ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
Anthology The Research
फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी मारे गये गुलफाम एवं तीसरी कसम में अभिव्यक्त संवेदना
Feeling Expressed in Story of Phanishwarnath Renu Mare Gaye Gulfam and Teesri Kasam
Paper Id :  16800   Submission Date :  03/11/2022   Acceptance Date :  23/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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गंगाधर ढोके
सहायक प्राध्यापक
हिन्दी विभाग
शासकीय महाविद्यालय बिरसिंहपुर पाली
उमरिया,म0प्र0, भारत
डीकेश्वरी सिंह
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय
रीवा, म0प्र0, भारत
सारांश फणीश्वनाथ रेणु के साहित्य का अध्ययन करने में हम यह देखते हैं कि वे ऐसे लेखनी के चितेरे साहित्यकार हैं जो ग्रामीण अंचल में रहने वाले सीधे-सरल लोगों की संवेदनाओं को भली-भाँति समझते हैं। रेणु जी ने अपने साहित्य के माध्यम से अपने द्वारा गढ़े गढ़े चरित्रों के द्वारा ऐसी संवेदना व्यक्त करते हैं, जो पाठकों के हृद्य को झकझोर कर रख देती है। यहाँ पर रेणु जी की दो कहानियों ‘‘मारे गये गुलफाम’’ एवं ‘‘संवदिया’’ के माध्यम से दो अलग-अलग स्त्री-पुरूषों की अनकही व्यथा को प्रस्तुत किया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In studying the literature of Phanishwanath Renu, we see that he is such a prolific writer who understands the sensibilities of simple people living in rural areas very well. Through his literature, Renu ji expresses such sentiments through the characters created by him, which shakes the heart of the readers. Here the untold agony of two different men and women has been presented through Renu ji's two stories "Maare Gaye Gulfam" and "Samvadiya".
मुख्य शब्द संवेदना, मारे गये गुलफाम, संवदिया, फणीश्वरनाथ रेणु।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Condolences, killed Gulfam, Sanvadiya, Phanishwarnath Renu.
प्रस्तावना
फणीश्वनाथ रेणु के साहित्य का अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं, मानो हम बिहार की भूमि पर साक्षात विचरण कर रहे हैं। बिहार की बोलियाँ, भाषा, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, वहाँ के लोकगीत का ‘रेणु जी’ बड़ा ही सजीव वर्णन करते हैं। ‘मुंशीजी’ ने जहाँ उत्तर प्रदेश की धरा को अपने साहित्य में आत्मसात् किया है, तो वहीं लेखनी के चितेरे फणीश्वरनाथ रेणु जी ने बिहार की आत्मा को प्रदर्शित किया है। जब भी हम ‘रेणु जी’ के किसी कहानी या उपन्यास को पढ़ते हैं तो किंचित मात्र भी नहीं लगता है कि वह समाज की जिस सच्चाई से पाठकों को अवगत करा रहे हैं, वह उन्होंने दूर से देखा या महसूस किया है, बल्कि बिलकुल ऐसा प्रतीत होता है, कि वह उनके स्वयं के द्वारा भोगा या देखा गया यथार्थ है और वह उसे पन्ने में उकेर रहे हैं।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी 'मारे गये गुलफाम' एवं 'तीसरी कसम' में अभिव्यक्त संवेदना का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन
संवदिया अपने संदेश वाहक के दायित्व को त्याग कर अपने पूरे गाँव के मान को बचाने की सोचता है। साथ ही वह हमारे ग्रामीण भारत की उस प्राचीन परम्परा का भी निर्वाह करता है, जिसमें समस्त गाँव वाले जाति-पाँति को भुला कर एक दूसरे के साथ अपनेपन एवं स्नेह की डोर से बँधे रहते हैं। यह वो भारत था जहाँ एक घर की बहू-बेटी सारे गाँव की बहू-बेटी समझी जाती थीं। बड़ी बहूरिया की वेदना से सारा गाँव व्यथित होता है। साथ ही बड़ी बहुरिया भी मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी ‘‘बड़े घर की बेटी’’ ही भाँति अपने घर-परिवार का मान-सम्मान बचाकर अत्यंत प्रसन्न होती है। उसे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता मिलती है कि उसके कुल परिवार का मान उसके मायके में रह गया है, क्योंकि संदेश भेजने के पश्चात् ही वो पश्चाताप की अग्नि में झुलस रही है, ‘‘बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक बासमती चूड़ा डालकर मसकने लगी।.....संवाद भेजने के बाद से ही वह अपनी गलती पर पछता रही थी।
मुख्य पाठ

