ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XII January  - 2023
Innovation The Research Concept
पं.सत्यनारायणशास्त्री विरचित श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती की प्रासङ्गिकता
Relevance of Sri Sanskrit Dohasaptshati written by Pt. Satyanarayan Shastri
Paper Id :  16986   Submission Date :  17/01/2023   Acceptance Date :  23/01/2023   Publication Date :  25/01/2023
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परमेश्वर प्रसाद कुमावत
शोधछात्र
संस्कृत
संगम विश्वविद्यालय
भीलवाड़ा,राजस्थान, भारत
रजनीश शर्मा
शोध निर्देशक
संस्कृत
संगम विश्वविद्यालय
भीलवाड़ा, राजस्थान, भारत
सारांश राजस्थान का ह्रदय कहलाने वाली, सम्राट पृथ्वीराज की पुण्यभूमि अजमेर की पावन धरा पर जन्म लेकर आशुकवि पंडित सत्यनारायण शास्त्री ने साहित्य जगत को अपनी लेखनी से कृतार्थ किया हैं वैसे तो पंडित जी ने अनेकानेक सद्ग्रंथो का लेखन किया हैं लेकिन उनके द्वारा दोहा छंद में लिखी गई श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती का साहित्य जगत में अलग ही महत्त्व प्रकटित होता हैं श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती मानव समाज का दिग्दर्शन प्रकट करने वाला सद्साहित्य हैं जिसके माध्यम से पंडित जी ने अपने आसपास बिखरे पड़े मोतियों को चुनकर माला के धागे में पिरोने का काम अपनी सुई रूपी लेखनी से किया हैं श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती में 708 दोहें हैं जिसमें देश, संस्कृति, संस्कार, परिश्रम, त्याग जैसे विषयों पर प्रकाश डाला गया हैं प्रस्तुत शोधपत्र में श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती की प्रासंगिकता का महत्व प्रतिपादित किया गया हैं l
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Born on the holy land of Ajmer, the holy land of Emperor Prithviraj, which is called the heart of Rajasthan, Asukavi Pandit Satyanarayan Shastri has done the literary world with his writing. SriSanskrit Dohasaptashati has a different importance in the literary world. SriSanskrit Dohasaptashati is a good literature showing the direction of human society, through which Pandit ji has done the work of threading the thread of the rosary by choosing the pearls scattered around him with his pen in the form of needle. There are 708 couplets in Sri Sanskrit Dohasaptshati, in which topics like country, culture, hard work, sacrifice have been highlighted.
मुख्य शब्द भृत्याः, लिहन्ति, ह्यात्मदाढ़र्यकाम्यन्ति, राष्ट्रर्द्धिं, शासनसदसि, श्रमिसाहसि, राष्ट्रामोदं, पाशं, हसन्मृत्युमालिङ्गितो, नीवृदवनाय, ग्राम्यवन्यकोलद्वयं, हित्वाऽपत्यस्वाऽवला, जवादात्मा, भित्त्वा, दिवास्वप्नवद्भावनाl
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Relevance, Culture, Sanskar, Country, Diligence, Sacrifice.
प्रस्तावना
पाणिनि संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्रासङ्गिकता शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक सन्ज् धातु से भाव अर्थ में घञ् प्रत्यय करने पर प्रसङ्ग शब्द की सिद्धि होती है, जिसका सामान्य अर्थ होता है किसी भी विषय से सम्बन्धित बातों का पारस्परिक सम्बन्ध का नाम प्रसङ्ग है । प्रसङ्ग शब्द जो कि ‘तस्येदम्’ सूत्र से ठञ् प्रत्यय करके प्रासङ्गिक शब्द से निष्पन्न हुआ जिसका अर्थ है प्रसङ्ग से सम्बन्धित अर्थात् प्रसङ्ग का यह । इसके अनन्तर प्रासङ्गिक शब्द से ‘तस्य भावस्त्वतलौ’ सूत्र से भाव अर्थ में तल् प्रत्यय करके प्रासङ्गिकता शब्द की निष्पत्ति होती है जिसका अर्थ होता है जो प्रासङ्गिक का भाव हो जैसे घट घट का भाव घटत्व होता है ठीक इसी प्रकार प्रासङ्गिक का भाव प्रासङ्गिकत्व हुआ । प्रकृत में विद्वद्वरेण्य, कविकुल चक्र चूडामणि, पदवाक्य प्रमाणज्ञ, पारावारीण, शास्त्रविशारद, आशुकवि, अजमेर निवासी पंडित सत्यनारायण शास्त्री जी द्वारा प्रणीत श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती काव्य की प्रासङ्गिकता यहाँ चर्चानीय है।
अध्ययन का उद्देश्य श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती में उल्लेखित विविध विषय जैसे देश, संस्कृति, संस्कार, परिश्रम, त्याग, समर्पण आदि भावों का प्रकटीकरण करना l आधुनिक साहित्य प्रेमियों में दोहा छंद के प्रति विशेष लगाव पैदा करना जिससे कि नवोदित साहित्य सृजक अपने साहित्य में दोहा छंद का प्रयोग कर सकें l श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती की प्रासंगिकता को जनमानस तक स्थापित करना जिससे कि पंडित सत्यनारायणशास्त्री जी द्वारा लिखी गई इस अमूल्य साहित्य निधि का सुधीजन पाठक अमृतपान कर सके l
साहित्यावलोकन

