ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- VIII September  - 2022
Innovation The Research Concept
ब्रिटिश कुमाऊँ में न्याय, पुलिस प्रशासन तथा जेल व्यवस्था (1857-1947 ई0)
Justice, Police Administration and Imprisonment System in British Kumaon (1857-1947 AD)
Paper Id :  16607   Submission Date :  01/09/2022   Acceptance Date :  21/09/2022   Publication Date :  25/09/2022
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भारती बिष्ट
एसोसिएट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
हिन्दू कॉलेज, मुरादाबाद़, एम॰जे॰पी॰ रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय
बरेली,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश कत्यूरी शासन काल में पुलिस का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। चन्दों के समय में थोकदार एवं प्रधान पुलिस का कार्य करते थे। गोरखा शासन काल में सैनिक अधिकारी सेना एवं पुलिस दोनों कार्य करते थे। ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक समय में अल्मोड़ा जनपद में विशेष पुलिस की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यहाँ अपराध बहुत कम होते थे। अतः 1921 ई॰ के पूर्व तक यहाँ कोई नियमित पुलिस बल रखने की आवश्यकता नहीं समझी गयी। वास्तव में यह यहाँ की स्थानीय जनता के हित में था क्योंकि ये पहले से ही प्रधानों, थोकदारों एवं पटवारियों द्वारा परेशान किये जाते रहे थे। जबकि प्रधानों, थोकदारों एवं पटवारियों के पास बहुत ही सीमित पुलिस अधिकार थे। यदि यहाँ पर नियमित पुलिस बल की नियुक्ति होती जो कि उस समय भ्रष्ट एवं क्रूर था तो पर्वतीय जनता की परेशानियाँ और बढ़ गयी होती। वास्तव में यह ब्रिटिश प्रशासकों का बहुत चातुर्यपूर्ण कदम था, क्योंकि ब्रिटिश प्रशासक स्वयं इस बात को जानते थे कि भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था उनके प्रशासन का सबसे बड़ा दोष था। अतः भ्रष्ट पुलिस की नियुक्ति से राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत स्थानीय जन आक्रोश और अधिक उग्र रूप धारण कर लेता। कत्यूरी शासनकाल में जेलें नहीं थी। चन्द शासनकाल में जेल बनाये गये थे लेकिन अधिकतर वे खाली रहते थे यदि कोई कैदी होता भी था तो वह राजसी महलों के बगीचों में काम करता था। गोरखों के समय में कैदियों को वंशानुगत मजदूर बना लिया जाता था। ब्रिटिश शासनकाल के प्रारम्भ में जेल प्रणाली स्वास्थ्य के लिए हानिकारक, कठोर एवं चरित्रभ्रष्ट करने वाली थी। कुमाऊँ क्षेत्र की प्रथम जेल अल्मोड़ा जेल थी, जिसकी स्थापना 1816 ई॰ में हुई थी। 1910 ई॰ में अल्मोड़ा में एक दूसरी छोटी जेल की स्थापना हुई। धीरे धीरे इन जेलों की स्थिति में सुधार किये गये तथा इस बात का भी प्रयास किया गया कि कैदियों की दशा में सुधार किया जाय तथा उन्हें प्रशिक्षित किया जाये जिससे जेल छोड़ कर जाने पर वे समाज में अच्छा जीवन बीता सके। प्रस्तुत शोध पत्र में ब्रिटिश कुमाऊँ में न्याय, पुलिस प्रशासन तथा जेल व्यवस्था को आंकलित करने का प्रयास किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद There is no mention of the police during the Katyuri rule. In the days of Chand, the Thokdars and Pradhans used to do the work of the police. During the Gorkha rule, military officers used to do both military and police work. In the initial period of British rule, there was no need of special police in Almora district, because there were very few crimes. Therefore, till 1921, there was no need to keep any regular police force here. In fact it was in the interest of the local people here because they were already being harassed by the Pradhans, wholesalers and patwaris. While the Pradhans, Thokdars and Patwaris had very limited police powers. If a regular police force was appointed here, which was corrupt and brutal at that time, then the problems of the hill people would have increased further. In fact, it was a very tactful move by the British administrators, because the British administrators themselves knew that corrupt police system was the biggest fault of their administration. Therefore, due to the appointment of corrupt police, the anger of the local people, imbued with nationalism, would have taken a more fierce form. There were no jails during the Katyuri reign. Jails were built during Chand's reign but mostly they remained empty. If there was any prisoner, he used to work in the gardens of the royal palaces. During the time of Gorkhas, prisoners were made hereditary laborers. The prison system at the beginning of the British rule was injurious to health, harsh and demoralizing. The first jail of Kumaon region was Almora Jail, which was established in 1816 AD. In 1910, another small jail was established in Almora. Gradually the conditions of these jails were improved and efforts were also made to improve the condition of the prisoners and to train them so that they could lead a good life in the society after leaving the jail. In the presented research paper, an attempt has been made to assess the justice, police administration and prison system in British Kumaon.
मुख्य शब्द ब्रिटिश कुमाऊँ न्याय, पुलिस प्रशासन, जेल व्यवस्था।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Justice, Police Administration, Jail System British Kumaon.
प्रस्तावना
अल्मोड़ा जनपद कुमाऊँ का एक हिस्सा होने के कारण इस जनपद में भी वही न्याय व्यवस्था एवं कानून लागू थे जो कि सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र के लिए बने थे अतः ब्रिटिशकालीन जनपद अल्मोड़ा की न्याय व्यवस्था के विवरण में काफी मात्रा में कुमाऊँ की न्याय व्यवस्था का विवरण है। फौजदारी न्यायालयों को निजामत अदालत के अधीन रेगुलेशन 10 के अंतर्गत करा दिया गया। यह व्यवस्था 1864 ई0 तक चलती रही लेकिन 1864 ई0 में समस्त फौजदारी शक्ति कमिश्नर (कुमाऊँ) को दे दी गयी और 1894 ई0 तक कमिश्नर को उच्च न्यायालय की संस्तुति के अधीन मृत्यु दंड देने तक का अधिकार प्राप्त हो गया था। दुर्भाग्यवश जनपद अल्मोड़ा में ब्रिटिश राज्य की उस अवधि के फौजदारी न्याय सम्बन्धी कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं, परन्तु यह पूर्णतया स्पष्ट है कि उस समय पहाड़ में अपराध बहुत कम हुआ करते थे और जो अल्प अपराध होते भी थे वे तराई में होते थे, लेकिन रामजे के कमिश्नर नियुक्त होने के बाद वे तराई में भी कम हो गये थे।
अध्ययन का उद्देश्य ब्रिटिश शासन से पूर्व कुमाऊँ में न्यायालयों की कोई व्यवस्था नहीं थी। प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के अंतर्गत अपराधों तथा विवादों को निपटाने के लिए न्यायिक, पुलिस एवं जेल व्यवस्था की आवश्यकता एवं उपयुक्तता को रेखांकित करना है। इसके अतिरिक्त ग्रामपंचायती व्यवस्था तथा क्रूर गोरखा शासन के अंतर्गत सैनिक अधिकारियों द्वारा विवादों के निपटारे की व्यवस्था से ब्रिटिश व्यवस्था के अन्तर को स्पष्ट करना भी प्रमुख उद्देश्य रहा है।
साहित्यावलोकन

