ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
नृारी विमर्श: एक सिंहावलोकन
Feminism: An Overview
Paper Id :  16740   Submission Date :  12/12/2022   Acceptance Date :  22/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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प्रीति सक्सेना
व्याख्याता
हिंदी विभाग
एस.आर.एस.पी.जी.गर्ल्स कॉलेज
भरतपुर, कुम्हेर ,राजस्थान, भारत
सारांश सर्वप्रथम यह विचारणीय प्रश्न है कि स्त्री विमर्श से क्या तात्पर्य है? नारी मुक्ति की अवधारणा के इर्द-गिर्द रचे साहित्य को स्त्री विमर्श के अन्तर्गत रखना उपयुक्त है लेकिन वर्तमान में नारी का अपनी स्वतंत्र चेतना का मान उसका मुक्त अभिव्यक्तिकरण भी नारी विमर्श के अन्दर समाहित है। पुरूषों का विरोध करते हुए पुरूष की तरह निरंकुश और स्वच्छन्द हो जाना नारी मुक्ति नहीं है। वर्तमान में कुछ लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथा में यह स्वीकार किया है कि वे अपने पति के अलावा अन्य पुरूषों के प्रति भी आकर्षित हुई हैं, ये उनकी उच्छंख्लता न होकर उनकी साफगोई है। यह नारी-विमर्श की भावना है जिसमें उसे अपनी आत्मानुभूतियों को छिपाने की आवश्यकता नहीं है। उन अनुभूतियों को बाँटना चाहती है। यह उसकी चैतन्यता का प्रमाण हे वह अपने दायित्वों, कर्त्तव्यों से भाग नहीं रही है। निःसंदेह रूप से आज के इस ज्वलंत और शाश्वत विषय पर न केवल विचार, अपितु जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद First of all, it is a question to be considered that what is meant by women's discussion? It is appropriate to keep the literature created around the concept of women's liberation under women's discourse, but at present, the value of women's independent consciousness and its free expression is also included in women's discourse. Being independent and independent like a man while opposing men is not women's liberation.
At present, some writers have admitted in their autobiography that apart from their husbands, they have been attracted to other men as well, this is not their frivolity but their clarity. This is the spirit of feminism in which she does not need to hide her inner feelings. Wants to share those feelings. This is the proof of her consciousness that she is not running away from her responsibilities and duties. Undoubtedly, there is a need to spread not only thought but also awareness on this burning and eternal subject of today.
मुख्य शब्द स्त्री विमर्श, नारी साहित्य, स्वतंत्र चेतना।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Womens Discussion, Womens Lliterature, Independent Consciousness.
प्रस्तावना
स्त्री विमर्श उस साहित्यिक आन्दोलन को कहा जाता है जिसमें स्त्री अस्मिता को केन्द्र में रखकर संगठित रूप से स्त्री साहित्य की रचना की गई। हिन्दी साहित्य में पहली बार मध्यकाल में मीराबाई के काव्य में विद्रोह का भाव दिखता है। जिसने नारी अस्मिता का एक अभूतपूर्व इतिहास रचा। उदाहरण मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई'। तत्कालीन समाज में नारी जिस रूढ़ियों में जकड़ी थी उससे मुक्ति का मार्ग मीरा दिखाती है। छायावाद में महादेवी वर्मा में स्त्री के सशक्तिकरण नारी जागरण, मुक्ति का मार्ग मीरा दिखाती है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य स्त्री विमर्श का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा के दूसरे खण्ड 'गुड़िया भीतर गुड़िया' में लेखिका पुरूष वर्चस्व, पुरूष के स्त्री विरोधी, विचार घर परिवार और दाम्पत्य के अन्यायों को न सिर्फ दर्ज करती है, बल्कि विरोध भी करती है। उनका अपने पति के मित्र डॉ0 सिद्धार्थ से, उनकी बातचीत, मित्रता उनके पति और समाज को खलती है। आत्मकथा में मैत्रयी, पुष्पा, स्त्रियों के लिए, नयी परम्पराओं, स्वाधीनता की मांग करती दिखती है।

