ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XI December  - 2022
Innovation The Research Concept
कुम्भ महोत्सव का इतिहास और वर्तमान प्रासांगिकता
History and Current Relevance of Kumbh Festival
Paper Id :  17019   Submission Date :  16/12/2022   Acceptance Date :  21/12/2022   Publication Date :  24/12/2022
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मेहरबान सिंह गुसाईं
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
एसजीआरआर (पीजी) कॉलेज
देहरादून,उत्तराखंड, भारत
सारांश भारतीय संस्कृति अपनी सहिष्णुता एवं लोक चिंतन के लिए विश्व प्रसिद्ध ही नहीं अपितु भारतीय वैदिक संस्कृति की निरंतरता का भी मूल कारण रहा है| भारतीय संस्कृति का मूल मन्त्र है,“ परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ।।” इसी गुण के कारण हमने कई बाह्य आक्रमणों के बाद भी अपनी सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखा है | जहाँ समकालीन विश्व की कोई भी सभ्यता आज अस्तित्व में नहीं है ,उनका कोई भी नाम लेनेवाला नहीं बचा है, वहीँ हमारी भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे बड़ी संस्कृतियों में से एक है | हमारी इस परम्परा को बचाए रखने में कुम्भ महोत्सव का भी बड़ा योगदान रहा है जिसका आयोजन प्रति 12 वर्ष के अन्तराल पर हरिद्वार , प्रयाग , नासिक और उज्जैन नामक भारतीय शहरों में प्राचीन काल से होता आ रहा है| इस शोधपत्र में हमारा उद्देश्य महाकुम्भ परम्परा के इतिहास और वर्तमान प्रासांगिकता को वर्णित करने का रहेगा|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Indian culture is not only world famous for its tolerance and folk thinking, but it has also been the root cause of continuity of Indian Vedic culture. The basic mantra of Indian culture is, “Parhit Saris Dharam Nahin Bhai. But pain is not equal to half-hearted. Due to this quality, we have kept our civilization and culture intact even after many external attacks. Where no civilization of the contemporary world exists today, there is no one left to take its name, whereas our Indian culture is one of the biggest cultures in the world. The Kumbh Festival has also played a major role in preserving this tradition, which has been organized since ancient times in the Indian cities of Haridwar, Prayag, Nasik and Ujjain at an interval of every 12 years. In this research paper, our aim will be to describe the history and present relevance of Mahakumbh tradition.
मुख्य शब्द महाकुम्भ, संस्कृति, प्रासंगिकता, महोत्सव, भारतीय, प्राचीन |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Mahakumbh, Culture, Relevance, Festival, Indian, Ancient.
प्रस्तावना
कुम्भ शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘कलश’ से है जो भारतीय संस्कृति में प्रत्येक धार्मिक अथवा शुभ अवसर पर उपस्थित नजर आता है | कलश अथवा घड़े की स्थापना के साथ ही हिंदु धर्मं के कार्यो का शुभारंभ होता है | इस संदर्भ में पौराणिक आख्यानों में कुम्भ मेले का उल्लेख समुद्र मंथन से जुड़ता है जिसके परिणाम स्वरूप १४ रत्न प्रकट हुए | अन्त में निकले अमृत कलश को प्राप्त करने के लिए संघर्ष हुआ जिसे लेकर इंद्र के पुत्र भागे और इस दौरान कुम्भ से अमृत कि बूंदे 12 स्थानों पर पड़ी जिनमे से चार स्थल पृथ्वी पर है | प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व नासिक यही चार स्थल है इसलिए कालान्तर में इन स्थलों में कुम्भ मेले का आयोजन होने लगा | ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो जलपूजा का विधान हमें भारत कि सबसे प्राचीन सभ्यता यथा सिन्धु सरस्वती सभ्यता में महान स्नानागार के रूप में प्राप्त होता है | उसके बाद वैदिक काल में इंद्र, वरुण एवं नदियों की स्तुति भी किसी न किसी रूप में जलपूजा की ओर संकेत करती है | कुम्भ मेलो का आयोजन भी सदानीरा नदियों के तट पर इसी जलपूजा का वृहद् स्वरूप भी है |
अध्ययन का उद्देश्य कुम्भ का आयोजन प्रति 12 वर्ष के अन्तराल पर हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन नामक भारतीय शहरों में प्राचीन काल से होता आ रहा है| इस शोधपत्र में हमारा उद्देश्य महाकुम्भ परम्परा की वर्तमान प्रासांगिकता को वर्णित करने का रहेगा |
साहित्यावलोकन

