ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- I February  - 2022
Innovation The Research Concept
भारतीय संस्कृति सद्भाव और अकबर कालीन चित्रकला
Indian Culture Harmony and Akbar Carpet Painting
Paper Id :  15883   Submission Date :  15/02/2022   Acceptance Date :  15/02/2022   Publication Date :  25/02/2022
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जूही शुक्ला
एसोसिएट प्रोफेसर
दृश्य कला और चित्रकारी विभाग
प्रयाग महिला विद्यापीठ डिग्री कॉलेज
प्रयागराज ,उत्तर प्रदेश
भारत
सारांश आज हमारे देश में त़करीबन सर्वत्र प्रेम और सद्भाव का अभाव दिख रहा है। जो थोड़ा बहुत बच रहा है उसे भी विभिन्न प्रचार माध्यमों के भ्रामक माया जाल द्वारा जाने-अनजाने समाप्त करने की कोशिशें जारी हैं। अधकचरे ज्ञान और इतिहास की छेड़छाड़ से उपजा असंतोष एक समुदाय को दूसरे के विरोध में खड़ा कर रहा है। कोई कुछ अच्छा करना चाहता है तो उसे रोका जाता है। बाधाएं उत्पन्न की जाती हैं, दंगे हो जाते हैं, दंगों को रोकने के लिए जो आगे आए वह मार दिया जाता है। लेकिन ज़रा सोचिए क्या मानव जीवन का यही लक्ष्य है? क्या हमारी संस्कृति हमें यही सिखाती है? भारतीय संस्कृति तो इतनी उदार है कि वह हर किसी को अपना लेती हैं। हमारे देश में बहुत से आक्रान्ता आए, कुछ लौट गये कुछ बस गये। जो बस गये उन्होंने हम पर अपना प्रभाव भी डाला।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Today there is a lack of love and harmony in our country almost everywhere. Efforts are on to destroy the little which is left unknowingly through the illusory illusions of various media. The dissatisfaction stemming from incomplete knowledge and manipulation of history is pitting one community against another. If someone wants to do something good, he is stopped. Obstacles are created, riots happen, those who come forward to stop the riots, are killed. But just think, is this the goal of human life? Is this what our culture teaches us? Indian culture is so liberal that it adopts everyone. Many invaders came to our country, some returned, some settled. Those who settled down also made their impact on us.
मुख्य शब्द धर्मनिरपेक्षता एवं सद्भाव, अकबरकालीन चित्र।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Secularism and Harmony, Akbar's Painting.
प्रस्तावना
आज इतने वर्षों बाद हम एक मिली जुली संस्कति के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। विभिन्न धर्म भी साथ-साथ जी रहे हैं। सब का एक ही स्वर मानवता की रक्षा। हमारी कलाओं ने हमें एक होने में बहुत मदद की है। अतः कला के माध्यम से अपनी संस्कृति सद्भाव और अकबर कालीन चित्रकला की बात करते हैं-श्री अरविन्द ने कला पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि प्राचीन और उत्तर कालीन भारत की चित्रकला की कृतियां अपेक्षाकृत बहुत ही कम बच रही है और इसलिए वह (चित्रकला) ठीक उतना ही बडा प्रभाव उत्पन्न नहीं करती जितनी कि उसकी स्थापत्य कला और मूर्तिकला करती हैं। यहाँ तक भी कल्पना की गई है कि वह कला केवल बीच-बीच में ही फूली-फली, अंत में कई सदियों के लिए विलुप्त हो गयी और फिर आगे चलकर मुगलों तथा उसके प्रभाव