ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
भारतीय लोकतंत्र एवं राजनीति में नृजातीय, धर्म एवं जाति
Ethnicity, Religion and Caste in Indian Democracy and Politics
Paper Id :  16875   Submission Date :  08/12/2022   Acceptance Date :  21/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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संजीव कुमार शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन डिपार्टमेंट
राजकीय महाविद्यालय
राजपुरवाटी,राजस्थान, भारत
सारांश भारतीय समाज अत्यन्त प्राचीन है और भारतीय सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है। भारतीय संस्कृति समाज तथा सभ्यता का विकास हजारो वर्षों से होता आ रहा है जो लगातार जारी है। परन्तु ऐसे परम्परागत समाज में आधुनिक उदारवादी लोकतांत्रिक प्रणाली का प्रयोग किया गया। भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत को एक पंथनिरपेक्ष, लोककल्याणकारी, समाजवादी व्यवस्था के रूप में निर्मित किया है। उनका मानना था कि भारत में भविष्य में जाति, धर्म तथा नृजाति जैसे कारकों का महत्व समय के साथ कम होता जाएगा। साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यक्ति की गरिमा स्वतंत्रता और अधिकार अधिक प्रभावी होगें । अतः इस कारण ही संविधान में जाति, धर्म, मूलवंश,जन्म स्थान, प्रजाति तथा लिंग के रूप् में भेदभाव को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित किया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Indian society is very ancient and Indian civilization is thousands of years old. The development of Indian culture, society and civilization has been happening for thousands of years which is continuing continuously. But the modern liberal democratic system was used in such a traditional society. The constitution makers of India have built India as a secular, public welfare, socialist system. He believed that in future in India the importance of factors like caste, religion and ethnicity would decrease with time. Along with this, the dignity, freedom and rights of a person will be more effective in a democratic system. Therefore, for this reason, discrimination in the form of caste, religion, race, place of birth, race and gender has been clearly prohibited in the constitution.
मुख्य शब्द जाति, लोकतंत्र, नृजाति, धर्म, पंथनिरपेक्ष गरिमा, प्रजाति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Caste, Democracy, Ethnicity, Religion, Secular Dignity, Species.
प्रस्तावना
भारतीय संविधान निर्माता भारत में सांप्रदायिक धर्म विभाजन से अवगत थे। इसीलिए उन्होने पंथनिरपेक्ष राज्य का समर्थन किया। इसका प्रमुख कारण ब्रिटिश सरकार की ’’फूट डालो और राज करो’’ नीति थी। पंथनिरपेक्षता को अपनाकर इस नीति के दुष्परिणामों को दूर करने का प्रयास किया । भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रीय मुद्दे प्रमुख थे जिसमें सम्पूर्ण देश का सामाजिक, आर्थिक विकास, राष्ट्र की अखंडता एवं एकता बनाए रखना मुख्य उद्देश्य था। स्वंतत्रता के पश्चात् भारत पहला बडा साम्प्रदायिक दंगा मध्यप्रदेश के जबलपुर में 1961 में हुआ। उसके पश्चात् 1969 में अहमदाबाद (गुजरात) मेब डे साम्प्रदायिक दंगे हुए। अतः इन सभी से स्पष्ट हो गया है कि भारतीय लोकतंत्र में साम्प्रदायिक दंगे पूर्णतयः समाप्त नही हुए है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारतीय लोकतंत्र एवं राजनीति में नृजातीय, धर्म एवं जाति का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

रूडोल्फ के अनुसार ’’जाति व्यवस्था ने जातियों के राजनीतिकरण में सहयोग देकर परम्परावादी व्यवस्था को आधुनिकता में ढालने कर कार्य किया है।’’

एलिसन के अनुसार ’’नृजातिवाद का आशय साझी उत्पति एवं साझी परम्पराओं की साझी चेतना     है।’’ अतः इस आधार पर नृजाति शब्द का आशय प्रजातिभाषाधर्मखान-पान पहनावा जैसे साझा पहचान से है इन साइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेज न नृजातीय की परिभाषा इस प्रकार दी ’’नृजातीय समुह में है जो प्रजातीयराष्ट्रीयता अथवा सांस्कृतिक आधार पर सामान्य समूह में बंधकर दूसरे समूह से अलग रखते हुए अपनी पृथक संस्कृति में रखते है।’’