वर्तमान उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मंडल के प्रागैतिहासिक काल से 1947 तक का इतिहास विभिन्न अभिलेखों, शोध प्रबन्धों, रचित पुस्तकों आदि में उपलब्ध होता है। एम० पी० जोशी, डी० सी० सरकार तथा के०के० थंपलियाल ने एक पेन्टिंग्स, सील तथा विभिन्न ताम्रपत्रों के आधार पर कुमाँऊ में विभिन्न राजवंशों के क्रम को निर्धारित किया है, बद्रीदत्त पाण्डे ने उक्त काल खण्ड में शासन व्यवस्था का उल्लेख किया है। एम. एम करगेती ने 'स्वतन्त्रता संग्राम में कुमाऊँ के योगदान' को रेखांकित किया है। बद्रीदत्त पांण्डे ने अपनी पुस्तक 'कुमाऊँ का इतिहास' में ब्रिटिशकालीन भूराजस्व, वन प्रशासन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य का उल्लेख किया है। वहीं राहुल सांकृत्यायन की रचना 'कुमाऊँ', ई० टी० एटकिंसन के 'हिमालयन गजेटियर' में कुमाऊँ में न्याय, पुलिस तथा जेल व्यवस्था को स्पष्ट किया गया है। इसके अतिरिक्त अल्मोड़ा- अखबार तथा शक्ति साप्ताहिक जैसे प्रमुख समाचार पत्र तात्कालिक घटनाक्रम के प्रमुख साक्षी रहे हैं।

मुख्य पाठ

18740 में ‘‘शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट’’ पास किया गया जिसके द्वारा सैशन न्यायालय का अधिकांश क्षेत्र निर्धारित किया गया यद्यपि इसमें कहा गया था कि दीवानी मामलों के प्रयोजनार्थ कमिश्नर उच्च न्यायालय के अधीन नहीं होगा तथापि कमिश्नर को प्रत्येक माह अपने न्यायालय में निबटाये गये तथा शेष बचे हुये मुकदमों की सूची उच्च न्यायालय के माध्यम से शासन को भेजनी होती थी उसमें उसे अपने न्यायालय में प्रस्तुत समस्त अपीलों तथा नियमित व विशेष मुकदमों की सूचना भी देनी होती थी। राजस्व मामलों में राजस्व परिषद् को संशोधन के अधिकार प्राप्त थे लेकिन उनका प्रयोग यदाकदा ही किया जाता था। उत्तरी पश्चिमी प्रान्तों की भांति कुमाऊँ क्षेत्र में भी दीवानी व राजस्व के सभी मामले साधारण जिला राजस्व कर्मचारियों द्वारा सुने जाते थे। उत्तरी पश्चिमी प्रान्तों की इस व्यवस्था के विषय में शैली ने लिखा है प्रशासनिक अधिकारियों को बहुत पहले से न्यायिक शक्ति प्राप्त थी, और अभी भी (19100 में) इस प्रकार के अधिकार उनके पास थे। लेकिन ऐसे कानूनों के सम्बन्ध में कुमाऊँ क्षेत्र के राजस्व अथवा वैधानिक अधिकारियों को देश में अपने साथियों के मुकाबले में अधिक शक्तियां प्राप्त थी।

