ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- X November  - 2022
Innovation The Research Concept
देवताले की कविताओं में इतिहास-दृष्टि
History-view in The Poems of Deotale
Paper Id :  16667   Submission Date :  16/11/2022   Acceptance Date :  23/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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शशिकांत चंदेला
असिस्टेंट प्रोफेसर
उच्च शिक्षा
राजकीय महाविद्यालय, मेंहदवानी
डिंडोरी, भोपाल,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश संवेदना के धरातल पर तपा देवताले का काव्य -लोक वर्तमान का आइना है, आइना ही नहीं समय की मार्मिक अनुभूति भी है इसलिए परिस्थितियों से संघर्ष करती है, प्रतिरोध दर्ज कराती है। दरअसल इनकी कविता अमानवीय वृत्तियों को समाप्त करने के लिए प्रतिरोधात्मधक संघर्ष करती है। इतिहास में यही आत्मजयी होने की सच्चाई है। इसलिए उनकी कविता मनुष्य विरोधी प्रतिध्वनियों को सृजन के केन्द्रं में रखती है। अतएव देवताले जीवन की व्य ग्रता को समग्रता के साथ व्यक्त कर पाये।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Tapa Deotale's poetry on the ground of sensation is the mirror of the present, not only a mirror but also a poignant feeling of time, therefore it struggles with the circumstances, registers resistance. In fact, his poetry fights resistance to end inhuman attitudes. This is the truth of being self-sufficient in history. That's why his poetry keeps anti-human echoes at the center of creation. Hence Devtale was able to express the anxiety of life with totality.
मुख्य शब्द इतिहास, जीवन और सत-असत वृत्ति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद History, Life and True and False Instincts.
प्रस्तावना
कविता जन संवेदना की सफल अभिव्यक्ति है और इतिहास जीवन के साध पूरी करने वाला आधारभूत दस्तावेज। निश्चित ही देवताले की कविता असत वृत्तियों को समाप्त करने वाला कारक।
अध्ययन का उद्देश्य देवताले की कविता और उसमें निहित इतिहास बोध उस सत्य की अभिव्यक्ति है जिसमें मनुष्य बार-बार पराजित होकर भी विजयी हुआ है, की प्रमाणित अभिव्यक्ति कवि देवताले की कविता का उद्देश्य- है।
साहित्यावलोकन

1. वीरवालडॉ पकंज 2016 अपनी पुस्‍तक में शिल्‍प और संवेदना के साथ मानव समाज को साहित्‍य और समाज की मुख्‍यधारा से जोडने का एक सार्थक प्रयास है।

2. सिन्‍हाडॉ शोभा 2010 ने प्रस्‍तुत पुस्‍तक में मानव जीवन के प्रति नई चेतना दृष्टि व इतिहास दृष्टि को विकसित करती हैं।

3. देवतालेचन्‍द्रकांत 2003 ने अपनी पुस्‍तक में मानव के संतृप्त जीवन को अभिव्‍यक्त किया है।

4. ठाकुरनरेन्‍द्र सिंह 1996 एवं देवताले2010 द्वारा प्रस्‍तुत पुस्‍तक वर्तमान के प्रति सावधान होकर जीवन की आपाधापी को चित्रित करती है। इतना ही नहीं स्थित-परिस्थिति को भी प्रतिबिंबित करती है जो समकालीन साहित्‍य का आदर्श रूप है।

5. चंदेलाडॉ. लक्ष्‍मीकांत 2014 द्वारा प्रस्‍तुत पुस्‍तक यथार्थ की समस्‍याएं और उनसे संघर्ष की पैरोकारी करती है।

6. देवतालेचन्‍द्रकांत 2013 ने पुस्‍तक की परिकल्‍पना से जीवन के नये मूल्‍यों को चिन्हित करती है एवं देवताले की काव्‍य संवेदना दुनिया की कठिन परिस्थितयों से तपकर सृजित होती है इसलिए जीवन का दस्‍तावेज बन जाती है।

