ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
Anthology The Research
विवेकानंद के चिंतन में स्वतंत्रता की अवधारणा
Concept of Freedom in the Thought of Vivekananda
Paper Id :  16919   Submission Date :  02/11/2022   Acceptance Date :  20/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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संध्या गुप्ता
सह आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश विवेकानंद स्वतंत्रता के प्रचंड प्रवक्ता के रूप में सामने आते हैं, चाहे वह स्वतंत्रता आध्यात्मिक हो, मानसिक हो या फिर शारीरिक। उनके विचारों में स्वतंत्रता के प्रति जो उत्कट आग्रह दिखाई देता है उसने उस समय राष्ट्रीय स्वाधीनता की ललक नहीं जगाई होगी यह संभव नहीं लगता। उनका मानना था कि स्वाधीनता को पूर्ण भाव से पाने के लिए ही हम सब चेष्टाएं कर रहे हैं। स्वाधीनता ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है और मानव ही क्यों जहां भी किसी प्रकार का जीवन है,वहीं मुक्ति का अनुसंधान है। प्रकृति के भीतर स्वाधीनता या मुक्ति नहीं है, वहां नियम ही नियम हैं। प्रकृति के नियमों के पालन से नहीं बल्कि प्रकृति के उल्लंघन से मनुष्य की प्रगति का निर्माण हुआ है। स्वतंत्रता वृद्धि की एकमात्र शर्त है। पर स्वतंत्रता उच्छृंखलता नहीं। उनकी स्वतंत्रता समानता का निषेध भी नहीं बल्कि उसके समरूप है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Vivekananda emerges as a fierce spokesperson of freedom, be it spiritual, mental or physical freedom. It does not seem possible that the fervent urge towards independence that is visible in his thoughts would not have awakened the yearning for national independence at that time. He believed that we are making all efforts to get freedom in full sense. Freedom is the ultimate goal of human life and why only human beings, wherever there is any kind of life, there is the research of liberation. There is no freedom or liberation within nature, there are only rules. Man's progress has been created not by following the rules of nature but by violating nature. Freedom is the only condition of growth. But freedom is not disorderly. His freedom is not even a negation of equality but is analogous to it.
मुख्य शब्द विवेकानंद, स्वतंत्रता ,प्रकृति, समानता ,व्यक्ति ,जाति ,राष्ट्र, प्रगति, मुक्ति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vivekananda, Freedom, Nature, Equality, Individual, Caste, Nation, Progress, Liberation
प्रस्तावना
मूलतः सन्यासी विवेकानंद (1863 -1902 )जिन्होंने दुर्दशा ग्रस्त भारतीय समाज को देखकर अपना पथ परिवर्तित किया और समाज को अपनी कर्मभूमि बनाया, का राजनीतिक सिद्धांत से जरा भी सरोकार नहीं था। किंतु स्वतंत्रता पर व्यक्त उनके विचार उन्हें स्वतंत्रता का उत्कट आग्रही सिद्ध करते हैं। भले ही एक राजनीतिक सिद्धांतवेत्ता की तरह उन्होंने स्वतंत्रता पर विचार न किया हो पर उनकी आध्यात्मिक स्वतंत्रता की अवधारणा ने उस समय स्वतंत्रता के राजनीतिक अर्थों का निरूपण किया। स्वतंत्रता पर उनके विचार बेहद क्रांतिकारी थे। भारतीय चिंतन में व्यक्त स्वतंत्रता संबंधी विचारों का अवगाहन व प्रसार आवश्यक है।
अध्ययन का उद्देश्य भारतीय राजनीतिक चिंतक विवेकानंद के चिंतन में व्यक्त स्वतंत्रता के मूल स्वरों का प्रतिपादन करना। स्वतंत्रता की परंपरागत पाश्चात्य अवधारणा की तुलना में विवेकानंद के स्वतंत्रता संबंधी विचारों का मूल्यांकन करना।
साहित्यावलोकन

