ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
विवेकानंद के चिन्तन में समाज व व्यक्ति स्वरूप व अंतर्संबंध
Nature and Interrelationship of Society and Individual in The Thought of Vivekananda
Paper Id :  16899   Submission Date :  05/12/2022   Acceptance Date :  21/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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संध्या गुप्ता
सह आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश समाज और व्यक्ति के मध्य संबंधों का क्या स्वरूप होना चाहिए यह एक मूलभूत समाजशास्त्रीय व राजनीतिक प्रश्न है। विवेकानंद इस संबंध में स्पष्ट थे। व्यक्ति की स्वतंत्रता में गौरव के उत्कट उद्घोषक होते हुए भी विवेकानंद समाज को सावयव और व्यक्ति को उसका अंग या घटक मानते हैं। अधिकारों के बजाय कर्तव्यों को विशेष महत्व देने वाले विवेकानंद का मानना था कि निष्काम कर्तव्य करते रहने पर अधिकारों की स्वयं सृष्टि हो जाती है। हालांकि व्यक्ति का समाज के प्रति यह समर्पण स्वैच्छिक होना चाहिए। वस्तुतः अद्वैतवादी विवेकानंद प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में ईश्वर का अंश मानते थे और क्योंकि समाज व्यक्तियों का ही सम्मिलित रूप है इस लिहाज से वह भी ईश्वरीय है और इसलिए महत्वपूर्ण है। वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत पर विश्वास रखने वाले विवेकानंद ने संपूर्ण विश्व को एक समाज मानते हुए विश्व प्रेम व आत्मसमर्पण के भाव को अपनाने का आह्वान किया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद What should be the form of relationship between society and individual is a fundamental sociological and political question. Vivekananda was clear in this regard. Despite being an ardent proclaimer of pride in the freedom of the individual, Vivekananda considers society to be organic and the individual as its part or component. Vivekananda, who gave special importance to duties instead of rights, believed that rights are self-created by doing selfless duties. However, this dedication of the individual to the society should be voluntary. In fact, Vivekananda believed in the soul of every person as a part of God and because society is the combined form of individuals, in this sense it is also divine and therefore important. Vivekananda, who believed in the principle of Vasudhaiva Kutumbakam, called upon the whole world to adopt the spirit of world love and self-surrender considering the whole world as one society.
मुख्य शब्द विवेकानंद, समाज, व्यक्ति, समाजशास्त्रीय प्रश्न, भारतीय चिंतन, अद्वैत, अधिकार, कर्तव्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vivekananda, Society, Individual, Sociological Questions, Indian Thought, Advaita, Rights, Duties
प्रस्तावना
समाज व व्यक्ति का संबंध समाज विज्ञान में एक बड़ी बहस है जिसके इर्द-गिर्द बहुत सी विचारधाराएं अस्तित्व में हैं। स्वामी विवेकानंद (1863-1902) भारतीय चिंतन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। सामाजिक क्षेत्र में मुख्य रूप से भारतीय समाज सुधारक के तौर पर उनके विचारों का अध्ययन किया जाता है किंतु मूलभूत समाजशास्त्रीय व राजनीतिक प्रश्नों व संकल्पनाओं पर भी उनका मौलिक दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है। समाज व व्यक्ति के संबंधों पर विचार इन्हीं में से एक है। हालांकि ऐसा करना उनका मुख्य उद्देश्य नहीं था बल्कि अधिकांशतः अन्य प्रश्नों पर व्यक्त विचारों में से ये कतिपय निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
अध्ययन का उद्देश्य विवेकानंद के चिंतन में विद्यमान सामाजिक -राजनीतिक व्यवस्था से संबंधित तथ्यों का प्रतिपादन व विश्लेषण करना तथा व्यक्ति व समाज के संबंधों के संदर्भ में विवेकानंद चिंतन से मार्गदर्शन प्राप्त करना।
साहित्यावलोकन