अतः साहित्‍य का सरोकार जीवन से जुडकर उसकी बुनियादी आवश्‍यकताओं को निरूपित करना है जिससे जीवन समोन्‍नत हो श्रेष्‍ठ हो सके। देवताले की कविता का भाव वैविध्‍य इसी की बरबस एक प्रक्रिया है।

मुख्य पाठ

संतृप्त व संत्रस्‍ततापूर्ण युग में देवताले की इतिहास-दृष्टि वास्‍तविकता का वह बोध है जो विषमताओं और जटिलताओं के प्रति सजग-सावधान करती है। फिर जटिलताओं से दो-दो करने की प्रक्रिया भी है। जिस से मनुष्‍य अपने जीवन की साध पूरी कर पाता है। इसी के बरबस चूनौतीपूर्ण रिश्‍ता भी कायम करती है जहाँ आज की बहुविधबहुरंगी विषमताओं में बार-बार पिसता-कुढ़ता कवि अपनी रचनात्‍मकता को गति देता है। निश्चित ही यह दुनिया कठिन है जिसमें रहकर अपनी वाणी की साधना करना चुनौती से कम नहीं फिर भी कवि हर जोखिम को उठाकर काव्‍य का सृजन करता है। कहना न होगा कि चंद्रकांत देवताले का रचना संसार इसी का आदर्श और पर्याय भी।

देवताले मनुष्‍य विरोधी प्रतिध्‍वनियों को स्रजन के केन्‍द्र में रखते है। इसी से जीवन की व्‍यग्रता को समग्रता के साथ व्‍यक्‍त कर पाते हैं। निश्चित ही उनकी कविता अमानवीय वृत्तियों को समाप्‍त करने के लिए प्रतिरोधात्‍मक संघर्ष करती है। उनका रचना संसार देश-काल की परिस्थितियों के बीच मनुष्‍य को मनुष्‍य होने का एक जज्‍बा पैदा करता है। उनकी काव्‍य पक्तियॉं जीवन मूल्‍यों व रिश्‍तों को कई-कई अर्थों में रेखांकित करती हैं-

‘’वे दिन दूर हो गए हैं

जब मां के बिना परसे,

पेट नहीं भरता था।’’[1]

ये पक्तियॉं इतिहास की सच्‍ची दास्‍तां है जिसे कवि बार-बार अपनी संवेदना के धरातल पर तपता हुआ काव्‍य रूप में इतिहास को झांकता है। इस सत्‍यता को उद्घाटित करता हुआ कवि कह पाता है-

‘’तुम वह सत्‍य हो

जहाँ में बार-बार लौटकर आता हूं

व‍ह शक्ति जिसके बल पर

अपने को ललकारता हूंजूझता हूं

पराजित होता हूंफिर जयी बन जाता हूं।’’[2]

वेशक देवताले की कविता इतिहास के उस सत्‍य की अभिव्‍यक्ति है जिसमें मनुष्‍य बार-बार पराजित होकर भी विजय हुआ है। उनकी इतिहास-दृष्टि जीवन के जूझने और संघर्ष करने की तथा कालान्‍तर में आत्‍मजयी होने की सच्‍चाई है। इसलिए उनका काव्‍य-संसार वैयक्तिकसामाजिक और मानवीय जीवन की विविधतापूर्ण विडम्‍बनाओं के साथ उपस्थित है।

देवताले की कविताओं में व्‍यवस्‍था के खिलाफ गुस्‍सा है तो मानवीय प्रेम का औदात्‍य भी है। जिसे बड़े ही सरल व सीधे ढंग से काव्‍य रूप में निरूपित करते हैं। लोक मानस का सहज सौन्‍दर्य भी इतिहास के धरातल पर अवस्थित होता है यथा-

‘’मां ने एक बार मुझसे कहा था-

दक्षिण की तरफ पैर करके मत सोना

वह मृत्‍यु की दिशा है

और यमराज को क्रुद्ध करना

बुद्धिमानी की बात नहीं।’’[3]

