ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- XII January  - 2023
Innovation The Research Concept
डॉ. भीमराव अम्बेडकर एवं सामाजिक न्याय
Dr. Bhimrao Ambedkar and Social Justice
Paper Id :  17036   Submission Date :  03/01/2023   Acceptance Date :  13/01/2023   Publication Date :  15/01/2023
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शैलेन्द्र कुमार सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
समाजशास्त्र विभाग
बैसवारा पी.जी. कॉलेज, लालगंज
रायबरेली,उत्तर-प्रदेश, भारत
सारांश डॉ. भीमराव अम्बेडकर आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय के प्रणेता हैं। उनके जीवन का लक्ष्य समाज के दलित, कमजोर वर्गों को न्याय दिलाना था। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने देखा कि समाज में दलितों पर धार्मिक ग्रन्थों द्वारा विभिन्न प्रकार की निर्योग्यताएं लाद दी गयी हैं। उन्होंने इसका विरोध किया। उन्होंने अछूतोद्धार आन्दोलन का शुभारम्भ 20 जुलाई, 1924 को बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना करके किया था। मार्च 1927 में महाड़ गांव के चवदार तालाब पर अपने 5000 समर्थकों के साथ पहुंचकर सवर्णों के एकाधिकार को तोड़ते हुए तालाब के पानी को पिया। 1930 में उन्होंने मन्दिरों पर सवर्णों के एकाधिकार को चुनौती देते हुए अछूतों के प्रवेशाधिकार के लिये आन्दोलन किया और उसमें सफलता प्राप्त की। लन्दन में आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया और दलितों के लिये पृथक निर्वाचन की मांग की लेकिन गांधीजी के विरोध एवं अनशन के कारण उन्हें पूना पैक्ट करना पड़ा और दलितों के लिये पृथक निर्वाचन का अधिकार छोड़ना पड़ा। वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के श्रम सदस्य (1941-46) रहते हुए उन्होंने दलितों व श्रमिकों के हित में कई कानून बनाये। उन्हीं के प्रयासों से भारत सरकार के रेलवे, कस्टम, टेलीग्राफ आदि विभागों में 8.33 प्रतिशत नौकरियां दलितों के लिए आरक्षित की गईं। 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हुआ और वे देश के प्रथम कानून मंत्री बने। देश की संसद ने 29 अगस्त, 1947 को संविधान बनाने के लिये एक प्रारूप समिति बनाई जिसका अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर को बनाया गया। उन्होंने संविधान के माध्यम से दलितों, पिछड़ों, महिलाओं सहित समस्त नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किया। राज्य को कल्याणकारी राज्य बनाने का प्रयास किया। दलितों व जनजातियों को लोकसभा, विधानसभा, सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया। अक्टूबर 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। 6 दिसम्बर, 1956 को दिल्ली में निधन हो गया। डॉ. अम्बेडकर को वर्ष 1990 में देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारतरत्न से सम्मानित किया गया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Dr. Bhimrao Ambedkar is the pioneer of social justice in modern India. The goal of his life was to provide justice to the downtrodden, weaker sections of the society. He fought lifelong for the upliftment of Dalits. He observed that different types of disabilities have been imposed on Dalits in the society through religious texts. He opposed it. He started the untouchability movement on July 20, 1924 by establishing the Excommunicated Hitkarini Sabha. In March 1927, reaching the Chavdar pond of Mahad village with 5000 of his supporters, broke the monopoly of the upper castes and drank the water of the pond. In 1930, challenging the monopoly of the upper castes on the temples, he agitated for the entry rights of the untouchables and got success in it. Participated in the Round Table Conferences held in London and demanded separate elections for Dalits, but due to Gandhiji's protest and fast, he had to sign the Poona Pact and give up the right of separate elections for Dalits. As a labor member of the Viceroy's Executive Council (1941-46), he made many laws in the interest of Dalits and workers. Due to his efforts, 8.33 percent jobs were reserved for Dalits in the departments of Railways, Customs, Telegraph etc. of the Government of India. The country became independent on August 15, 1947 and he became the first law minister of the country.
The Parliament of the country formed a drafting committee on August 29, 1947, to make the constitution, whose chairman Dr. Ambedkar was made. He provided basic rights to all citizens including dalits, backward, women through the constitution. Tried to make the state a welfare state. Provided reservation to Dalits and tribes in the Lok Sabha, Vidhansabha, government jobs. He converted to Buddhism in October 1956. Died in Delhi on 6th December, 1956. Dr. Ambedkar was awarded the country's highest civilian award Bharat Ratna in the year 1990.
मुख्य शब्द सामाजिक न्याय, दलित, कमजोर वर्ग, निर्योग्यताएं, बहिष्कृत हितकारिणी सभा, गोलमेज सम्मेलन, संविधान, कार्यकारिणी परिषद, भारतरत्न।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Social Justice, Dalits, Weaker Sections, Disabilities, Excluded Hitkarini Sabha, Round Table Conference, Constitution, Executive Council, Bharat Ratna.
प्रस्तावना
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जीवन का लक्ष्य समाज के दलित व कमजोर वर्गों को न्याय दिलाना था। वहीं एक ऐसी समाज व्यवस्था का विकास करना था जिसमें किसी भी व्यक्ति के साथ अन्याय न हो। इन्होंने भारत के दबे कुचले दलित वर्ग के उत्थान के लिये आजीवन प्रयास किया जिसके आधार पर इन्हें भारत का लिंकन और मार्टिन लूथर कहा जाता है। डॉ. अम्बेडकर बुद्ध, कबीर व ज्योतिबा फुले से प्रभावित थे। बुद्ध ने ईश्वर व आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने एक ऐसी समाज व्यवस्था की कल्पना की जो स्वतंत्रता, समानता, प्रेम व भाईचारे पर आधारित है जिसमें राजा व सेवक, पुरुष व स्त्री, ब्राह्मण व शूद्र सब समान हों। संत कबीर धर्म के नाम पर पाखंड, अंधविश्वास और कठमुल्लापन के सख्त विराधी थे। उन्होंने वर्ण और जाति पर आधारित समाज व्यवस्था का विरोध किया।
अध्ययन का उद्देश्य डॉ. भीमराव अम्बेडकर आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय के प्रणेता हैं। डॉ. अम्बेडकर द्वारा सामाजिक न्याय के लिये किये गये संघर्ष का अध्ययन निम्न तीन भागों में किया जा सकता है- 1. सामाजिक न्याय की अवधारणा 2. सामाजिक अन्याय के प्रमुख स्रोत एवं कारण 3. सामाजिक न्याय की स्थापना के लिये संघर्ष एवं संविधान में किये गये उपबंध।
साहित्यावलोकन

