ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- X November  - 2022
Innovation The Research Concept
विवेकानंद के समाजवादी विचार
Socialist Ideas of Vivekananda
Paper Id :  16937   Submission Date :  11/11/2022   Acceptance Date :  19/11/2022   Publication Date :  24/11/2022
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संध्या गुप्ता
सहआचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश विवेकानंद का कथन था "मैं समाजवादी हूं ।"उन्हें समाजवादी कहा भी जा सकता है। हालांकि उन्हें समाजवाद से जुड़ी प्रचलित विचारधाराओं में से किसी से भी नहीं बांधा जा सकता पर इसलिए कि वे समाजवाद के मूलभूत विचार समरसता पूर्ण शोषण विहीन समाज की स्थापना से ताल्लुक रखते थे। विवेकानंद को समाजवादी कुछ कारणों से कहा जा सकता है जैसे व्यक्ति और समाज का अंतर संबंध निर्धारित करते समय उन्होंने समाज को व्यक्ति से ऊपर स्थान दिया । वे मानव मात्र की समानता में विश्वास रखते थे। श्रमिकों और निम्न वर्गों के प्रति उनके मन में गहरी सहानुभूति और संवेदना थी। वे किसी वर्ग विशेष के विशेष अधिकारों की आलोचना करते थे और समान अवसर के सिद्धांत की वकालत करते थे। हालांकि विवेकानंद समाजवाद में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सीमितता से असहमत दिखाई देते हैं। वे मार्क्सवादी समाजवादियों से भिन्न थे क्योंकि वह न तो वर्ग संघर्ष और न ही वर्ग विहीन समाज की धारणा पर यकीन करते थे। वे तो विविधता की अवश्यंभाविता को मानते थे और वैयक्तिक व वैश्विक दोनों स्तरों पर सौहार्द्र व प्रेम को अपनाना चाहते थे। समाजवादियों की तरह केवल आर्थिक समानता लाना ही उनका लक्ष्य नहीं था बल्कि वे तो आध्यात्मिक समानता की स्थापना चाहते थे जो किसी भी स्तर पर समानता का आधार है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Vivekananda's statement was "I am a socialist." He can also be called a socialist. Although he cannot be tied to any of the prevailing ideologies related to socialism, but because he was related to the establishment of a harmonious, exploitation-free society, the basic idea of socialism. Vivekananda can be called a socialist for some reasons such as he placed the society above the individual while determining the interrelationship between the individual and the society. He believed in the equality of human beings. He had deep sympathy and compassion for the workers and the lower classes. He criticized the special rights of any particular class and advocated the principle of equal opportunity. Although Vivekananda appears to disagree with the limitation of individual freedom in socialism. They differed from Marxist socialists because they neither believed in class struggle nor in the concept of a classless society. He believed in the inevitability of diversity and wanted to adopt harmony and love at both individual and global levels. Like socialists, their goal was not only to bring economic equality, but they wanted to establish spiritual equality which is the basis of equality at any level.
मुख्य शब्द विवेकानंद, समाजवाद, समानता, स्वतंत्रता,अध्यात्म, शोषण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vivekananda, Socialism, Equality, Freedom, Spirituality, Exploitation
प्रस्तावना
विवेकानंद (1863-1902) कोई सामाजिक या राजनीतिक सिद्धांत वेक्ता नहीं थे। भारतीय राष्ट्रवाद को जगाना, समाज में सुधार लाना उनके मुख्य लक्ष्य थे। फिर भी उनके चिंतन में समाजवाद की एक विशिष्ट संकल्पना विद्यमान है जो कि समाजवाद की प्रचलित अवधारणाओं से तो भिन्न है किंतु समाजवाद के मूल विचार समानता से जुड़ी है और जो उसे आध्यात्मिक रूप से और सशक्त करती है।
अध्ययन का उद्देश्य विवेकानंद के चिंतन में समाजवाद से संबंधित विचारों का प्रतिपादन व विश्लेषण करना। समाजवाद से संबंधित अन्य अवधारणाओं से विवेकानंद के विचारों की तुलना करना। विवेकानंद चिंतन में व्यक्त मानव मात्र की समानता की मूल आधारों की व्याख्या करना।
साहित्यावलोकन