डॉ. रजनी कोठारी का मानना है कि भारत में जातिवाद नही अपितु जातियों की राजनीतिकरण हुआ है 

मुख्य पाठ

धर्म
स्वतंत्र भारत में साम्प्रदायिक दंगों लिए किसी एक राजनीतिक दल या संगठन को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है बल्कि सभी इसके लिए कही न कही उत्तरदायी हैं। जिसको हम अनेक उदाहरणो द्वारा स्पष्ट कर सकते है-कांग्रेस पार्टी साम्प्रदायिक तत्वों का सख्ती से मुकाबला तथा दमन नही कर सकी इससे साम्प्रदायिक तत्वों ने देश में तुष्टिकरण प्रारम्भ कर दिया। वास्तविक रूप में यह श्री नेहरू युग के पश्चात् विकसित हुआ।

1. जनसंघ तथा भारतीय जनता पार्टी जैसे राजनीतिक दलों ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के आंदोलन के द्वारा पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने लगातार प्रयास किया।

2. चुनावी राजनीति के कारणों तात्कालिक परिस्थितियों स्थानीय आधारों के कारणों से साम्यवादी दलों ने कांग्रेस कभी अकाली आदि का साथ दिया। इनमें कई अपने साम्प्रदायिक उद्देश्य तथा पहचान के लिए दूसरे दलों का साथ देते थे।

3. अनेक दलों की पहचान ही धर्म पर आधारित थी। जैसे-अकाली दलमुस्लिम लीग आदि।
4. कानूनी रूप से भारतीय संसद मे द्वारा पारित जनप्रतिनिधित्व एक्ट 1951 के अंतर्गत जातिधर्म जैसे मसलों के आधार पर वोट मांगना प्रतिबंधित है। परन्तु व्यावहारिक रूप में सभी दल भावनात्मक आधार पर लोगो का वोट प्राप्त करने का भरसक प्रयास करते है।

हिन्दु-सिख साम्प्रदायिक दंगे (1984) यह प्रमाणित करते हैं कि भारत में साम्प्रदायिक तनाव का मूल कारण साम्प्रदायिकता है न कि धार्मिक विविधता। कालांतर में एक नवीन प्रवृति का विकास हो रहा है जब विभिन्न धार्मिक समुदाय अपने आप को धार्मिक सदस्य के रूप में संगठित एवं एकत्रित करने का प्रयत्न कर रहे है। आर.खान के अनुसार भारत की विविधता मूलतः क्षेत्रीय है। इसलिए पंजाब में हिन्दु-मुसलमान के मध्य ज्यादा समानता है जबकि पंजाब तथा कश्मीर के हिन्दू बडी भिन्नता रखते है।

1992 में राम मंदिर तथा बाबरी मस्जिद विवादास्पद ढांचे के गिराए जाने के समय देश में भयंकर साम्प्रदायिक दंगे हुए। जिससे सर्वाधिक प्रभावित मुम्बई हुआ। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अत्यन्त नकारात्मक सिद्ध हुआ। अतः इसलिए कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिक समस्या किसी भी क्षेत्रीय समस्या से ज्यादा घातक और विनाशक है, क्योकि इसका प्रभाव सम्पूर्ण भारत में होता है। सन् 2002 मे गोधरा (गुजरात) के साम्प्रदायिक दंगे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक कालिख के समान है जिसमें भारतीय लोकतंत्र की छवि अत्यन्त धूमिल की। कालान्तर में राजनीतिक दलों ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के माध्यम से समाज में साम्प्रदायिकता को निरंतर बढाने का कार्य किया। भारत मे वर्तमान धर्म के आधार पर आरक्षण की माँग भी उठने लगी है। इस प्रकार की सोच तथा घटनाएं संविधान निर्माताओं के सपनों को निरन्तर कुठाराघात पहुँचाती है। यह तथ्य सबसे महत्वपूर्ण है कि साम्प्रादायिकता किसी धर्म विशेष से संबंधित नहीं हैं क्योकि साम्प्रदायिकता का कोई धर्म नही होता अर्थात जो व्यक्ति विशुद्ध धार्मिक होगावह साम्प्रदायिक नहीं हो सकता है।