मुख्य पाठ

प्रभा खेतान कृत (अन्या से अनन्या), मन्नु भण्डारी कृत (एक कहानी यह भी) आत्मकथाओं में भी स्त्री स्वातंत्रय के चित्र अंकित किए गए है। प्रभा खेतान (अन्या से अनन्या) में बताया है कि पाश्चात्य देशों में नारी स्वाधीन होते हुए भी पुरूशो की तुलना में दूसरे दर्जे की नागरिक    है। भारत सहित पूरी दुनिया की स्थिति एक सी है।

60 के दशक में स्त्री विमर्श की गूंज उषा प्रियम्बदा कृष्णा सोवती, मन्नु भण्डारी, शिवानी, प्रभा खेतान में नारी की मुक्ति की आकांक्षा दिखायी देती है। अमृता प्रीतम की (रसीदी टिकट), कृष्णा सोवती की (मित्रों मरजानी), मन्नू भण्डारी कृत (आपका बंटी), ममता कालिया (कृत बेघर), मृदुला गर्ग, कृत (कठ गुलाब) मैत्रेयी पुष्पा, कृत (चाक एवं आत्मा कबूतरी), प्रभा खेतान कृत (छिन्नमस्ता), पदमा सचदेव कृत (अब न बनेगी देहरी), मेहरून्निसा परवेज कृत (अकेला पलाश), शैलेश भाटियानी कृत (बावन नदियों का संगम), उषा प्रियम्बदा कृत (पचचन खम्बेलाल दीवार), दिप्ति खण्डेलवाल कृत (प्रतिध्वनियाँ) आदि में स्त्री स्वातन्त्रय, नारी संघर्ष की प्रतिध्वनियाँ सुनाई देती है। इस अवधारणा के प्रारम्भ में यह माना जाता था कि नारी भोक्ता होने के कारण अपनी समस्याओं को प्रमाणित ढंग से लिख सकती है यही कारण है कि उषा प्रियवंदा, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, मणिका मोहिनी, मंजुल भगत, कृष्णा सोवती, मैत्रयी पुष्पा आदि ने इस विषय पर लेखनी चलायी।

स्त्री की वेदना को, उसकी समस्याओं को कई स्तरों पर एक स्त्री लेखिका अधिक प्रमाणित ढंग से प्रस्तुत कर सकती है। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि पुरूष लेखक स्त्री विमर्श या स्त्री समस्याओं का लेखन नहीं कर सकते।

साहित्य जगत में प्रकाशित मुझे चांद चाहिए (सुरेन्द्र वर्मा), बसंती (भीष्म साहनी), अर्द्ध नारीश्वर (विष्णु प्रभाकर), एक जमीन अपनी (चित्रा मुदगल), बेतवा बहती रही (मैत्रयी पुष्पा), अपनी सलीवें (नमिता सिंह), थकी हुई सुबह, (रामदरश मिश्र), औरत का हक (तसलीमा नसरीन), बाजार के बीच, बाजार के खिलाफ (प्रभा खेतान),यौन दासियाँ: विदेशों में स्त्री का क्रय विक्रय (लुइस ब्राउन) आदि उपन्यासें नारी विमर्श के सभी आयामों को अभिव्यक्त करती है।

प्रश्न यह है कि क्या पुरूषों का हर स्तर पर विरोध ही नारी मुक्ति है या कुछ और। वास्तव में स्त्री विमर्श की अवधारणा बहुआयामी है। इसे सीमित कर के नही देखा जा सकता। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष आर्थिक मुक्ति या आर्थिक स्वतंत्रता है। नारी विमर्श का स्वर मुख्यालय से नारियों की आर्थिक आत्मनिर्भरता की मांग करता है, जिससे पारिवारिक स्तर पर वह शोषिता मुक्त हो सके। नौकरी करने वाली नारियाँ पुरूष प्रधान समाज के अवमूल्यों को चुनौती देने की स्थिति में होती है। स्वावलम्बी बनने का मार्ग भी कठिनाई से अटा पड़ा है। स्वतंत्रता आर्थिक ही नहीं, आत्मिक, मानसिक, बौद्धिक, शारीरिक आदि कई स्तरों पर प्राप्त होनी चाहिए।