सामाजिक न्याय की अवधारणा-

सामाजिक न्याय से तात्पर्य है कि एक समाज में संपादितअवसरों एवं सुविधाओं का समान् रूप से वितरण। सामाजिक न्याय दो शब्दों सामाजिक और न्याय से मिलकर बना है। सामाजिक का संबंध समाज से जबकि न्याय का संबंध स्वतंत्रतासमानता और अधिकारों से   है।

जंगलराज में शक्तिशाली कमजोर पर शासन करता है। शेर हिरन को खा जाता है। मत्स्य समाज में बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है लेकिन मानव समाज में ऐसा नहीं होता। मानव समाज में कमजोर की रक्षा करने और उसका अधिकार दिलाने का दायित्व समाज या राज्य का होता है। यह मान्यता ही सामाजिक न्याय की धारणा का आधार है।

आधुनिक समाज में सामाजिक न्याय की अवधारणा एक ऐसी समाज व्यवस्था की कल्पना करती है जो स्वतंत्रतासमानता पर आधारित शोषण मुक्त हो। डॉ. अम्बेडकर ने स्वतंत्रता और समानता के साथ भातृत्व को भी सामाजिक न्याय का आधारभूत तत्व माना है। सामाजिक न्याय एक व्यापक अवधारणा है जो साधनहीन और साधन संपन्न के मध्य संतुलन स्थापित करती है।

सामाजिक न्याय के सिद्धान्त के अनुसार समाज में सभी मनुष्यों की गरिमा स्वीकार की जायस्त्री-पुरूषजातिधर्मक्षेत्र आदि के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव न किया जाये। शिक्षा और उन्नति के अवसर सबको समान रूप से उपलब्ध हों। सामाजिक न्याय का विचार अस्पृश्योंपिछड़ोंआदिवासियों को विशेष सहायता और संरक्षण देने की मांग करता है।

डॉ. अम्बेडकर के अनुसार-"न्यायपूर्ण समाज वह है जिसमें परस्पर सम्मान की बढ़ती हुई भावना और अपमान की घटती हुई भावना मिलकर एक करूणा से भरे समाज का निर्माण   करें। 

