ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XII January  - 2023
Innovation The Research Concept
अवध के आर्थिक जीवन का विश्लेषण: 1775-1837
Analysis of the Economic Life of Awadh: 1775-1837
Paper Id :  17068   Submission Date :  07/01/2023   Acceptance Date :  21/01/2023   Publication Date :  25/01/2023
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दीपिका शर्मा
सहायक प्राध्यापिका
इतिहास विभाग
एसबीएमटी खुर्जा रोड
बुलंदशहर,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश अवध संस्कृति व सभ्यता का केन्द्र रहा है इस प्रदेश का सांस्कृतिक विकास तो हुआ किन्तु आर्थिक विकास उस तुलना में नहीं हो पाया। इस शोध पत्र में आर्थिक विकास न हो पाने पर एक सांगोपांग दृष्टि डालने का प्रयास किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Awadh has been the center of culture and civilization, the cultural development of this state has happened but the economic development could not be compared to that. In this research paper, an attempt has been made to put a comprehensive view on the failure of economic development.
मुख्य शब्द अवध, जलवायु, उद्दोग, व्यवसाय।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Awadh, Climate, iIndustry, Business.
प्रस्तावना
यहाँ भाँति-भाँति की खेती होती थी। चावल, बाजरा, गेहूँ मुख्य खाद्य थे और कपास भी बोयी जाती थी यहाँ आर्थिक दृष्टि से विभिन्न व्यवसाय किए जाते थे, किन्तु उन सभी व्यवसायों में अंग्रेजी हस्तक्षेप होने के कारण आर्थिक स्तर में बढ़ोत्तरी नहीं दिखाई देती क्योंकि अंग्रेजों को हड़पने का मुख्य कारण आर्थिक ही था ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन भारतीय कृषि की आय का प्रमुख स्रोत भूमिकर ही था। कम्पनी ने अधिकाधिक कर प्राप्त करने की इच्छा से भिन्न-भिन्न प्रयोग किए। उन्होंने खुली निलामी की पद्धति अपनायी। जिसमें अधिक कर देने वाले को भूमि दी जाती थी। यह पद्धति सफल नहीं हुई। कार्नवालिस ने 1793 में बंगाल, बिहार व उड़ीसा में ‘‘स्थाई भूमि कर व्यवस्था’’ लागू कर दी। इसके पश्चात बम्बई और मद्रास के अधिक भाग में ‘‘रैयतवाडी व्यवस्था’’ लागू की गयी। फिर यू0पी0 में ‘‘महालवाडी पद्धति’’ (जो जमीदारी पद्धति का ही परिवाहित रूप था) लागू की गयी। ऐसा ही कम्पनी ने अवध में किया। इस प्रकार शोध-पत्र में आर्थिक पहलुओं पर दृष्टि डालने का प्रयास किया गया है।
अध्ययन का उद्देश्य विभिन्न इतिहासकारों के लिखित इतिहास के अध्ययन पर आधारित यह लेख अवध के आर्थिक पहलुओं पर प्रकाश डालता है जो अवध के प्रत्येक वर्ग के व्यवसाय की गरिमा पर केंद्रित है।अवध प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण व भौगोलिक स्थिति के अनुकूल होने के बावजूद अवध की दिन प्रतिदिन आय घटती रही । अवध का यही दुखद पक्ष रखने का प्रयास इसमें किया गया है।
साहित्यावलोकन

अवध के आर्थिक जीवन का विश्लेषण

अवध का भारतीय इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। मुगलकाल में अवध के प्रान्त की भौगोलिक स्थिति बहुत मजबूत थी। इस भूमि का उपजाऊपन अदभुत व विलक्षण     था।[1] इस भूमि की उपजाऊपन की विशेषता पर चर्चा करते हुए लार्ड डलहौजी ने ब्रिटिश पार्लियामेन्ट को भेजी रिपोर्ट में लिखा ’’इस सुन्दर भूमि में हर जगह जमीन की सतह से 20 फुट नीचे विपुल जल भरा है। यह प्रदेश अत्यन्त मनोरम एवं वैभवपूर्ण है। इसमें लम्बे और ऊँचे टीलों के जंगल है, मैदानों में आम्र वृक्षों की ठण्डी छाया है। खेत हरी-भरी पैदावार से के जंगल है मैदानों में आम्र वृक्षों की ठण्डी छाया है। खेत हरी-भरी पैदावार से लहलहाते है। स्वयं प्रकृति ने यहाँ की भूमि को अत्यन्त सुन्दर बनाया है। इसपर इमली के वृक्षों की घनी छायासन्तरे के बागों की सुगन्धअंजीर के पेड़ों का गहरा रंग और फूलों के रस की सुन्दर व व्यापक सुगन्ध यहाँ के दृश्य को और अधिक वैभव प्रदान करती है।’’

