ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XII January  - 2023
Innovation The Research Concept
वैश्वीकरण एवं मूल्य व्यवस्था
Globalization and The Price System
Paper Id :  17028   Submission Date :  11/01/2023   Acceptance Date :  23/01/2023   Publication Date :  25/01/2023
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बृज भूषण
एसोसिएट प्रोफेसर
समाजशास्त्र विभाग
राजकीय महिला महाविद्यालय
शामली,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश असमानता के धरातल से उपजी वैश्वीकरण की प्रक्रिया असमान आर्थिक दशाओं के बीच प्रवाहमान होती हैं अर्थात गरीब एवं विकासशील राष्ट्रों तथा शक्तिशाली राष्ट्रों एवं कम्पनियों के मध्य चलने वाली अन्तःक्रिया हैं जिनके मूल्य भी भिन्न-2 होते है। गहन अवलोकन से पता चलता है कि शक्तिशाली राष्ट्र एवं कम्पनियाँ आर्थिक क्षेत्र में ही अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं करने वरन् गरीब एवं विकासशील राष्ट्रों के सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों की व्यवस्था पर भी अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं और इन समाजों में मूल्य संघर्ष की दशाएँ उत्पन्न कर देते हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों में ऐसी ही दशाएँ उत्पन्न कर दी जिनके फलस्वरूप अनेक सामाजिक समस्याओं का जन्म हुआ है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The process of globalization stemming from the ground of inequality flows between unequal economic conditions, that is, there is interaction between poor and developing nations and powerful nations and companies whose values are also different. Deep observation reveals that powerful nations and companies not only establish their dominance in the economic field, but also leave their deep impression on the system of social, educational, cultural and moral values of poor and developing nations and the codition of value struggle arises in these societies. The process of globalization has created similar conditions in developing nations like India, as a result of which many social problems have arisen.
मुख्य शब्द वैश्वीकरण, मूल्य व्यवस्था, व्यक्तिपरक अधिमान्यताएँ, अभिलाषाएँ, जैविक मूल्य, सामाजिक मूल्य, सांस्कृतिक मूल्य, भावात्मक एवं तार्किक मूल्य, उदारीकरण, सार्वभौमिकता, संरक्षणवाद।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Globalization, Value System, Subjective Preferences, Desires, Biological Values, Social Values, Cultural Values, Emotional and Rational Values, Liberalization, Universalism, Protectionism.
प्रस्तावना
यद्यपि भारत के वैश्विक स्तर पर सम्बन्धों की एक लम्बी परम्परा रही है फिर भी 1990 के दशक का प्रारम्भ इन सम्बन्धों की व्यापकता में महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में जाना जाता है। यह ऐसा समय था जब भारतीय अर्थव्यवस्था संकट ग्रस्त थी। इस संकट से उभरने के लिए तत्कालीन आर्थिक विशेषज्ञों ने विकल्प सुझाया था कि भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को खुला स्वरूप प्रदान करना चाहिए। इस वैकल्पिकता पर गम्भीरता से विचार करते हुए तत्कालीन भारत सरकार ने आर्थिक