मुख्य पाठ

सामाजिक अन्याय के प्रमुख स्रोत एवं कारण

डॉ. अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल1891 को महाराष्ट्र की अछूत जाति महार में हुआ था। बचपन से लेकर शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कदम-कदम पर उनको भेदभावअपमान झेलना पड़ा। उन्होंने देखा कि समाज में शूद्र लोगों पर धार्मिक ग्रन्थों द्वारा विभिन्न प्रकार की निर्योग्यताएं लाद दी गयी हैं। इन निर्योग्यताओ से सर्वाधिक पीड़ित अस्पृश्य लोग हैं जो सैकड़ों साल से गुलामी का जीवन जीने के लिये विवश हैं। डॉ. अम्बेडकर ने आजीवन दलितों की मुक्ति के लिये संघर्ष किया।

उनकी एनिहिलेशन ऑफ कास्टहू वेयर द शूद्राजद अनटचेबल्सएनिहिलेशन ऑफ कास्टद राइज एंड फाल ऑफ हिंदू वूमेनफिलासॉफी ऑफ हिंदुइज्मरिडिल्स आफ हिंदुइज्म तथा एसेज ऑन अनटचेबल्स एंड अनटचेबिलिटी आदि रचनाएं कमजोर वर्गों पर समाज में होने वाले अन्याय व भेदभाव पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालती हैं। उनका मानना था कि दलितों को तमाम सामाजिक धार्मिक अधिकारों से वंचित रखा गया। उन्हें मंदिर में प्रवेश करनेपूजा करनेशिक्षा प्राप्त करनेसम्पत्ति रखने के अधिकार से वंचित कर निम्न श्रेणी के व्यवसाय करने के लिये बाध्य किया गया। उनके अनुसार परंपरागत हिंदू समाज व्यवस्था अन्यायपूर्ण   है। इसमें स्वतंत्रतासमानता का पूर्ण अभाव है। मराठों के समय पेशवाओं के राज में कोई अछूत उस समय सड़क पर नहीं चल सकता था जब कोई सवर्ण हिंदू वहाँ से गुजर रहा हो क्योंकि उसकी छाया पड़ने से सवर्ण हिंदू दूषित हो जायेगा। अछूत को अपनी कलाई या गले पर काला धागा पहनना होता था जिससे यह पता चले कि वह अछूत है और गलती से भी उन्हें छूकर कोई सवर्ण हिंदू दूषित न हो सके। पूना में अछूतों को अपनी कमर में झाड़ू रखना होता था ताकि सड़क की सफाई करता चले जिससे कोई सवर्ण हिंदू उस पर चलने से दूषित न हो सके।

जाति व्यवस्था में विभिन्न जातियाँ एक समान स्तर पर नहीं हैं। इसमें विभिन्न जातियों का स्थान एक दूसरे से ऊपर ऊर्ध्वाकार क्रम में निश्चित किया गया है। वर्ण व्यवस्था जाति की जननी है। इस व्यवस्था में ब्राह्मण का स्थान प्रथम श्रेणी पर है। उसके नीचे क्षत्रियक्षत्रिय से नीचे वैश्य और उससे नीचे शूद्र हैं। क्रमिक श्रेणी की यह व्यवस्था असमानता के सिद्धांत पर लागू है। हिंदू धर्म सामाजिक तथा धार्मिक दोनों ही समानताओं को नकारता है।

भारतीय समाज मनुस्मृति के विधानों से संचालित था। डॉ. अम्बेडकर इन्हें अन्यायपूर्ण मानते थे। उनका कहना था कि यह नियम ब्राह्मणों के वर्चस्व शूद्रों की दासता के लिये बनाये गये। मनु कि दंड प्रणाली न्यायोचित नहीं है। इसमें दंड की प्रकृति अमानवीय है जो अपराध की गंभीरता से मेल नहीं खाती है। एक ही अपराध के लिये असमान दंड है।