अवध का क्षेत्र नेपाल और गंगा के मैदान के मध्य विस्तृत था इसके उत्तरी भाग का क्षेत्रफल लगभग 1500 वर्ग मील का थाजिसमें चीड़बाँससाखूपीपलपाँकड़ के पेड़ो से सघन जंगल का निर्माण होता था। इस प्रकार अवध का विशाल मृदा-भूभाग वैमन्य से भरपूर था और यहाँ उपजाऊ भूमि की कोई कमी नहीं थी।[2] उत्तर भारत की भाँति अवध में भी मुख्य रूप से दो फसलें होती थी। एक रबी की फसल दूसरी खरीफ की फसल। रबी की फसल की बुवाई अक्टूबर - नवम्बर में की जाती थी और मार्च या अप्रैल के माह तक काट ली जाती थी। खरीफ की फसल शुरू बरसात से जुलाई माह के अन्त तक हो जाती थी और मध्य सितम्बर-अक्टूबर तक काट ली जाती थी। रबी की प्रमुख फसल में गेहूँ सेमचनामक्काजोलाहीतम्बाकू तथा पपीता थी तथा खरीफ की मुख्य फसलों में धानसुखदासबाजरामूँगअरहरउड़द और मसूर प्रमुख थी। रबी में आलूगाजरप्याज आदि की खेती भी की जाती थी। उपयुक्त जलवायु के कारण पैदावार अच्छी होती थी और साल की उपरोक्त दो फसलों के अलावा जायद की फसलें भी अधिकांश कृषक ले लेते थे।

अवध के विभिन्न औद्योगिक व्यवसाय

कागज सम्बन्धित व्यवसाय

कागज उद्योग में अनेकों प्रकार से कागज निर्मित किया जाता है जिसमें बाँस से बॉसी कागज बनाया जाता है जिसका मुख्य उपयोग सामान की पैकिंग में किया जाता है दूसरी ओर गन्ने की खोई से बढ़िया सफेद कागज निर्माण किया जाता है।

अवध में कागज निर्माण के लिए सवाई घाँस विपुल मात्रा में प्राप्य थी। इससे बहुउद्देशिक कागज का निर्माण किया जाता था। साथ ही खोई की भी अवध में कोई कमी नहीं थी। कागज के विभिन्न उद्योग थे। लखनऊ में पतंग निर्माण का व्यवसाय इसी कागज उद्योग की देन था। नवाबो को भी पतंगबाजी का शौक था इसलिए इन्होंने पतंग निर्माण व्यवसाय को प्रोत्साहित किया। अवध के शिया सम्प्रदाय के लोग मोहर्रम पर ताजिए निकालते थे जिसका प्रचलन आज भी है। इस पर रंग-बिरंगे कागजों का प्रयोग किया जाता था। अवध में ऐसे अनेकों परिवार थे जो केवल पतंग निर्माण के आधार पर ही अपना जीवन निर्वाह करते       थे।[3] एक बार प्रयोग किए कागज को फेंका नहीं जाता था और उसको रद्दी के रूप में एकत्र करके या तो उसका प्रयोग पुनः कागज निर्माण के लिए कर लिया जाता था अथवा उसे कई दिनों तक पानी में भिगोकर रखा जाता था उसके गल जाने के बाद उसकी लुग्दी बना ली जाती थी इस लुग्दी का प्रयोग सुन्दर-सुन्दर डिब्बियाँ बनाने मेंहुक्के के पेदें बनाने में और घरेलू उपयोग के सामान (जैसे ढल्ला या ढइया) बनाने में किया जाता था। इस प्रकार यह उद्योग अवध में खूब फला-फूला।

