ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XII January  - 2023
Innovation The Research Concept
वैदिक कालीन स्त्री अधिकार एवं स्वतंत्रतायें
Vedic Period Womens Rights and Freedoms
Paper Id :  16951   Submission Date :  13/01/2023   Acceptance Date :  13/01/2023   Publication Date :  13/01/2023
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सुनीता मीणा
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
बाबू शोभाराम राजकीय कला महाविद्यालय
अलवर,राजस्थान, भारत
सारांश स्त्री पत्नी या माँ के रूप में भारतीय परिवार की केन्द्रबिन्दुक उत्थान और पतन के इतिहास में स्त्री बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है। भारत में वैदिक युग से लेकर मध्यकाल तथा आधुनिक युग तक नारी की स्थिति में युग के अनुरूप परिवर्तन होता रहा है तथा अनेक उतार-चढ़ाव उनके जीवन में आते रहे हैं। उनके अधिकारों में तदनुरूप परिवर्तन भी होते रहे हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In the Vedic age, the condition of women was much better than other civilizations in India. In other ancient societies, women were treated mercilessly, they did not have any kind of rights.
मुख्य शब्द वैदिक कालीन, स्त्री, अधिकार एवं स्वतंत्रतायें।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद In the Vedic age, the condition of women was much better than other civilizations in India. In other ancient societies, women were treated mercilessly, they did not have any kind of rights.
प्रस्तावना
वैदिक युग में भारत में अन्य सभ्यताओं की अपेक्षा नारी की स्थिति कहीं अधिक अच्छी थी अन्य प्राचीन समाजों में नारियों के साथ निर्दयता का व्यवहार किया जाता था उनको किसी भी प्रकार के अधिकार नहीं थे यहाँ तक कि यूनान जो अपनी संस्कृति के अति प्राचीन होने का दावा करता है वहाँ भी प्राचीन यूनान में स्त्रियों की स्थिति भारत की अपेक्षा अच्छी नहीं थी। इतिहासकारों ने लिखा है कि एथेन्स और स्पार्टा में स्त्री और पुरुष दोनों ही पशु कुछ उन्नत थे क्योंकि प्राचीन पेलेस्टाइन में स्त्रियों को सम्पत्ति का एक अंश समझा जाता था जिन्हें कभी भी खरीद या बेच दिया जाता था। लेकिन भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है, अगर कुछ उदाहरणों को छोड़ दिया जाये तो इतिहास इस बात का साक्षी रहा है प्राचीन भारत और विशेषकर वैदिक युग में महिलाओं की स्थिति इतनी उच्च एवं सम्मानजनक थी कि जिसके लिए आधुनिक काल में प्रत्येक देश एवं समाज की महिलाएं आज तक तरस रही है।
अध्ययन का उद्देश्य इतिहास अतीत का आइना है। जिसमे अपने समय की सामाजिक, सांस्कृतिक, शासन व्यवस्था की विशेषताएं दिखती हैं इन काल खण्डी में नाहीं, की क्या स्थिति दशा दिशा थी और उसे किन-किन मोड़ों से गुजाना पड़ा, उनके का अधिकार न स्वतंत्रताल श्री मेरा उद्देश्य वैदिक कालीन समाज में नारी की जितना PS अधिकारों का उल्लेख कसा है।
साहित्यावलोकन
स्त्रीत्व धारणाएं एवं यथार्थ ने (204) विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओ मे स्त्री की स्थिति के बारे मे नृत्य दिये है। साथ ही हिन्दू धर्म एवं हिन्दू इतिहास में स्त्रियों की स्थिति पर शास्त्रीय आधारों सहित प्रमाणिक जानकारी दी है। नारीवाद  2013 में वी.एस. सिंह ने इतिहास के विभिन्न कालखण्डों मे नारी की स्थिति एवं पर प्रकाश डाला है। वैदिक युग मे नारी की स्थिति, स्मृति काल मे नाही तथा इसीअवी सदी मे नाही की स्थिति भूमिय सभी बिन्दुओ को स्वर्ग किया है।
मुख्य पाठ