नृजाति
नृजाति शब्द अनेकार्थक तथा भ्रमात्मक है। एलिसन के अनुसार ’’नृजातिवाद का आशय साझी उत्पति एवं साझी परम्पराओं की साझी चेतना है।’’ अतः इस आधार पर नृजाति शब्द का आशय प्रजातिभाषाधर्मखान-पान पहनावा जैसे साझा पहचान से है इन साइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेज न नृजातीय की परिभाषा इस प्रकार दी ’’नृजातीय समुह में है जो प्रजातीयराष्ट्रीयता अथवा सांस्कृतिक आधार पर सामान्य समूह में बंधकर दूसरे समूह से अलग रखते हुए अपनी पृथक संस्कृति में रखते है।’’ पालग्रास ने भाषा के आधार पर नृजाति समूहों का विवेचन किया है। प्रत्येक नृजाति समूह अपनी स्पष्ट पहचान बनाये रखता है तथा दुसरे समूहों से भिन्नता भी बनाए रखता है। इसके साथ एक नृजाति समुह में एक भौगोलिकऐतिहासिक साझी विरासत हो सकती है।
भारत में उदारवादी लोकतांत्रिक प्रणाली होने के बावजूद दलीय व्यवस्था के द्वारा नृजतीय पहचानों के आधार पर सत्ता की प्राप्ती का प्रयास किया जाता है। भारत में धार्मिक समूह ए़वं जातीय समूह सबसे बडे दबाव समूह के रूप में जाने जाते है। भारतीय स्वतंत्रता के प्रारंभिक दशकों में अधिकारिक भाषा के मुद्दो को लेकर तथा भाषायी आधार पर राज्यों के निर्माण को लेकर व्यापक आन्दोलन हुए। इसलिए इन आरंभिक दशकों को सेलिंग हैरिसन ने भारतीय लोकतंत्र के सर्वाधिक खतरनाक दशक कहा और भारत में नृजातिवादी राजनीति के अनेक रूप देखे जा सकते हैं जिसमें धर्म का
भाषा काजाति को प्रयोग मुख्य है। इसके अलावा उत्तरी-पूर्वी राज्यों में नागा तथा कुकी जातियों का संघर्ष तथा बोडोलैण्ड अलग राज्य की माँग भी नृजातिवाद पर ही आधारित है।
भारत में अनेक क्षेत्रवादी आंदोलनों का आधार भी नृजातिवाद रहा है। जैसे झारखण्ड राज्य की माँग तथा गोरखलैण्ड राज्य की माँग, वर्तमान में सबसे मुख्य है।

जाति
भारतीय लोकतंत्र में जाति एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह भारतीय राजनीति में वोट प्राप्त करने का महत्वपूर्ण माध्यम है। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि एक लोकतांत्रिक समाज का अभिप्राय ही जाति विहीन समाज है। परन्तु वास्तविक रूप में 1967 के पश्चात भारतीय राजनीति तथा लोकतंत्र में जाति का प्रयोग प्रभावी रूप से किया जाने लगा। मंडल आयोग के पश्चात् भारतीय समाज में जातीय विभाजन पुनः प्रभावी होकर उभरा राजनीतिक विचारधाराओं के अनुसार व्यक्ति की अपनी पहचान ’जाति’ से संबंधित करना एक संकीर्ण राजनीति का उदाहरण है। लोकतंत्र में व्यक्ति की पहचान गरिमा से होती है। इसीलिए कुछ लोगों ने जाति को समाज का कैंसर माना। संविधान में न केवल जाति व्यवस्था को स्पष्ट निरोध किया गया बल्कि 1955 में एक कानून बनाकर छुआछुत को एक दंडनीय अपराध माना गया। डॉ. रजनी कोठारी का मानना है कि भारतीय लोकतंत्र तथा राजनीति में ’जाति’ का प्रयोग सकारात्म हैन कि नकारात्मक। रूडोल्फ एवं रूडोल्फ भी इसी मत से सहमत है। डॉ. रजनी कोठारी का मानना है कि भारत में जातिवाद नही अपितु जातियों की राजनीतिकरण हुआ है जिसे निम्न आधारों से स्पष्ट किया जा सकता हैः-