असमानता का यह सिद्धांत आर्थिक क्षेत्र में भी आता है। हिंदू समाज व्यवस्था का सिद्धांत यह नहीं है कि हैसियत के अनुसार लो और आवश्यकतानुतार दो। हिंदू समाज व्यवस्था का सिद्धांत है आवश्यकतानुसार लो और श्रेष्ठता के अनुसार दो। जैसे कि कोई अकाल अधिकारी अकाल से पीड़ित लोगों को अनुदान बाँट रहा हो तो वह निम्न वर्ग के लोगों की तुलना में उच्च वर्ग के लोगों को अधिक अनुदान देने के लिये बाध्य होगा। इसी तरह कोई अधिकारी कर लगा रहा हो तो वह उच्च वर्ग के व्यक्ति पर कम कर लगाएगा और निम्न वर्ग के व्यक्ति पर अधिक कर लगाएगा। हिंदू समाज व्यवस्था समान आवश्यकतासमान कार्य या समान योग्यता पर समान पारिश्रमिकता को मान्यता प्रदान नहीं करती।

हिंदू समाज व्यवस्था का दूसरा सिद्धांत जिस पर हिंदू समाज आधारित है वह प्रत्येक वर्ग के लिये व्यवसाय का निर्धारण और वंशानुक्रम के आधार पर उसे जारी रहने का सिद्धांत है। प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ण विशेष के अनुसार निर्धारित व्यापार को ही करेगा। इसमें व्यक्तिगत चयनव्यक्तिगत रूझान का कोई महत्व नहीं है।

हिंदू समाज व्यवस्था में लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों से बनी प्रतिनिधि सरकार की आवश्यकता को कोई मान्यता नहीं दी जाती।

सामाजिक न्याय की स्थापना के लिये संघर्ष एवं संविधान में किये गये उपबंध-

महार अछूत जाति में जन्म लेने के कारण डॉ. अम्बेडकर ने बचपन से ही सामाजिक उत्पीड़न और भेदभाव को झेला। शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत आजीवन उन्होंने उत्पीड़न और भेदभाव दूर करने के लिये संघर्ष किया। उन्होंने अछूतोद्धार आन्दोलन का शुभारंभ 20 जुलाई 1924 को 'बहिष्कृत हितकारिणी सभाकी स्थापना करके किया था। इस समिति का कार्य दलितों की कठिनाईयों को दूर करना व अस्पृश्यता का निवारण करना थासाथ ही दलितों में शिक्षा का प्रचार प्रसार करनाउनके लिये छात्रावास बनानापुस्तकालय बनानाउनके लिये औद्योगिक तथा कृषि संबंधित स्कूल खोलना था।

अप्रैल 1925 में रत्नागिरी जिले में मालवण गाँव में मुम्बई प्रांतीय अस्पृश्य परिषद का पहला अधिवेशन डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में हुआ। उनका कहना था कि अछूत वर्ग स्वयं अपने आन्दोलन को अपने हाथ में ले क्योंकि सवर्ण व्यक्ति आंदोलन को ईमानदारी से बल गति नहीं दे सकेगा जो एक अछूत वर्ग का व्यक्ति कर सकता है। इसीलिये अछूत को ही आंदोलन का संचालन करना चाहिए।

मुम्बई सरकार ने 1923 में अपने सब विभाग प्रमुखों को आदेश दिया कि तालाबकुएंधर्मशाला इत्यादि सार्वजनिक प्रयोग के लिये है और इनका प्रयोग सभी के द्वारा होना चाहिए न कि किसी विशेष जाति के लोगों का अधिकार उस पर होना चाहिए। कोलाबा जिले के महाड़ गांव के चवदार तालाब के पानी का उपयोग करने का अधिकार अछूतों को दे तो दिया गया था किन्तु सवर्ण जाति के दबदबे को देखते हुए किसी अछूत में इतना साहस न था कि कानून बन जाने के बाद भी पानी को छू सकेप्रयोग में लाना तो दूर की बात थी जबकि पारसीईसाई व मुसलमान लोग तालाब के पानी का उपयोग करते थे। यहां तक कि वह अछूत भी जो धर्म बदलकर पारसीईसाई या मुसलमान हो गए थे। डॉ. अम्बेडकर ने इसका विरोध किया। उन्होंने 19 व 20 मार्च 1927 को अपनी अध्यक्षता में दलित जाति परिषद की बैठक बुलायी। जिसमें महाराष्ट्र और गुजरात के कोने-कोने से अछूत लोग महाड़ में उपस्थित हुये। उन्होंने अपने संदेशीय भाषण में अस्पृश्यता के कारण सवर्णों की और सेना में अछूतों की बंद भर्ती के लिए सरकार की कटु आलोचना की थी। उन्होंने अपने 5000 समर्थकों के साथ तालाब पर पहुंचकर सवर्णों के एकाधिकार को तोड़ते हुए तालाब के पानी को पिया।

