ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- II March  - 2022
Innovation The Research Concept
बुंदेलखंड के भित्ति चित्रों में लोक संस्कृति का प्रभाव : एक अध्ययन (चित्रकूट के विशेष सन्दर्भ में)
Influence of Folk Culture in the Murals of Bundelkhand: A Study (With Special Reference to Chitrakoot)
Paper Id :  15908   Submission Date :  12/03/2022   Acceptance Date :  15/03/2022   Publication Date :  25/03/2022
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तनुजा सिंह
विभागाध्यक्ष
चित्रकला विभाग, ललित कला संकाय
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर,राजस्थान, भारत
हेमलता तिवारी
शोधार्थी
चित्रकला विभाग, ललित कला संकाय
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर, राजस्थान, भारत
सारांश भारत की कला भारतीय संस्कृति की वाहिका है। कला, संस्कृति में निहित आध्यात्मिक भाव को लेकर चलती है। कला मात्र व्यक्तिगत भावों को व्यक्त नहीं करती अपितु समाज की दैनिक कार्यकलापों से प्रभावित व्यक्ति के सम्पूर्ण परिवेश को भी नवीन रूप के साथ हमारे सम्मुख लेकर आती है । बुंदेलखंड सांस्कृतिक, प्राकृतिक दृष्टि से संपन्न क्षेत्र है। यहाँ के पवित्र तीर्थ और रमणीय स्थल आज भी इसके वैभव का चित्र प्रस्तुत करते है। विन्ध्य पर्वत श्रृंखला प्रागैतिहासिक काल से मानव का उपयुक्त निवास स्थान रहा है। इस पर्वत श्रृंखला में स्थित बुंदेलखंड भू भाग पुरातात्विक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। बुन्देली समाज अपनी लोक संस्कृतियों के लिए विख्यात है । यहाँ कला ने अपनी बुन्देली संस्कृति तथा धर्म के प्रकटन के लिए विविध माध्यमों को अपनाया जिसमे से भित्ति चित्र भी प्रमुख है और इनमे भी प्रमुख उद्भूत तत्व है ʺलोक संस्कृतिˮ। इस प्राचीन निवास स्थान में भित्ति चित्रांकन की परंपरा भी मानव के उदय के साथ ही पल्लवित हुई है । इस क्षेत्र के उत्तर में स्थित चित्रकूट पौराणिक समय में भगवान श्री राम ,माता सीता और भाई लक्ष्मण के पर्याप्त समय तक निवास के लिए अधिकांशतः जाना जाता है। राम बुन्देली जनमानस के लोक देवता व कण कण में बसे हुए है। इसके साथ ही इस धार्मिक नगरी में कला के कुछ उच्च पर्याय भी दर्शनीय है । धार्मिक प्रसिद्धि के कारण यहाँ अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ तथा उनकी भित्ति आदि स्थानों पर श्री राम के जीवन से जुड़े कथानकों को चित्रित किया गया। चित्रकूट के बिजावर मंदिर तथा गौरिहार मंदिर से प्राचीन तथा उत्कृष्ट भित्ति चित्र प्राप्त हुए है जो कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रतीत होते है। चित्रकूट की मन्दाकिनी नदी के किनारे राघव प्रयाग घाट के समीप स्थित बिजावर मंदिर 200 वर्ष पूर्व निर्मित है । इसके भित्ति चित्रों का सर्वेक्षण करने पर ज्ञात होता है की इनमे प्राचीन भारतीय कला के तत्वों को भली भांति समावेशित करने का एक सफल प्रयास किया गया है, इसके साथ ही इसमें बुन्देली लोक संस्कृति का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से उपर्युक्त उल्लेखित मंदिरों के भित्ति चित्रों में समाहित लोक संस्कृति के प्रभाव को वर्णित करने का प्रयास किया गया है ।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Indian art is the vehicle of Indian culture. Art carries with it the spiritual spirit inherent in the culture. Art does not only express individual feelings, but also brings before us the whole environment of the person affected by the daily activities of the society with a new look. Bundelkhand is a cultural, natural and rich region. The holy shrines and delightful places here still present a picture of its splendor. Vindhya mountain range has been a suitable habitat for human beings since prehistoric times. The Bundelkhand terrain situated in this mountain range is very important from the archaeological and historical point of view. Bundeli society is famous for its folk cultures. Here art has adopted various mediums for the manifestation of its Bundeli culture and religion, out of which murals are also prominent and in these also the main emerging element is 'folk culture'. The tradition of mural painting in this ancient abode has also flourished with the rise of man. Chitrakoot, located in the north of this region, is mostly known for the long period of residence of Lord Shri Ram, Mother Sita and brother Lakshmana in mythological times. Ram Bundeli is inhabited by the folk deity and every particle of the people. Along with this, some high options of art are also visible in this religious city. Due to religious fame, many temples were built here and the stories related to the life of Shri Ram were depicted on their mural etc. Ancient and excellent murals have been found from the Bijawar temple and Gaurihar temple of Chitrakoot, which seem to be artistically important. Situated near Raghav Prayag Ghat on the banks of Mandakini river of Chitrakoot, the Bijawar temple is built 200 years ago. On surveying its murals, it is known that a successful attempt has been made to incorporate elements of ancient Indian art in them, as well as the influence of Bundeli folk culture is also reflected in it. Through the present research paper, an attempt has been made to describe the influence of folk culture contained in the murals of the above mentioned temples.
