P: ISSN No. 2231-0045 RNI No.  UPBIL/2012/55438 VOL.- XI , ISSUE- II November  - 2022
E: ISSN No. 2349-9435 Periodic Research
राजस्थानी लघु चित्रों में रागमाला चित्रण विधान
Ragamala Illustration Vidhaan in Rajasthani Miniature Paintings
Paper Id :  16926   Submission Date :  06/11/2022   Acceptance Date :  22/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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पवन कुमार जाँगिड़
सह आचार्य
चित्रकला
श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
किशनगढ,राजस्थान, भारत
सारांश रागमाला चित्रकला रागों के वर्गीकरण की परंपरागत पद्धति रही है और भारतीय लघु चित्रकला में ऐसे चित्रों का प्रमुख स्थान भी रहा है। 15वीं 16वीं शताब्दी से संगीत सम्बन्धी चित्र बनाए जाने लगे थे और 17वीं व 18वीं शती के सभी प्रचलित लघुचित्र शैलियों में इस विषय को चित्रित किया गया है। चित्रों में राग-रागिनी को नायक नायिका के रूप में चित्रित किया गया। राजस्थान में मेवाड़, मारवाड़, हाड़ौती, ढूढ़ाड़ क्षेत्र की विभिन्न उप शैलियों में रागमाला चित्रों का अंकन देखा जा सकता है। इनके चित्रण विधान को देखा जाये तो ताड़पत्र, विभिन्न तरह के कागज, तूलिका व खनिज रंगों को उपयोग में लेने की तकनीक खास तरह की रही। चित्रों को विषय-वस्तु के अनुसार चित्रण किया जाता था परन्तु समयानुसार चित्रण विधान में परिवर्तन भी देखा जा सकता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Ragamala painting has been the traditional method of classification of ragas and such paintings have also had a prominent place in Indian miniature painting. Music-related paintings began to be made from the 15th-16th centuries, and the theme is depicted in all popular miniature styles of the 17th and 18th centuries. Raga-Ragini were portrayed as hero-heroine in the paintings. In Rajasthan, marking of Ragamala paintings can be seen in different sub-styles of Mewar, Marwar, Hadauti, Dhudhar region. If we look at their method of illustration, the technique of using palm leaves, different types of paper, paintbrush and mineral colors was special. Pictures were depicted according to the subject matter, but changes in the method of illustration can also be seen over time.
मुख्य शब्द रागमाला, वसली, राग-रागिनियां, संगीतकार, विधाएं, मूल राग, खनिज रंग, कलम, तूलिका, ग्वास, कागज, संगीत, साहित्य, पांडुलिपि, तकनीक, ताड़पत्र, कारखाना, श्रृंगार
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Ragamala, Vasali, raga-raginis, musicians, genres, original raga, mineral colour, pen, paintbrush, guas, paper, music, literature, manuscript, technique, palm leaf, factory, makeup
प्रस्तावना
रागमाला चित्रकला रागों के वर्गीकरण की परंपरागत पद्धति है। भारतीय लघु चित्रकला में राग-रागिनी चित्रों का प्रमुख स्थान है। 15वीं 16वीं शताब्दी से संगीत सम्बन्धी चित्र बनाए जाने लगे थे। 17वीं व 18वीं शती के सभी प्रचलित लघुचित्र शैलियों में इस विषय को चित्रित किया गया है। स्थान और काल विशेष के आधार पर हम इसे पहाड़ी रागमाला, राजपूत या राजस्थानी रागमाला, दक्कन रागमाला व मुगल रागमाला के नाम से जानते हैं। विभिन्न रागों और उससे संबंधित मौसम यहां तक कि प्रत्येक राग के लिए निर्धारित समय के अनुसार इसका चित्रण किया गया है। इनमें रागमूर्तियों के साथ काव्यात्मक वर्णन और ध्यान मन्त्र भी होते थे। इससे प्रत्येक राग की विशेष ऋतु और वातावरण का परिचय होता था। रागमाला चित्र संगीत और चित्रकला के पारस्परिक सम्बन्ध पर तो प्रकाश डालते ही है, मध्यकाल में व्याप्त उस लोकभावना का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो भक्ति पर आधारित तत्कालीन धर्म, साहित्य, चित्रकला और संगीत-जनजीवन के चारों सांस्कृतिक पक्षों को प्रेरित करती थी। समझा जाता है कि स्वर और चित्र की रेखा का उद्गम यूं तो मानव की प्रागैतिहासिक अवस्था में लगभग समान रूप से ही हुआ, किन्तु इसके विकास में सदियों लग गए। राग-रागिनियों का मुख्य अन्तर यह है कि राग को ऊँचे स्वर में जबकि रागिनियों को स्त्रियोचित कोमलता के अनुरूप गाया जाता है। उसी के अनुरूप दृश्य रूप में रेखाओं एवं रंगों के माध्यम से दिखाया गया है। राजस्थानी, पहाड़ी व मुगल शैलियों में इस रागमाला चित्रण को काफी लोकप्रियता मिलती चली गई। राग-रागिनियों में पुत्र और पुत्र वधुओं तक को समाहित किया जाने लगा फलतः इसकी संख्या 72, 76, 80, 84 व 108 तक पहुंच गई। विदित हो कि आइने अकबरी में भी राग-रागिनियों का वर्गीकरण मिलता है। इस के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 16वीं सदी में राजस्थानी शैली में रागमाला चित्रण की प्रणाली की शुरूआत हो चुकी थी। समझा जाता है कि जिस वातावरण में प्रत्येक राग-रागिनी की प्रतीक भावना का उदय होता है, उसकी कल्पना पर राग-रागिनी को मूर्त रूपदेने की चेष्टा में संगीतज्ञ कवियों ने श्लोक बनाये जिसके आधार पर चित्रकारों द्वारा रागमाला चित्रों का सृजन किया गया। इन चित्रों में राग-रागिनी को नायक नायिका के रूप में चित्रित किया गया। देखा जाए तो यह संगीत, काव्य और चित्रकला को एक साथ पिरोने या एक सूत्र में बांधने का बहुत ही सफल प्रयोग था। 17वीं व 18वीं सदी में राजस्थान में इस शैली के चित्रों की रचना काफी संख्या में की गई और इस क्रम में मेवाड़ इस अंकन के एक प्रमुख केन्द्र के तौर पर स्थापित रहा। रागमाला चित्रशैली के अलग अलग शैलियों की बात करें तो कुछ प्रमुख शैलियां और उनकी विशेषताओं की चर्चा भी यहां आवश्यक हो जाती है। मुगल दरबार और राजस्थान के विभिन्न अंचलों के अलावा दक्षिण भारत में प्रचलित शैली की बात करें तो दक्कन रागमाला का वर्णन 1725 ई. के आसपास मिलने लगता है। वैसे तो इन चित्रों पर भी राजस्थानी प्रभाव स्पष्ट तौर पर दृष्टिगत है, दक्षिण में इसके प्रमुख केन्द्र के रूप में बीजापुर, गोलकुंडा एवं अहमद नगर रहे। अन्य प्रमुख केन्द्रों की बात करें तो बूंदी-कोटा शैली, मेवाड़ शैली, मारवाड़ शैली, सिरोही व जयपुर। पहाड़ी चित्रकला की बात करें तो बसोहली, कुल्लू, विलासपुर, कांगड़ा एवं टिहरी गढवाल आदि रियासतों में इस कला परंपरा के तहत चित्रित राग-रागिनी चित्रों का वर्णन मिलता है।
अध्ययन का उद्देश्य चयनित शोध-पत्र के निम्न उद्देश्य रहे है- 1. राजस्थान की लघु चित्रकला को जानना और इस शैली में बने रागमाला चित्रों को प्रस्तुत करना। 2. राग-रागिनियों का अध्ययन करके उनके संदर्भ में बने चित्रों को बताना। 3. राजस्थान की विभिन्न उप शैलियों में बने ऐसे रागमाला चित्रों को ज्ञात कर प्रस्तुत करना। 4. रागमाला चित्रण के विधान यथा कागज, रंग, वसली, ब्रश इत्यादि इन चित्रों में कैसे प्रयोग हुआ उसको प्रस्तुत करना।
साहित्यावलोकन

