन्द्रों को वैयक्तिक और समन्वय स्थानीय स्वतन्त्रताओं का संरक्षक माना जाता है।

शक्ति विभाजन के धरातल पर संघवाद को केंद्राभिमुख और केंद्राविमुख के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। केंद्रामुखी संघ में केन्द्र और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन के अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र अपने पास रखता है। शक्तियों का विभाजन मूलतः ऐतिहासिक भौगोलिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक तथ्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। भारतीय संविधान की धारा-1 के अनुसार संघीय शासन की अवधारणा को अपनाया गया है एवं शक्ति विभाजन उपर्युक्त आधार पर किया गया है। दूसरी ओर केन्द्र विमुख संघ में शक्ति विभाजन में अवशिष्ट शक्तियां राज्यों को प्रदान की जाती है। इसका आदर्श उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका है।

भारतीय संघ की प्रकृति प्रारम्भ से ही गहन विवादों का विषय रही है, हमारे संविधान निर्माताओं ने संघ (थ्मकमतंजपवद) शब्द का प्रयोग न करके यूनियन (न्दपवद) शब्द का प्रयोग करके विवादों को तूल दिया है। इसके अतिरिक्त हमारे संविधान में ब्रिटिश पद्धति पर आधारित संसदीय शासन व्यवस्था अपनाई गई है। संसदात्मक शासन हमारे यहां केन्द्र व राज्य दोनों स्तरों पर स्वीकार किया गया है। ब्रिटेन की तरह ही यहां पर एकीकृत संस्थागत ढांचे को अपनाकर कई तनाव के प्रश्नों को खड़ा किया है, ये प्रमुखतः निम्न है- एकीकृत न्यायिक व्यवस्था, एकीकृत नौकरशाही और इकहरी नागरिकता।

हमारे संवधिान में विद्धानों के संघ के विषय में पक्ष-विपक्ष के विचारों के उपरान्त भी संघात्मक शासन को प्रमुखता से रेखांकित किया जाता है। संविधान जो कि कठोर सर्वोच्च एवं लिखित है, के द्वारा शासन शक्तियों का विभाजन राज्य व केन्द्रीय सरकार के मध्य किया गया है, जो कि दोहरे शासन की अवधारणा को बल प्रदान करता है। दोनों सरकारों को अपने-अपने क्षेत्राधिकार में बनाये रखने हेतु स्वतन्त्र सर्वोच्च न्यायापालिका का प्रावधान रखा गया है। सरकार के विभिन्न प्रश्नों पर विशेषकर केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को लेकर दोनों सरकारों के मध्य निरन्तर तनाव के मुद्दे सामने आते रहते है, जिसमें दोनों सरकारों पर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चल जाता है, जिस कारण संघवाद पर प्रश्न चिन्ह उठ खड़ा होता है कि अमुक सरकार संविधान व उसकी निहित भावना का उल्लंघन कर रही है।

केन्द्र-राज्य सम्बन्ध में अभिप्राय किसी लोकतान्त्रिक राष्ट्रीय राज्य में संघवादी केन्द्र और उसकी इकाइयों के मध्य आपसी सम्बन्ध होता है। विश्वभर में लोकतन्त्र के उदय के साथ राजनीति में केन्द्र-राज्यों के परस्पर सम्बन्धों को एक नवीन परिभाषा प्राप्त हुई है। इन सम्बन्धों को तीन प्रकार से विभाजित किया गया है-

(1) विधायी सम्बन्ध - अनु. 245 से 255

(2) प्रशासनिक सम्बन्ध - अनु. 256 से 263

(3) वित्तीय सम्बन्ध - अनु. 264 से 293

भारत में केन्द्र राज्य सम्बन्धों के विकास को चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है:-

(अ) 1950 से 1967

(ब) 1967 से 1977

(स) 1977 से 1987

(द) 1989 से लगातार आज तक

हमारे संविधान की सातवीं अनुसूची में विधायी शक्तियों को तीन प्रकार की सूचियों में बताया गया है:-