मुख्य शब्द बुंदेलखंड , भित्ति चित्र , चित्रकूट , बिजावर, रत्नेश्वर मंदिर , गौरिहार मंदिर ,विन्ध्य पर्वत, लोक संस्कृति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Bundelkhand, Murals, Chitrakoot, Bijawar, Ratneshwar Temple, Gaurihar Temple, Vindhya Mountains, Folk Culture.
प्रस्तावना
संस्कृति के साथ लोक जोड़ देने से ‘लोक संस्कृति’ शब्द बन जाता है, अंग्रेजी में इस लोक को ‘फोक’ कहा जाता है। आज ‘फोक कल्चर’ के पर्यायवाची शब्द के रूप में लोक संस्कृति शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसको सामान्यतः ग्रामीण संस्कृति बोधक शब्द मान लिया गया है जबकि भारतीय मनीषा में लोक को सम्पूर्ण जगत के रूप में स्वीकार किया है। भारतीय कला में भित्ति चित्रांकन की परंपरा अति प्राचीन है । प्रागैतिहासिक काल के आरंभ से ही मानव ने अपनी कल्पनाओं व जिज्ञासाओं को मूर्त रूप देने हेतु उस समय की प्रकृति निर्मित गुफाओं, शिलाओं पर प्राप्त खनिजों, वानस्पतिक माध्यमों से रेखाओं को उकेरना शुरू किया जिनसे एक के बाद एक रूप बनते गये। गुफा निवासी मानव ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए सर्वप्रथम गुफा भित्तियों , शिलाओं का प्रयोग किया इस तरह प्रारंभिक युगों में यह कला शैल चित्रकला के नाम से जानी गयी। मध्य प्रदेश के छत्तीस जिलों में शैलचित्र पाएं जाते है, जिसमे बाईस जिले विन्ध्याचल की गोद में बसे है। सर्वाधिक चित्रित शैलाश्रय समूह इसी क्षेत्र में पाएं जाते है। समय, काल परिवर्तन के साथ ही मनुष्य की कला तथा माध्यमों में भी परिवर्तन होता गया। चित्र निर्माण के लिए शिलाओं और गुफाओं के स्थान पर अब भवन और मंदिर की भित्तियों का प्रयोग किया जाने लगा। गुप्त युग तक आते आते मंदिरों का बड़ी संख्या में निर्माण हुआ जिससे कलाकारों को चित्र और मूर्तियों के निर्माण के लिए एक धार्मिक विषय मिला किन्तु चित्रों से अधिक मूर्तियों और मंदिर की भित्तियों में अर्ध शिल्पों का निर्माण हुआ। संघर्ष के युग में संभवतः चित्रों को लम्बे समय तक संरक्षित रखना संभव नहीं था इसीलिए शिल्पों का निर्माण किया गया। मध्यकाल में इन चित्रों का निर्माण पांडुलिपियों में कवियों और साहित्यकारों की रचनाओं में हुआ साथ ही उस समय के प्रतापी राजाओं ने महलों, छतरियों का निर्माण करवा कर उन्हें चित्रों से सुसज्जित कराया। ये भित्ति चित्र न केवल अपने समय की सांस्कृतिक व सामाजिक अवस्था के दद्योतक है बल्कि कलाओं का विकास और महत्व भी परिलक्षित करते है। अपनी ऐसी ही विविध कलात्मक संस्कृतियों का बखान करता एक क्षेत्र बुंदेलखंड है। भौगोलिक रूप से विन्ध्य परिक्षेत्र विंध्येला (विन्ध्य की इला) कहलाता था, जो एक पृथक इकाई के कारण विन्ध्येलखंड नाम से जाना जाता था । कालांतर में मुख सुख के कारण विंध्येला अपभ्रंश में बुंदेला और विन्ध्येल्खंड बुंदेलखंड हो गया।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से चित्रकूट के कलात्मक रूप से महत्वपूर्ण बिजावर और गौरिहार मंदिरों में निर्मित भित्ति चित्रों के संक्षिप्त अध्ययन को वर्णित करने का प्रयास किया गया है। इस क्षेत्र के साथ ही बुंदेलखंड के अन्य क्षेत्र भी अपनी कलाओं के प्रत्येक स्तर में समृद्ध है जिनमे विस्तृत रूप से शोध और सरंक्षण की आवश्यकता है । जिससे यहाँ के ऐतिहासिक पक्ष के साथ ही कलात्मक पक्ष पर भी नवीन प्रकाश पड़ सकेगा तथा सम्बंधित क्षेत्र की प्राचीन स्थापत्य, मूर्ति व भित्ति चित्रांकन परंपरा को समझने का एक नया अवसर और सुविधा प्राप्त हो सकेगी।
साहित्यावलोकन
बुंदेलखंड के अनन्य इतिहासकारों ने बुंदेलखंड की कला,इतिहास, संस्कृति, परंपरा आदि पर वृहद् ग्रंथों की रचना कर इस क्षेत्र की अनुपम धरोहर को विश्व पटल पर लाने का सर्वोत्तम व सफल प्रयास किया है । इतिहासकार डॉ नर्मदा प्रसाद उपाध्याय एवं भारतीय सौंदर्य शास्त्र के विद्वान व कला इतिहासकार हर्ष वी दहेजिया द्वारा संयुक्त रूप से अंग्रेजी में लिखित पुस्तक बुंदेलखंड की चित्रकला में बुंदेलखंड के भित्ति और पाण्डुलिपि चित्रों का उल्लेख किया गया है, जिसमे चित्रकूट के बिजावर और गौरिहार मंदिरों का भी चित्र फलक और कुछ वर्णन है। इसी प्रकार से डॉ उपाध्याय की एक अन्य पुस्तक बुंदेलखंड के भित्ति चित्र में बुंदेलखंड क्षेत्र के दुर्लभ स्थानों यथा अजयगढ़ , धुबेला, निवाड़ी, पिछोर आदि की भित्ति चित्रों का वर्णन दिया गया है। ओरछा और दतिया के महल अपने भित्ति चित्रों के लिए विश्व प्रसिद्ध है तथा बुंदेलखंड के इतिहासकारों और कला प्रेमियों ने इस अनुपम धरोहर को अपने लेखों, पुस्तकों में स्थान दिया है ।
मुख्य पाठ

