ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
नारी उत्थान में आर्य समाज का योगदान
Contribution of Arya Samaj in The Upliftment of Women
Paper Id :  16829   Submission Date :  19/12/2022   Acceptance Date :  22/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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सुषमा देवी
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
भगवान परशुराम कॉलेज
कुरुक्षेत्र ,हरियाणा, भारत
सारांश भारतीय समाज में वैदिक काल में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे। प्राचीन भारत में स्त्रियॉं सुशिक्षित होती थी तथा समाज में उनकी स्थिति पुरुषों के समान थी। किन्तु वैदिक युग के बाद नारी की यह स्थिति देर तक नहीं रह सकी। उसे शनैः शनैः यज्ञ के अधिकार से वंचित किया गया और उसके ये कार्य पुरोहितों और ब्राह्मणों द्वारा होने लगे। स्त्रियों को यज्ञ के अधिकार से वंचित करने के पीछे अनेक कारण थे जैसे-कर्मकाण्ड की जटिलता में वृद्वि, अन्तर्जातीय विवाह तथा भारत में बैराग्य प्रधान, निवृतिपरक प्रवृतियों का प्रबल होना था। इन सब कारणों से नारी की स्थिति हिन्दू समाज में उन्नसवीं शताब्दी के आरम्भ में अधः पतन की चरम सीमा पर पहुँच गई। वह घर में रानी के उच्च धरातल से गिरकर नौकरानी के स्तर तक पहुँच गई। आर्य समाज उसे वैदिक युग की उच्चतम स्थिति तक पहुँचाना चाहता था। आर्य समाज, विश्वधारा, अपाला घोषा जैसी ऋषिकाएं तथा गार्गी जैसी विदुषियॉं पैदा करना चाहता था। आर्य समाज के लोग इस बात से हैरान थे कि जिस देश में वैदिक युग में स्त्रियों को उच्चतम स्थान प्राप्त था, जिस देश की ब्रह्मवाहिनी विदुषियों ने राजा जनक की सभा में उस समय के दिग्गज दार्शनिक पंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया था वहां मध्यकाल में स्त्रियों की दशा अपने पतन पर पहुँच चुकी थी। आर्य समाज ने समाज सुधार की श्रृंखला में नारियों की समस्याओं को प्राथमिकता दी और समाज में व्याप्त पारिवारिक कुरीतियों को समूल उखाड़ फैंकने के लिए कमर कस ली।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In Indian society, women had equal rights with men during the Vedic period. In ancient India, women were well educated and their status in the society was equal to that of men. But after the Vedic age, this condition of women could not last long. She was gradually deprived of the right to perform Yagya and her work was performed by priests and Brahmins. There were many reasons behind depriving women of the right to perform Yajna, such as increase in the complexity of rituals, inter-caste marriages and the dominance of recluse-oriented, reclusive tendencies in India. Due to all these reasons, the status of women reached the peak of degradation in the beginning of the nineteenth century in the Hindu society. She fell from the high ground of the queen in the house to the level of a maidservant. The Arya Samaj wanted to elevate it to the highest status of the Vedic age. The Arya Samaj wanted to produce Rishikas like Vishwadhara, Apala Ghosha and Vidushis like Gargi. The people of Arya Samaj were surprised that in the country where women had the highest position in the Vedic era, the country where the Brahmavahini Vidushis had discussed scriptures with the great philosophers of that time in the assembly of King Janak, in the medieval period, the status of women was limited. The condition had reached its downfall. Arya Samaj gave priority to the problems of women in the series of social reform and geared up to completely uproot the family evils prevalent in the society.
मुख्य शब्द आर्य समाज, शिक्षा, नारी, अधिकार।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Arya Samaj, Education, Women, Rghts.
प्रस्तावना
महर्षि दयानन्द ने वेदों को आर्य समाज व आर्य जाति का प्राण बताया है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का मुख्य नारा था ‘‘वेदो की ओर लोटो’’। वेदो के अनुसार ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र देवता रमन्ते’’। अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती है वहीं देवता निवास करते हैं। वेदों के इसी रूप का प्रतिवादन करते हुए आर्य समाज तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती जी नारी जाति का कल्याण चाहते थे। स्त्रियों, अनाथों, दलितों और असहायों की रक्षा सहायता, गुरुकुलीय तथा लोक शिक्षा प्रसार की दिशा में आर्य समाज ने प्रशंसनीय कार्य किया है। बाल-विवाह, अनमेल विवाह, वृद्व विवाह के उन्मूलन एवं विधवा विवाह के प्रचलन में आर्य समाज का योगदान बड़ा महत्त्वपूर्ण रहा। अस्पृश्यता निवारण, स्त्रियों के उद्गार एवं शिक्षा प्रसार के कार्य व्यापक रूप से आर्य समाज ने किए। तभी पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था ‘‘आर्य समाज ने लड़कों और लड़कियों की शिक्षा, स्त्रियों की दशा में सुधार और दलितों को ऊँचा उठाने की दिशा में बड़ा अच्छा कार्य किया’’।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य नारी उत्थान में आर्य समाज के योगदान का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन
सैयद नरूला तथा जे.पी.नायक (1951) ने "हिस्ट्री ऑफ ऐजुकेशन इन इण्डिया ड्यूरिंग दा ब्रिट्रिश पीरियड़" पुस्तक में इस विषय पर अध्ययन किया है
मुख्य पाठ