स्त्री को पुरूष की अर्धांगिनी समझा जाता है किसी एक के बिना दूसरा अधूरा रहता है हिन्दू दृष्टि में स्त्री का प्राचीनतम दार्शनिक विश्लेषण बृहदारण्यक निषद में मिलता है। (बृहदारण्यक के प्रथम अध्याय के चतुर्थ ब्राह्मण में प्रारम्भिक दो में ही यह विश्लेषित है कि एक ही मूल तत्व है। उस चिन्मय को ही पुरुष कहते हैं (पुरूष विधः आत्मा) वह अन्य की आकांक्षा करता है। एकाकी उसका मन नहीं रमता अतः अन्य की आकांक्षा करते ही वह दो भागों में परिणमित हो गया। उसका एक भाग था पति तथा दूसरा भाग था पत्नि दोनों, एक ही देह के दो भाग है क्योंकि आत्मा ने अपनी एक ही देह को दो भागों में विभक्त कर डाला था पुरुष आकाश स्त्री से ही पूर्ण होता है। ये दोनों द्विदल अन्न के एक-एक दल हैं। यह सम्पूर्ण सृष्टि इसी एक द्विधा विभक्त जोड़ी का सृजन है।

शतपथ ब्राह्मण में वाजपेय यज्ञ का यज्ञकर्ता इस बात को कहता है कि सर्वोच्च लाभ को प्राप्त करना चाहता हूँ अतः अपनी अर्धागिनी पत्नी को मैं यज्ञ में सम्मिलित रखता हूँ। इसी प्रकार आदिपर्वान्तर्गत सम्भव पर्व में दुष्यंत शकुन्तला संवाद में शकुन्तला दुष्यंत से कहती है-

अर्ध भार्या मनुष्यस्थ भार्या श्रेष्ठतमः सखा।

भार्या मूल त्रिवर्मस्य भार्या मूल वरिष्ठता ।।

अर्थात् भार्या पुरुष का अर्धा है। भार्या ही पति की श्रेष्ठ रखा है। भार्या ने ही अर्थ सिद्धि, धर्म सिद्धि एवं कामनाओं की सिद्धि का मूल आधार है भार्या ही मोक्ष की भी परम सहायक है।

इस प्रकार भारतीय दृष्टि में आत्मा के स्तर पर स्त्री एवं पुरूष समान सार, समान वीर्य, समशील समवृत्ति समान रूप से धर्माचरण में समर्थ होते हैं।

अधिकार एवं स्वतंत्रताएँ-

वैदिक युग में जन्म से लेकर मृत्यु तक स्त्री को समाज एवं परिवार में सम्मानपूर्ण स्थिति प्राप्त थी। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र एवं उम्र के प्रत्येक पड़ाव पर उसे अनेकों अधिकार एवं स्वतंत्रताएँ प्राप्त थी।

बाल्यावस्था एवं शिक्षा-

हालांकि प्रत्येक देश और काल की भाँति वैदिक काल में भी आर्यपुत्री की अपेक्षा पुत्र की ही अधिक कामना की गई थी लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वैदिक युग में पुत्री निम्न दृष्टि से देखी जाती हो वृहदारण्यक उपनिषद् में बुद्धिमान कन्या के जन्म के निमित्त विधि-विधान बताये गए हैं जिससे स्पष्ट है कि शिक्षित तथा सुसंस्कृत माता-पिता और पुत्री के सामाजिक और धार्मिक संस्कारों में बहुत अधिक अंतर नहीं था। पुत्र की भांति पुत्री को भी उपनयन, शिक्षा एवं यज्ञादि का अधिकार था कन्याओं को लड़को के समान पुत्री जन्म के भी उतने ही उत्सुक थे जितने कि पुत्र जन्म के क्योंकि इस काल में पुत्र ही शिक्षा का अधिकारी न था। कुछ स्त्रियों ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की है। यहाँ तक कि कुछ ने तो वैदिक ऋचाओं तक की रचना की है। लोपामुद्रा, घोषा, अपाला, सिकता, निवावरी विश्ववारा इत्यादि इसी प्रकार की विदुषी स्त्रियों थी जिनका ऋग्वेद में उल्लेख है। स्त्रियों एवं विवाह वैदिक काल में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था