विवेकानंद चिंतन पर अद्वैत आश्रम कोलकाता द्वारा प्रकाशित विवेकानंद साहित्य का प्रमुख रूप से अध्ययन किया गया है। इसके अतिरिक्त विवेकानंद चिंतन पर उपलब्ध अन्य पुस्तकों एवं टीकाओं का जैसे रोमा रोलां कृत 'द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल',ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स- लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानंद, के .एस. भारती कृत इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एमिनेंट थिंकर्स, जवाहरलाल नेहरू कृत डिस्कवरी ऑफ इंडिया, के. दामोदरन कृत इंडियन थॉट-अ क्रिटिकल सर्वे, कतिपय आलेखों जैसे द रिलेशंस ऑफ तिलक एंड विवेकानंद- वी. पी. वर्मा, अन्य शोध पत्रों जैसे स्वामी विवेकानंद टुडे एंड टुमारो- भावेश प्रामाणिक(2017), 'स्वामी विवेकानंद: सोशल रिफॉर्मर' जग बंधु सरकार- (2020), रिलीजन फॉर सेक्यूलर एज: मैक्स मूलर ,स्वामी विवेकानंद एंड वेदांता-जीन सी.मेकफॉल (2021), स्वामी विवेकानंद: हिज लाइफ लेगेसी एंड लिबरेटिव एथिक्स- माइकल बर्ले (2021) का भी अध्ययन किया गया है। अन्य शोध पत्रों से इतर यह शोध पत्र विवेकानंद के चिंतन में समाजवाद के मूल स्वरों के प्रतिपादन का प्रयास करता है।

मुख्य पाठ

विवेकानंद का कथन था, ‘‘मैं समाजवादी हूँ।’’[1] और उन्हें समाजवादी कहा भी जा सकता है, हालाँकि उन्हें समाजवाद से जुड़ी भाँति भाँति की विचारधाराओं (अराजकतावाद, श्रमसंघवाद, लोकतांत्रिक समाजवाद, मार्क्सवाद आदि) में से किसी से भी नहीं बाँधा जा सकता, पर इसलिए कि वे समाजवाद के मूलभूत विचार समरसतापूर्ण, शोषणविहीन समाज की स्थापना से ताल्लुक रखते थे।

वस्तुतः विवेकानंद भारत के दरिद्रों की स्थिति से व्यथित थे और उनकी दशा में सुधार चाहते थे। पाश्चात्य प्रकार के लोकतंत्र और पूँजीवाद उन्हें उचित प्रतीत नहीं होते थे। के.दामोदरन लिखते हैं, ‘‘यूरोप में विकसित हो रहे पूँजीवाद की दुष्प्रवृत्ति से विवेकानंद अत्यधिक निराश हुए। वे नए क्रांतिकारी विचारों की ओर अग्रसर हुए जो अभी निर्माणावस्था में थे। वे रूस के क्रांतिकारी अराजकतावादी प्रिंस क्रोपोटकिन से मिले। समाजवादी विचारों ने उनके मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला और उन्होंने स्वयं को एक समाजवादी कहना प्रारंभ कर दिया।’’[2] किन्तु फिर भी विवेकानंद उस अर्थ में समाजवादी नहीं थे जिस अर्थ में किसी आधुनिक विचारक को समाजवादी कहा जाता है, न तो उन्होंने समाजवाद से संबंधित किसी विशिष्ट सिद्धांत की रचना का प्रयास किया था और न ही वे किसी पूर्व प्रचलित विशिष्ट समाजवादी सिद्धांत में आस्था रखते थे।

वैसे भी, उनकी दृष्टि में समाजवाद कोई एकदम निर्दोष या आदर्श व्यवस्था नहीं थी। उन्होंने लिखा था, ‘‘मैं समाजवादी हूँ, इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था समझता हूँ परंतु इसलिए कि रोटी न मिलने से आधी रोटी ही अच्छी है अन्य व्यवस्थाओं को भी आजमाया जा चुका है और वे विफल तथा दोषयुक्त सिद्ध हुई हैं अब इसकी परीक्षा होने दो - यदि और किसी कारण से नहीं तो नवीनता के लिए ही सही। दुख और सुख का वितरण उस स्थिति की अपेक्षा तो अच्छा ही है। जिसमें कि कुछ व्यक्ति सदैव सुख और कुछ सदैव दुख का अनुभव करते हैं। इस कष्टमय संसार में प्रत्येक व्यक्ति को कभी तो सुख प्राप्त होना चाहिए।’’[3]

विवेकानंद को समाजवादी कुछ कारणों से कहा जा सकता है जैसे व्यक्ति और समाज का अंतर्संबंध निर्धारित करते समय उन्होंने समाज को व्यक्ति से ऊपर स्थान दिया, वे मानव मात्र की समानता में विश्वास करते थे, श्रमिकों और निम्न वर्गों के प्रति उनके मन में गहरी सहानुभूति और संवेदना थी, वे किसी वर्ग विशेष के विशेषाधिकारों की आलोचना करते थे और सबके लिए समान अवसर के सिद्धांत की वकालत करते थे। किसी भी प्रकार के जातिगत उत्पीड़न व शोषण के वे सख्त खिलाफ थे।