प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से चित्रकूट केकलात्मक रूप से महत्वपूर्ण बिजावर और गौरिहार मंदिरों में निर्मित भित्ति चित्रों के संक्षिप्त अध्ययन को वर्णित करने का प्रयास किया गया है। इस क्षेत्र के साथ ही बुंदेलखंड के अन्य क्षेत्र भी अपनी कलाओं के प्रत्येक स्तर में समृद्ध है जिनमे विस्तृत रूप से शोध और सरंक्षण की आवश्यकता है । जिससे यहाँ के ऐतिहासिक पक्ष के साथ ही कलात्मक पक्ष पर भी नवीन प्रकाश पड़ सकेगा तथा सम्बंधित क्षेत्र की प्राचीन स्थापत्य, मूर्ति व भित्ति चित्रांकन परंपरा को समझने का एक नया अवसर और सुविधा प्राप्त हो सकेगी।
भौगोलिक दृष्टि से बुंदेलखंड का अधिकांश भू भाग दक्षिण के पठार में है । इसकी पुरातात्विक महत्ता आदिमानव काल तक को छूती है और इसकी परम्पराएं सम्पूर्ण देश को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। इस भू भाग को कभी मध्य देश के नाम से जाना गया है। यह क्षेत्र न केवल अपनी प्राचीन संस्कृतियों के लिए अपितु इनमे भी सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य कालीन आर्य सभ्यताओं के लिए भी उल्लेखनीय है। बुंदेलखंड के उत्तर में स्थित चित्रकूट की महिमा कुछ इसी प्रकार की है। चित्रकूट धाम आज का नहीं अनादि काल का है और यहाँ प्रागैतिहासिक काल सहित सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युगीन चिन्ह आज भी देखे जा सकते है। बुंदेलखंड का चित्रकूट जिला रामायण कालीन संस्कृति के लिए विख्यात है। कवि विद्याभूषण विभु जी ने चित्रकूट चित्रण के तृतीय छवि चित्रांचल में चित्रकूट के नामकरण को कवित्वपूर्ण शैली में प्रचलित किंवदंती के अनुसार ( मृत्युलोक में भक्तों के मध्य स्वर्ग के रूप में चित्रकूट ) चित्रकूट की चित्रमयता की ओर कुछ इस प्रकार संकेत किया है -
  चित्रपुच्छ चित्रांग चित्रपद चित्रकंठकी टोली है ।
  चित्रबाज है चित्रकीटपशु चित्रविहंगम बोली है।।
  चित्रित पंडे साधु पुजारी मूर्ति सुरालय पाते है ।
   चित्रकूट है नाम इसी से नर ऐसा बतलाते है ।।[2]
इस प्रकार चित्रकूट का एक अर्थ यह भी प्राप्त होता है कि वह स्थान जो चित्रों से परिपूर्ण हो । चित्रकूट एक ऐतिहासिक धार्मिक स्थल है जिसका आधा भाग उत्तर प्रदेश में तथा आधा भाग मध्य प्रदेश में है । यह कर्वी रेलवे स्टेशन से 10किमी दक्षिण और बाँदा जनपद से 72किमी दक्षिण पूर्व इलाहाबाद मार्ग पर स्थित है। चित्रकूट जनपद पूर्व में बाँदा जनपद का एक अंग था किन्तु 6मई 1997को छत्रपति साहू जी महाराज नगर के नाम से नया जनपद बन गया तथा सितम्बर 1998 को उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा इसे एक पृथक राज्य के रूप में घोषित किया गया चित्रकूट का आधा भाग मध्य प्रदेश के सतना जिले के अंतर्गत आता है। चित्रकूट पुरातात्विक रूप से भी महत्वपूर्ण है। यहाँ के मानिकपुर,सरहट, उल्दन (कल्यानपुर ), सीता पहाड़ी , भौंरी आदि स्थानों में पर्याप्त शैल चित्र पाए गए है। तीर्थ स्थल होने के कारण तथा श्री राम के यहाँ वनवास के कारण मंदिरों का निर्माण होना स्वाभाविक है । इसी क्रम में एक भव्य कलात्मक मंदिर जिसे बिजावर मंदिर या रत्नेश्वर मंदिर कहा जाता है, अत्यंत महत्वपूर्ण है।
लोक संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग है लोक कला। यह संस्कृति की पहचान है और भारतीय संस्कृति में तो लोक कला का प्रभाव हर क्षण देखने को मिलता है। घर की रंगी पुती दीवारों से लेकर त्यौहार, विवाह जैसे आदि मांगलिक अवसरों पर इसकी भावाभिव्यक्ति देखते बनती है। इन्ही ग्रामीण लोक संस्कृतियों से रचे गुंथे रंग व रूप बुंदेलखंड के पौराणिक क्षेत्र चित्रकूट के बिजावर और गौरिहार मंदिरों की भित्तियों में परिलक्षित होते है।