उनका मानना था कि मनुस्मृति विषमता का समर्थन करती हैशूद्र जाति की निंदा करती है। अस्पृश्य वर्ग इस ग्रंथ की मान्यताओं को स्वीकार नहीं करता। इसे दिखाने के लिये ही उन्होंने महाड़ में 25 दिसंबर 1927 को मनुस्मृति को जलाया। डॉ. अम्बेडकर ने 29 जुलाई 1927 को अपने 'बहिष्कृत भारतपत्र में लिखा-"यदि लोकमान्य तिलक अछूतों में पैदा होते तो 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार हैयह आवाज बुलंद न करते बल्कि उनका सर्वप्रथम नारा होता "अछूतापन खात्मा करना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।"

1930 में उन्होंने मंदिरों पर सवर्णों के एकाधिकार को चुनौती देते हुये अछूतों के प्रवेशाधिकार के लिये आंदोलन शुरू किया और नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश और पूजा करने का निश्चय किया। उनके द्वारा इसके लिए आंदोलन चलाया गया जिसके परिणाम स्वरूप मंदिर प्रवेश का कानून बना जो अक्टूबर 1935 से लागू हुआ और कालाराम मंदिर के दरवाजे अछूतों के लिये खुले।

प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आरंभ 12 नवंबर 1930 को हुआ जिसका उद्घाटन इंग्लैण्ड के शासक जॉर्ज पंचम ने किया व जिसकी अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनॉल्ड द्वारा की गई। वहां पर डॉ. अम्बेडकर ने कहा 'मैं जिन अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में यहां उपस्थित हुआ हूँ। उनकी संख्या हिंदुस्तान की कुल जनसंख्या का पांचवा भाग है अर्थात् ब्रिटेन और फ्रांस की कुल जनसंख्या के बराबर है। उनके प्रतिनिधि के रूप में आया हूं। जिनकी दशा गुलामों से भी बदतर है और घृणितपशुवत जीवन यापन कर रहे हैं। गुलामों के मालिक उनको छूते थेपरंतु हमें छूना भी पाप समझा जाता है। वह सदियों से शोषित और उपेक्षित है। सरकारें बदलींराज्य बदले परन्तु दलितों का भाग्य बद से बदतर होते चला गया। मजदूरों और किसानों का शोषण करने वाले पूंजीपति और जमींदार की रक्षक सरकार हमें नहीं चाहिए। अपने दु:ख हम स्वयं दूर करेंगे। इसके लिये हमारे हाथों में सत्ता की बागडोर होनी चाहिए। ब्रिटिश सरकार चाहती तो कानून के द्वारा उनकी रक्षा कर सकती थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उनके अनुसार भारत में एक ऐसे खास विधान की आवश्यकता है जिससे अछूत समाज प्रतिकूल परिस्थिति में भी उन्नति कर सके। उन्होंने दलितों के लिये पृथक निर्वाचन संघ तथा सुरक्षित सीटों की मांग रखी थी।

7 दिसंबर 1931 को लंदन में दूसरी गोलमेज परिषद आरंभ हुयी। इसमें भी डॉ. अम्बेडकर सम्मिलित हुए। बिना किसी सर्वमान्य समझौता के यह सम्मेलन समाप्त हुआ। इंग्लैण्ड से वापस आने के बाद गाँधीजी को ब्रिटिश सरकार ने पूना के येरवडा जेल में बंद कर दिया। 26 मई 1932 को डॉ. अम्बेडकर पुनलंदन गये और कैबिनेट के सभी महत्वपूर्ण व्यक्तियों से दलितों के पृथक प्रतिनिधित्व पर बात की। अगस्त 1932 में ब्रिटिश सरकार के रैम्जे मैकडोनाल्ड ने "साम्प्रदायिक पंचाटकी घोषणा की जिसमें दलितों के लिये पृथक निर्वाचन की माँग को स्वीकार कर लिया गया। दलितों के पृथक निर्वाचन के विरुद्ध गाँधीजी ने 20 सितंबर 1932 को अपना आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। गाँधीजी के गिरते स्वास्थ्य को देखते हुये डॉ. अम्बेडकर को झुकना पड़ा और 24 सितंबर 1932 को उनके और गाँधीजी के मध्य पूना पैक्ट हुआ। पूना पैक्ट के अनुसार दलितों ने पृथक निर्वाचन का अधिकार छोड़ दिया और संयुक्त चुनाव को स्वीकार कर लिया। ब्रिटिश कैबिनेट ने पूना पैक्ट को स्वीकार किया।