पंडित सत्यनारायण शास्त्रीजी द्वारा रचित श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती संस्कृत के मूल दोहा छंद में लिखी गई हैl ‘दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्अर्थात जो छंद पाठक के चित्त का दोहन करें वह दोग्धक (दोहा) हैl दोहा छंद संस्कृत का मूल छंद हैl इस छंद का सबसे प्राचीन रूप विक्रमोर्वशीयम् में उपलब्ध होता हैl इस छंद में कई साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं लिखी हैं जिसमें डॉक्टर शिवसागर त्रिपाठी रचित श्री रामचंद्रायनम् सुंदरकांडम्, स्वर्गीय भट्टमथुरानाथ शास्त्री प्रणीत बिहारी के दोहें, प्रेम नारायण विरचित दोहावली, कवितावली, रामचरितमानस, एवं हाल या शालिवाहन विरचित गाथासप्तशती जैसे दोहा साहित्य पर खूब प्रगति हुई हैl

मुख्य पाठ

श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती पंडित सत्यनारायण शास्त्री जी द्वारा लिखा गया एक ऐसा काव्य है जो दोहा छंद में विविध विषयों पर लिखा गया है l वर्तमान में युवा पीढ़ी को शिक्षित करने के लिए, संस्कारवान बनाने के लिए, मेहनत और परिश्रम के प्रति लगाव  पैदा करने एवं राष्ट्रभक्ति की मूल भावना को लोगों तक पहुंचाने के लिए शास्त्री जी ने 708 दोहे लिखे जो पुस्तक रूप में हमारे बीच श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती के नाम से उपलब्ध है l गहन चिंतन मनन करने के बाद हम समझ सकते हैं कि आज के इस आधुनिक युग में भी श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती जैसे साहित्य की क्या आवश्यकता है l आज जब देश और दुनिया में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, युवा पीढ़ी में संस्कारों की कमी आ रही है ऐसे में श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ जाती है l इस शोधपत्र में श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती में आयें नैतिक, आध्यात्मिक, दैनंदिन जीवन से जुड़े हुए विषयों पर शोध पत्र  प्रस्तुत किया जा रहा है l

संस्कृत दोहा सप्तशती काव्य में श्रमसंवलित जीवन -

श्रमिबहुसंख्यजना इह, भृत्याः स्वल्पे सन्ति।

श्रमनवनीतं प्रायशः, शासनरता लिहन्ति॥[1]

इस देश में भृत्य (नौकरशाह) तो कम है किन्तु श्रमजीवी जन बहुत हैं। तथापि मलाई को यहां उच्चपदस्थ अन्य जन ही चाटते हैं। पंडित सत्यनारायण शास्त्री जी इस पद्य के माध्यम से कहना चाहते हैं कि इस लोक में भृत्य अर्थात्  परिश्रमशील व्यक्तियों की अपेक्षा नौकरशाह लोग बहुत कम हैं तथापि परिश्रमी व्यक्ति कभी धनवान नहीं हो पाता है परिश्रमी व्यक्ति के परिश्रम का फल शासन के उच्चपदस्थ अधिकारी ही ले लेते हैं।

अर्थसैन्यशक्त्या समं  ह्यात्मदाढ़र्यकाम्यन्ति ।

श्रमजीवनलक्ष्या जना, राष्ट्रर्द्धिं काङ्क्षन्ति ॥”[2]