कुम्भ की भारतीय विरासत को समझाने के लिए कुछ प्राचीन धर्म ग्रंथों का अवलोकन किया गयायद्यपि इस पर्व का वैदिक ग्रंथों,सूत्र साहित्यस्मृतियोंधर्मशास्त्रों आदि में स्पष्ट विवरण नहीं आता है। फिर भी  कुंभ मेले की ऐतिहासिकता को वैदिक काल तक खोजने के लिए अथर्ववेद (IV.34.7;XIX.) ऋग्वेद से तीन (I.8.9, X.89.7, XII.)यजुर्वेद से एक एवं अथर्ववेद के श्लोक-'चतुर: कुम्भांश्चतुर्धा ददामिऔर 'पूर्णकुम्भो’ का उल्लेख प्राप्त होता हैप्राचीन भारतीय इतिहास की पुस्तकों से हर्ष के काल से इस परम्परा के महत्वपूर्ण होने के संकेत मिलते हैं|

मुख्य पाठ

महाकुम्भ की परम्परा

हमारे देश में तीर्थ परंपरा विक्रमपूर्व दूसरी सदी से प्रचलित थी जिसके प्रचलन का उल्लेख महाभारत के वनपर्व में होता है। उत्तराखंड राज्य के देवप्रयाग स्थित रघुनाथ मंदिर में शिलालेख पर चौथी सदी विक्रमी संवत् के तीर्थयात्रियों के नाम दर्ज हैं। इससे भी यह आभास होता है कि कुम्भ जैसे महोत्सव का आयोजन भी इस तीर्थयात्रा परंपरा के साथ हुआ होगा। प्रतिवर्ष हरिद्वार एवं प्रयाग में एक माह तक चलने वाले माघी मेले से भी कुम्भ परंपरा की प्राचीनता स्थापित होती है।

इतिहास कि पुस्तकों में कुम्भ महोत्सव की परंपरा का लिखित साक्ष्य हमें चीनी यात्री फाह्यान के यात्रावृतांत में मिलता है जो कि हर्षवर्धन के शासन काल (606-647 ई०) में  भारत आया था। उसके अनुसार ब्रह्मकुंड हरिद्वार (हर कि पैड़ी ) में कुम्भ के अवसर पर लाखों श्रद्धालु स्नान करते थे । हर्ष के काल में प्रयाग में प्रति पाँचवे वर्ष पर सम्मेलन का उल्लेख भी युवानच्वांग करता है जिसमें उपस्थित लोगो की संख्या लगभग 50 करोड़, (लगभग आधा मिलियन) केवल सम्राट से कुछ न कुछ प्राप्त करने के निमित्त उपस्थित हो, उचित प्रतीत नहीं होता है। साथ ही शोभा यात्रा एवं अन्य आयोजनों का किया जाना भी इसके कुम्भ जैसे बड़े महोत्सव होने का संकेत देता है।

मध्य काल में तैमूर जब भारत आक्रमण के पश्चात वापस लौटा तो हरिद्वार से होता हुआ गया और लिखित स्रोत बताते हैं कि उसने कुम्भ महोत्सव में स्नान करते निहत्थे स्नानार्थियों का कत्ल  कराया था। मुग़ल काल में 1630 ई० में मुग़ल सम्राट जहांगीर के स्वयं कुम्भ महापर्व में हरिद्वार में उपस्थित होने का उल्लेख मिलता है। सिक्ख साम्राज्य के निर्माता महाराजा रणजीत सिंह के 1807 ई॰ और आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद के भी कुम्भ महोत्सव में शामिल होने के लिखित साक्ष्य प्राप्त होते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी अपनी आत्मकथा में लिखते है कि कुम्भ का दिन आया मेरे लिए यह धन्य की घड़ी थी।अर्थात राष्ट्रपिता भी इस कुम्भ परम्परा के साक्षी बने थे।

पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर भी कुम्भ परंपरा का आरम्भ सातवीं शताब्दी माना जाता है। लक्सर तहसील के झोवरहेडी गांव से मिले प्राचीन पाषणफलक को पुरातत्वविद् गुर्जर-प्रतिहार काल का मानते हैं जिनका इतिहास में काल निर्धारण लगभग 750 ई० से 900 ई० के मध्य माना जाता है। समुद्र मंथन कि कथा के घटनाक्रम को दर्शाने वाला यह सबसे प्राचीन पाषण फलक यह सिद्ध करता है कि कुम्भ परंपरा इस अवधि से पूर्व भलीभांति स्थापित हो चुकी थी। अतः इतिहास की दृष्टि से कुम्भ परम्परा का आरंभ सातवीं शताब्दी से पूर्व माना जा सकता    है।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोधपत्र में द्वितीयक स्रोतों के द्वारा तथ्य एकत्रित कर शीर्षक का विवरणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जायेगा
विश्लेषण

कुम्भ परंपरा की वर्तमान प्रासांगिकता

कुम्भ परम्परा का यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किया जाये तो हम पायेंगें कि यह आज अत्यधिक प्रासंगिक हो गयी है भारतीय लोगों का आज भी ज्योतिष में बड़ा विश्वास है और महाकुम्भ का पर्व ज्योतिष के अनुसार वृहस्पति और सूर्य कि विशेष युति के अवसर पर होता है जिसे ज्योतिष शास्त्र में अति शुभ माना जाता है वर्तमान में ज्योतिष शास्त्र जब एक विषय के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका है तो इस दृष्टि से कुम्भ परम्परा आज और भी प्रासांगिक हो जाती है वर्तमान में तो भारतीय ज्योतिष शास्त्र को अधिकांश विश्व ने विज्ञान मान लिया है यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड काल अथवा समय प्रवाह से प्रवाहित होता हुआ, प्रकृति के नियमों का पालन करता है। ब्रह्मांड में सभी वस्तुएं गतिशील हैं और एक दूसरे को प्रभावित करती हैं, यत पिंडे तत ब्रह्मांडे, तत ब्रह्मांडे यत पिंडे सिद्धांत के अनुसार, जो कुछ भी इस ब्रह्मांड में है, वह सब कुछ इस शरीर में विद्यमान है, जो कुछ भी इस शरीर में है वह सब कुछ ब्रह्मांड में विद्यमान है ज्योतिष शास्त्र व्यक्ति की प्रवृत्ति,मनोवृति के अनुसार भविष्य में क्या घटनाएं होने वाली है और यह इसके वैज्ञानिक विश्लेषण को प्रस्तुत करता है हमारे प्राचीन मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही अनुमान लगा लिया था की कलयुग तक आते-आते मानव प्रकृति से कितना दूर हो जायेगा और अपने निहित स्वार्थ में उनका अँधा दोहन करता चला जायेगा जिसका तात्कालिक उदाहरण र्में आल वेदर रोड़ के लिए पहाड़ो का कटान एवं उसके फलस्वरूप निरन्तर हो रहा भू-कटाव और भूस्खलन हमारे सम्मुख है जहाँ मानव की तकनीकी भविष्यदृष्टि की विफलता स्पष्ट नजर आ रही है और पहाड़  के लोग एक और बड़ी त्रासदी के मुहाने पर खड़े दिख रहें हैं तो इस आधार पर भी महाकुम्भ के आयोजन की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है