अल्मोड़ा गैर-आइनीं जिला था। गैर आईनी जिलों में लागू कानून प्रणाली सादी एवं सरल थी। इन जिलों का प्रशासन ऐसे सैनिक और असैनिक अधिकारियों के हाथ में था जो आर्दश व्यक्तित्व वाले तथा निपुण न्यायाधीश होते थे तथा जिन्होंने अपने आत्म निर्णय व ईश्वर को मानकर अपनी जिम्मेदारी को निभाया। कुमाऊँ क्षेत्र का प्रशासन कर्मचारियों के ऐसे छोटे संगठन द्वारा किया जाता था जो कि साधारण भाषा में बोलते थे तथा स्थायी रूप से उस क्षेत्र से जुड़े थे। इन अधिकारियों को स्थानीय दशाओं की पर्याप्त जानकारी थी और प्रशासनिक योग्यता के कारण वे कई मामलों का निबटारा मौके पर ही कर देते थे। झगड़ों के निबटारे में प्रथाओं द्वारा प्रचलित कानूनों को हमेशा ध्यान में रखा जाता था जैसे उत्तराधिकार के मामलों में ‘‘भाई-बांट, सौतिया बांट’’ आदि स्थानीय रिवाजों के अनुसार फैसला किया जाता था।

राजस्व मामलों में संयुक्त प्रान्त में एक बड़ी विषमता यह थी कि मैदानी जिलों में तो राजस्व कानून बहुत पहले से संग्रहित थे। जिसमें समय-समय पर कृषि की दशाओं की विभिन्नता के आधार पर संशोधन किया गया लेकिन कुमाऊँ क्षेत्र के गैर आइनी जिले अल्मोड़ा (तथा नैनीताल में भी) काश्तकारी सम्बन्धी कानून अलिखित रहे, यहां पर कमिश्नर तथा राजस्व परिषद् के निर्णय ही जमीन के विषय में एक मात्र कानून बने रहे।

तत्कालीन न्याय प्रशासन बिना मूल्य के न्याय उपलब्ध होने पर भी वह लोगों को मुकदमेबाजी में भड़काने वाला सिद्ध नहीं हुआ क्योंकि स्थानीय वकीलों की अनुपस्थिति ने इस प्रकार के दुरुपयोग को रोका था। उस समय अदालत की कार्यवाही हिन्दी में लिखी जाती थी केवल अनुवेक्षणों को छोड़कर जो कि फारसी में लिखे जाते थे।

यद्यपि यह स्पष्ट है कि रामजे सभी प्रयोजनों हेतुएक निरंकुश शासक था उसने दृढ़ता से नियम तथा नियमावलियों की न्यूनतम परवाह किये हुये शासन किया, उसका अधिकार क्षेत्र असीमित एवं अविचार्य था, परन्तु कुल मिलाकर उसने अपने अधिकारों का प्रयोग जन हितार्थ किया तथा जो कुछ उचित था उसके लिए किया। कुमाऊँ क्षेत्र में वकीलों की उपस्थिति को उसने नहीं सराहा। क्योंकि उसका दृढ़ विश्वास था कि अमीर आदमी अच्छे वकील को अधिक धन देकर अपने मुकदमे को जीत सकता था। इस सम्बन्ध में एक कहानी प्रचलित है-एक बार रामजे किसी जमीन सम्बन्धी मामले में अमीर भूस्वामी तथा गरीब काश्तकार के झगड़े का फैसला कर रहा था। अमीर भू- स्वामी की ओर से इलाहाबाद से आये वकील पैरवी कर रहे थे लेकिन गरीब काश्तकार को धन के अभाव में अपनी पैरवी स्वयं करनी पड़ रही थी। गरीब काश्तकार की अपील का आधार इसी तर्क पर था कि रामजे ही उसका ‘‘माई-बाप’’ है। फैसले की सुनवायी के दौरान अमीर भू-स्वामी की ओर से बहुत बड़ी सख्या में नजीरें (दृष्टान्त) पेश की गयी सुनवाई के दौरान रामजे खामोश बैठा रहा और अन्त में अमीर भू-स्वामी की ओर से पैरवी करने वाले वकीलों से उसने कहा कि वह ही कुमाऊँ क्षेत्र का कानून है और उसने खुली अदालत में उन समस्त नजीरों को फाड़ दिया तथा इस मामले में काश्तकार के पक्ष में निर्णय दिया।

