ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
श्री भक्ति विनोद रचित जैव धर्म: समीक्षात्मक विवेचन
Jaiv Dharam of Shri Bhakti Vinod: Critical Interpretation
Paper Id :  15274   Submission Date :  15/12/2022   Acceptance Date :  22/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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संतोष कंवर भाटी
शोधार्थी
दर्शनशास्त्र विभाग
एम जे आर पी विश्वविद्यालय
जयपुर, राजस्थान, भारत,
जय भारत सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर भूगोल विभाग
कमीशनरेट कॉलेज एजुकेशन,
जयपुर, राजस्थान, भारत
गौरी शंकर जीनगर
शोध निर्देशक
दर्शनशास्त्र
एम जे आर पी विश्वविद्यालय
जयपुर राजस्थान, भारत
सारांश मनोवृत्ति एवं बुद्धि के विकास अथवा चैतन्यवृत्ति के अधिक विकास की दृष्टि से ही मानव अन्यान्य प्राणियों से सर्वतोभावेन श्रेष्ठ है। अतएव ‘जैवधर्म’ में इसी श्रेष्ठ धर्म का विवेचन किया गया है। साधारणतः जीवमात्र का धर्म होने पर भी इसे मानव-जाति का ही धर्म समझना चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ धर्म में श्रेष्ठ जीव का ही विशेष रूप से अधिकार होता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद From the point of view of development of attitude and intelligence or more development of chaitanyavritti, human beings are superior to all other living beings. That's why this best religion has been explained in 'Jivadharma'. Generally, even though it is the religion of living beings, it should be considered as the religion of mankind. Because in the best religion only the best soul has the right.
मुख्य शब्द जैव धर्म, दिव्यज्ञान, मनुष्येतर प्राणी, पराशान्ति और परानन्द, शास्त्र-मर्यादा, धर्मवृत्ति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Bio-religion, divine knowledge, non-human beings, peace and bliss, scripture-decency, religious attitude.
प्रस्तावना
पृथ्वीतल पर बहुत-से धर्म-सम्प्रदाय प्रचलित हैं। उनमें से अधिकांश सम्प्रदायों में ही तत्तद् धर्म-प्रचार के उद्देश्य से विविध प्रकार की प्रणालियों का अवलम्बन कर विभिन्न भाषाओं में अनेकानेक ग्रन्थ लिपिबद्ध हुए हैं। जिस प्रकार लौकिक शिक्षा में कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम का भेद अथवा ऊँच-नीच आदि विविध प्रकार के तारतम्य स्वतः सिद्ध हैं, उसी प्रकार विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों की धर्म-शिक्षाओं में भी विभिन्न प्रकार के तारतम्य सर्ववादी सम्मत एवं स्वतः सिद्ध हैं। इनमें से श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्रेम-धर्म की शिक्षा सभी दृष्टि से सर्वाेत्तम है - इसे विष्व के सभी निरपेक्ष मनीषीवृन्द एक स्वर से स्वीकार करेंगे। सर्वाेत्तम आदर्श और शिक्षा से अनुप्राणित होने की आकांक्षा सभी में ही परिलक्षित होती है। उन लोगों की यह शुभेच्छा कैसे फलवती हो-इसका विचार करके ही परममुक्त पुरुष तथा धर्म-जगत के प्रधान आदर्श, शिक्षित कुलचूड़ामणि श्री ठाकुर भक्ति विनोद ने विभिन्न भाषाओं में अनेकानेक धर्म-ग्रन्थों का सृजन किया है। इन ग्रन्थों में श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं का ही अतिशय सरल-सहज भाषा में साङ्गोपाङ्ग वर्णन उपलब्ध होता है। लेखक की सम्पूर्ण ग्रन्थ राशि में इस ‘जैवधर्म ग्रन्थ’ को ही विभिन्न देशीय धार्मिक मनीषियों ने सर्वाेत्तम माना है।