नारी के सम्बन्ध में समाज की मान्यता दुमुँही रही है। ऐसे में इस दुराग्रह से बचने के लिये नारी के विद्रोही तेवरों की आवश्यकता है। इस संदर्भ में चित्रा मुदगल ने अपने उपन्यास में जो विद्रोह का स्वर उभारा है उससे मैं पूर्णतः सहमत हूँ औरत बोनसाई का पौधा नहीं है- जब जी चाहे उसकी जड़े काटकर उसे वापस गमलों में रोप लिया वह बौन बनाए रखने की इस साजिश को अस्वीकार भी तो कर सकती है। यह अस्वीकार नितांत आवश्यक है लेकिन नारी चेतना का तात्पर्य अपनी शर्तो पर अपनी गलत सही आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहना मात्र नहीं है। नारी चेतना का स्वस्थ और सकारात्मक रूप का चित्रण आवश्यक है। कोई भी अवधारणा अपने में त्रुटि रहित होना आश्चर्यजनक है। इस अवधारणा में भी उन्मुक्त भोग, विवाह संस्था का विसर्जन, पतिव्रत आदि मूल्यों पर प्रश्न चिन्ह लगाना, मातृत्व का निषेध पुरूषों के स्वैराचार का अंधानुकरण आदि कई खामियां देखी जा सकती है। जो इस अवधारणा को कमजोर करती है। फिर भी प्रबुद्ध नारियों को इस दिशा में जन जागरण का कार्य करना चाहिये।

मनुष्य संवेदनशील प्राणी है ऐसे में स्त्री को उसके अधिकारों से वंचित कर देना उसे मात्र भोग्य समझ लेना अनुपयुक्त है। जब जन्म देने वाला ईश्वर कोई भेदभाव नहीं मानता ऐसे में यहाँ स्त्री पुरूष के लिये दो नियम क्यों है? स्वावलम्बन के मार्ग में आने वाली कठिनाईयाँ और पारिवारिक स्तर पर माँ-बाप द्वारा बेटे-बेटी के बीच किये जा रहे भेदभाव के प्रति नारी की असहमति सहज है। उसका इस रूढ़ सोच के प्रति तन कर खड़े होना स्वाभाविक है।

निष्कर्ष वर्तमान में कुछ लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथा में यह स्वीकार किया है कि उन्हें अपने पति के अलावा अन्य पुरूषों के प्रति भी आकर्षित हुई हैं, ये उनकी उच्छंख्लता न होकर उनकी साफगोई है। यह नारी-विमर्श की भावना है जिसमें उसे अपनी आत्मानुभूतियों को छिपाने की आवश्यकता नहीं है। उन अनुभूतियों को बाँटना चाहती है। यह उसकी चैतन्यता का प्रमाण है कि वह अपने दायित्वों, कर्त्तव्यों से भाग नहीं रही है। निःसंदेह रूप से आज के इस ज्वलंत और शाश्वत विषय पर न केवल विचार, अपितु जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. आधुनिक हिंदी- डॉ. हेतु भरद्वाज, पृष्ठ सं.63. 2. मेरी प्रिय कविताएँ- डॉ. महादेवी वर्मा, पृष्ठ सं.11. 3. गुड़िया भीतर गुड़िया- मैत्रेयी पुष्पा, पृष्ठ सं.68. 4. चित्रा भुद्गल- आवां, पृष्ठ सं.69. 5. मैत्रेयी पुष्पा- गुड़िया भीतर गुड़िया, पृष्ठ सं.69. 6. प्रभा खेतान- अन्या से अनन्या, पृष्ठ सं. 48.