देवताले अपनी इतिहास दृष्टि में जीवन की समस्‍त अनुभूतियों को बटोरते हैं जिसे परिवेशजन्‍य बनाते हुए काव्‍य संसार में स्‍थान देते हैं। यह कवि की सहज प्रक्रिया है और इतिहास का अनुशासन भी। इसीलिए उनकी कविता आम आदमी के चित्र को झंझोर देती है। यही कारण है कि समय देवताले की कविता में आकर अपनी चुप्‍पी तोड़ देता है। जैसे-

‘’पत्‍थरों चटटानों में- एक पत्‍थर एक चटटान

और इस‍ तरह चढ़ते-उतरते

थकते हॉंफते सुस्‍ताते

पहाडों के जीवन में हम खोदते रहे

अपनी शताब्दियों की स्मृति का पहाड़।’’[4]

स्मृतियों का पहाड़ बनाना भी कवि वैचारिकी में इतिहास-दृष्टि है जिससे मनुष्‍य इर्द-गिर्द की कठोरता को कोमलता में परिणत करने को प्रत्‍युत रहता है। ऐसा बोध देवताले की काव्‍य वैविध्‍य की परिणति है। यहां केदारनाथ की प्रतिक्रिया सटीक और समीचीन प्रतीत होती है जब वे कहते हैं- ‘’कविता एक वर्तुल गति से उसके इर्द गिर्द नहीं घूमती बल्कि वह संवेदनात्‍मक तर्क से आगे बढ़ती है।’’[5]

देवताले की इतिहास-दृष्टि व्‍यापक मानवीय सरोकारों से आबद्ध है जिसका सच्‍चा द्रष्‍टांत लकडबग्‍घा हंस रहा हैकाव्‍य-संग्रह में देखा जा सकता है-

‘’फिर से तपते हुए दिनों की शुरूआत

हवा में अजीब सी गंध

और डोमों की चिता

अभी भी जल रही है

वे कह रहें हैं

एक माह का मुफत राशन

मृतकों के परिवार को

और लकडबग्‍घा हंस रहा है।’’[6]

इसे हम अभिव्‍यक्ति का औदात्‍य और कवि कर्म की अनिवार्यता कह सकते हैं क्‍योंकि लकडबग्‍घा जैसे लाचार जानवर कवि संवेदना में मर्यादित होना इतिहास से सबक लेने जैसा है। फिर ऐसी ऐतिहासिक चेतना मानव के विघटित होने और गांवों के मिटते जाने की सच्‍चाई है तथा महानगरीय सभ्‍यता ने किस तरह मानवता को चोट पहुँचाई हैकी बोलती तस्‍वीर इन काव्‍य पक्तियों के प्रतिपादित है-

‘’कहाँ है हमारा गाढा खून

हमारा पैत्रक मस्‍तक

स्‍वाभिमान से दमकता हुआ

पसीना को पीता

आदमी का लोहा यहां

पेड रेहन पडे साहूकारों के बहीखातों में

बहीखातों बन्‍द चलती-फिरती हडिडयाँ

जकड़े हुए तिजोरी में

गोश्‍त और भूख की आंतों के गुच्‍छे।’’[7]

समकालीनता के दौर में देवताले अत्‍यंत प्रासंगिक और बहुआयामी व्‍यक्तित्व हैं। जिनकी वैचारिकी अनेक आयामों में इतिहास के साथ जोड़ती है। ये कहें उनकी ज्ञानात्‍मक संवेदना इतिहास फलक में विस्तृत हुई। यह भी सच है कि आज की पीढ़ी के लिए संघर्ष करने की ऐतिहासिक प्रेरणास्‍त्रोत बनी। ‘मैं जो कुछ कह रहा हूं’ कविता की पक्तियां देखिए-

‘’छिपी हुई है चीजे पर मैं

उन्‍हें देख सकता हूं

मैं सुन सकता हूं उसे भी

जो बंद होठों के भीतर ही कहा गया।’’[8]

