ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं पुलिस व्यवहार
Social Change and Police Behavior in India
Paper Id :  16854   Submission Date :  13/12/2022   Acceptance Date :  21/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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सविता शर्मा
सहायक - आचार्य
शिक्षा विभाग
बाबा नारायण दास राजकीय कला महाविद्यालय, चिमनपुरा
जयपुर,राजस्थान, भारत
सारांश यह एक सर्वमान्य सत्य है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत तेजी से बढ़ रही है। भारतीय समाज निरन्तर परिवर्तन की प्रक्रिया में है। महानगरों मे यह गति ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षाकृत तीव्र है। परिवर्तन की प्रक्रिया के साथ - साथ समाज में अपराध भी बढ़े हैं और अपराधों की प्रकृति भी बदली है। चूंकि पुलिस को समाज की सेविका माना जाता है। अतः उसका कार्य समाज में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना तथा अपराधों की रोकथाम करना है। भारत में पुलिस बल का गठन अंग्रेजों के द्वारा सन् 1861 के अधिनियम के द्वारा भारतीय जनता के दमन के लिए किया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व तक पुलिस ने जनता का दमन भी किया। इसके परिणामस्वरूप पुलिस की छवि जनता में नकारात्मक बनी और यह एक धारणा बन गई कि पुलिस का व्यवहार आम जनता के प्रति मित्रवत नहीं होता बल्कि वह अपने - आपको जनता से ऊपर समझती है। वहीं दूसरी ओर जनता का भी पुलिस में विश्वास नहीं है। वह पुलिस से डरती है। एक लोकतांत्रिक देश में पुलिस को अपना व्यवहार जनता के प्रति सकारात्मक रखना होगा। पुलिस एवं जनता दोनों को यह समझना होगा कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में वे एक - दूसरे के पूरक हैं और सहभागी हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद It is a universal truth that the process of social change is progressing very fast in India. Indian society is in the process of continuous change. In metropolitan cities, this pace is relatively faster than in rural areas. Along with the process of change, crimes have also increased in the society and the nature of crimes has also changed. Since the police is considered the servant of the society. Therefore, his work is to maintain law and order in the society and to prevent crimes.
The police force in India was formed by the British through the Act of 1861 for the suppression of the Indian public. Before getting independence, the police also suppressed the public. As a result, the image of the police became negative in the public and it has become a perception that the behavior of the police is not friendly towards the general public, rather it considers itself above the public. On the other hand, the public also does not have faith in the police. She is scared of the police. In a democratic country, the police have to keep their behavior positive towards the public. Both the police and the public have to understand that they complement each other and are partners in the process of social change.
मुख्य शब्द भारतीय समाज, सामाजिक परिवर्तन, पुलिस, विरासत, समपार्श्वीय समाज, पुलिस छवि, लोकतांत्रिक जीवन दर्शन।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Indian Society, Social Change, Police, Heritage, Parallel Society, Police Image, Democratic Life Philosophy.
प्रस्तावना