(चित्र सं 1- बुंदेलखंड मानचित्र )

बिजावर मंदिर चित्रकूट में मन्दाकिनी नदी के किनारे राघव प्रयाग घाट के समीप बना हुआ है। इस मंदिर की स्थापना व निर्माण यहाँ की रानी रत्नेश कुमारी द्वारा 200 वर्ष पूर्व द्वारा कराया गया था । इस कारण इसे रत्नेश्वर मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर श्री रामलक्ष्मण और माता जानकी को समर्पित है। ऐसा कहा जाता है कि रानी रत्नेश कुमारी द्वारा बनवाए दो मंदिर ही ऐसे है जहाँ कि श्री राम,लक्ष्मणजानकी की प्रतिमाएं बैठी हुई अवस्था में हैपहला कनक भवन मंदिर अयोध्या तथा दूसरा बिजावर मंदिर चित्रकूट। मंदिर मुख्यतः रत्नेश्वर भवन के अन्दर बना हुआ है। बाह्य से लेकर आतंरिक भाग तक चित्रों तथा फूलपत्ती,बेलबूटों के आकल्पन से परिपूर्ण है। मुख्य द्वार से प्रवेश के उपरांत सामने की ओर मेहराबदार स्तम्भ दिखते है जिनमे लालहरेनीले रंग से आकल्पन बने हुए है। इसके बाद के गर्भगृह कक्ष के भी मेहराब आलेखन युक्त है। लोक कला एवं लोक संस्कृतियों में रंगों का प्रतीकात्मक प्रभाव होता है जैसे लाल शुभताशक्ति पीला ज्ञान और प्रसन्नता आदि इसी प्रकार अन्य रंगों का भी अपना महत्व है इस मंदिर की भित्तियों में चित्रित रूपाकारों में पर्याप्त प्राथमिक रंगों का प्रयोग किया गया है जिससे यहाँ बने चित्र लोक कलाओं के अधिक समीप प्रतीत होते है मंडप के मेहराबदार द्वारों के ऊपर बने आयताकार पैनल भी फूल पत्ती के अलंकरण से सुसज्जित है। मुख्य मंडप की भित्ति की छत की उपरी हिस्सों में बने ताकों में धार्मिक विषय से सम्बंधित चित्र बने हुए है। मुख्य मंदिर के पार्श्व में दोनों ओर गतिशील मुद्रा में गरुड़ और हनुमान का अंकन है जिनमें कन्धों पर श्री राम और लक्ष्मण को बैठाया हुआ अंकित किया गया है।