(अ) संघ सूची- 98 विषय

(ब) राज्य सूची- 61 विषय

(स) सम्वर्ती सूची- 52 विषय

अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र सरकार के पास रखी गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका और स्विट्जरलैण्ड की तुलना में भारतीय संघ की स्थिति को गम्भीर माना जा सकता है, क्योंकि यहां संघ व्यवस्था ने संसदीयशासन के समक्ष आत्मसमर्पण करके अपने आपको अध्यक्षहीन संघ बना लिया है, तथा अपने राज्यों को असहाय अवस्था में छोड़ दिया है, जिसके कारण पिछले समय से अधिक अधिकार/ स्वायत्तता आदि की मांग निरन्तर सामने आती जा रही है।

हेराल्ड लास्की का मानना है कि समाज का स्वरूप संघात्मक है, अतः सत्ता भी अवश्यमेव संघात्मक होनी चाहिए एकता में अनेकता और अनेकता में एकताका सिद्धान्त संघात्मक स्वरूप पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। निःसन्देह सभी संघ राज्यों में केन्द्रीकरण की प्रवृति बढ़ती जा रही है। केन्द्रीकरण का अर्थ है केन्द्रीय सरकार के हाथों में अधिकारिक शक्तियों का एकत्रित होना। केन्द्र के पास शक्तियों का केन्द्रण संघ-राज्य के घटकों अथवा उपराज्यों की कीमत पर होता है। इसके आधार पर केन्द्र सरकार उपराज्यों के कार्यो को अपने हाथ में लेने लग जाती है। कार्यो के साथ-साथ शक्ति भी स्वतः चली जाती है। अतः भारतीय संघवाद की स्थिति ठीक नहीं है।

संघवाद के बदलते स्वरूप के लिए तीन प्रमुख तथ्य उत्तरदायी है-

(1) बाह्य आक्रमण एवं युद्ध के खतरे की आंशका, सम्भावना।

(2) तकनीकी प्रगति, संचार साधनों व आवागमन के साधनों का विकास।

(3) कल्याणकारी राज्य की अवधारण का जन्म, जिसमें राज्य सरकारों को जनता के कल्याण के लिए अधिक धन व्यय करना पड़ता है।

संसदीयशासन प्रणाली को केन्द्रीकरण व एकात्मकता की प्रवृतियां लाने के लिए सबसे अधिक उत्तदायी माना जाता है। राजनैतिक दल एकात्मकता के सिद्धान्त पर गठित है, इनमें भी अधिकांश व्यक्तिपूजा पर आधारित है। प्रधानमन्त्री व्यक्तिगत का नेतृत्व, न्यूनीकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ राजनैतिक शक्ति का व्यैक्तिकरण निरन्तर बढ़ता जा रहा है, इसके अन्तर्गत निर्णय नेता की भावपरकता कल्पना और महत्वांकाक्षा के आधार पर निर्णय लेना प्रारम्भ हो गयां इसका परिलाम यह हुआ कि राजनैतिक संस्थाऐं तेजी से अपनी वैधता, विश्वसनीयता तथा महत्ता खोती की जा रही है जो कि भविष्य के लिए कदापि अनुकूल नहीं कहा जा सकता है।

केन्द्र व राज्यों के मध्य चल रहे शक्ति-प्रदर्शन से देश को नुकसान पहुँच रहा है। यह भारत जैसे बहुदलीय और संघीय ढ़ांचे वाले देश के लिए उचित नहीं है। राज्यों के मुख्यमन्त्री जो कि विपक्षी दलों की सरकारों से आते है, दिल्ली के साथ समन्वय में नहीं है।

आपसी विश्वास की खाई और गहरी होने के कारण केन्द्रीय प्रवर्तन एजेन्सियों की सक्रियता भी है केन्द्र व राज्य प्रतिकार की राजनीति में उलझे है। आरोप/प्रत्यारोप का दौर भी चल पड़ा है।