निश्चित ही यह भाव और विचारोत्‍तेजना लिए देवताले की इतिहास दृष्टि समसामयिक युग के अन्‍तरविरोंधोंविसंगतियों और विडम्‍बनाओं को व्‍यापकता के साथ चित्रित करते है। तथा जीवन मूल्‍यों की व्‍यापकता को गहरे अर्थों के साथ प्रतिपादित करते हैं-

‘’यहाँ के तमाम पत्‍थरों को

कुछ-न-कुछ पता होगा मेरे नसीब के बारे मैं

पर वे दस्‍दीक कर रहे हैं अपनी खामोशी से

एक पातालभेदी प्रार्थना का

शिलालेख में तब्‍दील हो जाना।’’[9]

कवि वर्तमान युग की विसंगतियों को महसूस करते हैं और आमजन की पीडातनावविवशताखीझ और गुस्‍से को वास्‍तविक अनुभव कराकर सत्‍य अनुभवों को समग्रता के साथ प्रतिपादित करते हैं। जो व्‍यक्ति व समाज को परंपरागत धरातल से अलग युगांतकारी परिवर्तन के लिए प्रेरित करती है। इस प्रेरणा से मानव नयी चेतनानयी दृष्टिनये संकल्‍पोंनये भावबोधों के साथ जीवन जी सकेगा। प्रभाकर श्रोत्रिय जी ठीक ही कहते हैं- ‘’साहित्‍य का क्षेत्र साधना का क्षेत्र है और साधना समय लेती है।’’[10]

देवताले की कविता इसी साधना की परिणति है. फिर कहा जाता है- एकै साधै सब सधैसब साधै सब जाए। अतएव साहित्‍य सधा तो सब कुछ सध सकता है क्‍योंकि अतीत को स्‍मरण करना मतलब वर्तमान को साधना है। उनकी कविता समाज को लो‍कजीवन की स्मृतियों के साथ व्‍यक्ति की निजता और बृहत्‍तर जन समाज के दुखदर्दसंघर्ष और करूण

त्रासदी को एकमेक करती है। इससे वर्तमान समाज एक नये भावभूमिनयी संवेदनानये शिल्‍प के साथ बदलाव के लिए संघर्ष करने को प्रेरित करती है। कुछ काव्‍य पक्तियां दृष्‍टव्‍य है-

‘’पछीट रही है शताब्दियों से

धूप के तार पर सुखा रही है

वह औरत आकाश और धूप और हवा से

वंचित घुप्‍प गुफा में

कितना आंटा गूथ रही है

गूंथ रही है मानो सेर आटा

असंख्‍य रोटियां

सूरज की पीठ पर पका रही।’’[11]

देवताले के भीतर मन की यह व्‍यथा-वेदना जीवन की वास्‍तविकता से पूरित है। यह भी आम जन की मूल्‍य चेतना तथा विविधरंगी संसार में अनुभव को समझने की वास्‍तविक कोशिश है। जीवन विरोधी ताकतों से मुक्ति का वीणा ऐतिहासिक अनुभव ही समझा जा सकता है। वे लिखते भी हैं-

‘’उतावले होने की जरूरत नहीं है फिलवक्‍त

दुष्‍प्राप्‍य नहीं होते हैं उत्‍तर कभी भी

इतिहास की कूबड अकारत नहीं जाती

उसी में धडक रहा है हमारे पुरखों का जीवन

और जन्‍म ले रही है

हमारे बच्‍चों की दुनिया।’’[12]

देवताले की अचूक संवेदना दृष्टि मानव जीवन के ऊबड-खाबडपन को समेटती हुई समय के मूल उत्‍सों तक जाती है एवं अदृश्‍य बाधाओं को इतिहास की अजीब सी गंध का तथ्‍य और कथ्‍य के साथ अनुभव कराते हैं। यही नहीं उनका रचना संसार देश दुनिया में धडकती अनगिनत जिन्‍दगियों की मूल्‍य चेतना तथा विविधरंगी संसार में अनुभवों को समझने की वास्‍तविक कोशिश है। उनकी इतिहास दृष्टि को हम इस प्रकार से समझ सकते हैं-