अध्ययन का उद्देश्य मनुष्य सर्वोच्च प्राणी है और वही सर्वाेच्च शिक्षा या धर्म का विशेष अधिकारी है। जैवधर्म उन्हीं के लिए पठनीय है। श्रीचैतन्य महाप्रभु की विशेषता यह है कि उन्होंने सबसे निम्न व्यक्ति को भी कृपा करके अपनी उच्चतम शिक्षा में अधिकार प्रदान किया है। यह किसी भी दूसरे अवतार में नहीं दिया गया है। इसीलिए शास्त्रकारों ने श्रीमन महाप्रभु के का बड़े ही मार्मिक शब्दों में स्तवन किया है।
साहित्यावलोकन

भगवान की इच्छा से भगवान के निज जन श्रीकृष्णदास कवि राज गोस्वामी ने श्रीचैतन्यचरि तामृत ग्रन्थ में भगवान श्रीगौरचन्द्र की शिक्षा का सार निम्नलिखित पयार में व्यक्त किया है।

जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्यदास।
कृष्णेर तटस्था शक्ति भेदा-भेद प्रकाश॥
(चैच० म० २०/१०८ )
ग्रन्थकार ने गौड़ीय वैष्णवों की सम्पूर्ण शिक्षा के बीज मन्त्र-स्वरूप उक्त मन्त्र के आधार पर ही ‘जैवधर्म’ की रचना की है। अतएव यह ग्रन्थ जाति , वर्णआश्रम और देश-काल-पात्र आदि भेदों से परे मानव मात्र के लिए ही नहींअपितु मनुष्येतर कुलोद्भुत प्रस्तरपशुपक्षीकीटपतङ्ग और जलचर आदि स्थावर और जङ्गम योनियों को प्राप्त प्राणी मात्र के लिए ही हितकर और ग्रहणीय है। मनुष्येतर प्राणियों में जैवधर्म ग्रहण के उदाहरण-स्वरूप अहिल्या (पाषाणी)यमलार्जुन (वृक्ष)सप्तताल (वृक्ष)नृगराज (गिरगिट)भरत (मृग)सुरभि (गाय)गजेन्द्र (हाथी)जामवन्त (रीछ)अङ्गद-सुग्रीव (बन्दर) आदि के नाम उल्लेख योग्य हैं। जगद्गुरु ब्रह्माजी ने स्वयं-भगवान श्रीकृष्ण से तृण-गुल्मपशुपक्षी आदि किसी भी योनि में जन्म देकर तदीय चरणकमलों की सेवा की याचना की है।
तदस्तु मे नाथ स भूरिभागो भवेऽत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम।
येनाहमेकोऽपि भवज्जनाना भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम॥
(श्रीमद्भा. १०/१४/३०)
भक्तराज प्रह्लाद महाराज ने तो और भी स्पष्ट रूप से पशु आदि सहस्रों योनियों में जन्म ग्रहण करके भी भगवद्दास्य रूप जैवधर्म की प्राप्ति की लालसा व्यक्त की है।
नाथ योनि सहस्रेषु येषु येषु ब्रजाम्यहम।
तेषु तेष्वचला भक्तिरच्युतास्तु सदा त्वयि ॥
और स्वयं ग्रन्थकार ने भी स्व रचित ‘शरणागति’ ग्रन्थ में ऐसी ही प्रार्थना की है।
कीट जन्म हउ यथा तुया दास। बहिर्मुख ब्रह्मजन्मे नाहि आश॥
अतएव ‘जैवधर्म’ की शिक्षा प्राणी मात्र के लिए आदरणीय और ग्रहणीय है। इस शिक्षा को सर्वान्तःकरण द्वारा अपनाने से प्राणीमात्र अति सहज ही मायामोह की कठोर बेड़ी की घोर यन्त्रणा से तुच्छ-अलीक आनन्द की मगृ-मरीचिका से सदा के लिए छुटकारा प्राप्तकर भगवत्-सेवानन्द में निमग्न होकर पराशान्ति और परानन्द को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