भावार्थ- श्रम ही जीवन का लक्ष्य है इस मत को स्वीकारने वाले  लोग अर्थ व सैन्यशक्ति की आत्मीय दृढ़ता के चाहने वाले होते हैं तथा साथ ही राष्ट्रसमृद्धि की भी कामना करने वाले होते हैं । इस पद्य में पंडित सत्यनारायण शास्त्री जी कहना चाहते हैं कि जो लोग श्रम को ही अपना परम लक्ष्य मानते हैं तथा देश के अर्थ और सैन्यशक्ति की कामना करते हुये अपने राष्ट्र के सुखसमृद्धि राष्ट्रमङ्गल आदि की भी कामना करने वाले होते हैं।

श्रमिसाहसि बलि-धामधूग्वीरभक्तसिंहेन ।

शासनसदसि सितत्वचां स्फोटोऽकार्यचिरेण ।।”[3]

भावार्थ- भारत के स्वातन्त्र्य-सङ्ग्राम के समय श्रमी साहसी, बली अमर शहीद भगतसिंह ने आङ्ग्लशासकीय लोकसभा में बम विस्फोट किया। शास्त्री जी इस श्लोक के द्वारा कहना चाहते हैं कि जिस तरह भारत की स्वतन्त्रता के लिये श्रम साहस करते हुये अमर शहीद भगत सिंह ने आङ्ग्लशासकीय लोकसभा में बम विस्फोट कर दिया था। उसी प्रकार हम लोग भी कुछ भी कर सकते हैं l इस पक्ष का समर्थन करते हुए स्वयं  गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी लिखते है कि जैसे-

सकल पदारथ है जग माहीं । करम हीन नर पावत नाहीं ।।”[4]

अर्थात् संसार में ऐसा कुछ भी असाध्य नहीं है जो कि मनुष्य कर न सके बस किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये कर्म करने की आवश्यकता होती है । यदि हम सच्चे भाव से कर्म करते हैं तो सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है ।

श्रीसंस्कृत दोहा सप्तशती काव्य में राष्ट्रप्रेम-

अहिंसया श्रमजातयाऽरीन् राष्ट्रात्स निरास।

ऋतगान्धी खलु मोहनो, राष्ट्रामोदं व्यास ॥”[5]

भावार्थ- मोहन नाम वाले महात्मा गान्धी ने श्रमजन्य अहिंसा से गौराङ्ग दुष्मनों को भारत देश से बाहर कर के भारत राष्ट्र में स्वतन्त्रता का सहर्ष प्रसार किया । इस श्लोक के माध्यम से शास्त्री जी ने हम सब के लिये यह संदेश दिया है कि व्यक्ति को जिस वस्तु से प्रेम हो जाये तो वह उसे विखण्डित नहीं देख सकता है उसे पुष्ट करने के लिये वह कुछ भी कर सकता है जो लोग कहते हैं कि अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है तो उनके लिये महात्मा गान्धी एक आदर्श के रूप में दीखते हैं कि जिन्होंने अकेले ही देश को स्वतन्त्र करने का बीड़ा उठाया और अन्त में सब के सहयोग से सफलता को भी प्राप्त किया । अतः हम लोगों का यदि संकल्प दृढ और सम्यक् हो तो सफलता जरूर मिलती है।

पुरा भक्तसिंहो बली, पाशं गले बबन्ध ।

हसन्मृत्युमालिङ्गितो, राष्ट्रं हृदा जगर्ध ॥”[6]

भावार्थ- इससे पूर्व बलवान भगतसिंह ने मौत  को गले लगाया था, तथा हंसते हुए मृत्यु को स्वीकार करके दिल से राष्ट्र को ही चाहा । शास्त्री जी ने इस पद्य के द्वारा राष्ट्र प्रेम को परिपुष्ट किया है देश के परम भक्त भगत सिंह ने अपनी परवाह न करते हुये लोक हित के लिये अपना शरीर समर्पित कर दिया था । तथा पंडित सत्यनारायण शास्त्री इस श्लोक के द्वारा एक संदेश देना चाहते हैं कि हम जाति, धर्म, पंथ आदि के नाम पर आपस में विभक्त होकर देश को विखण्डित कर रहे हैं, इस लिये जब देश हित की बात आये तो व्यक्ति को जाति, धर्म, पंथ आदि को किनारे रख कर देश हित के लिये कार्य करना चाहिये जैसे कि प्रकृत में भगत सिंह जी ने सब कुछ त्याग कर देश हित के लिये हंसते हंसते हुये फांसी के फंदे पर लटककर मृत्यु को गले लगा लिया था।

बिस्मिलोऽपि विजहावसून्किं न नीवृदवनाय ?