धार्मिक दृष्टि से भी कुम्भ परंपरा वैदिक अथवा सनातन धर्म कि श्रेष्ठता को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने में सफल हुआ है आज भारत ही नहीं भारत के बाहर भी विश्व के लोगों को महाकुम्भ के आयोजन का इंतजार रहता है दूसरे शब्दों में कहा जाय तो महाकुम्भ  प्राचीन भारतीय धर्म एवं संस्कृति के उच्च आदर्शों को सम्पूर्ण विश्व के समक्ष प्रस्तुत करता है यही कारण है कि इस आयोजन का साक्षी आज पूरा विश्व बनता है एक सन्दर्भ यहाँ अति-महत्वपूर्ण है कि यह सम्भावना व्यक्त की गयी है कि यदि तृतीय विश्व युद्ध हुआ  तो वह पानी के लिए होगावर्तमान समय में शुद्ध जल स्रोतों में निरंतर हो रही कमी एवं जल प्रदूषण की बढते प्रकोप के आकलन से स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि ये संभावना व्यर्थ नहीं है इस दृष्टि से यह कहना बिल्कुल भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि हमारे प्राचीन मनीषी कितने विद्वान एवं भविष्यदृष्टा थे कि आज से हजारों वर्ष पूर्व ही उन्होंने जल की महत्ता को केवल समझा ही नहीं अपितु उसके सरंक्षण के लिए विभिन्न उपाय भी दिए| जहाँ आज अत्याधुनिक तकनीकी एवं विज्ञान का दंभ भरने के बाद भी विगत ३० वर्षों में हम केवल जल सरंक्षण कि बातें ही करते आ रहे हैं,कोई समाधान हमे ढूंढे नहीं मिल पा रहा है| अतः महाकुम्भ परम्परा जल सरंक्षण कि दृष्टि से भी आज बहुत प्रासंगिक नजर आती है

एक नजर वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखें तो हम पायेंगे कि गंगा के जल में कई औषधीय गुण है जब हम  इसमें स्नान करेंगे तो निश्चित ही इससे शरीर के बाह्य एवं आन्तरिक रोगों में लाभ मिलेगा| गंगा का पानी कभी ख़राब नहीं होता है और वैज्ञानिकों ने गंगा के जल के खराब न होने का कारण भी खोज लिया है उनके अनुसार डेलोविब्रियो बेक्टिरियोबोरस' नामक जीवाणु इसे ख़राब नहीं होने देता है जिसकी विशेषता यह है कि वह हानिकारक जीवाणुओं को खा जाता है अतः हर वर्ष न सही, 12 वर्ष के अन्तराल पर ही कुम्भ महोत्सव में स्नान से मानवजाति को कई रोगों से मुक्ति मिल सके और जल कि महत्ता बनी रहे जल स्वयं ही अमृत है और इसके बिना जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है ऐसे में जल के स्रोतों को सुरक्षित और संरक्षित रखने का कोई बेहतर उपाय यदि अभी तक विज्ञान नहीं दे पाया है तो निश्चित ही हमें महाकुम्भ जैसे आयोजन का निहित उद्देश्य समझ में आ जाना चाहिए अतः वर्तमान में जल प्रदूषण कि विकराल होती समस्या के समाधान में भी कुम्भ परम्परा से काफी मदद मिल सकती है

आज सम्पूर्ण विश्व क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकतावाद, जातिवाद, नस्लवाद जैंसी भयानक बीमारियों का सामना कर रहा है और उसे इससे बहार निकलने का कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ रहा है महाकुम्भ प्राचीन भारतीय संस्कृति के महान संदेश विविधता में एकता एवं भारत  की एकता व अखंडता को बनाए रखने में  भी सहायक है यह पर्व स्थान, जाति, भाषा और रंगभेद का भावइत्यादि के भाव को भी समाप्त करता है जब एकीकरण की बात आती है, तो कुंभ मेला समाज के विभिन्न वर्गों से संबंधित लोगों के विलय का एक आदर्श मंच प्रस्तुत करता है। अपनी विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं के बावजूद, विभिन्न पारंपरिक संस्कृतियों के पर्यटक एक साथ आते हैं और उत्सव में भाग लेते हैं।

अपने विभिन्न अनुष्ठानों के माध्यम से यह मानवता, शांति, एकता और सद्भाव का संदेश फैलाता है। प्रत्येक अनुष्ठान में सांस्कृतिक विश्वासों और धार्मिक प्रथाओं के साथ-साथ खगोल विज्ञान और ज्योतिष के विज्ञान शामिल हैं। यह दृश्य वर्तमान में राष्ट्रीय एकता ही नहीं अपितु वैश्विक एकता का संदेश प्रसारित करता है वास्तव में देखा जाय तो वसुधैव कुटुम्बकम्की वास्तविक भावना महाकुम्भ के अवसर पर ही स्पष्ट नजर आती है और हमें भी वैश्विक विभिन्न समस्याओं का भी इस से इतर कोई बेहतर समाधान नहीं दीखता है जो कि इस महापर्व की वर्तमान उपादेयता को स्वतः ही सिद्ध करता है