विवेकानंद चिंतन पर अद्वैत आश्रम कोलकाता द्वारा प्रकाशित विवेकानंद साहित्य का प्रमुख रूप से अध्ययन किया गया है। इसके अतिरिक्त विवेकानंद चिंतन पर उपलब्ध अन्य पुस्तकों एवं टीकाओं का जैसे रोमा रोलां कृत 'द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल',ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स- लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द, आर सी मजूमदार द्वारा संपादित' स्वामी विवेकानंद- सैंटनरी मेमोरियल वॉल्यूम', 'समकालीन भारतीय दर्शन'- बसंत कुमार लाल, कतिपय अन्य शोध पत्रों जैसे रिलीजन फॉर सेक्यूलर एज: मैक्स मूलर, स्वामी विवेकानंद एंड वेदांता- जीन सी.मेकफॉल (2021), स्वामी विवेकानंद : हिज लाइफ लेगेसी एंड लिबरेटिव एथिक्स- माइकल बर्ले (2021) का भी अध्ययन किया गया है। अन्य शोध पत्रों से इतर यह शोध पत्र विवेकानंद के चिंतन के मूल स्वरों का समाजशास्त्रीय दृष्टि से विष्लेषण करता है।

मुख्य पाठ

विवेकानंद समाज के निर्माण के संबंध में स्पष्टतः अपना कोई मत व्यक्त नहीं करते बल्कि उनकी दार्शनिक व्याख्याओं में से इस संदर्भ में कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। अद्वैत वेदांत की एक नए सिरे से व्याख्या करते हुए विवेकानंद इस जगत्को और आत्मको ईश्वर की अभिव्यक्ति और इसलिए सत्मानते हैं।[1] उनका कथन था, ‘’सारे विश्व का यदि एक अखण्ड रूप से चिंतन किया जाये तो वही ईश्वर है और उसे पृथक् रूप से देखने पर वही दृश्यमान संसार है-व्यष्टि है।‘‘[2]

अद्वैतवादी विवेकानंद प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में ईश्वर का अंश मानते थे और क्यों कि समाज व्यक्तियों का ही सम्मिलित रूप है इस लिहाज से वह भी ईश्वरीय और इसलिए महत्वपूर्ण है।

समाज और व्यक्ति के मध्य संबंधों का क्या स्वरूप होना चाहिए यह एक मूलभूत समाजशास्त्रीय व राजनीतिक प्रश्न है। दोनों को ही ईश्वरीय मान लेने पर संबंधों का स्वरूप क्या होगा इसमें दुविधा हो सकती है। किन्तु विवेकानंद इस संबंध में स्पष्ट थे। व्यक्ति की स्वतंत्रता व गौरव के उत्कट उद्घोषक विवेकानंद का व्यक्ति ईश्वर का अंश है। उन्होंने कई बार दोहराया- ‘’मानव स्वभाव के गौरव को कभी न भूलो, हममें से प्रत्येक व्यक्ति यह घोषणा करे कि मैं ही परमेश्वर हूँ जिससे बड़ा न कोई हुआ है और न होगा। क्राइस्ट और बुद्ध उस असीम महासागर की तरंगें मात्र हैं, जो मैं हूँ।‘‘[3] विवेकानंद मनुष्य को स्वाधीनता का उच्चतम प्रतिनिधि मानते हुए उसके गौरव में गंभीर आस्था प्रकट करते हैं और मानते हैं कि सभी जीव ब्रह्म हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे अराजकतावादी स्वतंत्रता की वकालत करते हैं बल्कि इसके उलट वे व्यक्तियों से यह सहज अपेक्षा रखते हैं कि वे समाज के प्रति समर्पण का भाव रखेंगे। उनका यह विचार उनकी संवेदनशीलता का परिणाम भी हो सकता है और भारतीय परंपरा का प्रभाव भी। वे एकदम स्पष्ट थे कि व्यक्ति महत्वपूर्ण है पर समाज और भी अधिक महत्वपूर्ण है बल्कि समाज की उनकी परिभाषा में वे समाज को सावयव और व्यक्ति को उसका अंग या घटक मानते हैं। वे कहते हैं, ‘’अनेक व्यक्तियों का समूह समष्टि (संपूर्ण) कहलाता है और अकेला व्यक्ति उसका एक भाग है। आप और हम अकेले व्यष्टि हैं और समाज एक समष्टि है।‘‘[4]