डॉरीता प्रताप की पुस्तक भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास (2021में राजस्थानी एवं मुगल शैली में बने रागमाला चित्रण के विषय में उपयोगी जानकारी मिली। डॉरामनाथ की पुस्तक मध्यकालीन भारतीय कलाएँ एवं उनका विकास’ (1973) से मध्यकालीन कलाओं के विकास के बारे में जानकारी मिली और डॉ सत्यप्रकाश की पुस्तक से राग रागिनी मिनिएचर्स (1960) से लघु चित्रों तथा क्लॉज इबलिंग की पुस्तक रागमाला पेंटिंग (1973) से राग रागिनियों की विस्तार से जानकारी प्राप्त हुई। इसी प्रकार राजस्थान की लघु चित्रकला और रागमाला चित्रण के लिए प्रतापादित्य पाल की पुस्तक द क्लासिकल ट्रेडीशन ऑफ राजपूत पेंटिंग (1978) तथा डॉजयसिंह नीरज की पुस्तक राजस्थानी चित्रकला (2022एवं पर्सी ब्राउन की इंडियन पेंटिंग अंडर द मुगल (1924) से इसके लेखन में विशेष उपयागी रही। सी.बीच माइलो की पुस्तक राजपूत पेंटिंग एंड बूंदी एंड कोटा से भी राजपूतकालीन चित्रकला की जानकारी के बारे में सहायक रही।