क्षेत्र में नीति सम्बन्धी जो कदम उठाये वे आर्थिक सुधारों के रूप में जाने गये। इन आर्थिक सुधारों के फलस्वरूप सरकार द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को पूंजी, तकनीकी, मानव संसाधन, कच्चे माल तथा निर्मित वस्तुओं के बन्धनरहित आवागमन के लिए खोल दिया गया। इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था ने विश्व के अन्य राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था से जुड़कर वैश्विक स्वरूप धारण कर लिया। इस प्रक्रिया को वैश्वीकरण, भूमण्डलीकरण तथा विश्वव्यापीकरण आदि संज्ञा दी गयी जिसको संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी ने तीव्रता प्रदान की। यद्यपि यह एक आर्थिक प्रक्रिया है फिर भी भारतीय समाज की समस्त आधारभूत संस्थाओं को इस प्रक्रिया ने प्रभावित किया तथा परिणामस्वरूप भारतीय जीवन शैली को बदलने में विशेष भूमिका निभाई हैं। वैश्वीकरण को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तथा विश्व की अर्थव्यवस्था को पारस्परिक अन्तर्सम्बन्ध के रूप में देखा जाता है जिसमें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था द्वारा विश्व स्तर पर उपलब्ध आर्थिक अवसरों से लाभान्वित होने का विचार अन्तर्निहित है। इस व्यापक अवधारणा की मौलिक मान्यता यह है कि प्रत्येक राष्ट्र को विश्व स्तर पर उपलब्ध आर्थिक अवसर, संसाधन, ज्ञान तथा तकनीकी आसानी से उपलब्ध होने चाहिए तथा विश्व स्तर पर उपलब्ध सुविधाएँ प्रत्येक राष्ट्र को तभी प्राप्त हो सकती है यदि सभी राष्ट्रों के मध्य पूंजी, तकनीकी, मानव संसाधन , कच्चे माल व निर्मित वस्तुओं का आवागमन बेरोकटोक हो, अर्थात विश्वस्तर पर बाजार की शक्तियों की क्रियाशीलता में कोई अवरोध नहीं होना चाहिए। इस पूंजीवादी विचारधारा के समर्थकों का मानना है कि वैश्वीकरण गरीब व अमीर दोनों ही देशों के हित में हैं। जहाँ वैश्वीकरण अविकसित राष्ट्रों की तकनीकी पिछडेपन व पूंजी की कमी की समस्या का समाधान है वही, विकसित राष्ट्रों की संतृप्त अर्थव्यवस्था में ऊँची श्रमिकों दरों के कारण वहाँ के उद्यमी अपना पूंजी निवेश अविकसित एवं विकासशील राष्ट्रों में करना चाहते हैं। वैश्वीकरण के साथ जुड़ी हुई एक अन्य अवधारणा है ‘‘उदारीकरण’’ जो वैश्वीकरण को सकारात्मक गति प्रदान करती है। उदारीकरण की अवधारणा अर्थव्यवस्था के संरक्षणवाद की अवधारणा के विरूद्ध है तथा विश्वस्तर पर खुली प्रतिस्पर्धा की वकालत करती है। विगत में देखने में आया है कि संरक्षणवाद ने अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं को राजनीतिक-सैनिक तनावों व युद्ध में बदला है। अतः द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात विश्व समुदाय ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (I.M.F.) विश्व बैक (I.B.R.D.) तथा प्रशुल्क तथा व्यापार पर सामान्य समझौता (GATT) जैसी संस्थाएँ बनायी गयी जिनका हमेशा प्रयास रहा है कि विश्वस्तर पर स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धा का वातावरण तैयार किया जाये। इस हेतु जितने भी प्रयास किये उनमें 15 अप्रैल, 1994 ई॰ को मोरक्को के मसकट शहर में गैट के आठवें राउन्ड पर हुई सन्धि के फलस्वरूप विश्व व्यापार संगठन (W.T.O.) की स्थापना की गयी। वैश्वीकरण विश्व स्तर पर सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों का विस्तारीकरण है जिसका लक्ष्य विभिन्न राष्ट्रों की व्यापारिक व औद्योगिक अन्तक्रियाओं के फलस्वरूप एक वैश्विक-अर्थव्यवस्था का निर्माण करना है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत लेख का उद्देश्य वैश्वीकरण तथा मूल्य व्यवस्था की अवधारणाओं को स्पष्ट करते हुए इनके पारस्परिक सम्बन्ध-कारकों का संक्षिप्त विश्लेषण प्रस्तुत करना है।