में आए हुए हिंदू कलाकारों के द्वारा पुर्नजीवित हुई। लेकिन फिर भी हम कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति अत्यन्त प्राचीन काल से ही रंग और रेखा के एक सुविकसित और कुशलता पूर्ण सौन्र्दात्मक प्रयोग पर पहुँचने में निपुण थी और उन क्रमिक उतार चढ़ावों, ह्रास के कालों तथा मौलिकता एवं ओजिस्वता के नये आविर्भावों के लिए अवकाश देते हुए जिनमें से मानव का समाष्टि मन सभी देशों में गुजरता है। अपनी प्रगति और महानता की लंबी शताब्दियों में उसने बराबर ही आत्मअभिव्यंजना के इस रूप का बड़ी दृढ़ता से प्रयोग किया।[1] प्रागैतिहासिक, वैदिक, और बौद्धकला के क्रमिक विकास के साथ भारतीय चित्रकला ने अपने मध्यकाल में खूब तरक्की की। मुगल-कालीन कला ने लघु चित्रों की परम्परा को सुदृढ़ किया हालांकि जहाँगीर का काल मुगल चित्रकारी का स्वर्ण युग था परन्तु इसकी एक सुदृढ़ परम्परा अकबर के ही समय से उभर रही थी। अकबर को भारतीय इतिहास में अकबर महान के नाम से जाना जाता है जो उनकी उदार नीति और सद्भाव की भावना का ही परिणाम है। अकबर बाहर से आये मुगल वंशजों के क्रम में जरूर आते हैं लेकिन भारत की संस्कृति और इतिहास से उनका जुड़ाव था जो उनके कार्यों में दिखता है। अकबर हिन्दुस्तान के मुगल-वंश का तीसरा बादशाह था फिर भी वास्तव में देखें तो इसी ने सल्तनत की बुनियाद पक्की की। अकबर के बाबा बाबर ने 1526 मेें दिल्ली के तख्त पर अधिकार किया था, लेकिन यह हिन्दुस्तान के लिए परदेसी था और बाबर अपने को परदेसी समझता रहा। वह उत्तर से एक ऐसी जगह से आया था जहां उसने अपने मध्य एशियाई देश में तैमूरियों की नई जागृति देखी थी और जहां ईरान की कला और संस्कृति का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा था।[2] लेकिन अकबर ने हिन्दुस्तान में बहुत से लोगों को अपने पक्ष में कर लिया था। अपने इर्द-गिर्द बहुत से प्रतिभाशाली लोगों को इकट्ठा कर लिया था जो उसके आदर्शों के समर्थक थे। इनमंे अबुल-फजल और फैजी नाम के दो भाई थे और बीरबल, राजा मानसिंह और अब्दुल रहीम खानखाना थे। उसका दरबार नये-नये धर्मों के लोगों से और उन लोगों के जिनके पासे नये विचार थे या नये आविष्कार के मिलने-जुलने की जगह बन गया। अकबर हिन्दुओं और मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय हुआ। उसके शासन काल से मुगल वंश की स्थापना इतनी दृढ़ता से हो गई कि मानों मुगलवंश हिन्दुस्तान का अपना वंश हो।[3] हालांकि ‘‘इस्लाम भारत में पहुँच तो सातवीं सदी में ही गया था और मोपला लोग उसी समय मुसलमान भी हो गये थे। किन्तु इस्लाम और हिन्दुत्व के बीच निकट के सम्बन्ध बारहवीं सदी के बाद प्रारम्भ हुए, इस प्रकार इन दोनों धर्मोें को एक भूमि पर रहते हुए प्रायः आठ नौ सौ वर्ष तो हो ही चुके हैं। किन्तु आठ सदियों के बाद भी हिन्दु-हिन्दू और मुसलमान-मुसलमान रह गये। दोनों के बीच जो मिश्रण होना चाहिए था वह नहीं हो सका। एकता का एक आन्दोलन अकबर ने चलाया था।[4] अतः अकबर को हम सद्भाव के हिमायती के रूप में देखते हैं। आज भी भारतवर्ष में अकबर की नीतियों के असंख्य समर्थक है जिस कारण देश में हिन्दू मुस्लिम भाई चारे की बयार बहती रहती है। दंगे होते हैं बावजूद इसके भारतीय जनता उनका विरोध करके अमन और चैन की पैरोकार बनती है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारतीय संस्कृति, सद्भाव और अकबर कालीन चित्रकला का अध्ययन करना है ।