पुलिस सही और गलत के चौराहे पर खड़ा ऐसा व्यक्ति है जिसका दायित्व सही की रक्षा करना और गलत को पकड़ना है। अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका में वह अपने आप में ही एक संरक्षक, एक मार्गदर्शक, एक कार्यकर्ता तथा व्यवस्था एवं अधिकार का प्रतीक है। यही समाज का वह प्रमुख संस्थान है जो समाज में न केवल शांति और व्यवस्था बनाए रखता है अपितु समाज की सुरक्षा के लिए ढ़ाल और तलवार का कार्य करता है।‘‘[1] पंडित जवाहर लाल नेहरू का यह कथन समाज में पुलिस की भूमिका को चिन्हित करता है। पुलिस जीवन्त रूप में समाज और राज्य दोनों से जुड़ी होती है। यह दोनों के मध्य एक कामकाजी पुल की भूमिका निभाती है।[2] चूंकि समाज सामाजिक संबंधों का एक जाल होता है, अतः पुलिस की भूमिका और अधिक दुरूह तथा महत्वपूर्ण हो जाती है। पुलिस को समाज की सेविका माना जाता है, जो ज्यादातर वर्दी में रहकर अपने दायित्वों का निर्वहन करती है। इसलिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने पुलिस अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए एक बार कहा था कि वर्दी में जनता ही पुलिस है और बिना वर्दी के पुलिस ही जनता है। इसका अर्थ है कि पुलिस जनता की प्रतिनिधि है। जैसा समाज होगा वैसी ही पुलिस होगी। यही कारण है कि विभिन्न देशों में पुलिस की प्रकृति पृथक - पृथक देखने को मिलती है। चूंकि सभी देशों के नागरिकों का राष्ट्रीय चरित्र भिन्न - भिन्न होता है, अतः पुलिस का चरित्र भी भिन्न - भिन्न दिखाई देता है। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में पुलिस का व्यवहार बहुत अधिक महती भूमिका निभाता है। क्योंकि सामाजिक परिवर्तन एक दुरूह प्रक्रिया है। इस परिवर्तन की दिशा नकारात्मक नहीं हो इसलिए समाज को पतन की राह से रोकने में पुलिस की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध लेख के सृजन में लेखक का मौलिक उद्देश्य भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में पुलिस के व्यवहार का अध्ययन करना है। ताकि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ाया जा सके।
साहित्यावलोकन
भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए प्रमुख समाज विज्ञानी राम आहूजा द्वारा लिखित पुस्तक सामाजिक समस्याएँ (1997) महत्वपूर्ण हैं। इसमें लेखक ने भारतीय समाज की प्रमुख समस्याओं का विवेचन एवं विश्लेषण करते हुए भारतीय समाज में विगत चार-पाँच दशकों में आने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट किया है। डॉ. रविन्द्र नाथ मुकर्जी ने ‘‘भारत में सामाजिक परिवर्तन‘‘ विषय पर लिखित पुस्तक में यह बताया है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इसलिए समाज भी निरन्तर परिवर्तन की प्रक्रिया में चलते रहते हैं। भारतीय पुलिस के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए रामकृष्ण दत्त शर्मा एवं सविता शर्मा की कृति ‘‘भारत में मानवाधिकार - संरक्षण एवं पुलिस‘‘ की सहायता ली गई है। यह पुस्तक पण्डित गोविन्द वल्लभ पंत पुरस्कार से सम्मानित है। इस पुस्तक में लेखक ने पुलिस के मानवाधिकारों के मुद्दे को उठाया है। प्रोफेसर प्रभुदत्त शर्मा के लेख ‘‘पुलिस एडमिनिस्ट्रेशन‘‘ भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण शोध लेख है जो भारतीय पुलिस पर समग्रता में विचार करता है।
मुख्य पाठ

भारतीय समाज में परिवर्तन की प्रक्रिया एवं ऐतिहासिक स्वरूप
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो जीवन के प्रथम क्षण से लेकर अंतिम क्षण तक समाज में व्यतीत करता है। समाज निरन्तर परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजरते रहते है और स्वयं परिवर्तन एक गतिशील प्रक्रिया है। परिवर्तन  प्रकृति का नियम है और चूंकि समाज भी उसी प्रकृति का एक अंग है। अतः किसी भी ऐसे समाज की परिकल्पना नहीं की जा सकती जो पूर्णतया स्थिर हो। पृथ्वी परिभ्रमण करती है किन्तु इसका आभास तक नहीं होता उसी प्रकार सामाजिक परिवर्तन भी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसकी अनुभूति तत्काल नहीं होती, बल्कि एक लम्बे अंतराल के पश्चात् ही ‘‘अच्छे‘‘ या ‘‘बुरे‘‘ के रूप में होती है।