साहित्यावलोकन

वैश्वीकरण एक आर्थिक प्रक्रिया ही नहीं वरन् विभिन्न समाजों एवं संस्कृतियों के एकीकरण का साधन या माध्यम भी है। शीला एलद क्रोचर (1999) के शब्दों ‘‘वैश्वीकरण एक वैश्विक या सार्वभौमिक बनने की वह प्रक्रिया है जिसमें अनेक वस्तुओं एवं दुर्घटनाओं का रूपान्तरण वैश्विक स्तर पर होने लगता हैं। इसे उस प्रक्रिया के रूप में वर्णित किया जा सकता हैं जिसके द्वारा विश्व के लोग परस्पर एकल समाज के रूप में जुड़कर एक साथ कार्य करते है। यह प्रक्रिया आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक-सांस्कृतिक तथा राजनीतिक शक्तियों का सम्मिश्रण है। हरिकृष्ण रावत (2006) वैश्वीकरण की विवेचना एक भूमण्डलीय सांस्कृतिक व्यवस्था के उद्भव के रूप में करते हुए लिखते हैं कि ‘‘एक उपग्रही सूचना व्यवस्था, उपभोग व उपभोक्तावाद के एक समान वैश्विक स्वरूपों का उद्भव, एक विश्वव्यापी जीवन शैली की स्वीकारोक्ति, विश्वस्तरीय खेल प्रतियोगिताओं की शुरूआत, सम्पूर्ण विश्वसम्बन्धी पर्यावरणीय संकटों व खतरों के बारे में चेतना, एड्स तथा अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं की रोकथाम के बारे में सम्पूर्ण विश्व के देशों का सामूहिक प्रयास, विश्व व्यापार संगठन, राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं की स्थापना से वैश्विक राजनीति व अर्थव्यवस्था का उद्भाव, सभी राष्ट्रों में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता तथा विश्व के धर्मो में आदान-प्रदान की शुरूआत जैसी घटनाएँ  वैश्वीकरण की ओर बढ़ते हुए हमारे चरणों को इंगित करती है। मैलकाॅम वाटर्स (2000) ने वैश्वीकरण को एक सामाजिक प्रक्रिया मानते हुए लिखा है कि ‘‘वैश्वीकरण एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था पर जो भौगोलिक दबाव होते हैं वे पीछे हट जाते हैं तथा लोग इस तथ्य से अवगत हो जाते हैं कि भौगोलिक सीमाएँ निरर्थक हो गयी है। डेविड हेल्ड (1999) इसे प्रक्रियाओं का एक समूह मानते हैं जिसमें सामाजिक सम्बन्धों एवं कार्यविवरण के स्थानीय संगठन का रूपान्तरण निहित होता है जिसे उनके प्रसार, प्रगाढ़ता, द्रुतगति एवं प्रभाव द्वारा निर्धारित किया जाता है तथा जिनके परिणामस्वरूप क्रियाकलाप, अन्तक्रिया एवं शक्ति के प्रयोग का प्रवाह एवं जाल अन्तर्महाद्वीपीय होता है। एन्थोनी गिड्डेन्स (2000) वैश्वीकरण को राष्ट्रों की अन्योन्याश्रितता के रूप में समझने का प्रयास करते हैं। वैश्वीकरण विभिन्न व्यक्तियों तथा विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के बीच बढ़ती हुई परनिर्भरता है जो सामाजिक व आर्थिक सम्बन्धों में होती है जिसके परिणामस्वरूप समय व स्थान सिमट जाते हैं। एच॰ एम॰ जानसन (2011) मूल्यों को एक मानक के रूप में स्वीकार करते हुए लिखते हैं कि मूल्य सांस्कृतिक तथा व्यक्तिगत हो सकते है जिसके द्वारा वस्तुओं की तुलना की जाती है। इनमें स्वीकृति अथवा अस्वीकृति निहित होती है तथा इनके द्वारा व्यवहारों की तुलना करके उचित -अनुचित, अच्छा-बुरा, ठीक-गलत ठहराया जाता है। राॅबर्ट बीरस्टीड़ (1971) के अनुसार- ‘‘जब किसी समाज के स्त्री-पुरूष अपने ही तरह के लोगों के साथ मिलते हैं, काम करते है या बातें करते हैं तब मूल्य ही उनके क्रमबद्ध सामाजिक संसर्ग को सम्भव बनाते है। राधा कमल मुखर्जी (2005) मूल्यों को सामाजिक मान्यता प्राप्त उन इच्छाओं एवं लक्ष्यों के रूप में मानते हैं जिनका आन्तरीकरण समाजीकरण के माध्यम से होता है तथा जो व्यक्तिपरक अधिमान्यताएँ, मापदण्ड तथा अभिलाषाएँ बन जाती है।’’