नारी के प्रति स्वामी दयानन्द जी की इतनी श्रद्धा थी कि उन्होंनें एक मन्दिर के चबूतरें पर खेलती हुई छोटी सी बालिका को देखकर अपना मस्तक झुका दिया। देखने वाले ने जब यह प्रश्न किया कि वैसे आप मूर्ति पूजा का खण्ड़न करते है किन्तु मूर्ति का यह प्रभाव है कि आपका मस्तक अपने आप झुक गया। स्वामी दयानन्द जी ने उत्तर दिया मैनें अपना माथा मूर्ति को नहीं झुकाया अपितु इस छोटी सी बालिका को झुकाया है। मैं इसका अभिवादन करके मातृशक्ति का अभिवादन कर रहा हूँ।

स्त्रियों के उत्थान के लिए आर्य समाज ने जो कार्य किए उनमें सबसे पहला कदम स्त्री शिक्षा की तरफ था। स्वामी दयानन्द जी ने यजुर्वेद के आधार पर प्रतिपादित किया कि- वेदों का प्रकाश ईश्वर ने सबके लिए किया है। इसलिए यह अनिवार्य हो जाता है कि लड़कियों को विदुषी बनाने के लिए तन-मन-धन से प्रयत्न किया जाए। स्त्रियों के पढ़ने का निषेध आर्य समाज ने सदैव मूर्खता, स्वार्थपरता और निर्बुद्धि का परिचायक माना है। स्वामी जी के अनुसार बुद्धिमान पति और अनपढ़ एवं असंस्कृत पत्नी गृहस्थी की गाड़ी को सुचारू रूप से कदापि नहीं खींच सकते। शिक्षित नारी ही अपने अधिकारों के प्रति मूल रूप से जागरूक रह सकती है। इसलिए उन्होंने पुरूषों के समान स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, गणित, शिल्प आदि सभी शिक्षाओं के लिए योग्य ठहराया। जब आर्य समाज ने स्त्री शिक्षा का कार्य आरम्भ किया, उस समय सामान्य जनता का यह विश्वास था कि स्त्रियों को शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। इससे उनका चरित्र भ्रष्ट हो जाता है। जब लाला देवराज ने कन्याओं के लिए जालन्धर में पहली शिक्षण संस्था स्थापित करने का प्रयास किया तो उन्होंनें तीन बार भारी विफलता का सामना करना पड़ा था । कोई भी व्यक्ति उनके विद्यालय में अपनी लड़कियों को भेजने के लिए तैयार नहीं था लेकिन चौथी बार लोगों के घरों पर जाकर माता-पिता से बार-बार आग्रह करने पर उन्हें कुछ लड़कियॉं मिली। जब भी वे अपने विद्यालय में लड़कियों के प्रवेश के लिए जाते, विरोधी लोग न केवल उन पर गालियों की अपितु ईंट पत्थर तक की बौछार करते थे। उन दिनों कन्याओं को पढ़ाने के लिए अध्यापिकाएं भी नहीं मिलती थी। लेकिन आर्य समाज ने अपनी धुन, लगन और सतत् प्रयत्न से उत्तर भारत में स्त्रीशिक्षण संस्थाओं का जाल बिछा दिया। इस दृष्टि से आर्य समाज का यह कार्य अद्वितीय कहा जा सकता है।