एंजिल्स ने सत्य ही कहा है, ‘‘समस्त प्रकृति छोटे से लेकर बडे़ तक, बालू-कण से लेकर सूर्य तक और वायु कण से लेकर व्यक्ति तक आने और चले जाने की एक निरन्तर स्थिति में, निरन्तर प्रवाह में, अनवरत गति तथा परिवर्तन की स्थिति में है।‘‘ परिवर्तन की इस गति को ही विकास की संज्ञा दी जाती है। मानव सभ्यता के उषाकाल से लेकर वर्तमान समय तक की विकास यात्रा का सिंहावलोकन यह स्पष्ट करता है कि आदि मानव से लेकर अंतरिक्ष पहुँचने की विकास यात्रा में मानव ने सभ्यता के नए सोपानों को तो पार कर लिया लेकिन मानवता का विकास उतना नहीं हुआ जितना अपेक्षित था। मानवता के विकास में सम्पूर्ण विष्व में जितना योगदान भारत का है उतना किसी अन्य राष्ट्र का नहीं है। आइन्सटाइन ने एक बार कहा था कि मानवता के विकास में भारत के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उसने दुनिया को गिनना नहीं सिखाया होता तो आज ये खोज और अविष्कार न हुए होते। मार्क ट्वेन ने जब भारत को जाना तो उनके मुह से आनायास ही ये शब्द निकल पडे़ ‘‘मानवता भारत रूपी पालने में फली-फूली है। मनुष्यों को वाणी यही से मिली है और मनुष्य का इतिहास भी यही से निकला है। गाथाओं की तो भारत दादी रहा है और परम्पराओं के मामले में दादी की भी माँ, मनुष्यता की सारी रचनात्मक धरोहरें भारत में ही है। फ्राँस के अनन्य विद्वान रोमां रोला ने जब भारत को देखा और समझा तो उनके मुँह से निकला ‘‘मनुष्य ने जिस दिन सपने देखने शुरू किए, वे सपने कहीं जन्में, फले और फूले तो दुनिया में वह केवल एक जगह भारत। आज भारतीय समाज का एक विशिष्ट स्वरूप विकसित हुआ है। भारतीय समाज में आर्थिक रूप से विकसित अवस्थाएँ (Developed, Developing, Underdeveloped stages of Society) एक साथ पाई जाती हैं। यहाँ एक तरफ शहरों में अत्यंत सम्पन्न एवं विशिष्ट वर्ग (Elite Cl) दिखाई देता है तो दूसरी और अत्यंत विशाल निर्धन वर्ग भी दिखाई देता है जिसे सर्वहारावर्ग (Poletrerian Cl) कहा जा सकता है। प्रमुख समाज शास्त्री राम आहूजा ने भारतीय समाज में पिछले चार - पाँच दशकों में आने वाले परिवर्तनों को निम्न बिंदुओं में रेखांकित किया है :
1.     कुछ निश्चित मूल्यों एवं संस्थाओं में परम्परा के साथ आधुनिकता।
2.     प्रदत्त प्रस्थिति (Ascribed) के स्थान पर अर्जित (Achieved) प्रस्थिति।
3.     समूहवाद के स्थान पर व्यक्तिवाद।
4.     धार्मिक मूल्यों के स्थान पर धर्मनिरपेक्ष मूल्य।
5.     लोककथाओं के स्थान पर विज्ञान और युक्तिकरण।
6.     एकरूपता के स्थान पर विषमता तथा अल्पसंख्यकों की बढ़ती आकांक्षाए।
7.     धर्म को राजनीति से जोड़ना।
भारतीय समाज की उपरोक्त विशिष्टताएँ उसे एक समपार्श्वीय समाज (Prismatic Society) का रूप दे देते है। अतः पुलिस का व्यवहार अन्य विकसित देशों की अपेक्षा अधिक दुरूह व दुष्कर हो जाता है क्योंकि उसे एक ओर तो समाज के परम्परावादी तत्वों से निपटना पड़ता है तो दूसरी तरफ आधुनिकता से सामंजस्य करके चलना पुलिस के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। समाज में अपराधों की प्रकृति भी बहुत क्लिष्ट है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों के अपराधों एवं शहरी क्षेत्र के अपराधों की प्रकृति में भी अन्तर होता है और पुलिस को दोनों ही से जूझना पड़ता है। 
पुलिस का व्यवहार
बक्सर के युद्ध में विजयी होने के उपरांत अंग्रेजों ने शासन को मजबूत बनाने के लिए विभिन्न सेवाओं की स्थापना की। सन् 1861 में भारतीय पुलिस अधिनियम बनाया गया और पुलिस सेवाओं का गठन किया गया जिसके तहत पूरा पुलिस तंत्र कार्य करता है।[6] सन् 1905 में लार्ड कर्जन ने ‘‘इम्पीरियल पुलिस‘‘ का गठन किया जिसे आज भारतीय पुलिस सेवा के नाम से जाना जाता है। पुलिस सेवा का गठन अंग्रेजों ने मूलतः राष्ट्रीय आंदोलन का दमन करने के लिए किया था। अतः स्वाभाविक ही था कि पुलिस सेवा की छवि जनता में नकारात्मक बनती। स्वतंत्रता के समय ब्रिटिश शासन से जो विरासतें मिली उनमें से एक भारतीय पुलिस की नकारात्मक छवि थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् इस छवि को तोड़ने का विशेष प्रयास पुलिस प्रशासन द्वारा नही किए गए। यद्यपि समय - समय पर पुलिस आयोगों का गठन किया गया लेकिन परिणाम नकारात्मक ही रहा। शहरी क्षेत्रों में तो अपेक्षाकृत पुलिस की छवि आंशिक रूप से सही ही है क्योंकि जनता की सतत जागरूकता के कारण पुलिस का व्यवहार जनता के प्रति नियंत्रित एवं संतुलित होता है। जहाँ तक ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस के व्यवहार का प्रश्न है, जनता के साथ उसका व्यवहार शहरी पुलिस की अपेक्षा भिन्न प्रकृति का होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि ग्रामीण जनता में अपने अधिकारों के प्रति चेतना का अभाव पाया जाता है।