हालाँकि विवेकानंद समाजवाद में व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की सीमितता से असहमत दिखाई देते हैं। एक बार विवेकानंद ने समाजवाद को नकारात्मक रूप से परिभाषित किया था- ‘‘व्यष्टि को व्यक्तिगत स्वतंत्रता होती है या नहीं और यदि होती है तो उसका नाम क्या होना चाहिए, व्यक्ति को समष्टि के लिए अपनी इच्छा और सुख का संपूर्ण त्याग करना चाहिए या नहीं, ये प्रत्येक समाज के लिए चिरंतन समस्याएँ हैं। सब स्थानों में समाज इन समस्याओं के समाधान में संलग्न रहता है। ये बड़ी बड़ी तरंगों के समान आधुनिक पश्चिमी समाज में हलचल मचा रही हैं जो समाज के अधिपत्य के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता का त्याग चाहता है वह सिद्धांत समाजवाद कहलाता है।’’[4] उनकी दृष्टि में तो नियमबद्धता और व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का अभाव क्रियात्मकता, नवीनता, इच्छा शक्ति, आशा व उत्साह का हनन करके विकास को अवरूद्ध करता है।’’[5]

हालाँकि यह भी सत्य है कि विवेकानंद स्वयं भी समाज के पक्ष में व्यक्ति के समर्पण की अभिलाषा रखते थे और वे यह भी मानते थे सामाजिक प्रगति तब ही संभव है जब उसके घटक कुछ बलिदान करें क्यों कि त्याग और बलिदान किए बिना समष्टि के कल्याण की कामना व्यर्थ है और मनुष्यता इसी में है कि व्यक्ति अपने लिए ही नहीं बल्कि औरों के लिए भी जिये। समाज विभिन्न व्यक्तियों का समूह है जिसके विकास के लिए व्यक्तियों द्वारा आत्मत्याग अनिवार्य है। मानवीय लक्ष्यों का अंतिम लक्ष्य और परिणाम सामूहिक सुख होना चाहिए केवल व्यक्तिगत सुख नहीं। हालाँकि अधिकांश समाजवादी पद्धतियों से भिन्न, समाज के प्रति व्यक्ति के इस समर्पण को वे नितांत स्वैच्छिक रखना चाहते थे।

मानव मात्र की आध्यात्मिक समानता में विश्वास-यही कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर का अंश है, की सहज परिणति-कि इस कारण कोई भी उच्च या निम्न नहीं हो सकता, भी उन्हें समाजवाद के मूल भाव के निकट ले जाता है। उनका मानना था कि सभी प्राणी ब्रह्म स्वरूप हैं, प्रत्येक आत्मा मानो मेघ से ढका हुआ सूर्य है उनमें यदि अंतर है तो बस इतना कि उन पर मेघ का आवरण कहीं घना है और कहीं पतला।’’[6] इसी कारण उन्होंने भारतीय समाज में फैली छूआछूत की भावना की कटु निंदा की और किसी भी वर्ग को विशेषाधिकार दिए जाने का विरोध किया।

विवेकानंद के हृदय में श्रमिकों और निम्न वर्ग के लिए गहरी संवेदना थी उनका प्रयास उनकी स्थिति को सुधारने की ओर हमेशा रहा। के.एस.भारती कहते हैं कि विवेकानंद प्रथम थे जिन्होंने गरीबी के सामाजिक निहितार्थ की तरफ नेताओं का ध्यान खींचा। उनसे पहले और किसी ने भी इस पर जोर नहीं दिया कि जनता की रोजाना की रोटी की चिंता से आजादी ही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और सामाजिक विकास की प्रथम शर्त है।’’[7]  उन्हें तो वह धर्म भी प्रिय नहीं था जो निम्न वर्ग की स्थिति में सुधार नहीं लाता। उन्होंने कहा जो धर्म या ईश्वर विधवाओं के आँसू नहीं पोंछ सकता, अनाथों के मुँह में रोटी का टुकड़ा नहीं दे सकता उस धर्म तथा ईश्वर पर मैं विश्वास नहीं करता।’’[8]दरिद्र नारायणकी संकल्पना के जनक विवेकानंद का संदेश था कि पहला कार्य दरिद्रों की सेवा होना चाहिए। वे कहते थे ‘‘तुमने पढ़ा है मातृ देवोभव, पितृ देवोभव, मैं कहता हूँ दरिद्र देवोभव, मूर्ख देवोभव। दरिद्र, मूर्ख, अज्ञानी और कातर व्यक्ति ही तुम्हारे देवी देवता हैं उन्हीं की सेवा को तुम परम धर्म समझो।’’ उनकी ललकार थी, ‘‘गरीब और अभावग्रस्त, पीड़ित और पददलित, सब आओ, हम सब रामकृष्ण की शरण में एक हैं।’’[9]