न्याय के क्षेत्र में रामजे की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि न्याय करते समय वह गोरे एवं काले में (यूरोपियन एवं भारतीय) में कोई भेद नहीं करता था। इस सम्बन्ध में ‘‘अल्मोड़ा अखबार’’ में एक महत्वपूर्ण उदाहरण मिलता है। कि 18840 में तराई क्षेत्रीय कार्यालय के प्रधान लिपिक एच॰ हैक्टसर ने नैनीताल डांठ में एक निर्दोष हिन्दुस्तानी सिपाही को गाली दी तथा पीटा। उस गरीब सिपाही का केवल इतना ही दोष था कि जब हैक्टसर सड़क पार कर रहा था तो वह सड़क से घोड़ों को जल्दी नहीं हटा पाया था। सिपाही ने रामजे की अदालत में दावा प्रस्तुत किया और हैक्टसर से मुआवजा प्राप्त किया। रामजे को न्याय प्रियता के विषय में इसी प्रकार अनेक छोटी-छोटी घटनाएं स्थानीय समाज में बुजुर्ग नागरिकों द्वारा आज भी सुनी जाती है। यद्यपि उनमें से अधिकांश घटनाएं वास्तविक रूप से अधिक विश्वसनीय नहीं है परन्तु इस बात को निश्चित रूप से स्पष्ट करती है कि रामजे ने बड़े-छोटे (अमीर-गरीब) के साथ समान न्याय किया और न्याय हेतु सत्य की जानकारी के लिए उसने किसी भी प्रकार के कष्ट उठाने में कोई संकोच नहीं किया। रामजे इस सिद्धान्त पर विश्वास करता था कि दोषी को सजा मिलनी ही चाहिए, चाहे ऐसा करने में नियम ही बाधक क्यों न बन जाय। रामजे भी एक मनुष्य ही था उसने भी अनेक गलतियां की परन्तु एक न्यायाधीश के रूप में उसे विशिष्टता प्राप्त थी उसने कुमाऊँ क्षेत्र के अन्तर्गत, उच्च न्यायालय की शक्तियां अपने पास बनाये रखी और उत्तरी पश्चिमी प्रान्तों में कुमाऊँ क्षेत्र के न्याय प्रशासन में पर्याप्त सुधार किये।

स्वेच्छापूर्वक शासन करने वाला रामजे अकेला अधिकारी था। 18840 में वह सेवानिवृत्त हुआ। रामजे के पश्चात् न्यायिक प्रणाली में अनेक परिवर्तन हुये। अब कमिश्नर के असीमित अधिकारों में रोक लगा दी गयी जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि 18940 तक कुमाऊँ कमिश्नर को मौत की सजा देने तक का अधिकार था जिनकी पुष्टि उच्च न्यायालय किया करता था। 18940 से 19140 तक कमिश्नर सेशन न्यायाधीश का काम भी करता था तथा वह केवल उच्च न्यायालय के प्रति उत्तरदायी रहता था। यद्यपि तब भी कमिश्नर मृत्यु दण्ड की सजा अभियुक्त को सुना सकता था परन्तु अब अभियुक्त को इस बात का अधिकार हो गया था कि वह उच्च न्यायालय में न्याय के लिए अपील कर सकता था जैसा कि 18940 के पहले के मामलों में ऐसा नहीं होता था। 19140 में कुमाऊँ के लिए एक पृथक न्याय विभाग की स्थापना की गयी जिसके द्वारा दोनों जिलों अल्मोड़ा एवं नैनीताल के लिए जिला न्यायाधीश नियुक्त किये गये। जिला न्यायाधीश अपने जिले में न्याय विभाग से सम्बन्धित सभी कार्य कलापों के लिए सीधे उच्च न्यायालय के प्रति उत्तरदायी होता था। जिला न्यायाधीश के अधीन कोई सिविल न्यायाधीश तथा मुन्सिफ नियुक्त नहीं किये गये थे। राजस्व मामलों में डिप्टी कमिश्नर, डिप्टी कलक्टर तथा तहसीलदार न्यायधीश का कार्य करते थे। यह व्यवस्था स्वतंन्त्रता प्राप्ति तक बनी रही। उस समय कमिश्नर अपने मण्डल, डिप्टी कमिश्नर उप मण्डल, डिप्टी कलक्टर अपने जिले तथा तहसीलदार अपनी तहसील के क्षेत्रान्तर्गत किसी भी स्थान पर अदालत लगा सकते थे।

अल्मोड़ा एक गैर आइनी जिला था। उस समय गैर आइनी क्षेत्रों की न्याय- प्रणाली में काफी दोष थे। इस प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह था कि इसमें सिविल तथा फौजदारी सम्बन्धी कानूनों का अभाव था इसके अतिरिक्त अदालत सारा जोर कानून की भावना के स्थान पर कानून के शब्दों को देती थी जिससे अधिकतर न्याय करते समय वास्तविक बिन्दु को भुला दिया जाता था। यद्यपि रामजे तथा कुछ अन्य अधिकारियों ने सच्चाई के हित में मामलों का निबटारा कानून के विरुद्ध भी किया परन्तु यह सभी अधिकारियों के लिए सम्भव नहीं था क्योंकि सामान्यतः कानून पर ही जोर देते थे।


पुलिस प्रशासन -

अल्मोड़ा जिले के लिए पुलिस दस्ते की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी क्योंकि यहाँ अपराधों की संख्या बहुत कम थी। इस जिले में 1837 में निर्मित एक थाना था। 18690-18700 में रानीखेत में भी एक पुलिस थाने की स्थापना की गयी। तीर्थयात्रा के दिनों में कुमाऊँ पुलिस अधीक्षक द्वारा सड़कों के किनारे ‘‘गार्ड हाउस’’ बनाये जाते थे इन ‘‘गार्ड हाउसों’’ में दो या तीन सिपाही भेजे जाते थे। यह सिपाही इन सड़कों में गस्त लगाते थे।