विवेकानंद चिंतन पर अद्वैत आश्रम कोलकाता द्वारा प्रकाशित विवेकानंद साहित्य का प्रमुख रूप से अध्ययन किया गया है। इसके अतिरिक्त  विवेकानंद चिंतन पर उपलब्ध अन्य पुस्तकों एवं टीकाओं का जैसे रोमा रोलां कृत 'द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल',ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स- लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानंदके .एस. भारती कृत इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एमिनेंट थिंकर्सजवाहरलाल नेहरू  कृत डिस्कवरी ऑफ इंडिया ,कतिपय आलेखों जैसे द रिलेशंस ऑफ तिलक एंड विवेकानंद- वी. पी. वर्मा,अन्य शोध पत्रों जैसे रिलीजन फॉर सेक्यूलर एज: मैक्स मूलर ,स्वामी विवेकानंद एंड वेदांता-जीन सी.मेकफॉल  (2021), स्वामी विवेकानंद: हिज लाइफ लेगेसी  एंड लिबरेटिव  एथिक्स- माइकल बर्ले ( 2021) का भी अध्ययन किया गया है। अन्य शोध पत्रों से इतर यह शोध पत्र विवेकानंद के चिंतन में स्वतंत्रता के  मूल स्वरों के प्रतिपादन का प्रयास करता है।

मुख्य पाठ

विवेकानंद स्वतंत्रता के प्रचंड प्रवक्ता के रूप में सामने आते हैं चाहे वह स्वतंत्रता आध्यात्मिक हो, मानसिक हो या फिर शारीरिक। भारत की स्वाधीनता के लिए वे खुले तौर पर भले ही सामने नहीं आये पर उनके विचारों में स्वतंत्रता के प्रति जो उत्कट आग्रह दिखाई देता है उसने उस समय राष्ट्रीय स्वाधीनता की ललक नहीं जगाई होगी यह संभव नहीं लगता। उनकी प्रसिद्ध संन्यासी का गीतनामक कविता से उस समय राष्ट्रवादी प्रेरणा लिया करते थे, जिसमें स्वतंत्रता के प्रति उनका आग्रह मुक्त रूप से दिखाई देता है-

‘‘अपनी बेड़ियों को तोड़ डाल ! उन बेड़ियों को जिन्होंने तुझे बाँधकर रखा है।

वे दीप्तिमान सोने की हों, अथवा काली निम्न कोटि की धातु की,

प्रेम, घृणा, शुभ, अशुभ-द्वैधता के सभी जंजालों को तोड़ डाल।

तू समझ ले कि दास दास है, उसे प्रेम पूर्वक पुचकारा जाया,

अथवा कोड़ों से पीटा जाये, वह स्वतंत्र नहीं है,

क्योंकि कि बेड़ियाँ सोने की ही क्यों न हों, बाँधने के लिए कम मजबूत नहीं होतीं,

इसलिए हे वीर संन्यासी! उन्हें उतार फेंक और बोल - ओम् तत् सत् ओम्।‘‘[1]

चार जुलाई के प्रतिशीर्षक कविता (4 जुलाई 1776 को अमेरिका में जिस स्वतंत्रता की स्थापना हुई उससे वे विशेष रूप से आह्लादित थे व समस्त विश्व में उसके प्रसार के प्रति आशान्वित थे।) में उन्होंने लिखा-

‘‘तुमको कोटिशः अभिवादन, हे प्रकाश के प्रभु!

आज तुम्हारा नव स्वागत,

हे दिवाकर ! आज तुम स्वतंत्रता से विश्व को प्रदीप्त कर रहे हो।

हे प्रभो ! अपने अनवरोध्य मार्ग पर निरंतर बढ़ते जाओ।

जब तक कि तुम्हारे मध्याह्न का प्रकाश विश्व भर में न फैल जाये,

जब तक हर देश प्रकाश को प्रतिबिम्बित न करने लगे,

जब तक कि पुरूष और स्त्रियाँ मस्तक ऊँचा करके,

अपनी बेड़ियों को टूटा हुआ न देख लें,

और जब तक कि यौवन के आह्लाद में उनका जीवन नया न हो जाये।’’[2]