इस टकराव के अनेक नवीन रूप सामने आए है जैसे- राजस्व साझा करने के फार्मूले से लेकर प्रशासनिक नियन्त्रण, राज्यपाल की कार्य प्रणाली, पुलिस जांच, टैक्स ईडी ऐजन्सी फ्रैण्डली टी.वी. चैनल, सोशल मीडिया जैसे हथियार अपने नवीन स्वरूप में सामने अवतरित हुए हैं केन्द्र अपनी एजेन्सियों का इस्तेमाल करके उन्हें धमका-डरा सकता है तो राज्य भी ऐसा कर सकते है। क्योंकि कानून व्यवस्था राज्य का क्षेत्राधिकार है। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र के कई मामलों पर जांच केन्द्र सरकार ने एन.आई.ए. को सौप दी, तो जवाबी कार्यवाही के रूप में राज्य सरकार ने एस.आई.टी. का गठन करे अपनी ओर से कार्यवाही की। गैर भाजपा सरकारे अब उन्हीं मारक हथियारों का उपयोग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं रखती है, जिसका इस्तेमाल केन्द्र सरकार उनके विरूद्ध करती रही है। कोविड-19 भी एक ऐसा यक्ष-प्रश्न उभर का आया जिसने केन्द्र सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाने काम किया। कोविड जो कि वैश्विक संकट के रूप में सामने आया।

केन्द्र व राज्यों के बीच इस प्रश्न पर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला। स्वास्थ्य राज्य का विषय है या नहीं इस प्रश्न पर उलझने के वनिस्पत समस्या-निवारण पर जोर होना चाहिए। कोविड वैक्सीन, आक्सीजन, आवश्यक दवाओं आदि के सम्बन्ध में यदि हम चर्चा करते तो पाते है कि राज्य सरकारें इस दौर से गम्भीर संकटों से जूझ रही थी, संविधान के प्रावधानों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, स्वास्थ्य हर बार राज्य का विषय रहा है, फिर दूसरी लहर के दौरान समस्त दोष राज्यों पर मढा गया जबकि सारी प्रशंसा (सकारात्मक प्रयासों की) केन्द्र ने स्वयं क्यो बटोरी। यदि प्रश्न कोविड टीकाकरण को लेकर भी उठता है, कि राज्य स्वयं टीकाकरण की कीमतों की सौदेबाजी करे। राज्य का टीका और केन्द्र का टीका यह क्या नया मायाजाल। लोग व सरकार समझ नहीं पाये कि ये क्या हो रहा है ? अच्छा हो तो केन्द्र सरकार शाबासी ले, खराब हो तो किरकिरी राज्य सरकारों के हिस्से में, ये कैसा संघ ? ये कैसी सरकार की व्यवस्था ?

जब मार्च, 2020 में चार घंटे से भी कम समय के नोटिस पर देश में पहला लॉकडाउन लागू किया गया, तब देश के 28 राज्यों को उनकी परिस्थिति के अनुसार रणनीति बनाने का अधिकार देने के बजाय केन्द्र सरकार ने दिल्ली से महामारी कोविड-19 को नियन्त्रित करने का प्रयास किया, जिसके परिणाम अनुकूल नहीं निकले।