मुख्य पाठ

अहमदाबाद से प्राप्त 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रचित कल्पसूत्र की प्रति, जिसके हासियों में सुन्दर ढ़ग से अंकित राग-रागिनियों के चित्र बडे़ प्रभावशाली बने है। 17वीं शताब्दी एवं 18वीं शताब्दी इन चित्रों के निर्माण का श्रेष्ठ समय रहा और 19वीं शताब्दी में आते-आते कार्य में गिरावट आई तथा 20वीं शताब्दी में इस परंपरा का पूर्ण हस हो गया। इनके निर्माण का केंद्र राजस्थान, मध्य भारत और दक्षिणी प्रदेश में अहमदनगर, बीजापुर तथा गोलकुंडा रहा है। गंगा यमुना के मैदानी क्षेत्र तथा उत्तर में पहाड़ी क्षेत्रों में रागमाला चित्र खूब बने हैं।

राजस्थानी रागमाला चित्र परंपरा के प्रमुख केंद्रों का अंचलों के आधार पर अध्ययन करें तो भित्ति चित्रों में रागमाला चित्र आमेर में स्थित भारमल की छतरी में देखे जा सकते हैं इस छतरी को अब मानसिंह की छतरी प्रमाणित किया जा चुका है। इसमें रागमाला चित्र टोडी रागिनी का चित्र है। 1650 ई. के लगभग बने पंचम रागिनी एवं दीपक राग के चित्र आमेर रागमाला चित्र परंपरा की पुष्टि करते हैं। 1700 ईस्वी के आसपास कुछ रागमाला चित्र कुंवर संग्राम सिंह के संग्रह में है। इनमें से बसंत रागिनी दीपक राग की दूसरी रागिनी है यही क्रम जयपुर संग्रहालय में संकलित चित्र का है। उदयपुर के राजकीय संग्रहालय में जयपुर के रागमाला चित्र है इनमें मालवगोरी रागिनी में नायक नायिका को महलों में ले जा रहा है। जयपुर, अलवर का एक अन्य रागमाला सैट उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। 1600 ई. के लगभग ईसरदा से भी रागमाला चित्र प्राप्त हुआ शैली की दृष्टि से इनका चावंड से साम्य है। इन चित्रों में कांन्हड़ा रागिनी, बरारी रागिनी प्रमुख है। मालपुरा के रागमाला सैट में जयपुर का भी स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है जो 1705 ई. का माना जाता है यह सैट बिखरा हुआ है इसके साथ के पांच चित्र राजकीय संग्रहालय उदयपुर में आर. एस. देराश्री के संकलन से आए हैं। श्रीराग की रागिनी पंचम 1756 ई. का तथाकथित मालपुरा में चित्रित इस चित्र में होली नहीं है पर गुलाल बिखेरते नायिका है सामान्यतः पंचम में नायक संगीतकारों को पुरस्कार देता हुआ चित्रित हुआ है। चित्र पृष्ठ 72 रणथंभोर का 18वीं शताब्दी का एक चित्र पंचम रागिनी है चित्र का स्वरूप मुगल चित्रों से भिन्न है।