विवेकानंद व्यक्ति के नश्वर शरीर की एकमात्र उपयोगिता समाज सेवा को मानते हैं उनके अनुसार ‘‘हम अपने शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक के लिए भले ही बनाये रखें, पर उससे क्या होगा ? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यंभावी है। वे धन्य हैं जिनका शरीर दूसरों की सेवा में अर्पित हो जाता है। यही जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग है कि उसे सर्वभूतों की सेवा में लगा दिया जाए। हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि यह शरीर ही हम हैं जिसकी किसी भी प्रकार रक्षा करनी होगी और सुखी रखना होगा। यह भयानक देहात्म बुद्धि ही संसार में सब प्रकार की स्वार्थपरता की जड़ है।‘‘[5]

विवेकानंद ने केवल अधिकारों के लिए संघर्ष करने की अपेक्षा कर्तव्यों को विशेष महत्व दिया। उन्हें इस बात पर खेद था कि विश्व के विभिन्न समूहों और वर्गों के अधिकारों के समर्थकों में परस्पर तनाव और संघर्ष चलता रहता है, लेकिन अपने कर्तव्यों पर कोई बल नहीं देता। अधिकारों के परस्पर विरोधी सिद्धांत पनप रहे हैं किन्तु कर्तव्यों और दायित्वों के पालन के प्रति विशेष अभिरूचि का अभाव है। विवेकानंद अपने अधिकारों के प्रति आग्रह के पक्ष में थे लेकिन कर्तव्यों की उपेक्षा उन्हें असह्य थी। उनका विश्वास था कि निष्काम कर्तव्य करते रहने पर अधिकारों की स्वयं सृष्टि हो जाती है।[6]

वी.पी.वर्मा भी इस संदर्भ में टिप्पणी करते हैं, ‘’आधुनिक विश्व में विभिन्न समूहों तथा वर्गों के अधिकारों के समर्थकों के बीच निरन्तर संघर्ष चल रहा है। फलस्वरूप समाज धीरे-धीरे अधिकारों के परस्पर विरोधी सिद्धांतों की सफलता के लिए युद्ध का अखाड़ा बनता जा रहा है। किन्तु विवेकानंद ने कर्तव्यों को महत्व दिया वे चाहते थे कि सभी व्यक्ति और समूह अपने कर्तव्यों और दायित्वों के पालन में ईमानदार हों। मानव का गौरव इस बात में नहीं है कि वह अपने अधिकारों के लिए आग्रह करे। उसकी गरिमा इस बात में है कि वह सार्वभौम शुभ की सिद्धि हेतु अपना उत्सर्ग कर दे। इसलिए यद्यपि स्वामी विवेकानंद स्वयं भिक्षु और संन्यासी थे, किन्तु उन्होंने निष्काम भाव से अपना कर्तव्य करने वाले गृहस्थ को सर्वोच्च स्थान दिया।[7] विवेकानंद हॉब्स इत्यादि की पाश्चात्य अवधारणा के विरूद्ध समाज को न तो व्यक्ति की रचना मानते हैं और न ही इसके आधार में किसी हिंसा या संघर्ष को स्वीकारते हैं। वे तो प्रेम और त्याग को समाज का आधार मानते हैं उनका कहना था कि न तो शारीरिक बल, न ही आर्थिक वर्चस्व और न ही कोई व्यवहारिक दक्षता समाज निर्माण का आधार है बल्कि प्रेम, त्याग और निस्वार्थता-जो आध्यात्मिकता के तीन प्रकटीकरण हैं- से ही किसी भी समाज का उदय हो सकता है।[8]