महर्षि दयानन्द जी के निर्वाण के बाद आर्य समाज ने स्त्री-शिक्षा सम्बन्धी कार्यक्रम को तेजी से अपनाया। ताकि ईसाई मिशनरियों के प्रचार प्रसार के भीषण संकट से आर्यावर्त की रक्षा की जा सके और प्राचीन वैदिक सभ्यता और संस्कृति का यथार्थ रूप नई पीढ़ी के सामने प्रस्तुत किया जा सके। आर्य समाज ने कन्याओं की शिक्षा के लिए विभिन्न प्रकार की संस्थाओं का विकास किया। इन्हें प्रधान रूप से दो वर्गों में बांटा जा सकता है-कन्या गुरुकुल तथा पुत्री पाठशालाएँ। कन्या गुरूकुलों का सरकारी विभागों से कोई सम्बन्ध नहीं था। इनको सरकार की तरफ से कोई अनुदान नहीं मिलता था। ये संस्थाएं आर्य जनता से एकत्र किए जाने वाले दान की सहायता से चलती थी। ये अपना स्वतन्त्र पाठ्यक्रम निश्चित करते तथा वेेद वेदांग, संस्कृत, साहित्य तथा इतिहास आदि के अध्ययन पर जोर  देते । दूसरी तरफ पुत्री पाठशालाएं तथा कन्या विद्यालय राज्य सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा स्वीकृत विधि के अनुसार शिक्षा प्रदान करते थे। इस तरह आर्य समाज ने कन्या गुरुकुल, पुत्री पाठशालाएं, कन्या महाविद्यालय खोलकर तथा स्त्रियों को शिक्षित करके एक नए युग की तरफ कदम रखा। प्रसिद्व अमेरिकी दार्शनिक इमर्सन का कथन था ‘‘संस्थाएं व्यक्तियों की लम्बी छाया मात्र होती है। आर्य स्त्री-शिक्षण संस्थाओं के लिए यह उक्ति सत्य प्रतीत होती है। कन्या महाविद्यालय जालन्धर, उसके संस्थापक लाला देवराज के कन्या गुरुकुल, देहरादून आचार्य रामदेव तथा आचार्य विद्यावती के, बड़ौदा कन्या महाविद्यालय खानपुर कलां, भगत फूल सिंह के प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिणाम है ।

19वीं शताब्दी के मध्य भाग में परदे की प्रथा तेजी से बढ़ रही थी। वैदिक काल में स्त्रियॉं अपने पति के साथ यज्ञ में भाग लेती थी। बौद्धकाल में भी स्त्रियों की दशा काफी अच्छी थी। इसलिए वैदिक काल तथा बौद्धकाल तक भारतीय स्त्रियों में परदे की प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन जब मुस्लिम आक्रमणकारी भारत आए तो वे इस कुप्रथा को साथ लेकर आए। इस तरह मुगलकाल की देन के रूप में इस कुप्रथा ने स्त्रियों की स्वतन्त्रता का हरण कर लिया। आर्य समाज ने स्त्री शिक्षा के साथ-साथ इस ओर भी ध्यान दिया। धीरे-धीरे आर्य समाज के प्रयत्नों से परदे की प्रथा ढोंग समझी जाने लगी और आर्य स्त्रियॉं इसे अपना अपमान समझने लगी।