साहित्यावलोकन
अकबर कालीन स्रोतों के अनुसार अकबर एक असीम ऊर्जा सम्पन्न व्यक्ति था और उसका जीवन हममें उसके विरोधाभासों के साथ आकर्षित करता रहा है। एक बालक जिसे 13 वर्ष की आयु में एक अस्थिर साम्राज्य विरासत में मिला। एक राजा जो जीवन पर्यन्त साक्षर नहीं हो सका उसकी याददाश्त बहुत अच्छी थी और पुस्तकों के प्रति उसका लगाव बेइन्तहां था। उसके पुस्तकालय में विश्व की जानी मानी पाण्डुलिपियाँ और पुस्तकें थीं। सत्य की खोज करने वाला ऐसा महान राजा था और इस्लाम के साथ निर्भय होकर एक विरोधाभासी धर्म को भी प्रारम्भ किया।[5]
मुख्य पाठ
मुगल बादशाहों का कला प्रेम और रुचि- भारत में मुगल सल्तनत की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद भारतीय चित्रकला के परम्परागत विकास में एक तीव्र अवरोध सामने आया। भारतीय कलाकारों में जो कला के प्रति आन्तरिक मोह और जीवन के प्रति मौलिक कल्पना थी। मुगल सल्तनत की विपरीत परिस्थितियों के उपस्थित हो जाने के कारण वे सब शिथिल पड़ गये। सुल्तान वंश के धर्म भीरू और संकीर्ण विचार वाले शासकों ने कला को भी धर्म के दायरे में कसकर उसकी स्वतंत्र सत्ता को अपहृत कर दिया। सुल्तान शहंशाहों का यहूदियों की तरह यह विश्वास था कि आकृतियों का अंकन करना खुदा से प्रतिस्पर्धा करना है क्योंकि कयामत के समय जब चित्रकार की कृतियों में प्राण-संचरित करने का प्रश्न उठेगा तो अपना प्रतिस्पर्धी जानकार खुदा उसे गुनाह के लिए दोज़ख में पटक देगा।[6] इस परम्परागत धार्मिक भय के कारण बहत सारे चित्र और मुर्तियां नष्ट की गई। मन्दिर तोड़े गये लेकिन इमारतें बनवाने में मुगल बादशाहों को बहुत दिलचस्पी थी, स्वयं महमूद गजनबी भारत से हिन्दू कारीगरों को गजनी ले गया था और वहाँ भवन निर्माण कराया था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुतुब मीनार का कार्य प्रारंभ करवाया था जिसे इल्तुतमिश ने पूरा किया। खिलजीवंश के शासकों में अलाउददीन को भवन निर्माण का शौक था। भारतवर्ष में मुगलों की सल्तनत कायम हो जाने के बाद चित्रकला के क्षेत्र में एक नयी दिशा प्रकाश में आयी। ‘‘तुर्की रक्त की एक बड़ी विशेषता आरंभ से ही यह रही है कि वह स्वयं गुणज्ञ, विद्यानुरागी और गुणियों तथा विद्वानो का आदर करने वाला वंश था। तैमूर का पुत्र शाहरूख एक अच्छा शायर था और कलाकारों का आश्रयदाता भी था। सुल्तान हुसैन मिर्जा के चित्रकारों में विहजाद ईरानी शैली का अद्भुत चित्रकार था। तैमूर बैसंगर मिर्जा के दरबार में मीर अली नामक एक ऐसा कलाविद् था जिसे फारसी लिपि के सर्वश्रेष्ठ लिपिकार के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त थी।
शहंशाह बाबर एक अद्भुत कला पारखी शासक था। वह एक सिहद्धहस्त कवि और साथ ही सुन्दर गद्य का लेखक था। तुर्की भाषा में उल्लिखित बाबर का आत्मचरित बड़े महत्व की पुस्तक है। उसके महान व्यक्तित्व एवं सर्वांगीण जीवन का परिचय तुर्की भाषा में इस अमर कृति में समाविष्ट है । अपने संस्मरणों में बाबर ने फारसी कला की ओर विशेषतया विहजाद की आलेखन शैली की बड़ी ही समदृष्टिपूर्ण समीक्षा की है। किन्तु यह कला प्रेमी शासक नव स्थापित राज्य के कारण चित्रकला की अभ्युन्नति के लिए जो कुछ कर सकता था वह भी नहीं कर पाया और अपने उच्च कला व्यसन की इस विरासत को अपने पुत्र हूमायूँ के हाथों सौंप कर दिवंगत हुआ।’’[7] बाबर अपने साथ ‘शाहनामा’ की एक सचित्र प्रतिलिपि भी भारत लाया था जो लगभग 200 वर्षों तक शाही पुस्तकालयों में सुरक्षित रही और बाद में अग्रेजों के शासन में लंदन पहुँची और आज वह एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय की सम्पत्ति बनी हुई है।[8]