राष्ट्रीय स्वतंत्रता के अतिरिक्त भी उनके विचार स्वतंत्रताके भाव से ओत-प्रोत थे। स्वाधीनता उनकी नजर में बहुत महत्वपूर्ण थी। वे स्वाधीनता को प्राणी मात्र का विशेषत्व बताते हुए प्राणीऔर जड़में पृथकता स्वाधीनता के आधार पर ही करते हैं। उनका मानना था कि स्वाधीनता को पूर्ण भाव से पाने के लिए ही हम सब चेष्टाएँ कर रहे हैं। स्वाधीनता लाभ ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है और मानव ही क्यों जहाँ भी किसी प्रकार का जीवन है वहीं मुक्ति का अनुसंधान है, सभी धर्म व विज्ञान भी इसी एक लक्ष्य-स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हैं।[3] प्रकृति के भीतर स्वाधीनता या मुक्ति नहीं है वहाँ नियम ही नियम हैं। वे स्वतंत्रता के सशक्त पैरवीकार के रूप में सामने आते हैं जब वे कहते हैं कि मैं इस सिद्धांत से असहमत हूँ कि प्रकृति के नियमों का पालन ही मुक्ति है बल्कि प्रकृति के उल्लंघन से ही मनुष्य प्रगति का निर्माण हुआ है। जैसे, प्रकृति ने उसे घर नहीं दिए पर उसने घर बनाए, प्रकृति ने उसे नग्न बनाया पर वह कपड़ों से तन ढकता है। हम प्रकृति के सिर्फ एक ही नियम का पालन करते हैं वह है नियमों का उल्लंघन[4] इसी सोच के साथ, वे सामाजिक व राजनीतिक तथा अन्यत्र भी, बहुत ज्यादा नियमों के खिलाफ थे। वे चाहते थे नियम कम से कम हों, उन्होंने कहा, ‘‘समाज, राजनीति, धर्म किसी भी क्षेत्र में नियमों के अनुवर्तन के फलस्वरूप हम केवल जड़ पदार्थ में ही परिणत हो जायेंगे। यह जीवन स्वतंत्रता का एक उत्कट आग्रह है, नियमों का आधिक्य है मृत्यु।’’[5]

वे स्वतंत्रता को वृद्धि की एकमात्र शर्त मानते थे। उनका कहना था कि ‘‘शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वतंत्रता की ओर अग्रसर होना तथा दूसरों को उसकी ओर अग्रसर होने में सहायता देना मनुष्यता का सबसे बड़ा पुरस्कार है। जो सामाजिक नियम स्वतंत्रता में बाधा डालते हैं उन्हें शीघ्र नष्ट कर देने का प्रयास करना चाहिए और उन संस्थाओं को प्रोत्साहन देना चाहिए जिसके द्वारा मनुष्य स्वतंत्रता के मार्ग पर आगे बढ़ता है।’’[6] धार्मिक क्षेत्र में भी वे इसी उदारतावाद के समर्थक थे। वे कार्य व विचार की स्वतंत्रता चाहते थे। उन्होंने कहा, ‘‘जात-पाँत रहनी चाहिए या नहीं, महिलाओं को पूर्ण समानता मिलनी चाहिए या नहीं मुझे उससे कोई वास्ता नहीं। विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति और कुशलता का एकमेव साधन है। जहाँ यह स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ व्यक्ति, जाति, राष्ट्र की अवनति अवश्य होगी।’’[7] बल्कि उन्होंने कहा इच्छा की स्वतंत्रता तब होती है जब तुम यह अनुभव करो कि तुम कर्म करने में स्वतंत्र हो।[8] व्यक्तिगत स्वतंत्रता के तीव्र पक्षधर विवेकानंद का मानना था कि व्यक्ति का विकास स्वतंत्रता में ही होता है और समाज व्यक्तियों का ही समूह है इसलिए विकसित समाज के लिए स्वतंत्रता आवश्यक है।

पर स्वतंत्रता उच्छृंखलता नहीं। उनका भी मानना था कि शक्ति के साथ दायित्व संयुक्त रहता है इसलिए वे कहते हैं, ‘‘स्वतंत्रता का निश्चय ही यह अर्थ नहीं है कि मैं और आप किसी संपत्ति को हड़पना चाहें तो ऐसा करने से हमें रोका न जाए, किन्तु इस प्राकृतिक अधिकार का अर्थ यह है कि हमें अपने शरीर, बुद्धि और धन का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करने दिया जाये और हम दूसरों को कोई हानि न पहुँचायें और समाज के सभी सदस्यों को धन, शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने का समान अधिकार हो।’’[9]  विवेकानंद के ये विचार समानता व स्वतंत्रता के चिर संघर्ष का संतुलित हल है जो आधुनिक चिंतन के अनुरूप है।