समाज के प्रति कर्तव्यनिष्ठ होना उसके सुख दुख में शामिल होना केवल समाज के लिए ही आवश्यक नहीं है बल्कि व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है क्यों कि वह यदि ऐसा नहीं करता है तो समाज भी सहन नहीं करता और उसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है। उन्होंने कहा, ‘’समष्टि (समाज) के जीवन में व्यष्टि (व्यक्ति) का जीवन है, समष्टि के सुख में व्यष्टि का सुख है, समष्टि के बिना व्यष्टि का अस्तित्व ही असंभव है, यही अनन्त सत्य जगत् का मूलाधार है। अनन्त समष्टि के साथ सहानुभूति रखते हुए उसके सुख में सुख और उसके दुख में दुख मानकर धीरे-धीरे आगे बढ़ना ही व्यष्टि का एकमात्र कर्तव्य है। और कर्तव्य ही क्यों ? इस नियम का उल्लंघन करने से उसकी मृत्यु होती है और उसका पालन करने से वह अमर होता है। प्रकृति की आँखों में धूल डालने की सामर्थ्य किसमें है ? समाज की आँखों पर बहुत दिनों तक पट्टी नहीं बाँधी जा सकती। समाज के ऊपरी हिस्से में कितना ही कूड़ा करकट क्यों न इकट्ठा हो गया हो, परंतु उस ढेर के नीचे प्रेमरूपी निस्वार्थ सामाजिक जीवन का प्राणस्पंदन होता ही रहता है। सब कुछ सहने वाली पृथ्वी की भाँति समाज भी बहुत सहता है परंतु एक न एक दिन वह जागता ही है, और तब उस जागृति के वेग से युगों की एकत्र मलिनता और स्वार्थपरता दूर जा गिरती है।‘‘[9]

विवेकानंद कहते हैं कि हम अज्ञानी मनुष्य बार-बार इस बात को भूल जाते हैं और सोचने लगते हैं कि प्रकृति को धोखा दिया जा सकता है और स्वार्थ साधना को ही चरम उद्देश्य मानने लगते हैं। गाँधी की तरह वे भी कहते हैं कि विद्या, बुद्धि, धन, जन, बल, वीर्य जो कुछ प्रकृति हम लोगों के पास एकत्र करती है, वह फिर बाँटने के लिए है, हमें यह बात याद नहीं रहती, सौंपे हुए धन में आत्म बुद्धि हो जाती है बस इसी तरह विनाश का सूत्रपात होता है।[10] उन्होंने राजा वेण का उदाहरण देकर अपने कथन को पुष्ट किया जिसने मदांध होकर समाज को हीन समझना शुरू किया पर उसका दुष्परिणाम उसे भुगतना पड़ा।

वसुधैव कुटुम्बकम्के सिद्धांत पर विश्वास रखने वाले विवेकानंद ने संपूर्ण विश्व को एक समाज मानते हुए विश्व प्रेम व आत्मसमर्पण के भाव को अपनाने का आह्वान किया। मूलतः धार्मिक विवेकानंद ने इसके लिए ईश्वर भक्ति का मार्ग सुझाया। उनका कहना था कि ईश्वर ही समष्टि है और यह जगत् उसी की अभिव्यक्ति है यदि हम ईश्वर को प्यार करें तो यह सभी व्यक्तियों को प्यार करना हो जाता है (या यदि सभी व्यक्तियों की सेवा व प्रेम करें तो यह भी ईश्वर भक्ति का ही रूप है)। भक्ति की अवस्था में ईश्वर का स्वरूप स्पष्ट होने लगता है और प्रत्येक प्राणी में ईश्वर दर्शन होने लगता है और सभी प्राणी उपास्य हो जाते हैं। यह स्थिति निश्चय ही समाज व व्यक्ति के संबंधों की आदर्श स्थिति है।