हुमायूँ के शासनकाल में मुगल दरबार की अपनी केाई कला नहीं थी, हालांकि हूमायूँ को कला रुचि विरासत में मिली थी किन्तु अत्यन्त उतार चढ़ाव वाले उसके जीवन काल में कुछ ठोस कलात्मक कार्य वह न कर सका। परन्तु हूमायूँ एक वर्ष तक ईरान में रहा था और जब 1544 ई. के लगभग वह काबुल लौट रहा था तो तबरेज के ख्वाजा अब्दुस्समद शीराजी और मीर सैयद अली से उसकी भेंट हुई। ये दोनों शीरीक़लम के अच्छे और कुशल चित्रकार थे। अब्दुस्समद शीराजी पशुचित्रण मेेें पारंगत और सैयद अली ग्राम्य चित्रण का धनी था। दिल्ली में अपनी दशा ठीक कर लेने के बाद हूमायूँ ने इन दोनों कलाविदों को सम्मानपूर्वक अपने यहाँ आमंत्रित किया और हूमायूँ की मृत्यु के बाद गुणग्राही अकबर के दरबार में भी ये दोनों बड़े सम्मान के साथ अपनी कला का सृजन करते रहे। ऐसा कहा जाा है कि इन दोनों चित्रकारों ने ईरानी चित्रशैली को भारतीय शैली में ढाल कर चित्रकला के क्षेत्र में एक नये युग का आरंभ किया। इनके अतिरिक्त नादिर-उल-मुल्क हूमायूँ शाही, मीर सैयद अली ‘जुदाई’ और कमालउ्दीन बहजाद आदि मुसीव्विरों की रची हई ‘दास्ताने-ए-मीर-हम्जा’, ‘नासिर-उल-उमरा’, ‘हम्जानामा’ आदि सचित्र पोथियाँ हूमायूँ के समय की प्रसिद्ध और महत्वपर्ण पोथियां हैं। ‘हम्जानामा’ तो मुगलकला का उद्गम ग्रन्थ है। हूमायूँ के सम्बन्ध में विद्वानों का कहना है कि वह इतना ज्यादा कला प्रेमी था कि युद्ध के समय में भी सचित्र पोथियाँ अपने साथ रखता था और जब अवकाश मिलता तो उन्हें देखकर अपनी कलाभिरुचि को संतुष्ट कर लेता था।
हूमायूँ की मृत्यु के बाद 1556 में अकबर भारत का शासक बना। एच जी वेल्स ने लिखा है कि ‘‘अकबर भारत के अनेक शासकेां में श्रेष्ठ था। उसकी महानता उसकी चिन्तनशीलता, राजनैतिक दूरदर्शिता, विद्वता और विद्यानुराग में सन्निहित है।’’[9] अकबर की विलक्षण सूझ-बूझ और कार्य प्रणाली ने अल्पकाल में ही लोगों के दिलों पर उसके व्यक्तित्व एवं विश्वास की ऐसी छाप डाल दी जिससे असंभव कार्य भी संभव होता दिखाई देने लगा। अकबर को अद्वितीय कार्य क्षमता वाला और दूरदर्शी बनाने में सबसे बड़ी सहायता उसकी समन्वयात्मक नीति ने की। रात-दिन के अविरत श्रम से एक ओर तो उसने धार्मिक द्रोह से भड़की हुई प्रजा को अपने सद्गुणों से अपनी ओर आकर्षित किया और दूसरी ओर उसने कुल क्रमागत अपने कला प्रेम की विरासत को भी कायम रखा उसने अपने पिता से भेंट रूप में पाये हुए अब्दुस्समद और मीर सैयद अली जैसे चित्रकारों को पर्याप्त मात्रा में उत्साहित किया। इन दोनों महान कलाकारों ने अकबर की रुचि और नीति के ही अनुसार कला के क्षेत्र में भी सामंजस्य की भावना भर दी। उन्होंने ईरानी आकारों को भारतीय रंगों में संजोंकर अकबर के विचारों को साकार कर दिया। इस्लाम के एक पौराणिक वीर पुरुष के जीवन पर 12 खण्डों एवं 14 सौ शेरों में उल्लिखित ‘दास्तान-ए-मीर-हम्जा’ नामक पुस्तक के लगभग 1400 दृष्टान्त चित्रों की रचना कर इन दोनों कलाकारों ने अपने अथाह ज्ञान और अपरिमित सााधना का परिचय देकर, अपने आश्रयदाता के यश को अमर बनाया।[10]