उनकी स्वतंत्रता समानता का निषेध नहीं, बल्कि कदाचित् उसके समरूप है। उनका मानना था कि समाज में स्वतंत्रता की वास्तविक रूप में स्थापना तब ही हो सकती है जब किसी भी व्यक्ति या वर्ग को विशेषाधिकार न दिए जायें। क्योंकि विशेषाधिकार एक की स्वतंत्रता को दूसरे की इच्छा पर निर्भर बनाकर उस व्यक्ति की स्वतंत्रता को अवास्तविक बना देते हैं। अद्वैतवादी विवेकानंद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति दैवीय है और प्रत्येक में समान सामर्थ्य है केवल उसके प्रकटीकरण में अंतर है। इसलिए आवश्यक है कि उस सामर्थ्य को स्वतंत्र रूप से प्रकट करने के लिए सबको समान अवसर मिले।[10]

श्री जवाहर लाल नेहरू ने स्वतंत्रता के प्रति उनके गहन प्रेम को प्रकट करते हुए लिखा, ‘‘वे राजनीति से अलग रहे, उन्हें अपने वक्त के राजनीतिज्ञ नापसंद थे। लेकिन उन्होंने बराबरी और जनता को उठाने की जरूरत पर बार-बार बल दिया। सिर्फ सोचने विचारने और काम-काज की आजादी ही जिंदगी की तरक्की और खुशहाली की शर्त है।’’[11]

निष्कर्ष उनके स्वतंत्रता संबंधी विचार जो वस्तुतः आध्यात्मिक स्वतंत्रता से अधिक संबंधित हैं तथा जो स्वतंत्रता की चेष्टा को प्राणी मात्र की विशेषता तथा मानव जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं, राजनीतिक दृष्टि से भी स्वतंत्रता की अवधारणा को मजबूत आधार प्रदान करते हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता को विकास की एकमात्र शर्त मानना, कार्य, विचार की स्वतंत्रता का पक्ष पोषण करना उन्हें बड़ा स्वतंत्र प्रेमी सिद्ध करता है। प्रकृति के नियमों के उल्लंघन से मानव प्रगति का निर्माण मानने वाले विवेकानंद के विचार पाश्चात्य उदारवादी विचारों की तुलना में कहीं अधिक क्रांतिकारी प्रतीत होते हैं। स्वतंत्रता को प्राकृतिक अधिकार मानते हुए भी किसी भी व्यक्ति या वर्ग विशेष के विशेष अधिकारों के विरुद्ध सभी सदस्यों को धन शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने के समान अधिकार की पैरवी उनको सकारात्मक स्वतंत्रतावादी सिद्ध करती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. उद्धृत वर्मा, वी.पी., ’द रिलेशंस ऑफ तिलक एंड विवेकानंद’ द वेदांत केसरी, नवम्बर-1958, पृ. 129-130 2. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-10, पूर्वोक्त, पृ. 204 3. विवेकानंद, स्वामी, धर्मरहस्य, नागपुर, रामकृष्ण मठ, 2002, पृ. 18 4. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-2, पूर्वोक्त, पृ. 261 5. भारती, के.एस., एनसाइक्लॉपिडिया ऑफ एमिनेन्ट थिंकर्स, वॉल्यूम-8, नई दिल्ली, कंसैप्ट पब्लिशिंग कंपनी, 1998, पृ. 63 6. वर्मा, वी.पी., पूर्वोक्त, पृ. 138 7. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-2, पूर्वोक्त, पृ. 321 8. उपर्युक्त, भाग-1, पृ. 299 9. ईस्टर्न एंड वैस्टर्न डिसाइपल्स, लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानंद, वॉल्यूम-2, अल्मोड़ा, अद्वैत आश्रम, 1933, पृ. 753 10. भारती, के.एस., पूर्वोक्त, पृ. 61-67 11. नेहरू, जवाहर लाल, डिस्कवरी ऑफ इंडिया, कलकत्ता, सिग्नेट, प्रेस, 1947, पृ. 760