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया वर्तमान शताब्दी में बहुत तेजी से बढ़ी है। उदारीकरण के युग में पूरा विश्व एक गाँव (Global Villege) बन गया है। सूचना क्रांति के युग ने जिस तरह सूचनाओं का प्रसार पूरी दुनियां में किया है वैसे ही अपराधों का भी वैश्वीकरण हो गया है। अपराधों के नित नए तरीकों का प्रचार - प्रसार सोशल मीडिया के माध्यम से हर अपराधी तक पहुँचने से पुलिस के लिए अपराध नियंत्रण बहुत कठिन हो गया है।  ऐसी आपराधिक घटनाएं जो कि विशाल जनसमूह के सामने घटित होती हैं, उनकी भी गवाही देने कोई नहीं आता। क्योंकि एक तो उसे पुलिस का विश्वास ही नहीं है और दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कारक जो जनता को पुलिस का सहयोग देने से वंचित रखता है वह यह है कि उसे आपराधिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों से हानि का भय है क्योंकि आम जनता इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित है कि अगर किसी आपराधिक घटना में वह अपनी गवाही नहीं देती है तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन अगर वह गवाही दे देता है तो यह अवश्यंभावी है कि उसे आपराधिक तत्वों की नाराजगी मोल लेनी पड़ जाए तथा उसके परिवार की सुरक्षा खतरे में पड़ जाए। यही कारण है कि पुलिस को जनता का सहयोग नही मिल पाता और प्रायः दोनों ही एक - दूसरे के प्रति अविश्वास रखते हैं। जहां पुलिस आम जनता को सशंकित दृष्टि से देखती है और उसे अपराधी मानती है वहीं आम जनता भी पुलिस के प्रति निषेधात्मक भावना रखती है। यही कारण है कि पुलिस का व्यवहार आम जनता के प्रति अच्छा नहीं है। यह दृष्टिकोण ग्रामीण क्षेत्रों की पुलिस में अधिक दिखाई देता है। जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों की पुलिस एवं जनता के मध्य अन्तर बढ़ता ही जा रहा है। भारतीय गाँवों में आज भी सामाजिक, राजनीतिक जागरूकता का विकास तीव्र गति से नहीं हुआ है। आज भी गाँवों में विकास की धारा अपेक्षाकृत मन्द है, यही कारण है कि ग्रामीण जनता पुलिस स्टेशन में जाने से आज भी घबराती है।

निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत तेजी से बढ़ रही है और उस गति से पुलिस का व्यवहार आम जनता के प्रति अपेक्षाकृत रूप से सकारात्मक नहीं रहा। अतः भारत के बेहतर भविष्य के लिए यह आवश्यक है कि लोकतांत्रिक देश होने के नाते पुलिस को लोकतांत्रिक जीवन दर्शन अपनाना होगा। अपनी कार्य-संस्कृति बदलनी होगी। जनता के सुख-दुख में साझीदार होना होगा। तभी पुलिस और जनता दोनों एक सिक्के के दो पहलुओं की भाँति अभिन्न अंग बन सकेंगे। पुलिस का व्यवहार जनता के प्रति अच्छा हो इससे पूर्व यह जरूरी है कि जनता का व्यवहार भी पुलिस के प्रति सकारात्मक हो और वह यह स्वीकार करे कि लोकतंत्र के पल्लवन व पुष्पन में पुलिस की भूमिका अति महत्वपूर्ण है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ. बसन्ती लाल बाबेल, पुलिस संगठन (सिद्धान्त एवं व्यवहार) यूनिक ट्रेडर्स, जयपुर, सन् 1996, पृ.1 2. राम कृष्ण दत्त शर्मा, सविता शर्मा, भारत में मानवाधिकार - संरक्षण एवं पुलिस, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार नई दिल्ली, वर्ष 2003, पृ. 22 3. डॉ. जे.पी. सिंह, ‘सामाजिक परिवर्तनः स्वरूप एवं सिद्धान्त‘, प्रेंटिस हॉल ऑफ इण्डिया प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, सन् 1999, पृ. 2-5 4. डॉ. रविन्द्र नाथ मुकर्जी, ‘भारत में सामाजिक परिवर्तन‘, विवेक प्रकाशन, दिल्ली, सन् 1991-1992, पृ. 1-3 5. राम आहूजा, सामाजिक समस्याएँ, रावत पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, सन् 1997, पृ. 22-26 6. पी.डी. शर्मा, पुलिस एडमिनिस्ट्रेषन इन द स्टेट्स, इण्डियन जर्नल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, नई दिल्ली, वाल्यूम 22, नम्बर 3, सन् 1976, पृ. 495-514