कुमाऊँ क्षेत्र की पुलिस व्यवस्था के विषय में रामजे ने लिखा कि ‘‘मेरे विश्वास में कुमाऊँ में जो पुलिस प्रथा लागू थी वह भारत के अन्य भागों में लागू पुलिस प्रथा से अधिक सफल थी और उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन करना बुद्धिमत्ता नहीं थी इसकी सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि यह बड़ी सस्ती थी। भाबर पुलिस को छोड़कर पहाड़ की पुलिस में कोई खर्चा नहीं था।......यह वेतन पाने वाली पुलिस के मुकाबले अच्छी थी। अतः वेतन पाने वाली पुलिस की यहां कोई आवश्यकता नहीं थी।

यहां के निवासियों की भी यही राय थी कि इस क्षेत्र में नियमित पुलिस की आवश्यकता नहीं है। अल्मोड़ा जिले में पुलिस का कार्य पधानों, थोकदारो तथा पटवारियों द्वारा किया जाता था। पधान, थोकदार तथा पटवारी जनता को सदैव परेशान किया करते थे अतः जनता का यह विश्वास था कि नियमित पुलिस की नियुक्ति से उनकी परेशानियों में और अधिक वृद्धि हो जायेगी। बाद के वर्षों में स्थानीय जनता में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा जिससे आन्दोलनों एवं ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह की सम्भावनाएं बढ़ने लगी अतः शासन ने नियमित पुलिस की आवश्यकता महसूस की। 19090 में अल्मोड़ा में नियमित पुलिस दस्ते की संख्या निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट होती है-

19090 में अल्मोड़ा जिलें में नियमित पुलिस का विवरण

थानों का नाम

सब इस्पैक्टर

प्रधान सिपाही

सिपाही

नगर पालिका पुलिस

ग्राम्य पुलिस

सड़क पुलिस

अल्मोड़ा

1

2

20

.

.

.

रानीखेत

1

6

44

.

.

.

गनाई (चौकी)

.

1

3

.

.

.

कालान्तर मंे अल्मोड़ा वासियों ने कुली उतार, कुली बेगार तथा कुली बर्दायश आदि कुप्रथाओं को हटाने के लिए आन्दोलन प्रारम्भ किये, अतः अब प्रशासन को नियमित पुलिस दल की आवश्यकता अधिक अनुभव होने लगी। 19210 में अनेक स्थानों पर थानों को खोलने का सुझाव दिया गया, लेकिन आर्थिक अभाव के कारण यह प्रस्ताव कार्यान्वित नहीं हो सका। संयुक्त प्रान्त की प्रशासनिक आख्या में (19250) उल्लेख मिलता है कि ‘‘19210 में कुली उतार समाप्त होने से मालगुजारों तथा पधानों के अधिकार कम हो गये-असहयोग आन्दोलन के कारण भी पधानों तथा थोकदारों के अधिकारों में कमी आ गयी। स्वराज आन्दोलन के कारण न केवल लोगों में आजादी की भावना जागृत हुई वरन् वहां अराजकता भी फैल गयी।

अतः 19250 में सम्पूर्ण कुमाऊँ क्षेत्र के लिए सिविल पुलिस व्यवस्था की गयी, जिसमें 19 जांच अधिकारी 15 थानेदार तथा 174 सिपाही थे। दूसरी ओर सेना पुलिस थी जिसमें एक सब इंस्पेक्टर, 26 प्रधान सिपाही तथा 192 सिपाही थे लेकिन सैन्य पुलिस कुमाऊँ क्षेत्र के लिए आरक्षित बल थी। ये समस्त पुलिस बल ‘‘पुलिस निरीक्षक कुमाऊँ मण्डल’’ के अधीन होते थे। कालान्तर में राष्ट्रीय आन्दोलनों की तीव्रता के कारण पुलिस बलों में वृद्धि की गयी। कुमाऊँ क्षेत्र का पुलिस मुख्यालय अल्मोड़ा में न होकर नैनीताल में था।

निःसन्देह मैदानी क्षेत्रों की पुलिस व्यवस्था पहाड़ों के लिए पूर्णतया अनुपयुक्त तथा मंहगी थी। लेकिन बाद के वर्षों में पहाड़ में भी राष्ट्रीय आन्दोलन तीव्रता से विकसित होने लगे तथा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जन आक्रोश निरन्तर बढ़ने लगा जिससे पहाड़ों में भी नियमित पुलिस बल की स्थापना करनी पड़ी। निःसन्देह ब्रिटिश प्रशासन द्वारा गठित यह पुलिस ईमानदार व कर्तव्यपरायण होती तो स्थानीय व्यक्तियों तथा उनके हितों में यह सहायक हो सकती थी लेकिन 19वीं शताब्दी में उत्तरी- पश्चिमी प्रान्तों में पुलिस बेईमान थी काय ने भी इस बात को स्वीकार किया कि ‘‘पुलिस हमारे प्रशासन का सबसे कमजोर बिन्दु है।