अकबर के कलाप्रेम और गुणग्राही स्वभाव का वास्तविक पता हमें अबुल फजल की पुस्तक आई-ने-अकबरी से मिलता है। इस पुस्तक में लिखा है कि अकबर का बाल्यकाल से ही चित्रकला के प्रति स्वाभाविक झुकाव था। उसने बड़े-बड़े कलाकारों को अपने दरबार में आसरा दिया और उन्हें उचित धन और सम्मान प्रदान करके चित्रकला की अधिकाधिक उन्नति के लिए प्रोत्साहित किया। ऐसे तक़रीबन सौ से अधिक चित्रकार उसके दरबार की शोभा बढ़़ाते थे और उनके आश्रय में रहने वाले चित्रकारों की प्रसिद्धि ईरान और यूरोप तक फैली थी।
आई-ने-अकबरी में लिखा है कि मुस्लिम चित्रकारों की अपेक्षा हिन्दू चित्रकार अधिक निपुण, सूक्ष्मदर्शी और भावप्रवण थे। उनकी कलाकुशलता के समक्ष विश्व के थोड़े से ही चित्रकार ठहर सकते थे। चित्रकला से नफ़रत करने वाले लोगों से अकबर को नफ़रत थी। उसका विश्वास था कि कलाकार ही एकमात्र ऐसा उत्तम प्रकृति का होता है जिसमें ईश्वर को हृदयंगम करने की क्षमता होती है। अकबर का यह विचार, इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध होते हुए भी बड़ा ऊँचा था। कला पे्रेम उसमें जन्मतः था और हिन्दू पत्नियों के सहयोग से उसकी रुचि में काफी परिष्कार हुआ एवं उसमें गुणग्राहकता का मुद्दा बढ़ा। उसके अंतःपुर, शयनकक्ष, और अतिथिशाला आदि सुन्दर-सुन्दर चित्रों से सुसज्ज्ति रहते थे। दीवारों और फर्श पर भी कुछ मनोरम भित्ति चित्र अंकित थे। जिनमें सूफियानापन एवं हृदय को मोह लेने वाला आकर्षण भरा रहता था। अकबर के दरबारी चित्रकारों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे जिनमें ख्वाजा अब्दुस्समद, मीर सैयद अली, जनशेद खुसरव कुली दसवंत, बसावन, मुकुंद, माधो, केसो, जगन्नाथ, गोवर्धन, गोविन्द, मथुरा, महीश, ताराचन्द साॅवलदास, खैमकरण, नैहल, हरवंश लाल, मिसकीन, फर्रुख, ‘कुलमाक’ आदि के नाम उल्लेखनीय है।
श्री रायकृष्ण दास ने अकबरकाल में चित्रों को चार श्रेणियों में बाँटा है-
1. गै़र भारतीय कथाओं के चित्र-हमजाचित्रावली (1560-1575 ई.) के मध्य निर्मित हुई।
2. भारतीय कथाओं के चित्र-रामायण, महाभारत, नैषधचरित पर आधारित चित्र इसके अन्र्तगत आते हैं। इन चित्रों में कश्मीरी और राजस्थानी शैली की प्रधानता है। 
3. ऐतिहासिक चित्र बादशाह अकबर का शाही पोथी खाना करीब (24000) चैबीस हजार हस्तलिखित कलापूर्ण पोथियों से सुसज्जित था। जिनमें ऐतिहासिक महत्व की कई पोथियां थी।
4. व्यक्तिचि-व्यक्तिचित्रों में अकबर कालीन चित्रकारों को निपुणता प्राप्त थी, अबरकालीन, व्यक्तिचित्र आज विश्व भर के संग्रहालयों में संगृहीत हैं। अकबर के पोट्रेट या व्यक्ति चित्रों का बहुत शौक था वह स्वयं भी व्यक्ति चित्र बनाया करता था। विशिष्ट व्यक्तियों के चित्रों का उसने एक अलबम भी तैयार करवाया था। कलाकारों को प्रोत्साहन और कला के समुचित मूल्यांकन हेतु प्रति सप्ताह उसके दरबार में चित्रों की प्रदर्शनी का भी आयोजन होता था। ऐसी कला प्रदर्शनी से समाज में कला के प्रति रुचि जागृत होती थी। अकबर ने अलग से कला निकेतन की भी स्थापनाकी थी जिसका अध्यक्ष अब्दुस्समद था, जो प्रत्येक सम्मानित अतिथि का बड़ी रुचि से अपने संग्रह को दिखाया करता था।