मारवाड़ अंचल के चित्र में 17वीं शताब्दी के चित्र देषख रागिनी, गूजरी रागिनी, पंचम रागपुत्र इत्यादि प्रमुख हैं। इसी कड़ी में मधुमाघवी रागिनी व गुणकली रागिनी चित्र भी देखे जा सकते हैं। मारवाड़ के जन जीवन से प्रभावित कुँवर संग्रामसिंह संग्रहालय में रागमालाका एक तिथियुक्त ऐतिहासिक महत्व का सैट उपलब्ध है। सिरोही के प्रसिद्ध रागमाला चित्र 1675 ईसवी के लगभग बने हैं इस समय की देवी माहात्म्य पांडुलिपि पाल. ऐफ. वाल्टर के संग्रह में है। चित्रों में रागिनी मालश्रीभैरव राग व बसंत राग इत्यादि प्रमुख है। 1632 ईस्वी में चित्रित पाली रागमाला का सैट प्रसिद्ध है जिसको कलाकार वीरजी द्वारा पाली के प्रसिद्ध वीर पुरूष विठ्ठलदास चाँपावत के लिए चित्रित किया गया था। बीकानेर में 1605-6  ईसवी में मेघमल्हार, 1750 में काकुम रागिनी, 1670 ई. का राग भैरव में चित्रण हुआ। बड़ौदा संग्रहालय में 1801 के आसपास बने चित्र बसंत राग एवं भैरव राग तथा हिंडोल राग बीकानेर के हैं।

मेवाड़ क्षेत्र में रागमाला चित्र परंपरा अत्यंत प्राचीन है। चावंड में 1605 ईसवी में चित्रकार निसारदीन द्वारा चित्रित रागमाला क्षेत्र का प्राचीनतम चित्र है। यह लगभग 6’×6आकार का हैं। गिलूंड का रागमाला सैट 1609 ईसवी का है जो लोक प्रभाव लिए हुए हैं। इसके पश्चात एक अन्य रागमाला सैट 1628 ईस्वी में चित्रकार साहिब्दीन द्वारा चित्रित किया गया। इसी के समकालीन कल्याण रागिनी, 1650 ईसवी में चित्रित मारू रागिनी  प्रमुख है। 1660 ईसवी का रागिनी गोडमलार, 1675 ईसवी के आसपास चित्र बिलावल रागिनी का चित्र प्रसिद्ध है। केशव ने बारहमासा ऋतुओं के गीतों का प्रारंभ किया। ये लौकिक गीत बडे़ प्रचलित हुए। ब्रजभाषा-काव्य के बारहमासा विषयों ने देशी चित्रकारों को अत्यधिक आकर्षित किया। उन्होंने प्रेम भावना को नवीन ढ़ग से व्यक्त करने का माध्यम पा लिया। संगीत की प्रगति के साथ-साथ रागमाला के चित्र बनाए जाने लगे। यह विलक्षण बात है कि कलाकारों ने संगीत जैसी अद्दश्य-कला के सिद्धान्तों को चित्रकला जैसी दृश्य-कला द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। रागों के मूर्तिकरण में महाराणा कुंभा के संगीतराज ग्रंथ का योगदान विशेष उल्लेखनीय रहा। मेवाड़ स्कूल में सर्वाधिक चर्चित नसीरदीन द्वारा चावंड में चित्रित रागमाला का सैट चित्रकला के इतिहास में दीप-स्तम्भ की तरह है। महाराणा अमरसिंह के समय में 1605 ई. में चित्रित इस रागमाला के अनेक चित्र यत्र-तत्र उपलब्ध है, जिनमें मारू रागिनी तिथियुक्त 1605 ई. का महत्वपूर्ण लघुचित्र है।  1628 ई. मे चित्रित रागमाला के अनेक चित्र भारत के संग्रहालयों में बिखरें पडे़, जिनमें साहिबदीन की जहाँगीर कालीन शैली का अन्यतम उदाहरण देखने को मिलता है।