19210 से पूर्व अल्मोड़ा जिले में नियमित पुलिस व्यवस्था का न होना अल्मोड़ा निवासियों के हित में था क्योंकि पहले ही उन्हें थोकदारों, पधानों एवं पटवारियों के द्वारा, जिनको कि सीमित पुलिस अधिकार प्राप्त थे, समय-समय पर परेशान किया जाता था और यदि नियमित पुलिस बल को जो कि भ्रष्ट एवं बेईमान था नियुक्त कर दिया जाता तो यहाँ के निवासियों की कठिनाईयां बढ़ जाती अतः ब्रिटिश प्रशासकों का यह एक पर्याप्त अच्छा कदम था कि उन्होंने मैदानों की पुलिस व्यवस्था को पहाड़ों में लागू नहीं किया। यद्यपि बाद में नियमित पुलिस बल की स्थापना हुई लेकिन वह राष्ट्रीय आन्दोलनों की पराकाष्ठा का दौर था जब कि जनता गिरफ्तारी हेतु स्वयं पुलिस के पास जाती थी।

जेल-व्यवस्था -

कत्यूरी एवं चन्द शासकों के काल में भी जेल व्यवस्था थी लेकिन उन दिनों अपराध इतने कम होते थे कि जेलें प्रायः खाली रहती थी। यदाकदा कोई कैदी होता भी था जो वह राजसी महलों के बगीचों में कार्य करता था तत्पश्चात् गोरखों के शासनकाल में कैदी को वशानुगत मजदूर बनाकर काम कराया जाता था। ब्रिटिश काल में जेल प्रशासन में काफी वृद्धि हुई। ब्रिटिश काल के प्रारम्भ वर्षो में कुमाऊँ क्षेत्र के लिए एक जेल थी जो जनपद अल्मोड़ा में स्थित थी। इसकी स्थापना 18160 में हुई थी 18550 में इसको काफी बड़ा बना दिया गया।

अल्मोड़ा जेल में भर्ती किये जाने वाले कैदियों के पूरे परिचय का एक रजिस्टर रखा जाता था। साल के प्रारम्भ में नये रजिस्टर बनाये जाते थे जिनमें नये कैदियों के नाम लिखे जाते थे। प्रत्येक कैदी के गले या बांह में लकड़ी का चार गुणा दो इंच का टिकट लटका दिया जाता था। इस टिकट के एक ओर कैदी को आबंटित नम्बर तथा वर्ष का नाम (जिस वर्ष वह जेल भरती हुआ) व दूसरी ओर सजा समाप्ति का वर्ष लिखा रहता था। ऐसी प्रथा थी कि एक ही परवाने में (आदेश) कई कैदियों का नाम लिख दिया जाता था जिनकी सजा की अवधि अलग-अलग तारीखों को समाप्त होती थी, लेकिन बाद में इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया तथा ऐसी प्रथा लागू की गयी कि जिसके द्वारा एक ही वारेण्ट अथवा परवाने में केवल उन्ही कैदियों का नाम दिया जायेगा जिनकी कि सजा की अवधि किसी एक ही तारीख को समाप्त होती थी। निजामत अदालत, शेसन न्यायाधीश तथा मजिस्ट्रेट द्वारा दोषी घोषित किये गये कैदियों के विषय मंे अलग-अलग रजिस्टर रखने की प्रथा को भी समाप्त कर दिया गया अब सभी न्यायालयों द्वारा अपराधी ठहराये गये कैदियों के विषय में एक ही रजिस्टर रखा जाने लगा। कैदियों से सम्बन्धित सभी प्रविष्टियां तथा सजा देने वाले न्यायालय का विवरण रजिस्टर ‘‘’’ के स्तम्भ दस तथा रजिस्टर ‘‘बी’’ के स्तम्भ आठ में दिया जाता था। कैदी को दूसरे जिले में स्थानान्तरित करने पर उसके साथ उनका वारेण्ट तथा विवरण (लकड़ी का टिकट) भेजा जाता था। जिस जिले को कैदी भेजा जाता था उस जिले का मजिस्ट्रेट आवश्यक जांच करने के उपरान्त कैदी के वारेण्ट को उस जिले के मजिस्ट्रेट को वापस भेज देता था जिस जिले से कैदी आया था। महिला कैदियों को पुरुष कैदियो से अलग रखा जाता था। अपराधी कैदियों को भरती करने व छोड़ने का उचित विवरण उत्तरी पश्चिमी प्रान्तों के जेल इंस्पेक्टर को भेजा जाता था।

आजीवन या लम्बी अवधि तक सजा पाने वाले कैदी जेल अधिकारियों तथा शासन के लिए सिरदर्द बन गये थे। ये कैदी खतरनाक तथा बुरी प्रवृत्ति के थे। कई जगह मजदूरों की तरह काम करते हुये भी इन्होंने उपद्रव कर दिये थे। अतः उत्तरी पश्चिमी प्रान्तों की सरकार ने निजामत अदालत को इस बात के लिए सावधान कर दिया कि आजीवन कारावास की सजा पाने वाले कैदियों को अल्मोड़ा की तरह छोटी जेलों में मजदूरी के काम पर लगाने से उनके द्वारा उपद्रव किये जाने की सम्भावना हो सकती है, इसलिए ऐसे कैदियों को बिना मजबूत पुलिस सुरक्षा के काम पर न लगाया जाय।