अकबर ने पुस्तकों के आधार पर चित्रावली तैयार कराने में विशेष रुचि दिखाई। फारसी और संस्कृत की समान रूप से हस्तलिखित पोथियों के दृष्टान्त चित्रों को अत्यन्त खूबसूरती से तैयार करवाया। ऐसे ग्रन्थ धार्मिक, शास्त्रीय, काव्य, कथा, नीति, इतिहास, नाटक जीवनी आदि सभी विषयों के थे। अकबर के शाही पोथीखाने में हजारों की संख्या में ये सचित्र पोथियां थीं-‘किस्सा अमीर हम्जा’, शाहनामा तवारीख-खानदान-ए-तैमूरियां, रज्मनामा (महाभारत का अनुवाद) बाकआत-बाबरी (बाबर की आत्मकथा) अकबरनामा, अनवार-सुहैली (पंचतंत्र का अनुवाद) अयर दानिश (पंचतंत्र) तारीख रशीदी, दराबनामा, खमसानिजामी, बहारिस्ताने जामी, रामायण, हरिवंश, महाभारत, योग वशिष्ठ, नल दनयन्ती कथा, शकुन्तला, कथा सरित सागर, कालिया दमन, चंगेजनामा, जाफरनामा, दशावतार। कृष्णचरित, तूतीनामा, अजीबुलमखलूकात खम्सानिजामी, निजामी के काव्य जसवंत तथा बसावन की कृतियाँ, आइ-ने-अकबरी आदि। 
 अकबर का शाही पुस्तकालय अपने समय के तीन विभिन्न बड़े नगरों मंें स्थापित था-आगरा, दिल्ली और लाहौर। इन पुस्तकालयों की अनेक पोथियाँ ब्रिटिश म्यूजियम लंदन, केंसिंगटन साउथ संग्रहालय, लूव्र संग्रहालय पोरिस (फ्रांस) चेस्टवेरी संग्रह लंदन, राॅयल एशियाटिक सोसाइटी लंदन और अमेरिका तथा यूरोप के निजी एवं सार्वजनिक संग्रहालयों में पहुँची।
अकबरकालीन सचित्र पोथियों की उपलब्धि भारत के जिन संग्रहालयों में संभव है उनके नाम हैं-खुदाबख्श लाइब्रेरी पटना, राजकीय पोथी खाना जयपुर, राजकीय संग्रहालय हैदराबाद, भारत कला भवन, वाराणसी, महाराज बलरामपुर का संग्रहालय, राजकीय संग्रहालय रामपुर, राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली आदि।

धर्मनिरपेक्षता एवं सद्भाव

अकबर सफल राजनीतिज्ञ था वह जानता था कि भारत पर बलपूर्वक शासन नहीं किया जा सकता। यहाँ का हिन्दू धार्मिक हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकता। उसके पूर्व के शासक निर्मम, कठोर और धर्मान्थ थे जिन्होंने हिन्दुओं और हिन्दू धर्म की उपेक्षा की और बलपूर्वक इस्लाम का प्रचार किया। अकबर ने उदारता और दूरदर्शिता से काम लिया। धर्म निरपेक्षता की नीति अपनाकर उसने अपनी सहिष्णुता की नीति का परिचय दिया। हिन्दू जैन, बौद्ध, फारसी ईसाई आदि धर्मावलम्बियों के लिए उसने फतेहपुर सीकरी में एक इबादत खाना की स्थाना की और एक नये धर्म दीन-ए-इलाही को प्रोत्साहित किया। यह धर्म सभी धर्मों के मूल सिद्धान्तों पर आधारित था। इबादतखाने में सभी धर्म के विद्वान आमंत्रित थे। अकबर एकाग्रचित होकर उनकी धार्मिक चर्चा सुनता था। उनके विचारों से सहमत न होने पर वह आपत्ति करता था। अबुल फजल लिखता है कि ‘‘श्रीमान ने ईश्वर की प्राप्ति के लिए अथक परिश्रम किये। इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिए उसने अनेक सत्य और धर्म के दावेंदारों, ख्यातिपूर्ण विद्वानों विभिन्न वेश-भूषा वाले साधु-सन्तों, योगियेां और अनेक वर्गों के लोगों से सम्पर्क किया। किन्तु वह सन्तुष्ट न हो सका।[11]

अकबर की साधु-सन्तों पर सच्ची आस्था थी, वह उनसे उनकी कुटिया, मस्जिद और दरगाहों पर मिलने के लिए पैदल जाया करता था। अकबरनामा में अकबर के धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत अनेक उल्लेख और चित्र देखे जा सकते है। ख्वाजा मुइनुददीन चिश्ती की दरगाह के दर्शन करते हुए अकबर नामक चित्र में अकबर के आने पर ख्वाजा के उत्तराधिकारियों व साथियों द्वारा उनके स्वागत का दृश्य अंकित किया गया है। नीचे की ओर अकबर के साथियों को उत्सुकता से इन्तजार करते हुए तथा उसे फकीरों को उपहार बांटते अंकित किया गया है। 