स्त्रियों एवं विवाह-

वैदिक काल में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। उस समय विवाह न केवल आवश्यक वरन् एक सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्य माना जाता था लेकिन साथ ही वैदिक साहित्य में ऐसी कन्याओं के उदाहरण भी मिलते हैं जो दीर्घकाल तक आजीवन अविवाहित रहती थीं ऐसी कन्याओं को 'अमाजू' कहा जाता था। इसके साथ ही वयस्क होने पर ही कन्या का विवाह किया जाता था तथा साथ ही कन्या को वर के चयन की भी स्वतंत्रता थी, प्रेम विवाहों का भी उल्लेख इस युग में मिलते हैं। अर्थात वैदिक युग में कन्या को शिक्षा के साथ-साथ विवाह करने या न करने तथा अपना घर चुनने का अधिकार एवं स्वतंत्रता प्राप्त थी।

पारिवारिक जीवन में स्त्रियों का स्थान-

नवविवाहित पत्नि का परिवार में अत्यन्त सम्मानित स्थान था। ऋग्वेद में ससुराल में पत्नी के साम्राज्ञी होने की कामना की गई है। साथ ही घर में दैनिक प्रबंध में उसके विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था पति पत्नि के प्रति सद्व्यवहार रखता था। वैदिक शब्द "दम्पत्ति" से ही स्पष्ट है कि पति एवं पत्नि दोनों ही घर के संयुक्त स्वामी माने जाते थे। विवाह के समय पति को प्रतीज्ञा करनी पड़ती थी कि वह पत्नी को कभी भी उसके आर्थिक हितों से वंचित नहीं करेगा लेकिन सम्भवत: वैदिक युग में स्त्रियों को पुरुषों के समान सम्पत्ति सम्बंधी अधिकार नहीं मिले। लेकिन "ऋग्वेद" के प्रारम्भिक श्लोकों में बिना भाई के बहिन का पिता की सम्पत्ति में हिस्सा स्वीकार किया गया है। इसके साथ ही वैदिक युग में सती प्रथा का अभाव था। हो सकता है भारत में आने से पूर्व आर्यों में यह प्रथा रही होगी लेकिन वैदिक युग में इस प्रथा का अंत हो चुका था बल्कि विधवा स्त्री के सामने तीन रास्ते थे कि वह आजीवन विधवा का जीवन व्यतीत करे, नियोग प्रथा से पुत्र उत्पन्न कर ले या पुनर्विवाह करें। हालांकि उस समय विधवा की स्थिति भी असन्तोषजनक नहीं थी और विधवा स्त्री को पुनर्विवाह की भी स्वतंत्रता थी तथा नियोग प्रथा से पुत्र उत्पन्न करना भी मान्य था। इस प्रकार वैदिक युग में विधवा स्त्री को भी अपना जीवन सम्मानपूर्ण जीने का अधिकार या पुर्नविवाह की स्वतंत्रता प्राप्त थी। वैदिक काल में पर्दा प्रथा का भी अभाव था। साधारणतया इस युग में स्त्रियाँ सामाजिक एवं जनसमारोहों में उपस्थित होती थी वेदों में अलकृता नारी के सभा में जाने का उल्लेख हुआ है। इसके साथ ही वैदिक कालीन स्त्रियों को पुरूषों के समान धार्मिक अधिकार प्राप्त थे। चूँकि स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार था अतः शिक्षा के कारण से उस समय वैदिक मंत्रों का शुद्ध उच्चारण कर सकती थी जो धार्मिक दृष्टि से आवश्यक माना जाता था। ऋग्वेद में एक स्थान पर विश्ववारा का प्रातःकाल जल्दी उठकर अकेले हवन यज्ञों को करने का अधिकार था जो पति-पत्नि द्वारा सामूहिक रूप से किये जाते। साथ ही धार्मिक कार्यों में पति के साथ पत्नि की उपस्थिति आवश्यक मानी जाती थी ऐतरेय ब्राह्मण में धार्मिक दृष्टि से मनुष्य को तब तक पूर्ण नहीं कहा गया है जब तक उसके साथ उसकी पत्नि न हो इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि अविवाहित पुरूषों से ईश्वर अग्नि में अर्पित की गई सामग्री ग्रहण नहीं करते। अधिकाश धार्मिक प्रार्थनाओं में यज्ञ तथा हवन पति-पत्नि दोनों के द्वारा सामूहिक रूप से ही किये जाते थे लेकिन अगर यात्रा के कारण पति घर से बाहर हो तो पत्नी को ऐसे यज्ञों को करने का अधिकार था जो पति-पत्नि द्वारा सामूहिक रूप से किये जाते थे। इन्द्राणी एक स्थान पर गर्व से कहती है कि उसने कुछ नए कर्मकाण्ड शुरू किये है। अत: यह माना जा सकता है कि वैदिक कर्मकाण्डों के विकास में ब्रह्मज्ञानी स्त्रियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा होगा। इनके अलावा कुछ ऐसे कर्मकाण्ड थे जोत केवल स्त्रियों द्वारा ही किये थे। सीता यज्ञ उनमें से एक था जो अच्छी फसल होने के लिए किया जाता था पशुओं की सम्पन्नता के लिए सद्रबली यज्ञ भी वे अकेली कर सकती थी कन्याओं के लिए विवाह में शुभकामनाओं के रूप में स्त्रियों रूद्रप्रयाग यज्ञ कर सकती थी।