पूर्व-प्रदर्शित शिक्षा के ऊँच-नीच तारतम्य की भाँति धर्मतत्त्व में भी ऊँच-नीच आदि का तारतम्य स्वीकृत है। उन्नत शिक्षा का आदर्श उन्नत अधिकारी ही ग्रहण कर सकता है। तात्पर्य यह कि समस्त प्रकार के प्राणियों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है। मनुष्येतर प्राणी भी अनेक प्रकार के हैं। प्राणी या जीव कहने से चेतन पदार्थ का ही बोध होता है। यहाँ अचेतन या जड़ पदार्थों का विषय आलोच्य नहीं है। चेतन की स्वाभाविक वृत्ति या क्रिया को ही धर्म कहते हैं। वह धर्म वास्तव में चेतन की वृत्ति या उसके स्वरूपगत स्वभाव को ही लक्ष्य करता है। धर्म की वाणी कहने से चेतन की वाणी का ही बोध होता है। इस ग्रन्थ के सोलहवें अध्याय में चेतन के तारतम्य मूलक क्रम-विकास का विज्ञान-सङ्गत सूक्ष्म विवेचन है। चेतन अर्थात ्मायाबद्ध जीवों की पाँच अवस्थाएँ होती हैं-(१) आच्छादित चेतन, (२) सकंुचित चेतन, (३)मुकुलित चेतन, (४) विकसित चेतन और (५) पूर्ण विकसित चेतन। ऐसे चेतन ही जीव या प्राणी कहलाते हैं। जीवों की ये पाँच श्रेणियाँ पुनः स्थावर और जङ्गम भेद से दो भागों में विभक्त हैं। इनमें से वृक्षलतागुल्म और प्रस्तर आदि स्थावर प्राणियों को आच्छादित चेतन कहते हैं। इस आच्छादित चेतन को छोड़कर अन्य चार प्रकार के चेतन समूह को जङ्गम (चलनेवाले) प्राणी कहते हैं। पशुपक्षीकीटपतङ्ग एवं जलचर प्राणीसमूह संकुचित चेतन हैं। आच्छादित और संकुचित इन दो श्रेणियों में मनुष्येतर कुलोत्पन्न जीव होते हैं। फिर भी वृक्षलतागुल्मपशु-पक्षी और मनुष्य-ये सभी जीव ही हैं और इन सभी का ही एकमात्र धर्म भगवदुपासना ही है। परन्तु इन सब में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और भगवदुपासना रूप जैवधर्म उसी का विशेष धर्म है।
ज्ञान या बोध के आच्छादन के तारतम्यानुसार चेतनवृत्ति का तारतम्य हुआ करता है। मानव ही सर्व प्रकार के प्राणियों में श्रेष्ठ है-इस विषय में तनिक भी सन्देह नहीं है। यह श्रेष्ठत्व कहाँ और क्यों है-इस पर विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। वृक्षलताकीट-पतङ्गपशु-पक्षी और जलचर प्राणियों से आकार-विकारबल-वीर्यसौन्दर्य एवं रूप-लावण्य आदि की दृष्टि से मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ है-ऐसा नहीं कहा जा सकता। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ग्रन्थ का नाम ‘जैवधर्म’ न रखकर ‘मानवधर्म’ या ‘मनुष्यमात्र का धर्म’ ही क्यों नहीं रखा गयाइसका कारण अनुसंधान करने पर यह ज्ञात होता है कि धर्म मात्र में मनुष्य की वृत्ति होती है। मनुष्येतर प्राणियों में धर्म नहीं होता-यही साधारण विधि है।
वृक्षलताप्रस्तरकृमि , कीटपतङ्गमत्स्यकच्छपपशु-पक्षी और साँप आदि जीव के अन्तर्भूत होने पर भी इनमें मोक्ष या भगवदुपासना सूचक धर्मवृत्ति परिलक्षित नहीं होती।
कतिपय दार्शनिकों का यह मत है कि जिन प्राणियों में केवल मात्र पशुत्व अर्थात् मूर्खता और निष्ठुरता (animality) होती हैवे ही पशु हैं। इस पशु-श्रेणी के कतिपय जीवों में जो जन्मगत स्वाभाविक या सहज ज्ञानवृत्ति (intuition) परिलक्षित होती हैवह कुछ हद तक मानववृत्ति का आभासमात्र है। वास्तव में वह मानववृत्ति नहीं। इस पशुत्व (animality) के साथ ज्ञान या विवेक-बुद्धि (rationality) युक्त होने पर ही उसे मानवता और जिनमें यह मानवता होउन्हें मानव या मनुष्य कहते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी कहा है- Men are rational beings। हमारे आर्य ऋषियों ने उक्त पशुवृत्ति (animality) से संक्षेपतः आहारनिद्राभय और मैथुन-इन चार वृत्तियों को लक्ष्य किया है। इस पशुवृत्ति को अतिक्रम कर धर्मवृत्ति (rationality) से युक्त होने पर ही मनुष्यत्व प्रमाणित होता है। परन्तु यहाँ यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि पाश्चात्य दर्शन में rationality का अर्थ अति संकुचित है और हमारे आर्य दर्शन का ‘धर्म’ शब्द बहुत ही व्यापक हैजो पाश्चात्य दर्शन के rationality को अपने एकांश में अन्तर्भूत कर उससे भी बहुत उन्नत ईशोपासनावृत्ति तक को धारण करता है। यह धर्म ही मनुष्यत्व का यथार्थ परिचायक है। धर्महीन प्राणियों को ‘पशु’ की संज्ञा दी गयी है। शास्त्र कहते हैं
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
तात्पर्य यह है कि आहारनिद्राभय और मैथुनरूप इन्द्रिय-तर्पणादि प्राणी या जीवमात्र की स्वाभाविक वृत्तियाँ हैं। मनुष्य और मनुष्येतर सब प्रकार के जीवों में ही ये वृत्तियाँ समान रूप से परिलक्षित होती हैं। इसमें दो मत नहीं। परन्तु मनुष्य को मनुष्य तभी कहा जायेगाजबकि उसमें धर्मवृत्ति देखी जाये। “धर्मों हितेषां अधिको विशेषों” अर्थात पशु आदि की अपेक्षा मनुष्य में धर्म ही विशेष या अधिक होता है। जिसमें धर्म का नितान्त अभाव होता हैवह मनुष्य नहीं कहा जा सकता। ‘‘धर्मेण हीना पशुभि: समाना।’’-धर्महीन व्यक्ति पशु-सदृश है।
इसलिए हमारे देश में धर्महीन मनुष्य को नरपशु कहा गया है।
अस्तुयह विशेष रूप् से विचारणीय है कि आजकल लोग धर्म का परित्याग करके केवल आहार-विहार आदि विषय-भोगों में प्रमत्त रहते हैंउनकी यह वृत्ति-पशुवृत्ति या मनुष्येतर वृत्ति है। कलि के प्रभाव से आजकल मनुष्य निम्नगामी होकर क्रमशः पशुत्व की ओर अग्रसर हो रहा है। इसलिए ग्रन्थकार ने सभी की हितकामना से ही ग्रन्थ का नाम ‘जैवधम’ रखकर शास्त्र-मर्यादा को सम्पूर्ण रूप में अक्षुण्ण रखा है। मनुष्य में ही ईष्वर-उपासना रूप धर्म परिलक्षित होता हैपशु-पक्षी आदि मनुष्येतर , प्राणियों में नहीं। अतएव
अनर्पितचरी चिरात् करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वलरसां स्वभक्तिश्रियम।
हरि: पुरटसुन्दरदयुतिकदम्बसन्दीपितः सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शचीनन्दनः॥
(विदग्धमाधव १/२)
अर्थात जो सर्वोत्कृष्ट उज्ज्वलरस जगत को कभी भी दान नहीं किया गयाजिससे जीवमात्र अत्यन्त सहज और सरल रूप से माया-मोह के बन्धन से सदा के लिए मुक्त होकर कृष्ण प्रेम प्राप्त कर धन्य हो सकेउसी स्वभक्ति-सम्पत्ति का दान करने के लिए करुणावशतः सवुर्णकान्ति द्वारा देदीप्यमान स्वयं-भगवान श्रीशचीनन्दन गौरहरि कलिकाल में अवतीर्ण हुए    हैं। लेखक ने भी श्रीमन महाप्रभु के उक्त वैषिष्ट्य की सर्वतोभावेन रक्षा की है।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोध पत्र में उपनिषद् समूह एवं श्रीवेदव्यास द्वारा प्रकटित वेदान्तसूत्र, महाभारत और श्रीमद्भागवत आदि के मूल सारांश को लिया गया है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के पार्षदोत्तम श्रीश्रीरूप सनातन के प्रियतम अभिन्न-विग्रहशील जीवगोस्वामी ने समस्त शास्त्रों का सार-सङ्कलन कर देवभाषा में षट् सन्दर्भ आदि ग्रन्थों की रचना की है। श्रीजीव गोस्वामी की लेखनी-प्रसूत शिक्षा ही श्रीमन् महाप्रभु की