1.   जातीय समूह दबाव समूह के रूप मे कार्य कर रहे है।

2.   जाति समाज की मूल संरचना है इसलिए राजनीति समाज से पृथक नही हो सकती ।

3.   इससे पिछडी जातियों में चेतना का निर्माण हुआ और इन्होंने संख्या बल के आधार पर राजनीतिक सत्ता एवं शक्ति प्राप्त की।

4.   जाति को प्रयोग वोट प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है।

5.   भारत में जातियों का राजनीतिक प्रयोग हो रहा हैइसके अंतर्गत अनेक जातियों का परस्पर गठबंधन होता है।
डॉ. रजनी कोठारी की उपर्युक्त मान्यताओं से सभी लोग पूर्णतया सहमत नहीं है। परन्तु फिर भी इनका विश्लेषण महत्वपूर्ण स्थान रखता है। भारत में पहचानगत राजनीति का प्रभाव बढ़ रहा है। लेकिन सभी क्षेत्रों के लिए यह उदाहरण सत्य नहीं है। पिछली पंजाब विधानसभा में हुए चुनाव से यह स्पष्ट
 हो गया है कि पहचानगत राजनीति का प्रभाव दिनोंदिन कम हो रहा है। परन्तु पिछले उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव अलग परिणाम दर्शाते है  जहां जाति की भूमिका निर्वाचक सिद्ध हुई। अतः सार रूप में हम कह सकते है कि राजनीति दलों ने भारतीय लोकतंत्र में जातिवाद का सहारा लिया है यह तथ्य सर्वविदित है। दलितशोषित उत्थान की आड़ में जातिवाद को राजनीति का अंग बना दिया। जातिवाद के कारण जहां के कारण जहाँ राज्य का उद्देश्य जनकल्याण का था उस को बदलकर रख दिया। उसका वास्तविक उद्देश्य विभिन्न जातियों को संतुष्ट करने का रह गया । राजनीति दलों ने जातियों को वोट बैंक के रूप में हमेशा प्रयोग किया है। जातिवाद ने लोकतंत्र की अवधारणा के विरूद्ध कार्य किया है। जाति व्यवस्था ने राष्ट्र के एकीकृत स्वरूप् के लिए संकट पैदा कर दिया है।
इसके पश्चात् भी यह सत्य है कि जाति भारत में समाज की महत्वपूर्ण इकाई है जिसकी उपेक्षा करना आसान नही है। आवश्यकता इस बात की है कि जाति के नकारात्मक स्वरूप के स्थान पर सकारात्मक स्वरूप  की स्थापना की जाए। रूडोल्फ के अनुसार ’’जाति व्यवस्था ने जातियों के राजनीतिकरण में सहयोग देकर परम्परावादी व्यवस्था को आधुनिकता में ढालने कर कार्य किया है।’’

निष्कर्ष 75 वर्षों के भारतीय लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अत्यन्त शक्तिशाली हुई और शक्तिओं का अधिक विकेन्द्रीकरण हुआ है। 17 वीं लोकसभा चुनाव सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए। वर्तमान में भारत एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। प्रेस की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय लोकतंत्र के मूल स्तंभ है। पिछडी जातियों का राजनीतिक सशक्तीकरण SC, ST का राजनीतिक सत्ता में भागीदारी तथा महिलाओं का सशक्तिकरण भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धियां है। उपर्युक्त समस्याओं का समाधान करके भारतीय लोकतंत्र को और प्रभावी और गतिशील बनाया जा सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ. जाधव नरेन्द्रः-राजनीति धर्म और संविधान विचार 2. शरण शंकर-धर्म संस्कृति और राजनीति 3. सिंह हीराः-जाति व्यवस्था की नई समीक्षा 4. क्रानिकल के लेख 5. दैनिक भास्कर दैनिक समाचार के लेख 6. NCERT- सामाजिक संस्थाएः-निरंतरता एवं परिवर्तन 7. Kothari Rajni 1988:State against Democracy : In search of Humane Governance. 8. कोठारी रजनी: भारत में राजनीति (हिन्दी प्रस्तुति:- अभय कुमार दुबे)