वंचितों के प्रति विवेकानंद की असीम संवेदना शिक्षितों के प्रति उनकी इस फटकार में दिखाई देती है- ‘‘जब तक करोड़ों लोग भूख और अज्ञान में गोते लगा रहे हैं, तब तक मैं हर आदमी को एक विश्वास घातक मानता हूँ जिसने उनकी गाढ़ी कमाई के पैसों से शिक्षा पाई है और उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया।’’10 विवेकानंद ने अमीरों को उनके कपट, शोषण व अनाचार के लिए फटकारा। दर्द भरे शब्दों में उन्होंने कहा, ‘‘भारतवर्ष में हम लोग गरीबों, साधारण लोगों, पतितों को क्या समझा करते हैं ? उनके लिए न कोई उपाय है न बचने की राह और न उन्नति का कोई मार्ग ही।’’[11]

विवेकानंद ने श्रमिक वर्ग के प्रति गहन सहानुभूति प्रकट की। के. दामोदरन लिखते हैं, ‘‘उनके जीवन काल में, भारत में श्रमिक वर्ग का कोई आंदोलन अथवा संगठन मौजूद नहीं था क्यों कि इस समय इस वर्ग की रचना ही हो रही थी। लेकिन एक महान क्रांतिकारी की भाँति विवेकानंद ने श्रमिक वर्ग के प्रति अपनी अडिग आस्था प्रकट की और अपनी मातृभूमि के भविष्य के लिए न केवल स्वतंत्रता की वरन् समाजवाद की भविष्यवाणी की। वास्तव में इस अविस्मरणीय व्यक्ति ने भारत में समाजवाद का नारा रूस में समाजवादी क्रांति के दो दशकों पूर्व ही दे दिया था।’’[12] उन्होंने एक भविष्य दृष्टा की भाँति देख लिया था कि किसी न किसी रूप में समाजवाद निकट आ ही रहा है और वह दिन दूर नहीं जब शूद्रों के रूप में ही शूद्र शासक बन जायेंगे।’’[13] विवेकानंद ने आशा प्रकट की कि वे अर्थात् शूद्र अवश्य राज्य करेंगे, उन्हें कोई रोक नहीं सकता। उन्होंने कहा कि शूद्रों में कर्म करने की क्षमता है, वे परिश्रम करते हैं लेकिन उनके श्रम के फल का अधिकांश दूसरे लोग छीन लेते हैं, अब वे इस तथ्य से परिचित हो चले हैं और अपने शोषण के विरूद्ध एक संयुक्त मोर्चा बना रहे हैं। उच्च वर्ग अब निम्न वर्ग का दमन नहीं कर सकेगे। अतः उच्च वर्ग का हित इसी में है कि वे निम्न वर्गों को अपने समुचित अधिकारों को प्राप्त करने में उनकी सहायता करें।’’[14]

उन्होंने कई बार कहा कि राष्ट्र झौंपड़ियों में बसता है। राष्ट्र का गौरव महलों से सुरक्षित नहीं रह सकता, झौंपड़ियों की दशा भी सुधारनी होगी। यदि गरीबों और शूद्रों को दीनहीन रखा गया तो देश और समाज का कोई कल्याण नहीं हो सकता ।