फर्नीचर उद्योग

अवध का दक्षिणी भाग जहाँ कृषि कार्यों के लिए अत्यधिक उर्वर था। वहीं इसके उत्तरी भाग में अत्यधिक वन थे। इन वनों में अनेकों प्रकार की इमारत लकड़ी जैसे साल और शीशम जैसे वृक्षों की भरमार थी। इस लकड़ी को व्यापारी वर्ग जंगल के ठेकेदारों से दो रूपये प्रति घन फुट के हिसाब से क्रय करते थे और शहर से लाकर चार रूपये प्रति घन फुट के हिसाब से बेंच देते थे। फलस्वरूप उन्हें प्रति घन फुट लकड़ी पर दो रूपये की प्राप्ति होती थी। यदि इन दो रूपये में से भाड़ा खर्च व अन्य व्यय को हटा दिया जाए तो ये व्यापारी लगभग 50-60 पैसा प्रति घन फुट की दर से लाभ कमाते थे। शहर में कारीगर खराद’ करके इस लकड़ी को तराशते थे और इसका सुन्दर फर्नीचर तथा अन्य घरेलू सामान बनाकर ऊँचे दामों पर बेंच देते थे। इस प्रकार फर्नीचर व्यापार ने समाज के ऊँचे वर्ग को लाभ प्रदान किया।

पान व्यवसाय

अवध में पान की खेती भी की जाती थी। इसका आयात भी बाहर से किया जाता था। पटनाबनारस आदि ऐसे स्थल थे जहाँ से पान के पत्ते अवध के मुख्य मुख्य शहरों में आयात किये जाते थे। सामान्यतः 6 ढोलियों (ढोली-एक ढोली में 200 पान के पत्ते होते थे) की कीमत रूपया के आसपास होती थी। यदि पान के व्यापार में लाभ की तरफ देखे तो यदि एक व्यापारी 72 ढोली पान पटना जैसे किसी पास के शहर से लखनऊ में लाकर बेचता था तो उसे ढोलियो काकहने का तात्पर्य है, 2 रूपये का शुद्ध लाभ प्राप्त होता था। अवध में पान के व्यापार में अधिक लाभ था क्योंकि एक तरफ यह अवध की संस्कृति का एक अहम हिस्सा बन गया। इसी कारण इसकी माँग सदा के लिए बनी रही। विलियम बताते है कि व्यापारियों से इन पानो की ढोलियों को तम्बूली’ खरीद लेते थे। (तम्बूली का अर्थ है पान लगाकर बेचने वाला) तथा इनमें सुपारीकत्थाचूना आदि लगाकर बेचते थे। इस प्रकार उन्हें 3 आने (1 रूपया16 आना, 3 आने में लगभग 18 नये पैसे) प्रति ढोली के हिसाब से लाभ मिलता था। फलस्वरूप पान की खेती व व्यापार ने भी अवध को एक नई दिशा दी और बहुत से लोगो को रोजी रोटी दी।(4)

इत्र उद्योग

अवध में इत्र के प्रयोग ने भी खूब प्रसिद्धि प्राप्त की। यहाँ पर ऐसी लकड़ियां व पुष्प पाये जाते थे जिनसे इत्र निकाला जाता था। खसगुलाबचमेलीमेंहदी और हरसिंगार जैसी वनस्पति का प्रयोग इत्र बनाने में किया जाता था गुलाब से इत्र निकालने की विधि का अविष्कार नूरजहाँ की माता अस्मत बेगम ने किया था। यह परम्परा तभी से चली आयी थी। यहाँ पर विभिन्न प्रकार से इत्र बनाये गए व यहाँ के इत्रों ने दूर-दूर तक प्रसिद्धि दिलवायी। लखनऊ में उत्तम प्रकार का केवड़ा भी तैयार किया जाता थापरन्तु इस पर राज्य का एकाधिकार    था। अबुतालिब बताता है कि शहर में निर्मित केवड़ा केवल नवाब-वजीर और उसके महल के लिए आरक्षित था। आम जनता अपनी आवश्यकताओं के लिए बंगाल से केवड़ा मंगाती थी।[5]