(चित्र सं 2 बिजावर मंदिर,चित्रकूट, ल.भ. 200 वर्ष पूर्व )

चित्र सं 3 भगवान राम और लक्ष्मण को अपने कंधो पर उठाए हनुमान : बिजावर मंदिरचित्रकूट 
चित्र सं 4 भगवान राम और लक्ष्मण को अपने कंधो परउठाए गरुड़ : बिजावर मंदिर, चित्रकूट

चित्र सं 5 रिद्धि सिद्धि संग चतुर्भुजी गणेश                                      चित्र सं 6 वाराह अवतार दृश्य
    

चित्र सं 7 राधा के संग नृत्यरत कृष्ण

चित्र सं 8 गोपियों के वस्त्र हरते कृष्ण

चित्र सं 9 मंदिर के आतंरिक आकल्पन

चित्र सं 10 मंदिर के आतंरिक भित्ति चित्र

चित्र सं 11मंदिर केगर्भगृह का बाह्य अलंकरण 

चित्र सं 12मंदिर केगर्भगृह का प्रवेश द्वार तथा पार्श्व स्थान

मंदिर की भित्ति के ऊपरी भाग पर बने वर्गाकार ताकों में अनेकों चित्र बने है जिसमे कृष्ण राधा संग नृत्यरत, कृष्ण दूध दुहते, गायें चराते, गोपियों के वस्त्र चुराते, गोपियों संग होली खेलते, माँ यशोदा के संग, शिशु कृष्ण को गोद में लिए माँ यशोदा, शिशु कृष्ण को टोकरी में उठाएं वासुदेव और सामने खड़ी देवकी, कृष्णा पूर्णरूप में दर्शन देते, वाराह अवतार, चतुर्भुजी गणेश रिद्धि सिद्धि के संग, चतुर्भुजी देवी की उपासना करती स्त्रियाँ, गाय के साथ त्रिभंगी मुद्रा में खड़े बांसुरी बजाते कृष्ण, चतुर्भुजी विष्णु, राधा के साथ फुगडी खेलते कृष्ण, आदि इसी प्रकार के भित्ति चित्र बने है। इन सभी चित्रों पर मराठा प्रभाव स्पष्टजिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन रियासतों पर मराठों के प्रभाव के कारण इन मंदिरों की भित्तियों पर ये अंकन किये गए होंगे।[3]लघु होते हुए भी यह चित्र स्पष्ट है, कला के तत्वों का इनमे पर्याप्त पालन किया गया है। मंदिर की छत की किनारी पर भी अलंकरण देखने को मिलता है। भारतीय कला संस्कृति में अलंकरण में फूल, पत्ती, पुष्पों, लताओं तथा वृक्षों आदि का विशेष स्थान है क्योंकि आदिम समय से ही यह सब मनुष्य के सहचर के रूप में रहे है और इसके साथ ही हमारे भारतीय शास्त्रों में ये पूजनीय और शुभता के प्रतीक भी माने जाते है इन पुष्पों और लताओं के बिना आलेखनों को पूर्ण नहीं समझा जाता है इस प्रकार यहाँ इस तरह के आलंकारिक आलेखनों के माध्यम से देव स्थान को पूर्णता और शुभता से परिपूर्ण किया गया है ।बाह्य भाग की तरह मंदिर का आन्तरिक भाग भी भित्ति चित्रों से सुसज्जित है । भारतीय कला और चिंतन में कमल सौन्दर्य, समृद्धि और उद्भव का सर्वमान्य प्रतीक रहा है ।