अन्य समाजवादियों की तरह उनकी भी एक मुख्य चिन्ता निम्न वर्ग के शोषण की थी जो उनकी नजर में ब्राह्मणों और क्षत्रियों द्वारा किसी न किसी रूप में हमेशा किया जाता रहा है। इसी तरह उनका यह भी मानना था कि यह क्रम स्थायी नहीं है, चारों वर्ण बारी-बारी से शासन करते हैं और अब शूद्रों की बारी है। उच्च वर्ग और शासकों को उन्होंने चेतावनी दी कि जब जनसाधारण जाग पड़ेगा तो तुम्हारे द्वारा किये गये दमन को समझ जाएगा और उसके मुख की एक फूँक तुमको पूरी तरह उड़ा देगी। जनजागृति और इस हेतु शिक्षाही उनकी सर्वप्रमुख कार्य योजना थी। विवेकानंद को समाजवादी इसलिए भी कहा जा सकता है कि उन्होंने सबके लिए समान अवसर के सिद्धांत का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि यदि प्रकृति में असमानता है तो भी सबके लिए समान अवसर होना चाहिए- अथवा यदि कुछ को अधिक और कुछ को कम अवसर दिया जाए तो दुर्बलों को सबलोंसे अधिक अवसर दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि ब्राह्मणों को शिक्षा की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी कि चाण्डाल को। यदि ब्राह्मण को एक अध्यापक की आवश्यकता है तो चाण्डाल को दस की है क्योंकि जिसको प्रकृति ने जन्म से सूक्ष्म बुद्धि नहीं दी है उसको अधिक सहायता दी जानी चाहिए। यह विचार उनको एक बड़ा समाजवादी सिद्ध करता है।

सारतः वे एक समाजवादी थे क्यों कि वे समानता चाहते थे, निम्न वर्ग का उत्थान चाहते थे पर वे अन्य मार्क्सवादियों-समाजवादियों से भिन्न थे क्यों कि वे न तो वर्ग संघर्ष और न ही वर्गहीन समाज की धारणा पर यकीन करते थे वे तो विविधता की अवश्यंभाविता को मानते थे और वैयक्तिक व वैश्विक दोनों स्तरों पर सौहार्द्र और प्रेम को अपनाना चाहते थे। समाजवादियों की तरह केवल आर्थिक समानता लाना ही अनका लक्ष्य नहीं था बल्कि वे तो आध्यात्मिक समानता की स्थापना चाहते थे जो किसी भी स्तर पर समानता का आधार है।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रमुख रूप से विषय वस्तु विश्लेषण को महत्व दिया गया है एवं आवश्यकतानुसार दार्शनिक, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक पद्धतियों का प्रयोग किया गया है।
निष्कर्ष उनके चिंतन को किसी राजनीतिक विचारधारा से नहीं जोड़ा जा सकता। पर समाज को व्यक्ति से ऊपर स्थान देने,मानव मात्र की समानता में विश्वास करने, श्रमिकों व निम्न वर्गों के प्रति गहरी सहानुभूति और संवेदना व्यक्त करने,वर्गीय विशेष अधिकारों का विरोध करने,समान अवसर के सिद्धांत की वकालत करने, जातिगत उत्पीड़न व शोषण का विरोध करने की वजह से वे भावनात्मक रूप से समाजवाद के नजदीक दिखाई देते हैं। हालांकि समाजवादी सिद्धांत से उनका कोई संबंध नहीं था। बल्कि आर्थिक समानता के लक्ष्य से परे वे तो आध्यात्मिक समानता, जो किसी भी तरह की समानता की प्राथमिक शर्त है से संबंध रखते थे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. विवेकानंद, स्वामी, द कंप्लीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद, वॉल्यूम-6, मायावती, अद्वैत आश्रम, 1978, पृ. 381 2. दामोदरन, के., इंडियन थॉट-ए क्रिटिकल सर्वे, लंदन, एशिया पब्लिशिंग हाउस, पृ. 261-262 3. विवेकानंद, स्वामी, द कंप्लीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद, वॉल्यूम-6, पूर्वोक्त, पृ. 381-82 4. उपर्युक्त, पृ. 358 5. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-7, कोलकाता ,अद्वैत आश्रम, 1989, पृ. 357 6. वत्स्य, संतराम, स्वामी विवेकानंद, नई दिल्ली, सुबोध पब्लिकेशंस, 1991, पृ. 151 7. भारती, के.एस., इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एमिनेंट थिंकर्स ,वॉल्यूम 8 ,नई दिल्ली, कंसेप्ट पब्लिशिंग कंपनी 1998, पृ. 37 8. वत्स्य, संतराम, पूर्वोक्त, पृ. 151 9. उद्धृत ताराचंद, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, भाग-2, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, 1965, पृ. 368 10. उद्धृत अवस्थी, अमरेश्वर एवं अवस्थी, रामकुमार, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन ,नई दिल्ली एवं जयपुर, रिसर्च पब्लिकेशन, 1997, पृ. 82 11. उपर्युक्त 12. दामोदरन, के., पूर्वोक्त, पृ. 362-363 13. विवेकानंद, स्वामी, वर्तमान भारत, पूर्वोक्त, पृ. 24 14. अवस्थी अमरेश्वर एवं अवस्थी रामकुमार, पूर्वोक्त, पृ. 93