जब भी हम उनकी कहानियों को पढ़ते हैं तो मानो लगता है कि आँखों के समक्ष कोई सिनेमा चल रहा हैएवं कहीं न कहीं हम उन सिनेमा के पात्रों से स्वयं को जोड़ लेते हैंक्योंकि उनके साहित्य में एक आम नागरिक की दास्तान लिखी रहती है। उनकी कहानियों के पात्र अपने मुख पर कोई नकली अभिनय का जामा पहन कर नहीं आते हैंवरन् जिंदगी का भोगा हुआ कड़वा यथार्थ पेश करते हैं।

फणीश्वर नाथ रेणु जी ने बहुत सारी अमर कहानियाँ लिखीं हैंफणीश्वरनाथ रेणु जी की ‘रेणु रचनावली भाग-1’ में 63 कहानियाँ संग्रहित हैंउनमें उनकी एक कहानी ‘मारे गये गुलफाम’ भी है। जिस पर 1966 में  ‘‘तीसरी कसम’’ नामक एक अद्भुत कालजयी फिल्म बनी है। यह कहानी संवदनाओं के सागर में गोते लगाते जैसी प्रतीत होती है। इसमें बीसवीं सदी के भारत की वह तस्वीर है जो कि निम्न मध्यवर्गीय समाज की तस्वीर प्रस्तुत करती है। इस कहानी के माध्यम से रेधु जी ने अनेकों शताब्दियों से बाजार के समक्ष एक ऐसी औरत का चित्रण करती हैजो कि एक नर्तकी है। इस कहानी के द्वारा रेणु जी ने लोकजीवन के राग में डूबे हीरामन एवं हीराबाई की कहानी न केवल पाठकों का मनोरंजन करती हैबल्कि जगह-जगह आँसू बहाने को भी विवश कर देती है। इस कहानी में एक नारी की वेदना एवं लाचारी को प्रस्तुत किया गया है, ‘‘हीरामन के साधारण जीवन में संवेदन की अभूतपूर्व घड़ी आई थी और उसका हृद्य उस स्मृति को संजोये आज भी पुलक अनुभव करता हैलेकिन उस पुलक में कहीं मीठी-सी कसक भी है। कहानी की पूरी अंतर्यात्रा में एक अनाम महक कोमलता और मिठास हैलेकिन शेष है मरे मुहूर्तों की गूँगी आवाजेंजो मुखर होना चाहती है।’’[1]

हालांकि इस कहानी को यदि संवेदनात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पाठकों की सारी संवेदना हीरामन के साथ ही रहती है। हीरामन की जिंदगी की रिक्तताप्रत्येक स्थान पर फिर वह चाहे मेले में होसड़कों मे होदोस्तों के साथनौटंकी के दौरान या फिर अपने घर-परिवार के बीच में उसके जीवन का सूनापन नजर आता है। हीरामन के चेहरे का भोलापन ही हमें उसके प्रति गहरी सहानुभूति से भर देता है। एक चालीस वर्षीय मजबूत कद-काठीकाला-कलूटा आदमी जिसकी जिंदगी में सबसे ज्यादा महत्त्व उसके बैलों का है, ‘‘ग्रामीण जीवन के रेशे-रेशे से परिचित रेणु का कथाकार जीवन में सीधे प्रवेश करता है। प्राणों के रेग और जीवन के राग-विराग से रेणु जिस स्थानीय परिवेश का चित्रण करते हैंउसमें सम्पूर्ण मानव समाज समा जाता है और तब रेणु की आंचलिकता देशकाल की सीमा पार अखिल मानवता का इतिहास-भूगोल रच जाती डालती है। तभी तो मिथिलांचल के लोकमन में रची-बसी महुआ घटवारिन की कथा हीराबाई में घटित होती हैऔर हीराबाई बन जाती है- स्त्री मन की मर्मांतक पीड़ा। पेशे की विवशता और पुरूष समाज की सीमा रेखा में कैद हीराबाई की व्यथा-कथा भारतीय जीवन की आम नारी की भी कहानी है।’’[2]