बूंदी के रागमाला चित्रण परंपरा में 1597 ईसवी का चुनार रागमाला प्रमुख है चुनार के बाद दूसरा रागमाला चित्र रागिनी भैरवी, राग दीपक तथा रागिनी मालश्री है। रागिनी विभास बूंदी शैली का 18वीं शताब्दी का चित्र है इसमें पुरुष की दबी हुई पगड़ी एवं नायक नायिका की आंखों नीचे स्पष्ट सिंदूर रेखा इसके कोटा में चित्रित होने का प्रमाण है। इलाहाबाद संग्रहालय में ही मयूर प्रिया शीर्षक से बूंदी शैली का 18वीं शताब्दी का छोटा सा चित्र प्रदर्शित है जो विषय के कारण मधुमाघवी रागिनी होना चाहिए। कोटा का प्रथम रागमाला चित्र 1660 ईसवी का मिलता है।  इसके पश्चात 1680 ई. में चित्रित रागमाला सैट का चित्र वर्तमान में कुंवर संग्राम सिंह के संग्रह में है। सन 1700 ई. का चित्र हिण्डोली रागिनी का है तथा 1740 ईस्वी में निर्मित पंचम रागिनी का चित्र शैली की दृष्टि से कोटा शैली की अलग पहचान बना देता है। कोटा के नंदगांव में चित्र रागमाला चित्र 1766 से 1768 ईस्वी में निर्मित है। यहां का एक चित्र मेघमल्हार बूंदी के रागमाला चित्र से मिलता है। रघुगढ़ में 18वीं शताब्दी में रागमाला चित्र मिलते हैं। यहां की टोडी रागिनी में नायिका के सामने बहुत से हिरण विभिन्न मुद्राओं में बैठे हैं।

संगीत पर आधारित इन चित्रों का निर्माण राग, रागिनी, राग पुत्र, राग पुत्रियों, एवं पुत्रवधू तक ही सीमित रहा बाद में नई राग रागिनिओं में वृद्धि हुई उस पर चित्रण नहीं हुआ वर्तमान में राग रागिनी वर्गीकरण संभवतया समाप्त हो गया है आज का संगीत चित्रकारों को प्रेरणा नहीं देता। चित्र निर्माण के लिए कागज पहली आवश्यकता है कागज देश में ईरान से गुजरात को 15वीं शताब्दी के मध्य आयात हुआ था। इसलिए इससे पूर्व रागमाला चित्र यदि मिले भी है तो ताड़पत्र या भोजपत्र पर ही मिले हैं। चित्रण की तकनीक में मुख्यतः तस्वीर को घोटना, सोना छापना या लगाना इत्यादि शामिल है सामान्यतः इकहरे कागज, बोर्ड पर चिपकी वसली या स्वतंत्र वसली पर रेखांकन करके पहले सफेद की हल्की खड़िया की कोटिंग की जाती है उस कोटिंग के नीचे वह ड्राइंग जो दिख रही है उसे फिर ठीक कर लिया जाता है तथा रंग भरना शुरू कर दिया जाता है उसके पश्चात कुछ एक भाग पर रंग लगाकर उसे फिनिशिंग दी जाती है फिर से प्रारंभ करने से पूर्व संगमरमर की अच्छी पॉलिश की हुई शिला पर तस्वीर को उल्टी रखकर पीछे से पत्थर की घोटी से घुटना जरूरी होता है इससे तस्वीर पर लगे रंगों की जो सतह है वह चिकनी हो जाती है। राजस्थानी चित्रों की तकनीक में ही देश के अन्य भागों में भी चित्र बने हैं जो रंग क्षेत्र विशेष में सहज उपलब्ध होते हैं उसका उस क्षेत्र में अधिक प्रयोग हुआ है। उत्तरी भाग, मध्य भारत एवं दक्षिण में गोलकुंडा, बीजापुर तक के चित्र इस तकनीक और रंगों में बने हैं सभी ने जमीन पर उपलब्ध प्राकृतिक एवं अन्य रंगों को कागज पर मोटी परत लगाकर काम में लिया है इस तकनीक को टेंपरा या ग्वास कहते हैं। माध्यम भी सभी ने जल रंग काम में लिया है। जल रंगों को सूखने के बाद भी कई बार घोटकर पानी मिलाकर काम में लिया जा सकता है। जल रंग तुरंत सूख जाने से उनके ऊपर धूल भी नहीं जमती इसलिए दोष रहित सुलभ वातावरण के अनुकूल, तैयार करने में सहज टिकाऊ और गर्म प्रदेश में समय के थपेड़ों को सहन करने की क्षमता के कारण ही यह तकनीक कलाकारों में प्रचलित हुई। राजस्थान में कागज पर अधिक चित्र बने हैं मुख्यतः जैसे-जैसे मानव विकसित हुआ लकड़ी हाथी दांत, भोजपत्र, ताड़पत्र इत्यादि विभिन्न धरातल पर चित्र रचने लगा कागज के आविष्कार होने से चित्र बनाना सरल हो गया यह माध्यम अत्यधिक प्रचलित हो गया। भारत में ईसा से 327 वर्ष पूर्व रुई या कपड़े की कतरन से कागज बनाया गया था। विलियम रीट के अनुसार कश्मीर के शासक जहर उल आबेदीन ने अपने शासनकाल 1420 ई. से 1470 ई. में कागज बनाने वाले कारीगर समरकंद से आमंत्रित किए थे। कश्मीर के कागज निर्माता आज भी इस पद्धति में काम कर रहे हैं। सण से कागज बनाने की प्रक्रिया पहले से ही भारत में विद्यमान थी। कागज अरब से आता था पर उससे भी पहले पंजाब के सियालकोट में कागज बनाने का कारखाना चल रहा था और वहां का बना हुआ कागज सियालकोटी कागज कहलाता था  जो अच्छी श्रेणी के कागजों में दूसरे नंबर पर आता था। चित्र बनाने के लिए ईरानी और इश्पहानी कागज अधिक काम में लिया जाता था। कागज के विभिन्न प्रकार उस समय उपलब्ध थे जैसे दौलताबादीख़तईआदिलशाहीहरीरी, सुल्तानी, हिंदी, निजामशाही गोनी, नाख्यार, कासिम बेगी इत्यादि। मार्टिनी के अनुसार भारत में तीन प्रकार के कागज काम में आते थे। जिनमें बाँसी, टाट, तुलत (तुल या कपड़े से बना कागज ) इत्यादि प्रमुख हैं।