मुख्य पाठ

वैश्वीकरण एक बहुआयामी प्रक्रिया है जो मानव जीवन के सम्बन्धों के लगभग सभी क्षेत्रों जैसे अर्थव्यवस्था, राजव्यवस्था, संस्कृति, शिक्षा व्यवस्था, धर्म, वैचारिकी इत्यादि को प्रभावित करती है। इसके कारण सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करने वाली भौगोलिक सीमाएँ महत्वहीन होने लगती हैं। संचार एवं सूचना तकनीकी के कारण सम्पूर्ण विश्व एक वैश्विक गाँव की तरह लगने लगता है। मानव सम्बन्धों को प्रभाािवत करने वाली अच्छी एवं बुरी घटनाएँ वैश्विक रूप धारण कर भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम कर देती है। विश्व के किसी एक भाग में घटित हो रही घटनाओं के प्रभाव दूरदराज के सभी देशों पर पड़ते हैं। वैश्वीकरण के फलस्वरूप मानवीय गतिविधियां एवं सम्बन्ध वैश्विक होने के साथ-साथ गहन एवं तीव्र भी होने लगते हैं। विभिन्न राष्ट्र मानवीय, सांस्कृतिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक इत्यादि मुद्दों पर संन्धियों एवं समझौते के माध्यम से वैश्विक नियमन एवं नियन्त्रण में बंधकर सम्बन्धों को गहन बनाने का प्रयास करते हैं। आवागमन एवं संचार तकनीकी सम्बन्धों को तीव्रता प्रदान करते हुए भौतिक वस्तुओं, मुद्रा, मानव संसाधनों एवं विचारों के प्रसार को भी गति प्रदान करती हैं। वैश्विकता का प्रभाव सभी समाजों एवं राष्ट्रों पर समान नहीं होता हैं। वैश्विक सम्बन्ध असमान धरातल पर पनपते हुए जो कभी न समाप्त होने वाली असमानता की ओर बढ़ते हैं। विकसित राष्ट्रों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रभुत्व बढ़ने से विकासशील राष्ट्र इनकी अधीनता की स्थिति में आ जाते हैं। इसलिए वैश्वीकरण विजेताओं और हारने वालों का सूत्रधार भी है।

मूल्यों का एक सामामजिक आधार होता है जो हमारे व्यवहारों को प्रभावित करता है, जिसके आधार पर हम सही-गलत, अच्छा-बुरा में अन्तर करना सीखते हैं। मूल्य दैनिक जीवन के व्यवहार को नियन्त्रित करने के सामान्य सिद्धान्त हैं। मूल्य मानव व्यवहार को दिशा ही प्रदान नहीं करते वरन् ये अपने आप में आदर्श एवं उद्देश्य भी बन जाते हैं। मूल्य वे सामाजिक तथ्य हैं जो व्यक्तियों के लिए मानसिक अवधारणाएँ होती हैं जिनका समाजीकरण के माध्यम से व्यक्ति इनका आन्तरीकरण अपने-अपने ढ़ंग से करते है। व्यक्तियों में इनके प्रति प्रतिबद्धता पायी जाती है जिसकी वजह से ये जल्दी से परिवर्तित नहीं होते। इनके आधार व्यक्ति उचित लक्ष्यों तथा साधनों का चयन करते हैं। नैतिकता-अनैतिकता तथा उचित-अनुचित को तय करते हैं इसलिए मूल्य मानव व्यवहार के मानव प्रतिमान बन जाते है। मूल्य अनेक प्रकार के हो सकते हैं जैसे सामान्य एवं विशिष्ट मूल्य, साधन एवं साध्य मूल्य, आध्यात्मिक एवं सामाजिक मूल्य। सी॰एम॰ केस ने मूल्यों को चार भागों में विभाजित किया है। जैविक मूल्य; जो शरीर रक्षा से सम्बन्धित हैं जैसे शराब मत पियो। सामाजिक मूल्य; जो सामाजिक जीवन में सहयोग, दान, सेवा, निवास, भूमि, समूह इत्यादि का निर्धारण करते हैं। सांस्कृतिक मूल्य; जो नियमितता एवं नियन्त्रण से सम्बन्धित हैं। परम्परा, लोक कला, रीति-रिवाज, धार्मिक क्रियाएँ, नृत्य सभी सांस्कृतिक मूल्य कहे जाते हैं। सामाजिक मूल्य भावात्मक, तार्किक एवं सौन्दर्य परक भी हो सकते हैं।