तम्बाकू उद्योग

तम्बाकू का प्रयोग पानहुक्के व खाने में किया जाता था। लखनऊ में विभिन्न प्रकार के तम्बाकू पाये जाने के उदाहरण प्राप्त होते हैं।[6] तम्बाकू व्यापारी कृषकों से तम्बाकू की पत्ती खरीद कर शहर के तम्बाकू बनाने वालो को बेच देते थे। ये तम्बाकू बनाने वाले उनमें शीरा तथा सुगन्ध आदि मिलाकर अपने ग्राहकों को बेच दते थे। तम्बाकू के बिना शीरा आदि लगीसूखी पत्तियाँ भी बेची जाती थी। लखनऊ में बनी तम्बाकू की कई किस्मों को बहुत प्रसिद्धि मिली। लखनऊ में मदारिया हुक्का’ तथा अजीमल्ला खानी हुक्का’ का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है। हुक्को के मिट्टी के पेंदे बनाकर कुम्हार जाति के लोग पैसे कमाते थे। विलियम बताते है कि उपरोक्त दोनों ही प्रकार के हुक्को का अवध से (विशेषकर लखनऊ से) निर्यात किया जाता था।

वस्त्र उद्योग

वस्त्र उद्योग अवध की विशिष्ट संस्कृति में गिना जाता है। वस्त्र उद्योग न केवल अवध का बल्कि भारत का एक बहुत प्राचीन उद्योग रहा है। अवध में कपड़े पर कढ़ाईनक्काशी और उसे रंगकर उससे अनेक कलाओं को विकसित किया गया। चिकनकामदानीकारचोबीजरदोजी और मुक्कैश आदि नाम ऐसी ही प्रसिद्ध कलाओं को दिए गए थे।

चिकनकारी

सूती कपड़े पर एक विशेष प्रकार की कढ़ाई को चिकन का काम कहा जाता था। अवध में कपास की खूब खेती होती थी। कपास उत्पादन के लिए आवश्यक लाल और काली मिट्टी की यहाँ कमी न थी। अतः यहाँ कपास के ऊपर आधारित उद्योगों को फलने-फूलने का भरपूर मौका मिला। चिकन उद्योग इन उद्योगों में से एक था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के फैक्ट्री रिकार्ड से जानकारी मिलती है कि अवध में सर्वप्रथम खैराबाद में सूती कपड़ा बुनने की फैक्ट्री लगायी गयी थी। जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ ने जो चिकन की कढ़ाई का काम प्रारम्भ किया था। वह अब अवध में भी बड़े पैमाने पर प्रारम्भ हो गया। प्रदीप मेहरोत्रा बताते है कि अवध में सूती कपड़े पर चिकन की कढ़ाई को शुरू करने का श्रेय नूरजहाँ की एक कनीज बेगम बिस्मिल्लाह को जाता है सूती कपड़े का उत्पादन खैराबाद मिल से बड़े पैमाने पर प्रारम्भ हो गया अवध के ज्यादातर गरीब मुस्लिम परिवारों ने चिकन के काम को अपनी आजीविका के रूप में अपना लिया इसके पीछे कई कारण थे। प्रथम तो यह कहा जा सकता है कि स्त्रियाँ इस कार्य को अपने घरों में ही रहते हुए कर सकती थीदूसरे इस काम को प्रारम्भ करने के लिए कोई अधिक पूँजी की आवश्यकता न थीक्योंकि सूती कपड़ा और सूती धागा स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध थे। तीसरे इस काम की माँग क्रमशः बढ़ती जा रही थी और चौथे नवाब-वजीरों ने भी इस काम को प्रोत्साहन दिया।[7] इस प्रकार यह काम एक उद्योग का रूप लेता चला   गया। एक समय ऐसा आया जब चिकन कारीगर को माल तैयार करने के लिए अग्रिम राशि मिल जाती थी और तैयार माल को किसी बड़े व्यापारी या व्यवसायी के कारिन्दे आकर ले जाते थे और आगे अन्य काम के लिए पुनः अग्रिम दे जाते थे। फलस्वरूप इस उद्योग का एक निश्चित पैटर्न या ढाँचा बनता चला गया। तैयार चिकन का कपड़ा 2 रुपये प्रति मीटर की दर से बिकता था तथा इस शुद्ध लाभ 30-35 प्रतिशत के बीच होता था। विलियम हो एक निश्चित आँकड़ा 32 प्रतिशत लाभ का देते है जो सामान्य रूप से सत्य के करीब प्रतीत होता है।