इस प्रकार वैदिक युग में नारी को वो अधिकार, स्वतंत्रताएँ समानता एवं सर्वोच्च स्थिति प्राप्त थी जिसके लिए आज की नारी चाहे वह किसी देश की, समाज वर्ग की हो प्रयत्नशील है। फिर भी आधुनिक कहे जाने वाले इस युग में जहाँ महिलाओं ने आसमान की ऊँचाईयों से लेकर समुद्र की गहराईयों तक परिवार समाज, राज्य राष्ट्रीय यहाँ तक कि अन्तराष्ट्रीय स्तर तक पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सैन्य, मनोरजन औद्योगिक, वैज्ञानिक, कला एवं संस्कृति सभी क्षेत्रों में अपनी पहचान कायम की है और अपनी योग्यता, काबिलियत और अस्तित्व को बताया एवं बनाया है वहीं दूसरी तरफ कन्याभ्रूण हत्या, दहेज प्रथा, बालविवाह, पर्दाप्रथा, अशिक्षा, बलात्कार, अपहरण, घरेलू हिंसा आदि ऐसे अभिशाप है जो स्त्री जीवन में जन्म से पूर्व ही प्रारम्भ हो जाते हैं और जीवन के प्रत्येक स्तर पर जैसे-जैसे वह बड़ी होती है किसी न किसी रूप में उसे भोगने पड़ रहे हैं। आज की नारी की तुलना यदि वैदिक युगीन नारी से की जाये तो वास्तव में अपने आपको बहुत पीडित, बेबस और असहाय महसूस करती होगी जहाँ उसे सपरिवार या समाज में जिम्मेदारी, दायित्व एवं त्याग की अपेक्षा तो की जाती है लेकिन समानता, स्वतंत्रता या अधिकारों की बात नहीं की जाती "यहाँ नारी शरीर तो है लेकिन आत्मा नहीं।"

निष्कर्ष अंत में स्त्रियों के लिए उस स्वर्णकाल में वापस लौटते हुए अल्तेकर के मत से सहमत होते हुए कहा जा सकता है कि वैदिक युग में स्त्रियों की स्थिति सन्तोषजनक थी। समाज में स्त्रियों को सम्मान प्राप्त था और उन्हें सामाजिक तथा राजनैतिक जीवन में स्वतंत्रता प्राप्त थी तत्कालीन विश्व के किसी भी साहित्य में स्त्रियों को पुरूषों के समान इतने अधिकार नहीं दिये गये हैं जितने कि वैदिक साहित्य ने अंत में यही कहना चाहूंगी कि कोमल है कमजोर नहीं तू शक्ति का नाम ही नारी है। सबको जीवन देने वाली मौत भी तुझसे हारी है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. प्राचीन भारतीय संस्कृति एस. एल. नागौरी दिन लीफ परिलेशन, शराणाजी, 2009 2. प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास से शिव कुमार गुप्त 3. भारत के सांस्कृतिक इतिहास की प्रमुख प्रवृत्तियाँ" डॉ. कालूराम शर्मा, डॉ. प्रकाश व्यास पंचशील 4. स्त्रीत्व धारणाएँ एवं यथार्थ प्रो. कुसुमलता केडिया, प्रो. रामेश्वर प्रसाद मिश्र प्रकाशन, 2012