आज भी हमारे देश में पितृसत्तात्मक व्यवस्था ही कायम है। आज भी स्त्री के चेहरे की झूठी हँसी सबको दिखाई देती हैलेकिन उस हँसी के पीछे वह कितनी तकलीफ छुपाए हैयह किसी को दिखाई नहीं देता है। यहाँ भी महुआ घटवारिन सौदागर के हाथों बिक गईएवं हीराबाई बन गई। यह सब उसने मौन होकर स्वीकार कर लिया क्योंकि वह जानती है कि यही उसकी नियति है। आज वही हीराबाई हीरामन की गाड़ी में सवार हुई है। पूरी रात्रि हीराबाई के जीवन की दुख भर दास्तान सुनते-सुनते हीरामन का मन वेदना से भर जाता है, ‘‘लाली-लाली डोलिया मा लाली री दुल्हनियापिया जी के अपनी प्यारीभोली-भाली री दुल्हनिया’’[3] यहाँ नारी की वो अंर्तवेदना मुखरित हुई हैकि एक स्त्री कितनी बेबस है कि बिकने के बाद भी वह नकली हँसी का मुखौटा धारण करके नृत्य कर रही है। यहाँ तक कि उसका मालिक उसकी इज्ज्त पर हाथ डालने का भी प्रयास करता है तो वह दूसरे नौटंकी कंपनी के मालिक के यहाँ काम करने लगती है। इस बाजार ने उसका सब कुछ छीन लिया है। हीराबाई मात्र पुरूष जाति के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है, ‘‘पुरूष समाज के मनोरंजन के लिए औरत को बाजार बना देने वाली व्यवस्था में क्या हुआ महुआ घटवारिन अकेली हैक्या हीराबाई जैसी औरतें बिना माँ-बाप की स्वीकृति के ही आ जाती हैं कंपनी मेंऔर जब आ जाती हैतो हीरामन जैसे हीरे को पाकर भी नहीं प्राप्त कर सकती हैंथकी हुईबिकी हुईसौदागर की गुलामजो पेशे की डोर से बँधी इस मेले से उस मेले में घूमती हैं। वस्तु की तरह बिकने वाली औरतएक समाज बेचता हैदूसरा खरीदता है।’’[4]

महुआ घटवारिन की कथा के माध्यम से रेणु जी ने नारी जीवन की व्यथा-कथा को चित्रित किया है। यह कहानी एक ऐसा कालजयी दस्तावेज हैजो कि पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ा जाएगा। महुआ तो अपनी त्रासदी को व्यक्त करने के लिए रूदन भी करती हैकिन्तु हीराबाई तो मौन है। हीरामन मुखरित होकर अपनी व्याकुलता को प्रकट करता हैकिन्तु रेणु जी ने तो हीराबाई को जैसे शब्द ही नहीं दिए हैं। एक स्त्री जिस प्रकार एक गाड़ीवान की गाड़ी में पर्दे में नजर आती हैबिलकुल उसी तरह हीराबाई का मौन भी परदे में ही हैपरन्तु उस मौन में भी ढेरों संवाद छिपे हुए हैं।