ऐकान्तिक शिक्षा है; वेद-उपनिषद्, महाभारत और श्रीमद्भागवत की शिक्षा है। इसी शिक्षा के सर्वथा निर्दाेष और पूर्णतम भाव का अवलम्बन करके यह जैवधर्म ग्रन्थ अत्यन्त आश्चर्य रूप से ग्रंथित हुआ है। विष्व में वेद ही सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इसी आदर्श से अनुप्राणित होकर भारतवर्ष में अनेकों प्रकरण-ग्रन्थ लिखे गये, जिनका स्थान-स्थान पर प्रचुर प्रचार और आदर है। इन प्रकरण-ग्रन्थों में तारतम्य, वैशिष्ट्य और भेद आदि की तो बात ही क्या, परस्पर सामंजस्यरहित विभिन्न प्रकार के मतभेद और काल्पनिक विचारधाराएँ भी परिलक्षित होती हैं। फलस्वरूप धर्म-जगत में नाना प्रकार के उथल-पुथल और उपद्रव हुए हैं और हो रहे हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में स्वयं-भगवान ने परतत्त्व के प्रधान रूप में जीव मात्र का उद्धार करने के लिए सप्त तीर्थों में मायातीर्थ-मायापुर (श्रीधाम नवद्वीप) में आविर्भूत होकर अपने प्रिय पार्षदों द्वारा सम्पूर्ण शास्त्रों का यथार्थ तात्पर्य मूल सार सङ्कलन करवाकर लगभग ४००-४५० वर्ष पूर्व सबके हृदय में दिव्यज्ञान-मूला भक्ति का उन्मेष कराया था। उनमें से तीन-चार को छोड़कर अधिकांश ग्रन्थ ही संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध हैं। नीचे ‘जैवधर्म-नामकरण के तात्पर्य की विवेचना की जा रही है, जिससे पाठकगण इस ग्रन्थ की उपादेयता और गुरुत्व का सहज ही अनुधावन कर सकेंगे।
निष्कर्ष ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ का नामकरण किया है-‘जैवधर्म’। धर्म के सम्बन्ध में हम सबने कुछ-न-कुछ एक धारणा बना रखी है। इसीलिए यहाँ स्थानाभाव के कारण इस विषय में कुछ अधिक कहना अनावश्यक समझते हैं। संस्कृत भाषा में ‘जीव’ शब्द में ‘ष्ण’ प्रत्यय लगाकर ‘जैव’ शब्द निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है-‘जीवका’ अथवा ‘जीव-सम्बन्धीय’। अतएव जैवधर्म’ कहने से ‘जीवमात्र का धर्म’ अथवा ‘जीव-सम्बन्धीय’ धर्म का बोध होता है। यहाँ जीव किसे कहते हैं?-इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ग्रन्थकार ने ही इसी ग्रन्थ में विस्तृत विवेचनपूर्वक प्रदान किया है। संक्षेप में मैं दो-एक बातें यहाँ निवेदन करना आवश्यक समझता हूँ। ‘जीव’ शब्द से जीवन है जिसे, वही जीव है अर्थात प्राणीमात्र ही जीव है। अतएव जैवधर्म से ग्रन्थकार ने जीवमात्र या प्राणीमात्र के धर्म को लक्ष्य किया है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने एकान्त अनुगत निज जन श्रीरूप-सनातन और जीव आदि छह गोस्वामियों के द्वारा प्राणीमात्र या जीवमात्रके लिए कौन-सा धर्म ग्रहणीय और पालनीय है-इस विषय में शिक्षा दी है। तदनन्तर लगभग ४०० वर्षों के पश्चात श्रीगौर-जन्मस्थान श्रीधाम मायापरु के समीप ही इस ग्रन्थ के लेखक सप्तम गोस्वामी श्रील ठाकुर भक्ति विनोद ने आविर्भूत होकर, जीवों के प्रति दयार्द्र-चित्त होकर बँगला भाषा में ‘जैवधर्म’ की रचना की है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. जैव धर्म श्री श्री ठाकुर भक्ति विनोद 2. श्रीमद भगवत गीता 3. श्री चैतन्यचरितामृत: कृष्णदास कविराज 4. शरणागति: श्री श्री ठाकुर भक्ति विनोद 5. श्री भागवत पत्रिका १९८९ 6. श्रीमद्भागवत महापुराण 7. ब्रह्मसूत्र