कार्ल खंडालावाला ने सांगानेरी और काश्मीरी दो नाम दिए हैं। जहांगीर के समय में भी कागज उद्योग दानापुर, जूनापुर, मथुरा, कालपी, सियालकोट, अहमदाबाद और दौलताबाद में पनप चुका था तथा आज वर्धा में भी कागज बन रहा है। मेवाड़ में गोसुंडा तथा जयपुर में माधोपुरी कागज प्रसिद्ध रहा है। चित्र बनाने के लिए कलाकारों ने वसली को अधिकतर प्रयुक्त किया जिससे चित्र स्थाई रह सके इसमें दो या तीन पतले कागजों को आपस में चिपका कर मोटा बना दिया जाता है। वसली बनाने के लिए कागज को चिपकाने हेतु लेई होती है। लेई बनाने के लिए कही कहीं मैदा, कहीं अखरोट, कहीं सिंघाड़े की लेई प्रयुक्त की जाती है। मेवाड़ क्षेत्र में जंगली अनाज सावा और बलीचा भी मिलाते थे। लेई के माध्यम से दो या तीन कागज को आपस में चिपका लिया जाता था फिर उस पर सूखा कागज रखकर कपड़े की गद्दी से वसली को रगड़ रगड़ कर घोटा जाता था ताकि सभी कागज ठीक प्रकार से चिपक जाए। चित्र बनाने हेतु रंगों को आपस में मिलाने के लिए अथवा रंगों को चित्र में भरने हेतु तूलिका या कलम की आवश्यकता होती है कलम बकरी के बच्चे के कानो या पूंछ अथवा कहीं के भी मुलायम और अच्छे बाल मिल सके, उन बालों से, गाय के बछड़े के कान के भीतर के बाल, नेवले की पूंछ के बाल इत्यादि से बनाई जाती है। बालों को फंसाने के लिए मोर के पंख के नीचे का पारदर्शी एवं सफेद भाग काम में लिया जाता है उस हिस्से को काट कर कुछ देर तक उसे पानी में भिगोया जाता है फिर बाद में उसको साफ कर लिया जाता है तथा उसका बारीक जड़ की ओर वाला मुख इतना चौड़ा काट लिया जाता है जिसमें बंधी हुई कलम उसमें कुछ दबाकर के समायी जा सके। बाल डालने के बाद पीछे बांस की गोल डंडी  लगा दी जाती है और तूलिका तैयार हो जाती है। अच्छा काम करने के लिए गिलहरी की पूछ के बालों की ब्रश अधिक उपयुक्त रहती है। जब भी आवश्यकता हो इसे कबूतर के पंख वाले परगजे में डालकर बांस की डंडी लगाकर काम में लिया जा सकता है। गिलहरी के पूछ के बालों की टोली का बनाने हेतु क्रमशः गिलहरी को पकड़ना, उसके बालों को सुरक्षित रखना, उन्हें बांधना, पैरगजा में डालना आदि कौशलपुर कार्य है जिसे सतत अभ्यास से कुछ अपने अनुभव से सीख सकते हैं। वर्तमान समय में तूलिका नेवले के बालों से बनती है इसमें मोटी व बारीक सभी प्रकार की कलम होती है। मोटी कलम राजस्थानी चित्र बनाने में रंग भरने के काम में आती है लेकिन बारीक काम के लिए गिलहरी के बालों की कलम काम में लेनी होती है। गिलहरी के बालों की कलम में कबूतर के पंख के स्थान पर पीतल की नलकी काम में ली जाती है। बांस की जगह अन्य लकड़ी की खराद पर बनी हुई डंडी काम में ली जा सकती है। रंग चित्रों को सजीव दर्शाने हेतु प्रमुख तत्व है। चित्रों में प्रयुक्त रंगों को चार मुख्य भागों में विभाजित किया गया है -