त्योहार का एक सुंदर अनुष्ठान दीया कहे जाने वाले हस्तनिर्मित मिट्टी के दीयों की रोशनी है। दीप दान के रूप में जाने जाने वाले इस समारोह में मंदिरों के अंदर, नदी के किनारे, जंगलों में कुछ पवित्र स्थानों और यहां तक ​​कि भगवान की मूर्तियों के सामने भी दीपों को रखा जाता है। दीयों की सुनहरी लौ रात के समय पूरे शहर को रोशन करती है। इस अनुष्ठान के पीछे विचार यही  है कि जिस तरह एक दीया किसी भी जगह से अंधेरे को दूर भगा सकता है उसी प्रकार सपूर्ण मानव प्रजाति को भी कार्य करना चाहिए। संभवत यह इस बात का भी संकेत हो कि दयालुता का एक छोटा सा कार्य भी किसी भी व्यक्ति के दिल से कड़वाहट को दूर कर सकता है।

दर्शन एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'देखना'। साधुओं के जीवन को करीब से देखने के धार्मिक उपासकों के लिए कुंभ मेला एक अद्भुत अवसर है। ये साधु विभिन्न अखाड़ों या धार्मिक संप्रदायों से संबंधित हैं और विभिन्न हिंदू देवताओं के प्रतिष्ठित अनुयायी हैं। कुंभ मेले में पहुंचने पर, वे नदी में स्नान करते हैं और फिर अपने तंबुओं में निवास करते हैं। साधु जीवन का एक कठोर तरीका अपनाते हैं। वे भौतिकवादी इच्छाओं से मुक्त होते हैं और अपना जीवन अपने सर्वशक्तिमान की सेवा में समर्पित करते हैं। संतों की यह जीवन चर्या  सामान्य जन को सर्वधर्म एवं सम्भाव की और अग्रसर करती है

भगवान के आशीर्वाद के रूप में माना जाता है, दूध और सूखे मेवों का उपयोग करके अविश्वसनीय रूप से स्वादिष्ट प्रसाद तैयार किया जाता है और आम तौर पर हलवा और लड्डू जैसा मीठा होता है। भक्त स्वेच्छा से प्रसाद तैयार करने और उपस्थित प्रत्येक तीर्थयात्री को वितरित करने के लिए सामूहिक रूप से काम करते हैं।

पुजारियों के साथ-साथ भूखे और जरूरतमंद यात्रियों के लिए एक सांप्रदायिक भोज भी आयोजित किया जाता है। यह विभिन्न परिवारों और समुदायों से प्राप्त दान और स्वयंसेवकों द्वारा पकाया और परोसा जाता है। यह विशुद्ध रूप से शाकाहारी हैं क्योंकि लोग जानवरों के खिलाफ किसी भी प्रकार की हिंसा की आलोचना करते हैं। इसके द्वारा जनसामान्य में सामूहिकता, समरसता और भाईचारे की भावना की सोच विकसित होती है जिसकी वर्तमान में नितांत आवश्यकता महसूस होती है

निष्कर्ष कुम्भ महोत्सव केवल अध्यात्मिक अथवा धार्मिक आयोजन मात्र नहीं है वरन् इसकी सामाजिक-सांस्कृतिक व पर्यावरणीय महत्ता भी पूर्णत: स्थापित होती है| साथ ही ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह प्राचीन भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ मूल्यों का वाहक है| अतः वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि कुम्भ परम्परा की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आधुनिक संदर्भ में चर्चा हो और एक विमर्श खड़ा किया जाय ताकि वैश्विक कल्याण में इस परम्परा का उपयोग हो सके | वर्तमान में विकराल होती पर्यावरणीय समस्याओं ,विलुप्त होती वनस्पति एवं जंतु जगत् की प्रजातियाँ, गहराते जल संकट और बिगड़ते जलवायु संतुलन पर अंकुश लगाने में इस परम्परा का सदुपयोग हो सकता है | सम्पूर्ण मानव प्रजाति को विशाल संकट से उबारने में यह परम्परा सक्षम है | इस प्रकार भारतीय लोक चिंतन एवं सहिष्णुता की यह कुम्भ परम्परा सम्पूर्ण विश्व के मंगल का योग बन सकती है |
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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