उत्तरी पश्चिमी प्रान्तों के लेफ्टीनेण्ट गर्वनर ने भी यह सुझाव दिया कि लम्बी अवधि की सजा वाले ऐसे कैदियों को जिनकी सजा की अवधि छः माह से अधिक हो एक अलग जेल में बन्द किया जाय जो कि काफी मजबूत हो जिससे उनके भागने अथवा उपद्रव के अन्य प्रयासों को रोका जा सके। फलस्वरूप अल्मोड़ा के जेल के लम्बी अवधि की सजा पाये हुये कैदियों को बरेली जेल में स्थानान्तरित किया जाने लगा। क्योंकि बरेली जेल अपेक्षाकृत अल्मोड़ा जेल से बड़ी एवं अधिक सुरक्षित थी। ‘‘कोर्ट आफ डाइरेक्ट्रस’’ को भेजी गयी अपनी आख्या में एलेनबरौ ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किये कि ‘‘यह बहुत ही आपत्तिजनक प्रतीत होता है कि आजीवन सजा प्राप्त कैदियों तथा अल्प अवधि की सजा प्राप्त कैदियों को एक ही जेल में साथ-साथ रखा जाय लेकिन भिन्न-भिन्न श्रेणी के कैदियों के एक ही जेल में अलग-अलग प्रकार का व्यवहार नहीं किया जा सकता।

कैदियों से मेहनत का काम कराने की प्रथा लम्बे समय तक प्रचलित रही। छोटे  अपराधों से सम्बन्धित कैदी जेल के बाहरी कार्यों में लगाये जाते रहे। विशेषकर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अवधि में कुमाऊँ कमिश्नर रामजे द्वारा कैदियों का उपयोग कुलियों के रूप में किया गया क्योंकि उस समय कुलियों की बहुत कमी हो रही थी। यद्यपि जेल में कैदियों के उचित रख-रखाव की व्यवस्था थी। कैदियों की सुविधाओं तथा स्वास्थ्य के प्रति सरकार भी ध्यान देती थी। लेकिन राबर्टसन ने इसे ‘‘जेल की कुव्यवस्था कहा।’’ शक्ति साप्ताहिक में भी इस बात का उल्लेख मिलता है कि कैदियों को बिना पका भोजन दिया जाता था तथा उनसे यह आशा की जाती थी कि वे अपना भोजन खुद बनाएं कैदियों के मध्य जातिगत भेदभाव के कारण पका हुआ भोजन नहीं मिलता था।

31 मार्च 18430 को निजामत अदालत द्वारा एक आदेश जारी करके कैदियों को निम्नलिखित रियायतें दी गयी। यथा बिना पके भोजन के स्थान पर कैदियों को दिन में दो बार पका हुआ भोजन दिया जाना चाहिए। अधिक मेहनत के लिए प्रत्येक कैदी को डेढ़ सेर लकड़ी तथा कम से कम दो छटांग आटा अतिरिक्त दिया जाना चाहिए प्रत्येक कैदी के लिए जेल में 600 घन फीट की जगह दी जानी चाहिए, गर्मियों के दिनों में किसी भी कैदी को दोपहर में दो या तीन घण्टे से अधिक काम नहीं करने दिया जाना चाहिए, कार्य का वितरण कैदियों की शारीरिक स्वास्थ्य की क्षमता के अनुसार किया जाना चाहिए इसके अतिरिक्त हर वर्ष के सितम्बर 15 तारीख से कुछ अतिरिक्त गरम कपड़े जैसे गरम मिरजार (जैकेट) कम्बल, टोपी, तथा इसी प्रकार की अन्य चीजें दी जानी चाहिए।

18500 में अल्मोड़ा जेल में प्रत्येक कैदी के प्रतिदिन के भोजन का औसत मूल्य 11.5 पैसे आता था। वस्त्रों तथा विस्तर पर प्रतिवर्ष प्रति कैदी 3 रू0 7 आना 1 3/4 पैसे खर्च होते थे। कैदियों के लिए ध्रूमपान निषेध था और वह स्थिति 18470 तक लगभग अपरिवर्तनीय रही।

8 अगस्त 18490 अल्मोड़ा के जिला मजिस्ट्रेट को आदेश दिया गया कि प्रत्येक कैदी एक कम्बल को सालभर तक रख सकता है। गर्मी की पोशाक के अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष सितम्बर की 20 तारीख से प्रत्येक कैदी को एक कम्बल तथा एक कम्बल का कोट दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को इस बात के भी निर्देश दिये गये कि वे इस तथ्य को सुनिश्चित कर लें कि अस्पतालों मंे अच्छे कम्बलों व बिस्तर की व्यवस्था उपलब्ध है। किसी कैदी को बीमारी की स्थिति मंे जब सिविल सर्जन को दिये गये प्रार्थना पत्र में उस बीमार कैदी के तुरन्त दूसरे जिले में स्थानान्तरण की संस्तुति की गयी हो तो ऐसी स्थिति में उसके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिए तथा अन्य आवश्यक मामलों में मजिस्ट्रेट को अधिकार दिया गया कि वह बीमार कैदी के तुरन्त स्थानान्तरण के विषय में स्वास्थ्य अधिकारी की आख्या के अनुरूप जेल इंस्पैक्टर के माध्यम से सरकार से अनुमति प्राप्त करें। कैदी के पागल हो जाने पर उसे पागलखाने भेज दिया जाता था, लेकिन कैदी की पागलखाने भेजने से पूर्व उसकी पागलपन की अवधि को ध्यान में रखा जाना होता था।