गर्भगृह के मेहराबदार द्वार पर भी अलंकरण का बहुलता से प्रयोग किया गया है तथा दोनों ओर के पार्श्वों के पतले से स्तंभों में द्वारपालों की कमल पर खड़े हुए अर्ध उभारदार शिल्प बनाये गए है। गर्भगृह की देहरी को भी कमल की पंखुड़ियों से उभारदार अलंकृत किया गया है। पुष्पों, लताओं के प्राकृतिक सौंदर्य, विविध वर्णों और धार्मिक महत्व के कारण ही यह भारतीय ललित कलाओं के अभिन्न अंग बन गये है । मंदिर के भीतरी एक कक्ष में गवाक्षों के ऊपर चौड़ी पट्टिका में वर्गाकार परिधि में अनेकों चित्र बने हुए है किन्तु ये चित्र समय और धुंए आदि के चलते धूमिल पड़ चुके है, इसीलिए इन्हें स्पष्तः पहचानना कठिन है लेकिन संभवतः यह कहा जा सकता है कि यद्दपि यह मंदिर भगवान श्री राम को समर्पित है इसलिए यह चित्र भी भगवान राम के वनवास के जीवन से सम्बंधित हो सकते है ।
मंदिर के भित्ति चित्र लोक शैली से प्रभावित है। यहाँ कलाकारों की आध्यात्मिक भावना के दर्शन होते है। इस मंदिर के भित्ति चित्रों में विविध विशेषताएं देखने को मिलती है जिसमे सर्वप्रमुख इन चित्रों के भाव और इनमे व्याप्त लोक तत्त्व है। प्रकृति के सहचर पशु, पक्षी आदि के साथ साथ यहाँ के कलाकारों ने पौराणिक युग से लेकर भगवान विष्णु के सभी रूपों को अपने चित्रों में साकार करने का प्रयास किया है । कला में आकारों का विशेष महत्व है । लघुतम होते हुए भी कुछ चित्र अपने सम्पूर्ण भावों के साथ निर्मित किए गए है जैसे एक चित्र में राधा संग कृष्ण को नृत्यरत दिखाया है जिसमे राधा के झुके हुए मुख से प्रेम और लज्जा का भाव प्रदर्शित है तथा पैरों के आगे पीछे के द्वारा उनकी नृत्य की गति मुद्राएं दिखाई है। पर्याप्त लोचदार रेखाओं के माध्यम से चित्रों में कोमलतम भावों को प्रकट किया गया है । इनमे प्रयुक्त चटक रंग बुन्देली लोक संस्कृति का विशेष प्रभाव दर्शाते है।इसी प्रकार चतुर्भुजी गणेश चित्र में गणेश का गौर वर्ण से चित्रण प्रभाविता सहित देव की महत्ता का परिसूचक है । हनुमान और गरुड़ के द्वारा राम और लक्ष्मण को कन्धों पर उठाए हुए चित्र में हनुमान और गरुड़ का विशाल आकार दिखा कर इनके दैवीय भावों को दर्शाया गया है । यहाँ के भित्ति चित्रों में लोक कला के अनुरूप चटकीले लाल, पीले, हरे, नीले रंगों का प्रयोग किया गया है। इनमे छाया प्रकाश के स्थान पर सपाट रंग ही भरा गया है। आँखों का चित्रण अपभ्रंश शैली के समान है। चित्रों में आलंकारिकता को विशेष महत्व दिया गया है तथा शरीर के अलंकरण में पर्याप्त आभूषणों ,मुकुट आदि का प्रयोग किया है। यदि कलाकृतियों के तकनीकी पक्ष की बात की जाए तो इसमें अधिकांशतः चित्र उभारदार शिल्प की भांति प्रतीत होते है क्योंकि यह संगमरमर की पच्चीकारी से निर्मित है इन्हें केवल रंगों से दीवारों पर उकेरा नहीं गया है बल्कि सम्पूर्ण कलात्मक अभिप्राय संगमरमर के टुकड़ों को जोड़ कर बनाये गये है मंदिर के गर्भगृह कक्ष के द्वार के 
ऊपरी अर्धचन्द्राकार भाग एवं पार्श्व भाग इसी प्रकार निर्मित किया गया है जिसमे गहरी पृष्ठभूमि में मोर , लताओं का अंकन सर्वाधिक सुन्दर और सुगणित है  इस प्रकार लोक कला संस्कृति के तत्वों को समाहित किये बिजावर मंदिर के भित्ति चित्र कला के विशिष्ट उदाहरणों में आते है। आधुनिक कुशल कलाकारों की बारीकी की सुगढ़ता का दर्शन इनमे भले ही ना प्राप्त हो किन्तु इन चित्रों का भावात्मक सौंदर्य और आध्यात्मिक पक्ष किसी भी सामान्य व्यक्ति को अभिभूत करने योग्य है।