19वीं शदी में भारत में एक और कुप्रथा विद्यमान थी वह थी सती प्रथा। जब किसी पत्नी के पति की मृत्यु हो जाती तो उसे उसके पति के साथ जिंदा जला दिया जाता था और अगर वह सती प्रथा जैसे भयानक दंश से बच भी जाती तो उसे पूरे जीवन विधवा का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। जो जीवनपर्यन्त कष्टकारी होता था। सती प्रथा के विरूद्ध भी आर्य समाज ने अपनी बुलन्द आवाज उठाई और विधवाओं के मन, मस्तिक पर नई चेतना के बीज अंकुरित किए। उन्हें नवजीवन और नई दिशा मिल सके इसके लिए पुनर्विवाह की व्यवस्था करने का प्रयास किया। जिससे नारी की स्थिति में कुछ सुधार हुआ।

हिन्दू समाज में एक कुप्रथा बाल विवाह भी विद्यमान थी। लड़कियों का विवाह इतनी छोटी उम्र में कर दिया जाता था कि उन्हें विवाह का अर्थ भी पता नहीं था। आर्य समाज कथन था ‘‘बाल्यव्यवस्था में विवाह से जितनी हानि पुरूष की होती हैं उससे अधिक स्त्री की होती है। जैसें कच्चे खेत को काट लेने से अन्न नष्ट हो जाता है, कच्चे फल और ईख में मिठास नहीं होता ठीक उसी तरह छोटी आयु में जो अपनी सन्तानों का विवाह कर देते हैं उनका वंश बिगड़ जाता है’’। बाल विवाह की तरह वृद्ध विवाह की भी निन्दा की गई और बाल विवाह के विरूद्ध अभियान में काफी कठिनाइयों एवं बाधाओं के बावजूद आर्य समाज ने प्रगतिशील कदम उठाकर इस कुरीति के विरूद्ध आवाज उठाई। सेन्ट्रल असेम्बली में राजस्थान के प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता दीवान बहादुर हरविलास जी शारदा ने तो उसके लिए कानून भी बनवाया।

आर्य समाज ने बहु-विवाह का भी विरोध किया और एक विवाह के आर्दश सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। आर्य समाज का मत था कि एक से अधिक पत्नी रखना, औरत का अपमान है। परिवार में नारी की प्रतिष्ठा के विषय में स्वामी जी पूर्णतया मनु से सहमत थे कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताउन्होने जननी का स्थान सर्वोपरि मानकर नारी के गौरव को सदा के लिए अक्षुष्णा बना दिया। आर्य समाज ने स्त्रियों की जागृति के लिए यह सन्देश भी दिया कि विवाह के लिए केवल माता-पिता की अनुमति ही पर्याप्त नहीं अपितु वर कन्या की अनुमति की प्राथमिक मान्यता दी जानी चाहिए। क्योंकि आर्य समाज का ये मत था कि अधिक से अधिक कार्यों में स्त्री की भागीदारी ही उसे समाज में उच्च स्थान दिला सकती हैं तथा समाज में औरत की मान मर्यादा को बचाया जा सकता है।