कोविड-19 के दौरान वित्तीय संकटों का सामना राज्य सरकारों को करना पड़ा। राज्य वित्तीय संसाधन के साथ-साथ स्वास्थ्य रक्षा हेतु संसाधन जुटाने के लिए संघष करने लगे। राज्य सरकारों के पास राजस्व के स्त्रोत बेहद कम है जो कि नमनीय व लचीले भी नहीं है, और वह वित्तीय सहायकता के लिए केन्द्र पर पूरी तरह निर्भर है। केन्द्रीकृत मानसिकता हर स्तर पर अपने राजनैतिक व वैचारिक अधिकार लागू करना चाहती है। विवादों के जड़ में प्रभावशाली केन्द्र व हठी राज्य सरकारे है। वर्तमान में हर सप्ताह कहीं न कहीं केन्द्र-राज्य संघर्ष सामाने आ जाता है। वित्त मंत्रियों का जी.ए.टी. संघर्ष हो या पेट्रोल-डीजल पर राज्यों द्वारा वैट का मामला, कृषि कानूनों. पर मतभेद, आक्सीजन सप्लाई पर विवाद या टीकाकरण लागू करने का प्रश्न हो, केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के मध्य तनाव के बिन्दु निरन्तर सामने रहते है, जो उस सहकारी संघवाद के लक्ष्य की प्राप्ति के खतरनाक है, जिसे केन्द्र सरकार ने अपनाने का दावा किया था। समस्त केन्द्रीय अभिकरणों पर इतना अविश्वास है कि अनके राज्यों ने सी.बी.आई. के ऑपरेशनों पर आम सहमति से इन्कार कर दिया है।

संवैधानिक संकट बनते इस तनाव का स्पष्ट उदाहरण है, पश्चिमी बंगाल। जबसे ममता बनर्जी जीती है, प्रबल राज्य नेतृत्व और केन्द्र के मध्य युद्ध रेखा खिंच गई है, जो कि किसी भी स्वस्थ संघ के लिए उचित उदाहरण नहीं हो सकता है।

नौकरशाही, राज्यपाल अन्य संवैधानिक संस्थाओं को अहम के टकराव से काफी नुकसान पहुँचा है। क्योंकि केन्द्र सरकार जिस प्रकार से समस्त जनता का प्रतिनिधित्व करती है, उसी प्रकार राज्य सरकारें भी अपने राज्य की जनता का प्रतिनिधित्व करती है, निर्वाचित मुख्यमंत्री होने के कारण वे सदैव उचित व्यवहार व सम्मान के पात्र है। दोनों सरकारें समकक्ष सरकारे है, दोनों को अपनी-अपनी शक्तियां संविधान से प्राप्त है। कोई भी किसी अधीनस्थ नहीं है। सभी को सभी का सम्मान करते हुए समरस भाव से सहनशीनता को अपनाते हुए अपने-अपने क्षेत्र में संघीय भाव का पालन करते हुए अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। यदि प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री को किनारे रखकर सीधे जिला अधिकारियों (डी.एम.) से संवाद करते है तो मुख्यमंत्री को तो आपत्ति होगी ही। अधिकतम गवर्नेन्सका वादा करने वालों देश के पुराने ढर्रे पर चल रहे है, राज्यों का सुधार करने के बजाय देश के लोकतान्त्रिक इतिहास में शक्ति का केन्द्रीयकरण कर दिया। हमेशा की तरह विपक्षी दलों की सरकारें केन्द्र पर इसका आरोप/प्रत्यारोप लगती रही। क्योंकि उनका मानना है कि उनकी समस्याओं का सामाधान नहीं किया जा रहा है। राज्य सरकारे यह मानती है कि उन्हें सौंपे गये उत्तरदायित्व की तुलना में उनके वित्तीय संसाधन और प्रशासनिक अधिकार व विधायी अधिकार बहुत कम है।

केन्द्र सरकार राज्यों को अधीनस्थ संस्था के रूप रखना चाती है, जबकि राज्य संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप व्यवहार। राज्य सरकारें नहीं चाहती कि केन्द्र सार्वजनिक एडवायजरी जारी करके उन्हें उनकी संरचानाओं के बारे में दिशा-निर्देश देवे। राज्य इसे संघीय ढ़ांचे के अनुरूप नहीं मानते।

केन्द्र राज्यों के बीच तनाव के संवैधानिक, व्यावहारिक और राजनीतिक कारणों को दूर करने, संघ शासन को सुचारू चलाने, आपसी सम्बन्धों की निरन्तरता बनाये रखने हेतु समय-समय पर अनके आयोगों की स्थापना भी की गई है:-