इसके अतिरिक्त जेल में कैदियों की शिक्षा की भी व्यवस्था की जाती थी। खेती करने वाले कैदियों के लिए जिन्होंने कि दुराचरण के अपराध न किये हो तथा जो गुटबन्दी के अपराधी हो उचित शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता था। ऐसे अपराधी जिन्होंने अत्यन्त घृणित अपराध किये हो उन्हें भी शिक्षित किया जाता था जिससे उनके आचरण में सुधार हो सके तथा वे अपने उन कैदी साथियों के साथ अच्छा व्यवहार करने के लिए प्रेरित हो सके जिनके साथ उन्हें अपने शेष जीवन व्यतीत करना होता था। इन कैदियों की किताबें तथा इन्हें प्रशिक्षित करने वाले प्रशिक्षकों के वेतन का व्यय कैदियों द्वारा किये गये कार्यों के मूल्य से काट लिया जाता था, जिसके लिए जेल अधिकारी को प्रति सौ व्यक्तियों के लिए पांच रूपये प्रतिमाह खर्च करने का अधिकार होता था। उस समय जेल प्रशासन के अन्तर्गत यह एक सामान्य प्रथा थी कि जिस कैदी को सपरिश्रम कारावास की सजा होती थी उस कैदी की सजा के विरुद्ध की जाने वाली अपील की अवधि समाप्त हो जाने पर उसके सिर एवं चेहरे के बाल मुढ़़वा दिये जाते थे यह कार्य प्रत्येक पन्द्रह दिन में होता था जिसके लिए एक कैदी नियुक्त होता था। हिन्दू कैदियों को चोटी रखने की अनुमति थी। कभी-कभी कैदी जेल से भाग भी जाते थे। इसके लिए सरकार ने पचास इनामों की घोषणा निम्न दरों पर की थी। प्रत्येक ऐसे कैदी के लिए जिसकी सजा की अवधि निम्न में से अधिक न हो यथा (1) 6 माह तक की सजा वाले अपराधी को पकड़ने हेतु 10 रू0 इनाम (2) 12 माह तक की सजा पाने वाले अपराधी को पकड़ने पर 15 रू0 इनाम (3) 36 माह की सजा तक 25 रू0 इनाम तथा 36 माह से अधिक की सजा वाले को पकड़ने पर 50 रू0 इनाम।

कुछ ऐसे मामले भी सामने आये जिनमें कैदियों द्वारा सुरक्षा कर्मचारियों के साथ मिल जाने के कारण उनके भागने में सरलता हो गयी क्योंकि सुरक्षा कर्मचारियों ने इनाम पाने के लालच में ऐसा किया। ऐसी स्थिति पर नियन्त्रण पाने के लिए सबसे उत्तम कार्यवाही यही समझी गयी कि भागने वाले कैदियों के पकड़े जाने पर उनकी पूर्व निर्धारित सजा अवधि के साथ-साथ कुछ अतिरिक्त सजा दे दी जाय।

सजा की समाप्ति पर कैदी को जेल अधिकारी द्वारा प्रमाण-पत्र ‘‘’’ दिया जाता था जिसे जेल अधिकारी के हस्ताक्षर होते थे, और यदि आवश्यक हुआ तो कैदी को बाहर जाने का प्रमाण पत्र ‘‘बी’’ दिया जाता था जिससे वह सुरक्षित रूप से अच्छे आचरण के साथ अपने गांव पहुंच सके तथा उसे भगौड़ा कैदी न समझा जा सके। इसके अतिरिक्त जेल से छूटने पर प्रत्येक कैदी को उसके उन वस्त्रों को वापस कर दिया जाता था जो उसने जेल में भरती होते समय पहने थे तथा इस बात का भी विशेष ध्यान रखा जाता था कि कैदी के कपड़ों अथवा शरीर पर जेल का कोई चिन्ह या नम्बर न रहने पाये। जेल से छूटने पर कैदी को उसके घर पहुंचने तक के लिए 6 पैसा प्रतिदिन की दर से भोजन व्यय भी दिया जाता था।

19010 तक कुमाऊँ क्षेत्र के लिए केवल ‘‘अल्मोड़ा जेल’’ ही एक मात्र थी। 19020 में एक जेल नैनीताल में भी बनायी गयी तथा कुछ समय बाद एक जेल हल्द्वानी में भी बनायी गयी। 19100 में अल्मोड़ा में पुनः एक छोटी जेल बनायी गयी जिसमें 20 व्यक्तियों को रखे जाने की व्यवस्था थी। अल्मोड़ा के पहले जेल में 141 व्यक्तियों को रखने की क्षमता थी। 19370 में अल्मोड़ा में कैदियों की दैनिक उपस्थिति 60 थी।

निष्कर्ष उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि जनपद अल्मोड़ा की जेल में प्रारम्भिक व्यवस्था बहुत खराब थी, वहाँ किसी प्रकार के नियम कानून लागू न थे, लेकिन धीरे-धीरे जेलों की संख्या बढ़ायी गयी तथा नये कानून बनाकर जेलों की आन्तरिक व्यवस्था को सुधारने का प्रयास किया गया व इस बात का प्रयास किया गया कि कैदियों के आचरण में सुधार किया जाय उन्हें अच्छी शिक्षा द्वारा जेल छोड़कर समाज में जाने हेतु प्रशिक्षित किया जाय जिससे वे अपना शेष जीवन अच्छे आचरण को लेकर व्यतीत करें।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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