‘‘हर रातकिसी न किसी के मुँह से सुनता है कि हीराबाई रंडी है। कितने लोगों से वह लड़ेबिना देखे ही लोग कैसे कोई बात बोलते हैं। राजा को भी लोग पीठ पीछे गाली देते हैं। आज वह हीराबाई से मिलकर कहेगानौटंकी में रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोगसरकस कंपनी में क्यों नहीं काम करती ? सबके सामने नाचती हैहीरामन का कलेजा दप-दप कर जलता रहता है।’’[5] हमारे समाज में हीराबाई जैसी बहुत सी औरतें हैंजो बाजार में मजबूरी में ही आती हैंलेकिन हमारा समाज सदा ही उन्हें भर्त्सना देता आया हैकोई भी उसे समझने का प्रयास नहीं करना चाहता है। यहाँ भी एक कंपनी छोड़ने पर जब उसे दूसरी कंपनी में काम मिलता है तो वह प्रेम एवं व्यवसाय में से अपना व्यवसाय ही चुनती हैक्योंकि वह सौदागर के हाथों बिकी हुई है, ‘‘हीराबाई चंचल हो गई बोली हीरामनइधर आओ अंदर ! मैं फिर लौटकर जा रही हूँ मथुरामोहन कंपनी में अपने देश की कंपनी है। हीराबाई ने थैली से रूपिया निकालते हुए बोली-एक गरम चादर खरीद लेना। हीरामन की बोली फूटीइतनी देर बाद इस्स हरदम रूपैया-पैसारखिए रूपैया! क्या करेंगे चादरहीराबाई का हाथ रूक गयाउसने हीरामन का चेहरा गौर से देखाफिर बोली तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया हैक्यों मीतामहुआ घटवारिन को सौदागर ने जो खरीद लिया है गुरूजी।’’[6]

इस वाकये में हीरामन की एक अनकही वेदना व्यक्त हुई हैएक सरल हीरामन की जिंदगी में जो एक खुशबू आई थीवह भी उससे दूर जा रही है। इस कहानी में यदि कुछ रह जाता है तो वह है हीरामन की जिंदगी का सूनापन। कथा के समापन में, ‘‘उसने उलट कर देखाबोरे भी नहींबाँस भी नहींबाघ भी नहींपरी-देवी-मीता-हीरादेवी-महुआ घटुवारिन कोई नहीं.........हीरामन के होंठ हिल रहे हैंशायद वह तीसरी कसम खा रहे हैं। कंपनी की औरत की लदनीउधर हीराबाई भी कभी लाल दुलनिया नहीं बन पाएगीक्या वह कंपनी की ‘‘बाई’’ बन कर ही रहेगीदुल्हन या कुलवधू कभी नहीं बन सकतीउसके भी दिल के अरमान चूर-चूर हो गयेअब एक मेले से दूसरे मेले में वह जा रही है लेकिन केवल शरीर से क्यूँकि उसका मन तो हीराबाई के पास है। हीराबाई केवल बाई नहीं एक औरत भी है। औरत को वस्तु समझने वाले समाज में एक बाई की संवेदना को स्त्रीत्व की संपूर्णता से जोड़कर रेणु ने एक सामाजिक सवाल भी उठाया है।’’[7] यह कहानी सरलता की कहानी नहीं है........ ‘‘जिसमें स्त्री मन की वेदना तार-तार होकर साकार होती चली गई है कथा की मूल संवेदना के इर्द गिर्द जो मौन हैउससे स्त्रीत्व की व्यथा पछाड़ खाकर बिलख रही है। महुआ घटवारिन की रूपक कथा में हीराबाई को तराश कर रेणु ने तीसरी कसम को स्त्री-विमर्श की एक अनमोल रचना बना दिया है।’’[8]

इस तरह से हम यह देखते हैं कि रेणु जी की कहानियाँ फिल्म निर्माताओं का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करती हैंएवं इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यही है कि उनकी कहानियाँ भारत देश के ग्रामीण जीवन के यथार्थ एवं संवेदना को प्रस्तुत करने में पूर्णतः सफल रही हैं। भारत के पूर्वी क्षेत्र में उनका अपना एक विशेष वर्ग है जो उन्हें भरपूर आदर एवं स्नेह देता है।