मुक्कैश का काम

यह काम चिकन के कपड़े पर ही किया जाता था। इस कपड़े पर सुनहरे चमकीले तारों से बुन्दकियाँ डाली जाती थी और यही काम मुक्कैश का काम कहा जाता था। उच्च वर्ग के लोगो के लिए मलमल के कपड़े पर भी मुक्कैश का काम किया जाता था।[8] सामान्यः सूती कपड़े पर ही मुक्कैश का काम अधिक प्रचलित था। 

जरदोजी और कारचोबी व्यवसाय

यह एक अड्डे (कपड़ा इस फ्रेम पर कसा जाता था) पर कपड़े को तानकर जरदोजी या कारचोबी का काम किया जाता था इसके बार सुनहरे और रूपहले तारों से विभिन्न अंलकरण किए जाते थे। मुक्कैश में चिकन के कपड़े पर केवल बिन्दिया सुनहरे तारों के द्वारा डाली जाती थीवही कारचोबी और जरदोजी में किसी भी कपड़े पर तारों से अनेक प्रकार का डिजाइन बनाए जाते थे। सोने व चाँदी के तारों से नवाबों व उच्च वर्ग के लिए यह काम किया जाता   था। इस कार्य में 7-8 प्रतिशत तक लाभ हो जाता थाअतः अच्छे कारीगरों की माली हालत अच्छी हो जाती थी। यह काम जब अत्यधिक बढ़ गया तब उच्च वर्ग की टोपीवर्दी आदि पर यह काम किया जाने लगा। अब इस कार्य में प्रयुक्त होने वाले तारों को बनाने वालो का भी एक पृथक वर्ग उभर आया। ये लोग तारकश कहलाते थे। इस प्रकार चिकन और मुक्कैश की भाँति कारचोबी या जरदोजी के व्यवसाय ने भी समाज में अनेक लोगों की आजीविका उपलब्ध कराई।

जामदानी उद्योग

जामदानी वह कपड़ा था जिस कपड़े की बुनाई के समय ही उसमें सुन्दर डिजाइन डाल दिया जाता था। इस कपड़े ने बड़ी लोकप्रियता पायी। समाज में जामदानी बनाने वालों का बहुत सम्मान था।

रंगाई उद्योग

भारत में चित्रकला तथा कपड़े आदि रंगने के लिए तरह-तरह के प्राकृतिक रंगो का प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है। अवध में इन रंगों को तैयार करने की अनेकों विधियाँ प्रचलित थी। नीला रंग बनाने के लिए मुख्यतः नील का प्रयोग किया जाता थाक्योंकि अवध में नील का अच्छा उत्पादन होता था।[9]और यह रंग सरलता से और सस्ते दामों पर मिल जाता था।

पीला रंग हल्दी से तैयार किया जाता था लेकिन हल्दी के अतिरिक्त हरसिंगारटेसूगेंदे आदि के पुष्पों से भी प्राप्त किया जाता था। इसी प्रकार लाल रंग मजीठ और कुसुम सेअंगराई रंग कत्थे और महुए से तथा खाकी रंग दालहरा से बनाए जाते थे। इस प्रकार अलग-अलग स्रोतों से प्राप्त रंगों को उनकी विशेषता के अनुसार रंगाई कार्य में लाया जाता था। कपड़ों की रंगाई करने वालो को रंगरेज के नाम से जाना जाता था। फलस्वरूप कपड़ा उद्योग से बहुत उन्नति हुई। निम्न वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तककपड़ा उद्योग से सभी ने लाभ अर्जित किया। यह अवध की संस्कृति के रूप में भी विस्तारित हुआ।