1. खनिज रंग- खड़िया, हिरोंजी, सिंगरफ, गेरू रामरज, हरभाटा, मुल्तानी मिट्टी, तेरावर्ट, लाजवर्द, हरताल इत्यादि।

2. वानस्पतिक रंग- नील, पलाश के फूलों से गहरा लाल रंग, केसूला के फूलों से हल्का केसरिया रंग तथा इसमें चुना मिला दे तो लाल रंग प्राप्त किया जाता है। काजल, प्योडी तथा ढाक आदि फूलों के रंग से नीला रंग, लाख से तैयार किया गया महावर इत्यादि।

3. रासायनिक रंग- सफेदी कासगार जस्ते को फूंककर बनाया गया सफेद रंग, पारे की भस्म से निर्मित लाल सिंदूर, जंगाल (हरा), हिंगुल (संगरफ रंग), पीला (प्योडी), गऊगोली (गहरा पीला) इत्यादि।

4. धातु रंग- सोना -चांदी, सोने, चांदी व रांगे की हिलकारी बनाकर भी सोने -चांदी व रांगे के रंगों का प्रयोग किया गया है। रंगो द्वारा हल्की गहरी ताने भी बनाई गई है।

1. रागिनी गोडकरीः रागमाला पेंटिंग, आमेर, 1700 ई.

2. रागिनी पंचमः रागमाला पेंटिंग,मालपुरा, 1756 ई.

सामग्री और क्रियाविधि
संग्रहालयों एवं पुस्तकालयों से प्राप्त कैटलॉग पेंटिंग से रागमाला चित्रों का निरीक्षण करते हुए उनकी तकनीकी प्रविधि का अध्ययन कर लेखन कार्य किया। राजस्थान की विभिन्न शैलियों में बने लघु चित्रों व भित्ति चित्रों में बने ऐसे रागमाला चित्रों को अवलोकन कर प्रस्तुत करना। पुस्तकालयों से प्राप्त कैटलॉग पेंटिंग तथा साहित्य सामग्री का अध्ययन में सहायक रही। विभ्भिन आर्ट वेबसाइट का अध्ययन करना शामिल है।
निष्कर्ष वर्तमान में व्यक्ति स्वातंत्र्य की भावना और संगीत एवं कला क्षेत्र का अलगाव रागमाला चित्र निर्माण की प्रमुख बाधा है जो निरंतर बढ़ती रहेगी। रागमाला चित्रों की अच्छी स्थिति नहीं है अब न तो अच्छे रंग है न हीं इस युग में मेहनती कलाकार न ही साधना करने योग्य संयम है और ना ही संगीतकारों एवं कवियों के लिए चित्रकार आवश्यक रह गए हैं। पुनः काम आरंभ करने के लिए साधना, श्रम व धन की आवश्यकता है इसके लिए कोई किसी कलाकार को संरक्षण दे तभी वह निश्चिंत होकर सृजन प्रारंभ करें और अपने कार्य में एक सम्मानजनक उपलब्धि हासिल करें।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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