दहेज प्रथा को खत्म करने में आर्य समाज ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । दहेज के लालची लोग औरतों को तरह-तरह की यातनाएं देते थे। गरीब लोग अपनी बेटी के लिए योग्य वर नहीं ढूंढ सकते थे क्योंकि उनके पास देने के लिए दहेज नहीं था। इसलिए छोटी उम्र में ही गरीब लोग अपनी बेटी का विवाह कर देते थे। बेमेल विवाह का मुख्य कारण दहेज प्रथा ही थी। कई बार गरीब माता-पिता अपनी कन्या विवाह उससे दो या तीन गुणा बड़ी उम्र के विधुर से कर देते थे। बालिका हत्या भी दहेज प्रथा के कारण अधिक होती थी। क्योंकि जिन गरीब मॉं-बाप के पास देने के लिए दहेज नहीं था। वे अपनी बेटी को बोझ समझते थे तथा जन्म लेते ही उनकी हत्या कर देते थे। इस तरह दहेज की अग्नि में जलते हुए समाज को आर्य समाज ने शीतल छींटे दिए और दहेज के परिणामों की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया। बिना दहेज के जिन गरीब घरों की कन्याओं के हाथ पीले नहीं हो पाते थे उनके लिए आर्य समाज का आन्दोलन वरदान बनकर आया।

निष्कर्ष इस तरह से अपने प्रयासों से आर्य समाज ने परम्परा को संशोधित रूप दिया और इस गलत धारणा को निर्मूल कर दिया कि भारतीय धर्म और संस्कृति में नारी के स्वतन्त्र विकास और गौरव के लिए कोई स्थान नहीं है। स्वामी जी ने महिलाओं की मर्यादा और शालीनता की सुरक्षा रखते हुए उसकी मुक्ति और विकास का मार्ग प्रशस्त किया। यह स्मरणीय है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने जिस युग में नारी जागरण का शंखनाद किया था उस समय हमारा समाज विकृत और पतनोन्मुख था। भारत राजनैतिक दासता के कारागार में बन्दी था। हम स्वयं अपने भाग्य विधाता नहीं थे। किन्तु अज्ञान के अंधेरे को चीरकर स्वामी जी का उज्जवल सन्देश अरूणोदय बनकर भारतीय आकाश पर छा गया। स्वामी जी की कल्पना एक विवेकशील और गतिशील समाज की कल्पना थी। एक ऐसे समाज की कल्पना थी जो अपने अतीत के गौरव को आत्मसात कर सके और उसी के अनुरूप एक नए भविष्य का निर्माण कर सके। आज जबकि हम स्वतन्त्र और स्वाधीन है नए समाज की संरचना में संलग्न है और नारी स्वतन्त्रता के आधारभूत सिद्धान्त को स्वीकार कर चुके हैं। एक बार फिर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वामी दयानन्द के सन्देश की संजीवनी शक्ति को सामाजिक जीवन में ग्रहण करने की अपेक्षा है। नारी जागरण के मर्म को विवेक के साथ व्याख्या की जरूरत है। स्वामी दयानन्द जी तथा आर्य समाज ने नारी जाति के उत्थान के लिए जो कदम उठाए वो अतुलनीय है। उन्होंने नारी शिक्षा को नारी के उत्थान का मूल मन्त्र बनाया। स्त्री शिक्षा के द्वारा स्वामी जी नारियों की आत्मा, मन, बुद्धि और शरीर का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे। इस तरह स्वामी जी तथा आर्य समाज ने नारी के उत्थान के लिए जो कार्य किए उसके लिए सम्पूर्ण मानव जाति आर्य समाज तथा स्वामी जी की सदैव ऋणी रहेगी।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. आर्य समाज का इतिहास-सत्यकेतु विधालंकार 2. सैयद नरूला तथा जे.पी.नायक-ए हिस्ट्री ऑफ ऐजुकेशन इन इण्डिया ड्यूरिंग दा ब्रिट्रिश पीरियड़, मैकमिलन कम्पनी बम्बई 1951, पृ. सं. 152 3. सत्यार्थ प्रकाश, तीसरा समूल्लास, स्वामी वेदानन्द का संस्करण, पृं. सं. 69 4. सत्यार्थ प्रकाश, तीसरा समूल्लास, स्वामी वेदानन्द का संस्करण, पृं. सं. 70 5. आश्वलायन श्रोत सुत्र (1-11) वेदं पत्न्यै प्रदाय वाचयेत । 6. http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C