आभूषण उद्योग

उच्च वर्ग के लोग कीमती और सुन्दर वस्त्रों व आभूषणों के शौकीन थे। लाल-बरादरीजहाँ पर अवध के नवाबों की ताजपोशी हुआ करती थीकि दीवारो तक पर सोने चाँदी के पत्तर चढ़े हुए थे और नवाब की जिस गद्दी पर ताजपोशी होती थी वह भीसोने चाँदी के द्वारा विभिन्न प्रकार से अलंकृत की जाती थी। नवाबों के पास धन की तो कोई कमी थी ही नहीं किन्तु राज्य को संगठित करने के बजाय अपनी शानाशौकत को बढ़ाने में अधिक   किया स्किनर महोदय ने नवाब नसीरूद्दीन हैदर की वेशभूषा का वर्णन करते हुए लिखा है कि नवाब हरे रंग के मखमल के वस्त्र पहनता थाजिसके ऊपर से बहुमूल्य शौल ओढ़े रहता था उसकी पगड़ी में हीरे जड़े थे तथा वह गलेकानऔर सारे शरीर पर अन्य बहुमूल्य मोतियों के आभूषण पहने रहता था। एक प्रसिद्ध विदेशी यात्री एम्मा राबर्ट्स द्वारा किए गए एक महत्वपूर्ण वर्णन से नवाबों द्वारा सोने-चाँदी के आभूषणों और उन पर की गई नक्काशी के उल्लेख के साथ साथ भव्य सिंहासन का उल्लेख भी प्राप्त होता है। जो निश्चित रूप से अवध के विकसित आभूषण उद्योग के पक्ष में एक महत्वपूर्ण प्रमाण है।[10]

सोने-चाँदी के वर्क बनाने का उद्योग

सोने और चाँदी के सिल्लियों से विभिन्न मोटाई की चादरें बनायी जाती थी। मोटी चादरों को अन्य धातुओ के ऊपर चढ़ाया जाता था और बारीक सोने चाँदी की चादरो का प्रयोग औषधि बनाने में किया जाता था किन्तु विशेष प्रकार से तैयार अत्यन्त बारीक सोने-चाँदी की चादरे वर्क कहलाती थी। वर्क की अवध के पान उद्योग में काफी माँग रही थी। इसे पान पर लगाकर सुन्दर बनाया जाता था। इसी तरह भिन्न-भिन्न प्रकार की मिठाईयो पर भी सजाया जाता था। विलियम हो बताते है कि सोने-चाँदी की 9 माशे की एक साधारण गड्डी से वर्क बनाकर बेचने से 12 आने (75 पैसे) तक का लाभ हो जाता था।[11] इस प्रकार इस उद्योग ने भी अपनी एक अलग पहचान बनायी।

नक्काशी

नक्काशी करने वाले को नक्काश कहा जाता था। सोने और चाँदी की मोटी चादरो परपीतल व ताँबे के बर्तनों पर और उच्च वर्ग के लोगों की पगड़ियों की कंलगियो आदि पर नक्काशी करने वालो का एक अलग वर्ग अवध में स्थापित हुए। पीतल व ताँबे आदि के बर्तनों पर जो नक्काशी की जाती थी उसे बिदरी के नाम से जाना जाता था धातु पर नक्काशी के अलावा ये कारीगर हाथी दाँत और मिट्टी के विभिन्न प्रकार के बर्तनों पर या खिलौना आदि पर भी नक्काशी किया करते थे। इस कार्य से इन नक्काशो को अच्छी आमदनी हो जाती थी।(12)