13 अक्टूबर 1935 को येवलाजिला नासिक में दलितों के सम्मेलन में उन्होंने धर्मांतरण की घोषणा की। उन्होंने कहा दुर्भाग्य से वे लोग जिस हिंदू धर्म में जन्मेंउसी धर्म में रहना चाहते थे। उन्हें भी हिंदू धर्म में मानवता के साधारण अधिकार प्राप्त हों। किन्तु इन अधिकारों की मांग के लिये किये गये मेरे सारे प्रयास विफल लगते हैं। इन सत्याग्रहों में हमारा श्रमधन और समय सब निरर्थक चले गये। सिवाय धर्मांतरण के अलावा हमारे पास कोई और उपाय नहीं है। धर्म परिवर्तन से ही हम अपना और अपने लोगों का उद्धार कर सकते हैं।

इसी सभा में भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि 'मैं अस्पृश्य जाति में जन्मा इसमें मेरा कोई अपराध नहीं था। क्योंकि यह किसी के बस में नहीं होता। परंतु यह मेरे हाथ में है कि मैं किस धर्म में रहकर मरूं। इसलिये आश्वस्त होते हुए कहता हूं कि मेरी मृत्यु हिंदू धर्म में रहते हुए नहीं होगी।

मुस्लिमसिक्खईसाई और बौद्ध धर्म के प्रतिनिधियों ने डॉ. अंबेडकर को अपने-अपने धर्मों में आने का निमंत्रण दिया।

नेशनल डिफेंस कमेटी (1941) के सदस्य के रूप में उन्होंने महार रेजीमेंट को पुनर्जीवित कराया। वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के श्रम सदस्य (1941-46) रहते हुए उन्होंने दलितों व श्रमिकों के हित में कई कानून बनाए। उनके प्रयासों से भारत सरकार के रेलवेकस्टमटेलीग्राफ आदि विभागों में 8.33 प्रतिशत नौकरियाँ दलितों के लिये आरक्षित की गईं लेकिन दलितों की उनकी संख्या के आधार पर 12.7 प्रतिशत नौकरियाँ आरक्षित होनी चाहिएयह स्वीकृति भी डॉ. अम्बेडकर सरकार से प्राप्त कर चुके थे। दलितों को प्रतियोगी परीक्षाओं में सामान्य छात्र-छात्राओं की तुलना में चौथाई फीस ही देनी पड़ती थी।

वायसराय ने 24 अगस्त 1946 को काँग्रेस को अन्त:कालीन सरकार गठित करने के लिये आमंत्रित किया। इस अन्त:कालीन सरकार के 14 सदस्यों के नामों की घोषणा की गईइसमें जगजीवन राम दलित जाति के सदस्य थे। डॉ. अम्बेडकर ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री से दलितों के लिये कम से कम दो सीटों की मांग की। दूसरे सदस्य के रूप में मुस्लिम लीग द्वारा अपने कोटे से दलित जोगेन्द्र नाथ मंडल को शामिल किया।

दलितों के अधिकारों के लिये डॉ. अम्बेडकर 15 अक्टूबर 1946 को लंदन जाकर वहां मंत्रियों से मुलाकात की। जहां उनसे कहा गया कि अब आप अपने अधिकारों के लिये अपनी विधान परिषद में प्रयास कीजिये।

ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वाधीनता एक्ट 15 जुलाई 1947 को पास कर दिया गया। जवाहर लाल नेहरू ने डॉ. अम्बेडकर को 'कानून मंत्रीका पद संभालने की पेशकश की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हो गया। देश की स्वतंत्र संसद ने 29 अगस्त 1947 को संविधान बनाने के लिये एक प्रारूप समिति बनाई जिसका अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर को बनाया गया।

प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने एक ऐसे संविधान की रचना की जिससे कि समतामूलक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना हो सके। संविधान की प्रस्तावना में यह कहा गया कि-

'हम भारत के लोंग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादीपंथ निरपेक्षलोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिकआर्थिक और राजनैतिक न्यायविचारअभिव्यक्तिविश्वासधर्म और उपासना की स्वतंत्रताप्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लियेतथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26-11-1949 को एतत् द्वारा इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।'

उपरोक्त में समाजवादीपंथ निरपेक्ष एवं अखंडता शब्द 42वें संविधान संशोधन द्वारा 1976 में जोड़ा गया।