नैके वीरा दिवमिताः, सबलं श्रमं विधाय ॥[7]

भावार्थ- राष्ट्र की रक्षा के लिए क्या रामप्रसाद बिस्मिल जी ने प्राणों का त्याग नहीं किया ? बल व परिश्रमपूर्वक अनेक वीर राष्ट्रहित में दिवङ्गत हो गये। इस पद्य के द्वारा भी शास्त्री जी का पूर्वोक्त ही संदेश है।

श्रीसंस्कृतदोहासप्तशती काव्य में नैतिकमूल्य-

ग्राम्यवन्यकोलद्वयं, साम्यं जगति दधाति ।

तयोर्गुरुर्भेदो विदां, लोचनपथमुपयाति ॥”[8]

भावार्थ- संसार में वनशूकर (जंगली सूअर) तथा ग्राम-शूकर (सूअर) दोनों समान ही दिखाई देते हैं किन्तु दोनों में विशिष्ट अन्तर को ज्ञानी जन ही समझ पाते हैं। इस पद्य के माध्यम से पंडित सत्यनारायण शास्त्री जी यह कहना चाहते हैं कि लोक में दुष्ट व्यक्ति और सज्जन व्यक्ति दोनों एक जैसे दिखते हैं परन्तु दोनों का भेद नीतिविद् समझदार जन ही जान पाते हैं। इस लिये जल्दबाजी में विना सोचे समझे कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये l विना सोचे किया गया कार्य हमेशा परेशानियों को उत्पन्न करने वाला ही होता है । 

भित्त्वा ब्रह्माण्डं जवादात्मा ब्रह्मोपैति ।

हित्वाऽपत्यस्वाऽवला, लोकाज्जीवः प्रैति॥”[9]

भावार्थ- संसार में आत्मा तीव्र गति से ब्रह्माण्ड (मस्तक) का भेदन करके ब्रह्मरूपमें स्थित हो जाता है । तथा अपने पत्नी आदि सम्पूर्ण परिवार को छोड़कर चला जाता है । पंडित सत्यनारायण शास्त्री जी इस पद्य के माध्यम से संसार की असारता को उद्भाषित करते हुये कहते हैं कि संसार में जिन्हें हम अपना अपना कह कर जीवन भर उनका पालन पोषण करते हैं, एक दिन ऐसा आता है कि उसके पारिवारिक लोग उसको चाह कर भी नहीं बचा पाते हैं l यह सब यही छूट जाता है बस उसका सत्कर्म ही उसके साथ रहता है । इसीलिये व्यक्ति को जीवन में सत्कर्म करते हुये परमात्मा का चिन्तन करना चाहिये।

संस्कृत दोहा सप्तशती काव्य में आलंकारिक चेतना-

उपमा अलंकार-

यदीहसे भवितुं महान्मनसा, श्रमं विहाय।

दिवास्वप्नवद्भावना, कि नो जगद्धसाय ? ।।”[10]

भावार्थ- श्रम का परित्याग करके यदि कोई महान् बनना चाहता है तो उसको यह भावना दिवा स्वप्न की तरह जगत् की हंसी का पात्र ही बनती हैं, प्रकृत पद्य में दिवास्वप्नवद् भावना इस अंश में उपमा वाचक शब्द है। अतः यहां पर उपमा अलंकार है l

लक्षण-

साधर्म्यमुपमा भेदे पूर्णालुप्ता च साऽग्रिमा।

श्रौत्यार्थी च भवेद्वाक्ये समासे तद्धिते तथा ॥”[11]

अर्थात् उपमान और उपमेय में भेद होने पर ( दोनों में गुण और क्रिया की) समानता का वर्णन हो तो वह उपमा अलंकार कहलाता है।

और भी-

आतङ्कास्रपवज्रमिव वज्राङ्गं प्रणतोऽस्मि।

नवसर्गप्रत्यूहदं, महाबलं त्वां नौमि ॥[12]

भावार्थ- हे मारुते आतङ्करूपी दैत्य के लिये वज्र तुल्य आपको नमस्कार करता हूँ । आप महाबली है और मेरे काव्य-प्रणयन के विघ्नके विनाशक है मैं आपको प्रणाम करता हूँ। यहां पर भी पंडित सत्यनारायण शास्त्री ने उपमा का सुन्दर विन्यास किया है । इस पद्य में आतङ्कास्रपवज्रमिव इस अंश में उपमा अलंकार विद्यमान है।

उत्प्रेक्षा अलंकर-

भवेत् सम्भावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना ।”[13]

तथा -

सम्भावनमथोत्प्रेक्षाप्रकृतस्य समेन यत् ।”[14]