अकबर हिन्दू धर्म से प्रभवित था वह रक्षाबन्धन, दशहरा, दीवाली, शिवरात्रि आदि हिन्दू त्योहारों में भाग लेता था। वह सूर्योपसना एवं ग्रहों की शक्ति में भी विश्वास रखता था। वह हिन्दू देवी देवताओं के प्रति समर्पित था और विद्वान बाम्हणों से उनके विषय मेें जानने की इच्छा रखता था। इस उपासना का प्रेरक बीरबल था। अकबर सूर्योदय के पूर्व आधीरात को सूर्य मन्त्र का जाप करता था। अबुल फजल लिखता है कि ‘‘महल के ऊपरी भाग में एक कमरा था जो ख्वाबगाह के नाम से प्रसिद्ध था। अकबर उसकी खिडकी पर बैठता था और महाभारत का अनुवाद करने वाले ब्राहमण को चारपाई पर बिठलाकर रस्सियों से ऊपर खिंचवा लिया करता था। इस प्रकार वह ब्राम्हण अधर में (न जमीन पर रहता न आमसान पर) लटका रहता था। खिड़की के निकट पहुॅंचने पर अकबर उनसे अग्नि, सूर्य, ग्रहों और अनेक देवी देवता-ब्रम्हा, विष्णु महेश, राम, कृष्ण आदि की उपासना विधि और वैदिक-मंत्र सीखा करता था। वह पौराणिक कथाओं को भी ध्यान से सुनता था और चाहता था कि हिन्दुओं के सभी धार्मिक ग्रन्थों के अनुवाद फारसी में किये जायें। उसने विभिन्न धर्मों को परस्पर निकट लाने उनमें समन्वय व सामंजस्य की भावना उत्पन्न करने का प्रयास किया।
अकबर के समय में जहाँ समकालीन धार्मिक व सामाजिक भावनाओं का सर्वतोमुखी विकास हुआ वहाँ ललित-कलाओं और कलाकारों को भी गौरवमय स्थान प्राप्त था। उसने आगरा के लाल किले के अतिरिक्त फतेहपुर-सीकरी, लाहौर और इलाहाबाद में अनेक भव्य इमारतें बनवायी। कला की विभिन्न शैलियों, प्रतीकों और उनकी मौलिक विशेषताओं को सर्वाधिक महत्व दिया। इनसे उसकी कला-निष्ठा स्पष्ट है। जैसे-जैसे उसने अपनी उदारता का परिचय दिया, कला का प्रचार और प्रसार बढ़ता गया। साम्प्रदायिक सद्भाव का हामी एक चित्र ‘कृष्णोपासक’ है। जिसमें अब्दुर्रहीमखानखाना को भगवान कृष्ण की उपासना करते चित्रित किया गया है।
आरंभ में तो अकबर इस्लाम धर्म से प्रभावित था। लगभग 20 वर्षों तक उसने इस्लाम धर्म का कट्टरता से पालन किया। वह नमाज पढ़ता था। अजान देता था और मस्जिद में झाड़ू लगाता था। मुल्ला और काजियों के प्रति उसका झुकाव था। राज्य के मुकद्दमों का फैसला वह मुल्ला-काजियों की अनुमति से करता था। एक ओर अकबर जहाँ इस्लाम धर्म को दैवी वरदान मानता था वहाँ दूसरी ओर सूफी सन्तों तथा जैन और हिन्दू आचार्यों के विचारों का उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि धीरे-धीरे वह इस्लाम का विरोध्ीा बन गया।[12]  साप्ताहिक नमाज की मनाही करवा दी। मस्जिदों के बनने पर प्रतिबंध लगवा दिया। जब उसे इतने पर भी संतोष नहीं हुआ तो मस्जिदों को हिन्दू चैकीदारों को दे दिया और मुल्ला व शेखों को निर्वासित कर दिया । रामेश्वर वर्मा ने लिखा है कि उसका राज्य केवल इस्लामी मुसलमानों के लिए नहीं था वरन् सभी धर्मावलम्बियों के लिए था। इस्लामी जब कहते कि कुरान शाश्वत है और ईश्वर की वाणी है तो वह उनसे प्रमाण मांगता था।[13] वह (अकबर) कहता है-इस्लाम धर्म पर मुझे अथाह विश्वास था। मैंने उसका कट्टरता से पालन किया। किन्तु ज्यों-ज्यों मेरा ज्ञान बढ़ता गया मेरी आत्मग्लानि बढ़ती गई मैं सोचने लगा कि धार्मिक विवादों और मतभेदों में एकांकी निर्णय लेना अनुचित है। ज्ञान और सत्य के प्रकाश में निर्णय लेना ही न्याय संगत होगा।14 सभी मनुष्य ईश्वर की सन्तानें है। उनका अपना कोई अलग धर्म नहीें है। ईश्वर ने बादशाह को जाँति-पाॅंति व ऊँच-नीच के भेदभाव से परे जन कल्याणा के लिए संसार में भेजा है। इसलिए उसे यही समझना चाहिए कि सभी धर्म उसी के हैं। कुरान में जीव जन्तुओं के चित्र बनाना वर्जित है किन्तु अकबर ने चित्रकला को ईश्वर के करीब मानते हुए कुरान के इन नियमों की उपेक्षा की।