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों में मूल्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न की है जिसके कारण अनेक सामाजिक समस्याओं में वृद्धि हुई है। मूल्य संघर्ष वह दशा है जिसमें मनुष्यों के मध्य नवीन व पुरातन मूल्यों को लेकर वैचारिक एवं व्यावहारिक मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं। वैचारिक एवं व्यावहारिक मतभेद संघर्ष, असमानता, अन्याय, विभेद जैसी अनेक समस्याओं को जन्म देते हैं तथा सामाजिक संरचना को आघात पहुँचाते हैं। नये तथा पुराने मूल्यों का संघर्ष एक भ्रामक स्थिति उत्पन्न कर देता है जिसके बीच फंस कर व्यक्ति एवं समूह नैतिक-अनैतिक, उचित-अनुचित में भेद करने में मुश्किलों का सामना करते हैं। यह स्थिति मूल्यों के संक्रमण काल में उत्पन्न होती है जब न तो नवीन मूल्य व्यक्तियों द्वारा पूर्णतः स्वीकार किये जाते हैं और न ही पुराने मूल्य पूर्णतः अस्वीकार किये जाते हैं। ऐसी दशा में सामाजिक विघटन एवं सामाजिक समस्याओं का जन्म होने लगता है।  व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, कार्यकुशलता पर आधारित उपलब्धि उन्मेषण, भौतिकवादी एवं उपभोक्तावादी मूल्यों ने आध्यात्मिक, नैतिक, सामूहिकतावादी मूल्यों पर प्रभुत्व स्थापित कर रहे है जिसके फलस्वरूप युवा पीढ़ी पर इनका दुष्प्रभाव हुआ हैं यही वजह है कि युवा पीढ़ी भ्रमित हैं। मूल्य आधारित शिक्षा, वैश्वीकरण के दौर में, नयी पीढ़ी के लिए उपलब्ध नहीं है। वैश्वीकरण ने शिक्षा को सेवा के स्थान पर एक व्यवसाय बना दिया हैं जो आधुनिक पूंजीवादी मूल्यों को प्रोत्साहन देती है जिसमें उपलब्धि व सफलता के मूल्यों पर बल दिया जाता है तथा समतावादी मानवीय मूल्यों की अनेदखी की जाती हैं। वैश्वीकरण ने समतावादी एवं पूँजीजीवादी मूल्यों के बीच एक संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी है।

निष्कर्ष वैश्वीकरण एक बहुआयामी प्रक्रिया है, जो मानवीय जीवन के सभी क्षेत्रों, जैसे- आर्थिक, राजनीतिक शिक्षा, संस्कृति, धर्म, वैचारिकी इत्यादि को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। सूचना तकनीकी के कारण मानवीय सम्बन्धों को प्रभावित (बाधित) करने वाली राष्ट्रों की भौगोलिक सीमाएं महत्वहीन होने लगती है। विभिन्न राष्ट्र अन्य राष्ट्रों से अपने सम्बन्धों को गहन करने लगे है तथा अन्योनश्रित हो रहे है इसलिए विश्व के एक भाग में घटित घटना अन्य भागों को प्रभावित करने लगी है। विभिन्न समझौतों एवं सन्धियों के परिणामस्वरूप, राष्ट्रों के मध्य, वस्तुओं, मुद्रा, संसाधन, विचार, मूल्य इत्यादि का तेजी से आदान-प्रदान हो रहा है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों में मूूल्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो रही है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, उपलब्धि उन्मेषण, भौतिकतावादी एवं उपभोक्तावादी मूल्य धीरे-2 नैतिकतावादी, सामूहिकतावादी तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर रहे है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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