‘’वह मकडी आकाश में अब तक

जाला बुन रही है

और तलघर में दीमकें

इतिहास का सृजन कर रही है

उनका गिरोह

बनवासी हडिडयों से सींगों वाले मुखौटा बना रहा है

नागरिकों के वार्षिक मनोरंजन के दिवस के लिए।’’[13]

आधुनिक समय में देवताले का काव्‍य संसार जीवन के सत्‍य को यथार्थ दृश्‍य को आकार देती है और उसके तहस नहस दुनियां में मनुष्‍य की यथास्थिति व्‍यथा और पीड़ा को साहित्‍य साधना में साधते हैं। जो आम जन के जीवन को वर्तमान नक्शे की यथार्थ झांकी प्रस्‍तुत करते हैं और सोचने के लिए ठोस कारण प्रस्‍तुत करती है. इससे दशकों का फैसला अर्थात दूर पडी जिन्‍दगी को आभास कराता है-

‘’आधी रात में मेरे इतिहास की पपडियां उमचकर
किस तरह का नक्‍शा बनाती है दीवारों पर
जबकि ऐसा सोचने के लिए ऐसा कोई ठोस कारण नहीं था
क्‍योंकि मेरे-जैसे आदमी के लिए
इतिहास शब्‍द उस कच्‍चे पत्‍थर की तरह ही था
जिसे कहीं भी पटक दो चूर-चूर हो जाता
मुझे लगा मेरी आंखों दशकों के फासले से
रेत के फैलाव में पडी हुई है दूर-दूर
और उन्‍हें देखते मुझे याद आया।’’[14]

निष्कर्ष इस तरह कवि की अन्तर्द्रष्टि का सक्रिय होना इतिहास को खंगालना है अथवा सबक लेना जिससे जीवन सुखद और समोन्नत् हो सके है। इतिहास के धरातल पर काव्यों-भूमि की वैचारिकी देवताले की प्रतिभा का परिणाम है। इसी से मानव के आगत-विगत जीवन स्थितियों पर नजर रखते हैं और जीवन के अनूरूप ढाल देने की कोशिश करते हैं। निश्चित ही उनके काव्यों की इतिहास-दृष्टि मानव जीवन के अस्तित्व, अनुभवों, जिज्ञासाओं और सवालों को भी अपने में समालेती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. चन्द्र्कांत देवतालेः प्रतिनिधि कविताएं, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली्-110002, प्र0-38 2. नरेन्द्र सिंह ठाकुरः सर्वेश्विर दयाल सक्सै8ना और उनका काव्यम, सत्येतन्द्र् प्रकाशन 30, पुराना अल्ला,रपुर, इलाहाबाद-211006,प्र0-61 3. मध्य2प्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र , भोपालः क्षितिज भाग-1, भोपाल, प्र0-133 4. चन्द्र1कांत देवतालेः उजाड में संग्रहालय, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली1-110002, प्र0-145 5. आनलाईन गूगल के माध्यम से। 6. चन्द्र कांत देवतालेः लकडबग्घा हंस रहा है, वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्र0-66 7. चन्द्र कांत देवतालेः प्रतिनिधि कविताएं, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्ली -110002, प्र0-66 8. चन्द्र कांत देवतालेः लकडबग्घा हँस रहा है, वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्र0-106 9. चन्द्र कांत देवतालेः पत्थ्र फेंक रहा हूं, वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्र0-55 10. आनलाईन गूगल के माध्यम से। 11. चन्द्र कांत देवतालेः लकडबग्घा हँस रहा है, वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्र0-09 12. चन्द्र कांत देवतालेः भूखण्ड‍ तप रहा है, वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली -110002, प्र0-87 13. चन्द्र कांत देवतालेः भूखण्ड तप रहा है, वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्र0-72 14. चन्द्र कांत देवतालेः आग हर चीज में बतायी गयी थी, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड 1-बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नई दिल्लीे-110002, प्र0-127