आज अकबर कालीन चित्रों में बरते गये सौहार्द और प्रेम की जरूरत ज्यों की त्यों बनी है। वर्तमान वैमनष्यपूर्ण समाज को अकबर के समय की सकारात्मक सोच को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है। इलाहाबाद नगर के नामकरण की टकराहट हो या इसी प्रकार का कुछ और वाक़या, हमें पूर्वागह छोडकर मानव जीवन के लिए सर्वथा उपयोगी नीतियों का ही पालन करना चाहिए। अकबर के भेदभाव रहित रवैये का असर उसके समस्त क्रियाकलापांे में दिखता है।सचित्र पोथियों में इसका प्रमाण है। आम जनता एक दंगामुक्त अमन चैन और भाईचारे का जीवन चाहती है। इसीलिए अकबर महान की नीतियों को आज भी मान्यता है।

अकबरकालीन चित्र

अकबर की चित्रशाला के अनेक उस्तादों की कला का वर्णन आवश्यक है। इस समय ईरानी कला की जगह भारतीय शैली ने ली। हिन्दू चित्रकारों और ईरानी चित्रकारों में एक बड़ा अन्तर वर्णमाला  या अंक लेखन के संबंध में था। हिन्दू चित्रकारों ने अपने दृष्टान्त चित्रों के साथ जिस वर्णमाला या अंकमाला का उल्लेख किया है वह बहुत ही भद्दी है, बल्कि सुंदर चित्रों के शीर्ष या अगल-बगल लिखी हुई इस प्रकार की लिपि से चित्रों का आकर्षण भी कम हो जाता है, लेकिन फ़ारसी मुसव्विरांे में यह आदत देखने को नहीं मिलेेगी। फारसी कलाकारों में यह प्रचलन था कि एक पोथी को लगभग तीन लोग पूरा करते थे। उनमें पहिला शेर लिखता, दूसरा चित्रकार होता और तीसरा उनमें रंग विधान करता। ऐसे कलाकारों में क़ातिब, मीर अली, सुल्तान अली, मुहम्मद हुसैन, उस्ताद गफ्फारी, अब्दुल अलरहीम आदि के नाम प्रमुख हैं।

निष्कर्ष भारतीय चित्रकार पटचित्रों और भित्ति चित्रों में माहिर थे। रंग-विधान उनका इतना आकर्षक नहीं था। किन्तु ईरानी कलाकारों के सहयोग से उन्होंने रंग विधान की बारीकियों को अच्छी तरह से हृदयंगम करके अपनी कला में प्राण फूंक दिया। अकबर की चित्रशाला में कश्मीर, लाहौर और गुजरात से चित्रकारों को आमंत्रित किया गया था। इनमें भी गुजराती चित्रकारों की अधिकता एवं अधिक प्रतिष्ठा थी। जीवनी एवं ऐतिहासिक ग्रन्थों को लिखने-लिखाने तथा उन्हें चित्रित कराने का मुगल बादशाहो को बड़ा शौक था। अकबर के युग में पुस्तकों को चित्रित करने की परम्परा में काफी वृद्धि हुई पोथीखाने के साथ उसने एक चित्रशाला की भी स्थापना करवायी थी।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. भारतीय संस्कृति के आधार, श्री अरविन्द पृष्ठ सं. 288 2. हिन्दुस्तान की कहानी, नेहरू, पृ. सं. 188 3. वही, पृष्ठ 180 4. संस्कृति के चार अध्याय दिनकर, पृष्ठ 355 5. पेन्टिंग फ्राम द अकबरनामा गीति सेन, पृष्ठ 21 6. भारतीय चित्रकला, वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ सं. 178 7. वही 8. वही पृष्ठ सं. 179 9. भारतीय चित्रकला, चित्रकला के आधुनिक परिवेश में विश्वविद्यालयों की भूमिका डाॅ. एस. एन. सक्सेना पृष्ठ सं. 50 10. भारतीय चित्रकला, वाचस्पति गैरोला, 179 11. इम्पी वेलीज रिलीजस थाट इन मुगल पेन्टिंग, पृ. 5 12. भारतीय चित्रकला, डाॅ. एस. एन. सक्सेना, पृ. सं. 53 13. वही 14. इम्पी वेलीज, ‘‘रिलीजस थाॅट इन मुगल पेन्टिंग’’-पृ. सं. 5