मृदा-उद्योग

अवध में भूमि का एक भाग ऐसा भी था जो बंजर था। इसमें कोई भी फसल पैदा नहीं की जा सकती थी। अतः अवधवासियों ने इस ऊसर भूमि का उपयोग अन्य लाभदायक कार्यो के लिए बड़े ही अच्छे ढंग से किया। उन्होंने इस मिट्टी से जहाँ एक ओर शीशा प्राप्त किया। वही साबुननमक शोराबारूद जैसे पदार्थो की प्राप्ति भी इससे ही की गयी इस कार्य के लिए ऊसर मिट्टी कोजिसमें कि सोड़ा के कार्बोनेट की अत्यधिक मात्रा होती हैछोटे-2 छिछले गड्ढ़ो से भरा जाता था और ऊपर से पानी भर दिया जाता था यह कार्य मार्च से मई तक पूरा कर लिया जाता था। इसके बाद इन गड्ढो के ऊपर की परत सूखने लगती थी। इसी परत में सोड़े के बाई कार्बोनेट की सान्द्रता अत्यधिक होती थी अतः इसे उतार लिया जाता था। इस प्रक्रिया को कई बार दोहराते थे। इस प्रकार प्राप्त पदार्थ रेहा’ कहलाता था। इस रेहा के छोट-छोटे गोले भट्टी में पका लिए जाते थे जब ये पक जाते थे तो इन्हे पीसकर पाउडर बना लिया जाता था। जो बहुत बारीक होता था। अब इस बारीक पाउडर में न तो कार्बोलिक अम्ल होता था न ही नमी। इस पाउडर को सूजी कहा जाता था। इसका उपयोग सिलिका के साथ करकेजहाँ एक ओर शीशा बनाया जाता था वही दूसरी ओर चूना वसा और तेलीय पदार्थों को इसके साथ मिलाकर साबुन तैयार किया जाता था। स्लीमेन ने शीशा और साबुन निर्माण की उपरोक्त विधियों के साथ-साथ नमकशोरा और बारूद बनाने की विधियों का भी उल्लेख किया है। पीतल और ताँबे के बर्तनों की तरह ही मृदभाँडो पर भी नक्काशी की जाती थी लखनऊ में बने मिट्टी के बर्तन और खिलौने प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध रहे थे।(13)


अन्य उद्योग

इस प्रकार अवध में अनेको ऐसे उद्योगो ने उन्नति प्राप्त की जिनसे वहाँ की संस्कृति की विशिष्ट पहचान बनी। अवध के नक्काशी उद्योग का वर्णन ऊपर किया जा चुका है। साथ ही यहाँ पर हाथी दाँत की नक्काशी भी की जाती थी और इस कार्य को इतनी सफाई से अंजाम दिया जाता था कि इसने भी यहाँ उद्योग का दर्जा प्राप्त कर लिया था यहाँ के दस्तरख्वान में अनेको प्रकार के विशिष्ट व्यंजन तैयार किए जाते थें जिनका वाणिज्यिक स्तर पर बहुत महत्व था। यहाँ उत्तम् प्रकार के अचारचटनीमुरब्बेशरबत एंव खाने पहली-पहली बार तैयार किए गए। ये आचार और मुरब्बे दूर-दूर तक विख्यात हो गए थे। इस प्रकार के व्यवसाय में लाभाँश बहुत अधिक रहता था। विलियम हो ने आँवले के मुरब्बे के व्यवसाय में मिलने वाली भारी लाभाँश के आँकड़े उपलब्ध कराये।(14)

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा आर्थिक दोहन

अवध में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने पैर जमा लिए थे और अवध सूबे की आय समय-समय पर घटती-बढ़ती रही थीकभी प्राकृतिक आपदाओं के कारण तो कभी कृत्रिम स्थितियों के कारणजोकि तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम थी।

धीरे-धीरे कम्पनी ने प्रशासनिक समस्याओं के लिए अवध के नवाबों को उत्तरदायी ठहराना आरम्भ कर दिया। इस प्रक्रिया के तहत 1856 में अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।(15) 

निष्कर्ष इस प्रकार एक ऐसा सूबा जो प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण था। जहाँ की जनता सैनिक और कृषि कार्यों के लिए बहुत योग्य थी। जहाँ की भौगोलिक स्थिति उसके व्यापारिक व्यावहारिक विकास के नितांत अनुकूल थी, एक विदेश कम्पनी की सोची समझी चाल में फंसकर अपने भावी विकास से वंचित कर दिया गया। अवध के इतिहास का यह एक सर्वाधिक दुःखद पक्ष है। अवध में जो सांस्कृतिक विकास तेजी से हो रहा था उससे यही बात सिद्ध होती है कि अठाहरवीं सदी को मुगल साम्राज्य के पतन के रूप में नहीं बल्कि क्षेत्रीय शक्तियों (जैसे अवध) के क्रमशः उभरते जाने के रूप में देखी जानी चाहिए। इस सदी में जो सांस्कृतिक विकास किया गया उससे अंधकार युग कहे जाने की बात स्वीकार नहीं की जा सकती बल्कि यह युग एक चमत्कार का युग कहा जाना चाहिए क्योंकि इसमें संस्कृति की उन्नति तो होती है किन्तु आर्थिक व राजनैतिक स्थिति बिगड़ जाती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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