जहां पर उपमेय की उपमान रूप से संभावना अर्थात उत्कट कोटिक संशय रूप ज्ञान भेद वितर्क होता है वहां पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है । तथा उत्प्रेक्षा अलंकार के कुछ द्योतक शब्द भी कहे गए हैं जैसे मन्ये, शङ्के, ध्रुवं, प्रायो, नूनमिवादयः

रूपक अलंकार-

आतङ्कास्रपवज्रमिव वज्राङ्गं प्रणतोऽस्मि ।[15]

भावार्थ- इस पद्य में पंडित सत्यनारायण शास्त्री जी रूपक अलंकार के द्वारा सुन्दर भाव प्रकट करते हैं। इस पद्य में आतङ्कास्र इस अंश में रूपक अलंकार है।

और भी-

विभ्रान्तोऽयं नरपशुहंन्त ! चतुर्दिशमेति ।

वत्र्मैकं वरितुं परं, नाऽसौ हा ! शक्नोति ॥[16]

भावार्थ- खेद है कि मार्ग विचलित यह नर पशु दिग्भ्रान्त हो जाता है तथा यह मनुज किसी एक सही मार्ग का चयन नहीं कर पाता है।

स्नेहसिक्तरतिबर्तिको, हृदये दीपोऽदीपि।

पूर्णालोकविमोकतो, लोको येनाऽतर्पि ॥[17]

 

भावार्थ- स्नेह (तेल) से सनी हुई रतिरूपी बत्तीवाले दीपक ने हृदय में प्रचलित रहकर अपने पूर्ण प्रकाश-प्रसार से जनमानस को प्रदीप्त कर दिया

काव्यलिङ्गालङ्कार-

काव्यलिङ्गं हेतोर्वाक्यपदार्थता ।[18]

जहाँ पर कवि प्रस्तुत अर्थ का उपपादन करने के लिये हेतु (लिङ्ग) का कथन करता है । वहां पर काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है । यह हेतु कथन वाक्यार्थ रूप से अथवा पदार्थ रूप से होता है । संस्कृत दोहा सप्तशती काव्य में काव्यलिंग अलंकार का प्रयोग इस प्रकार से मिलता है। जैसे-

सर्वमङ्गलाऽमङ्गलादा दुर्गा परिपातु ।

राष्ट्रक्षेमं शाश्वतं, जगदम्बिका दधातु ॥”[19]

भावार्थ- सर्वमङ्गलमयी  अमलविनाशिनी भगवती दुर्गा देवी रक्षा करे। वे भगवती दुर्गा देवी शाश्वत राष्ट्रिय क्षेम का परिवर्धन करे । इस पद्य में अमंगलनाशरूप कार्य का और दुर्गादेवीरूप कारण का होने से यहां पर काव्यलिंग अलंकार है।

निष्कर्ष पंडित सत्य नारायण शास्त्री द्वारा विरचित यह श्रीसंस्कृतदोहसप्तशती नामक काव्य आधुनिक काल में नानाविध दुखों से सम्पीडित जनों के लिये औषधि के रूप में उभर कर सामने आया है । इस काव्य को ज्ञान की दृष्टि से देखें तो इसमें मानवोपयोगी जीवन जीने के सूत्र प्रतिपादित हैं तथा काव्यशास्त्रीय साहित्यिक दृष्टि से देखते हैं तो इसमें उपमा, रूपक, काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास, उत्प्रेक्षा, निदर्शना आदि अलंकारों का सुन्दर सन्निवेश किया गया है तथा व्यवहारिक दृष्टि से नैतिकमूल्यों का बहुत प्रयोग किया है । इसकी सुभाषित सूक्तियां संसारी जनों के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध होती दिखती हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. अष्टाध्यायी 2. अष्टाध्यायी 3. संस्कृतदोहासप्तशती 85 4. संस्कृतदोहासप्तशती 86 5. संस्कृतदोहासप्तशती 97 6. श्रीरामचरितमानस 7. संस्कृतदोहासप्तशती 74 8. संस्कृतदोहासप्तशती 9. संस्कृतदोहासप्तशती 132 10. संस्कृतदोहासप्तशती 71 11. संस्कृतदोहासप्तशती 72 12. काव्यप्रकाश 10.87 13. संस्कृतदोहासप्तशती 14. साहित्यदर्पण 10.40 15. काव्यप्रकाश 10.96 16. संस्कृतदोहासप्तशती 5 17. संस्कृतदोहासप्तशती 131 18.काव्यप्रकाश 10.114