बिजावर मंदिर के समान ही एक अन्य मंदिर गौरिहार मंदिर है जिसमे बने विभिन्न आकल्पन भित्ति चित्रकला के अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते है। रेखाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति यहाँ देखने योग्य है ।
चित्रकूट में स्थित एक अन्य मंदिर अपनी कलात्मक सुन्दरता के लिए दर्शनीय है। इसका निर्माण गौरिहार के महाराजा राजधर ने 
250वर्ष पूर्व करवाया था।मंदिर में मुख्य देवता के रूप में श्री राम जानकी विराजमान है। भारतीय लोक कला संस्कृति में रेखाओं का विशेष कलात्मक और दार्शनिक महत्व है।प्रवाहमयी रेखाओं और उनसे निर्मित पुष्पों के द्वारा निरंतर गति और लय का भाव प्रकट होता है।नीली व लाल पृष्ठभूमि में सफेद रेखाओं से बने चित्र तथा बेलबूटे देखने योग्य है। मुख्य द्वार मेहराबदार है तथा द्वार के उपरी पैनल पर भगवान गणेश की चतुर्भुजी प्रतिमा रिद्धि सिद्धि के संग सिंदूरी रंग से अर्ध उभारदार बनी हुई है। देवताओं में अग्रिम होने के कारण गणेश की प्रतिमा सर्वप्रमुख देखने को प्राप्त होती है।इस पैनल के ऊपरी भाग में वर्गाकार परिधि में सफेद रेखाओं से चित्र और फूल पत्तियों के आलेखन बने हुए है। भारतीय लोक कलाओं में वृक्ष, लताओं आदि प्राकृतिक रूपाकारों का महत्त्व धार्मिक और दैवीय है , प्रायः सभी लोक कलाओं में इनका बहुलता से उपयोग किया जाता है। प्रकृति सदैव से मानव की सहचरी रही है और मानव ने अपने उदय के साथ ही इसे देव स्वरुप में पूजा है, यही कारण है की प्राकृतिक रूपों का अंकन कलाकारों का सदा ही मनचाहा विषय रहा है। द्वार के दोनों ओर के पार्श्वों पर सफेद रेखाओं से समुद्री गहरे रंग की पृष्ठभूमि पर द्वारपाल के चित्र हाथों में दंड लिए बने हुए है। द्वारपालों का अंकन भी भारतीय परंपरा में अत्यधिक प्रचलित है और संभवतः विष्णु और उनसे सम्बंधित अवतारों के मंदिरों में यह अंकन विशेषतः दर्शनीय है। इसका चित्रण मंदिर बनने के बहुत समय पश्चात् संभवतः उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ होगा क्योंकि मंदिर के आतंरिक भाग की भित्ति की ऊपरी हिस्से में बने ताकों में अंग्रेज सैनिक और अधिकारीयों के कुछ चित्र है किन्तु यह उभारदार काम है चित्रांकन नहीं है । इन ताकों में एक चित्र एक अंग्रेज अधिकारी को हुक्का पीते दिखाया है तथा दो अन्य सेवक उसकी सेवा में आस पास खड़े है। मंदिर का बाह्य से लेकर आतंरिक भाग आलंकारिक चित्रों से आच्छादित है। रंगों का सुन्दर समन्वय और रेखाओं का कुशल प्रयोग यहाँ देखने योग्य है । ताकों का ऊपरी हिस्सा अर्थात छत के भाग पर आलेखन जैसे चित्र बने हुए है। इस प्रकार विभिन्न कलात्मक प्रतिरूप मंदिर की भित्तियों में शोभायमान है।