रेणु जी की एक अन्य कहानी ‘संवदिया’ है जिसे पढ़ कर न केवल हम संवेदना के धरातल में गोते लगाने लगते हैंबल्कि अपने भारत के अतीत के उस युग से भी हमारा साक्षात्कार होता हैजहाँ संदेशवाहक भेजने की परंपरा होती थी। यह ऐसा युग था जिसे हम आज भी अपने अतीत की सुखद स्मृतियों के साथ सहेज कर रखना चाहेंगे। आज के इस आधुनिक युग में जहाँ तकनीक ने इतना विकास कर लिया है कि आज हम पलक झपकते ही सुदूर विदेश में बैठे अपने खास को न केवल देख सकते हैबल्कि उन्हें सदा अपने आस-पास महसूस भी करते हैं। लेकिन उस दौर में जहाँ एक व्यक्ति संदेशवाहक होता थाजो कि छोटे से छोटा एवं बड़े से बड़ा संदेश लेकर बिना गर्मीसर्दी एवं वर्षा की परवाह किये उस संदेश को उसके गंतव्य तक पहुँचा कर ही दम लेता है।
संवदिया’ कहानी का मुख्य पात्र ‘संवदिया उर्फ हरगोबिन’ फणीश्वरनाथ रेणु जी की कलम का जादू पड़ते ही एक अत एवं सजीव चरित्र के रूप में ढल जाता है। ‘‘हरगोबिन को अचरज हुआ-तोआज भी किसी को संवदिया की जरूरत पड़ सकती है! इस ज़माने मेंजबकि आज गाँव-गाँव में डाकघर खुल गये हैंसंवदिया के मार्फत संवाद क्यों भेजेगा कोईआज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक ख़बर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद मंगा सकता हैफिर उसकी बुलाहट क्यों हुई है?’’[9] हालांकि वह अपना दिया गया कार्य तो पूर्ण नहीं कर पाता हैलेकिन गाँव की बड़ी बहुरिया के मान-सम्मान पर तनिक भी आँच नहीं आने देता है। गाँव की बड़ी बहुरिया जो अपनी गरीबी एवं घर की परिस्थितियों के समक्ष घुटने टेक चुकी हैवह अपना घर-गाँव छोड़कर अपने मायके में आश्रय लेना चाहती हैएवं संवदिया के द्वारा वह अपना संदेश अपने मायके भेजती है। संवदिया जब बड़ी बहु के मायके पहुँचता हैतो वह बड़ी बहु के मार्मिक संदेश को नहीं दे पाता हैसंवदिया को यह महसूस होता है कि बड़ी बहु सारे गाँव की बड़ी बहु अर्थात् इज्ज़त है।

निष्कर्ष इस कहानी में संवदिया के माध्यम से एक ऐसे व्यक्तित्व के दर्शन हमें मिलते हैं, जो अविस्मरणीय है। किस तरह से एक गरीब व्यक्ति अपने गाँव की बहू के प्रति गहरी संवेदना दिखाता है, वह उसे अपना दायित्व मानते हुए उसका भरण-पोषण उठाने का प्रण लेता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. ‘कुछ नये कहानीकारों की कहानियाँ: धनंजय वमा; नयी कहानी: संदर्भ और प्रकृति’,संपादक देवीशंकर अवस्थी, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 194 2. ‘अनभै’, जुलाई-दिसम्बर-2009, पृष्ठ 98 3. ‘अनभै’, जुलाई-दिसम्बर-2009, पृष्ठ 99 4. ‘अनभै’, जुलाई-दिसम्बर-2009, पृष्ठ 99 5. ‘मारे गये गुलफाम’, फणीश्वर नाथ रेणु www.femina.in 6. ‘अनभै’, जुलाई-दिसम्बर-2009, पृष्ठ 100 7. ‘अनभै’, जुलाई-दिसम्बर-2009, पृष्ठ 100 8. ‘अनभै’, जुलाई-दिसम्बर-2009, पृष्ठ 100 9. ‘संवदिया’, फणीश्वरनाथ रेणु, www.femina.in 10. ‘संवदिया’, फणीश्वरनाथ रेणु, www.femina.in