(1) प्रशासनिक सुधार आयोग (1966-1969)

(2) राजमन्नार समिति (1969-1971)

(3) सरकारिता आयोग (1983-1987)

(4) पुंछी आयोग (192007-19210)

वर्तमान मे अगर देखे तो हमेशा की भांति केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में केन्द्र प्रधानता (वर्चस्व) की स्थिति में है, क्योंकि किसी एक दल के प्रचण्ड बहुमत व राज्य व केन्द्र में दलीय समरूपता, एकरूपता के तत्व को प्रबल करती है।

संविधान निर्माता शायद यह मान कर चले रहे थे कि निर्वाचित जन प्रतिनिधि, जो सदन में बहुमत के आधार पर सरकारों का गठन करेंगे, वे प्रमुख लोकतान्त्रिक व संवैधानिक आदर्शो से सरोबार होगे। परन्तु समय के साथ संवैधानिक आदर्श स्थिति और व्यावहारिक राज्य नीति में असंतुलन इतना बढ़ गया कि राज्य व केन्द्रीय शासन के मध्य विवाद अप्रीतिकर स्थितियां पैदा करने लगे। आजादी के अमृतकाल के आते-आते राजसत्ता को निजी सत्ता की तरह इस्तेमाल करने की प्रवृति कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है।

निष्कर्ष केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में सुधार की दृष्टि से अनेक प्रयास होते रहे और होते रहेगें। अनके समस्याये हमारे सामने खड़ी है। अतः अब समय आ गया है कि अब हम केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की समस्या का सामाधान शांतिपूर्वक और गम्भीरतापूर्वक करे। राजनीतिक पहल समय की मांग है। ’सहकारी संघवाद’ समस्याओं का समाधान एक विकल्प हैं यह मतभेदांे को दूर करने का प्रयास करता हैं समय की मांग है कि राज्यों को अधिक स्वायत्ता आर्थिक, वित्तीय व प्रशासनिक शक्तियां प्रदान की जाये और राज्यांे को भी चाहिए कि वे भी केन्द्र का सहयोग करे तभी हम सहकारी व सहयोगी संघ की अवधारणा का पालन करते हुए देश की संघीय समस्याओं का निराकरण कर पायेगें।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डा0 एस.एल. वार्मा: संघीय शासन व्यवस्था, 1988, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर (राज.)। 2. रामवतार शर्मा व सुषमा यादवः केन्द्र-राज्य सम्बन्ध, 1986, हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय। 3. डा0 जयनारायण पाण्डेय: भारत का संविधान, सेन्ट्रल लॉ एजेन्सी, इलाहबाद, 2002 । 4. डा0 ए.पी. अवस्थी, ’भारतीय शासन एवं राजनीति, 2011, लक्ष्मीनारायण प्रकाशन, आगारा। 5. डा0 हरिशचन्द्र शर्मा, भारत में राज्यों की राजनीति, कॉलेज बुकडिपांे, जयपुर। 6. M.V. Pylee : Constitution in India, Asia Publishing House, 1977. 7. D.D. Basu : Commentry on the Constitution of India, Vol.-IVth ed. 8. संजय कुमारः दैनिक भास्कर, 01.05.2021 9. रूचिर शर्मा: दैनिक भास्कर, 07.05.2021 (10. राष्ट्रदूत समाचार पत्र, 09.05.2021 11. ’अभियक्ति’ राजदीप सरदेसाई, दैनिक भास्कर, 04.06.2021 12. शेखर गुप्ता: ’अभियक्ति’, दैनिक भास्कर, 03.05.2022 13. राजदीप सरदेसाई ’अभिव्यक्ति’, दैनिक भास्कर, 03.06.2022 14. लल्लन टॉप: ऑपिनियन, नेता नगरी। 15. राष्ट्रदूत समाचार पत्र, 16 नवम्बर