व्यक्ति का समाज के प्रति समर्पण स्वैच्छिक होना चाहिए। इस संदर्भ में भारतीय और पाश्चात्य समाज में तुलना करते समय वे भारतीय समाज की इस विशेषता की सर्वदा प्रशंसा किया करते थे। वे कहते थे कि हमारा समाज व्यक्ति के समाज के प्रति समर्पण का जीता जागता उदाहरण है और वह अनुशासन और आंतरिक प्रेरणा के वशीभूत होकर आत्म त्याग करता है किसी दबाव या भय से नहीं। हमारे देश में व्यक्ति सामाजिक बंधनों को स्वतः ही स्वीकारता है यहाँ तक कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यहाँ व्यक्ति शास्त्रीय निर्देशानुसार पैदा होते हैं, खाते हैं, पीते हैं, विवाह करते हैं, पूरे जीवन में इन निर्देशों का पालन करते हैं और यहाँ तक कि मरते भी निर्देशों के साथ ही हैं।
वस्तुतः विवेकानंद का मत था कि व्यक्ति व समुदाय के हितों के मध्य कोई टकराव है ही नहीं व्यक्तिसमाजके मध्य टकराव को वे पश्चिमी पद्धति का दोष मानते थे। वे व्यक्ति व समाज के हितों के मध्य अनिवार्य एकता में विश्वास करते थे।[11] इसीलिए तो उत्कृष्ट स्वतत्रंता प्रेमी होने के बावजूद इस संदर्भ में उन्हें कोई दुविधा नहीं थी।

निष्कर्ष एक सामाजिक चिंतक के रूप में उन्होंने व्यक्ति के अस्तित्व को गौरवपूर्ण महत्ता देते हुए 'यत्र जीव: तत्र शिव:' का मंत्र दिया। व्यक्ति की आत्मा में ब्रह्म का निवास मानकर और यह मानकर कि एक एक व्यक्ति के सबल होने से ही समाज व राष्ट्र सबल होता है, व्यक्ति को उसकी गरिमा व महत्ता का आभास कराया ।यह विचार निश्चय ही आत्मविश्वास बढ़ाने वाला था। किंतु नकारात्मक स्वतंत्रता से भिन्न समय की आवश्यकता के अनुरूप उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया और जो उनके अद्वैतवादी विचारों का स्वाभाविक प्रतिफल भी था कि समाज भी उसी ईश्वर की अभिव्यक्ति है जिसके वे अंश हैं। व्यक्ति और समाज के हित में कोई विरोध नहीं है तथा व्यक्ति को सहज रूप से समाज के प्रति आवश्यक कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. लाल, बसंत कुमार, समकालीन भारतीय दर्शन, दिल्ली, मोतीलाल बनारसी दास, 1991, पृ. 18-19 2. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-4, कोलकाता, अद्वैत आश्रम, 1989, पृ. 56 3. रोलाँ, रोमां, विवेकानंद की जीवनी, कोलकाता, अद्वैत आश्रम, 2004, पृ. 12 (से उद्धृत) 4. मजूमदार, आर.सी. (संपादित), स्वामी विवेकानंद-सेन्टेनरी मेमोरियल वॉल्यूम, कलकत्ता, सेन्टेनरी कमेटी, 1963, पृ. 488 5. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-4, पृ. 58 6. अवस्थी, अमरेश्वर एवं अवस्थी, रामकुमार, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन, नई दिल्ली एवं जयपुर, रिसर्च पब्लिकेशन, 1997, पृ. 86 7. वर्मा, वी.पी., आधुनिक भारतीय राजनैतिक चिंतन, आगरा, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, 2002, पृ. 136 8. शर्मा, उर्मिला एवं शर्मा, एस.के., इंडियन पॉलिटिकल थॉट, न्यू देहली, अटलांटिक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 1997, पृ. 175 9. विवेकानंद, स्वामी, वर्तमान भारत, नागपुर, रामकृष्ण मठ, 2001, पृ. 20 10. उपर्युक्त, पृ. 20-21 11. चतुर्वेदी, मधुकर श्याम, प्रमुख भारतीय राजनीतिक विचारक, जयपुर, कॉलेज बुक हाउस, 2007, पृ. 554