चित्र सं 12गौरिहार मंदिर चित्रकूट, ल.भ. 250 वर्ष पूर्व 
 
चित्र सं 13- गौरिहार मंदिरचित्रकूट

निष्कर्ष कला कभी लोक से विलग नहीं हो सकती। भारतीय लोक कला संस्कृति पर न केवल धर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है बल्कि उसकी छाप भी विभिन्न रूपाकारों में स्पष्तः दृष्टिगोचर होती है। सामान्यतः लोक कलाकार तथा सामान्य मनुष्य अपने मंगलमय जीवन की अभिलाषा से धर्म के प्रभाव में रहकर अपनी धार्मिक भावनाओं को कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति देता है। बुंदेलखंड का यह क्षेत्र चित्रकूट अपनी धार्मिक आस्था के लिए जाना जाता है। बुंदेलखंड मध्यकाल से चंदेलों, बुंदेलों, कलचुरियों का प्रमुख क्षेत्र रहा है। चित्रकूट के बिजावर मंदिर और गौरिहार मंदिर के कलात्मक प्रतिरूप अपने आप में कला के विशिष्ट और समकालीन स्थिति के द्द्योतक है । महारानी रत्नेश्वरी द्वारा बनवाए गये बिजावर मंदिर व उनमे संगमरमर से निर्मित अभिप्राय उनकी आस्था और कला के प्रमाण प्रस्तुत करते है। संगमरमर के कला रूपी सुन्दर प्रयोग के कारण यह मंदिर 200 वर्ष बाद आज वर्तमान स्थिति में भी पूर्व की तरह ही देखने योग्य है। गौरिहार मंदिर के प्रवेश स्थान के सम्मुख भाग में ही बुन्देली लोक संस्कृति की छाप दिख जाती है जैसे यहाँ के ग्रामीण अंचलों के घरों की दीवारों में खड़िया आदि प्राकृतिक वस्तुओं से सजाने का जो कार्य मांगलिक अवसरों में किया जाता है, वैसा ही कुछ अलंकरण गौरिहार मंदिर में देखने को प्राप्त होता है। प्रकृति प्रदत्त अभिप्रायों को निर्मित करना लोक जगत की एक प्रमुख विशेषता एवं विषय भी रहा है जिसका दर्शन हमे इन मंदिरों में स्वतः ही हो जाता है। आधुनिकीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण वर्तमान में नव निर्मित मंदिरों में अब भित्ति चित्र के स्थान पर सजावट के अन्य साधन देखने को मिलते है । भित्ति चित्रकला की जड़ें आदिम काल की है और इनकी इस प्राचीनता को बनाये रखने के लिए आवश्यक है की वर्तमान कलाकारों को भारतीय धर्म से अनुप्राणित कला से अवगत कराया जाये जिससे समय के साथ बुन्देली क्षेत्र के अन्य मंदिरों तथा भित्ति चित्रों के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सके। बुंदेलखंड क्षेत्र के विस्तृत अंचल में अनेकों उदाहरण ऐसे देखने और शोध करने योग्य है जिनसे कला की ओर एक नया पक्ष देखने को मिल सकता है। इसमें निरंतर शोध की आवश्यकता है, जिससे चित्रकूट के समान ही इसके आस पास और आतंरिक जंगलों में ऐसे और भी स्थान है जिन्हें पर्याप्त संरक्षण की जरूरत है, जिससे सम्बंधित क्षेत्र की प्राचीन कलात्मक विशेषताओं का ज्ञान हो सके तथा उन्हें समझने में सुविधा हो सकेगी।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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