भारत के संविधान के भाग-3 में अनेक मानवाधिकारों को सम्मिलित किया गया है। अनुच्छेद 13 के खंड (2) में कहा गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।

अनुच्छेद 14 में समानता का अधिकार दिया गया है। विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण प्रदान किया गया है।

अनुच्छेद 15 के अनुसार-(i) राज्य किसी नागरिक के विरूद्ध धर्ममूलवेशजातिलिंगजन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। (ii) कोई नागरिक केवल धर्ममूलवंशजातिलिंगजन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर-

1. दुकानोंसार्वजनिक भोजनालयोंहोटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या

2. पूर्णतया भागतराज्य निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओंतालाबोंस्नानघाटोंसड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग बारे में किसी भी निर्योग्यतादायित्वनिर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा।

3. इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिये कोई विरोध उपलब्ध करने से निवारित नहीं करेगी।

4. इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिये या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।

अनुच्छेद 16 के अनुसार-(i) राज्य के अधीन किसी पद पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता होगी। (ii) कोई नागरिक केवल धर्ममूलवेशजातिलिंगउद्भवजन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के सम्बन्ध में अपात्र नहीं होगा या उससे विभेद नहीं किया जायेगा।

अनुच्छेद 17 के अनुसार अस्पृश्यता का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।

अनुच्छेद 19 के द्वारा सभी नागरिकों को वाक-स्वतंत्रताअभिव्यक्ति स्वतंत्रताशान्तिपूर्वक और निरायुध सम्मेलनसंघ बनाने भारत के राज्य क्षेत्र में                  सर्वत्र अवाध संचरण एवं भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की तथा कोई भी वृत्तिउपजीविकाव्यापार करने का भी अधिकार प्रदान किया है।

अनुच्छेद 23 के द्वारा मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात् श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबन्ध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।

अनुच्छेद 32 के द्वारा मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिये समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है। मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिये उच्चतम न्यायालयय को ऐसे निर्देश या आदेश या रिट जिनके अन्तर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरणपरमादेशप्रतिषेधअधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैंजो भी समुचित होनिकालने की शक्ति होगी। अनुच्छेद 32 मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिये एक प्रत्याभूत उपचार प्रदान करता है।

इस अनुच्छेद पर टिप्पणी करते हुये डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था-"यदि मुझे यह कहा जाय कि मैं संविधान के किस अनुच्छेद को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ ऐसा अनुच्छेद जिसके बिना संविधान व्यर्थ हो जायेगा तो मैं किसी अनुच्छेद को नहीं इसी को इंगित करूंगा। यह संविधान की आत्मा हैउसका हृदय है।"

संविधान के भाग-4 (अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51) में राज्य की नीति के निर्देशक तत्व समाहित हैं। राज्य का यह कर्तव्य है कि प्रशासन में और विधि के निर्माण में इन सिद्धांतों का अनुसरण करें। इनके माध्यम से डॉ. अम्बेडकर ने राज्य को कल्याणकारी राज्य बनाने का प्रयास किया। इनका उद्देश्य आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करना है।

अनुच्छेद 38 के अनुसार राज्य सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित कर आय स्थितिसुविधाओं तथा अवसरों में असमानताओं को कम करके सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित एवं संरक्षित कर लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 39 के अनुसार राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि-

1. पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो।

2. भौतिक संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण सामान्य जन की भलाई के लिये व्यवस्थित   हो।

3. कुछ ही व्यक्तियों के पास धन संकेन्द्रित न हो।

4. पुरूष और स्त्रियों दोनों के लिये समान कार्य के लिये समान वेतन हो।

5. श्रमिकों के स्वास्थ्य और शक्ति का दुरूपयोग न हो। उन्हें ऐसे रोजगार न करने पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हो।

6. बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधायें दी जाएं। बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से रक्षा की जाये।

अनुच्छेद 39क के द्वारा राज्य को कहा गया है कि वह नि:शुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा और इस प्रकार काम करेगा कि सबके लिये समान न्याय सुनिश्चित हो।

अनुच्छेद 41 के अनुसार राज्य बेरोजगारीबुढ़ापाबीमारी और विकलांगता के मामलों में कार्य करनेशिक्षा पाने और सार्वजनिक सहायता पाने का अधिकार प्राप्त कराने का प्रभावी उपबन्ध करेगा।

अनुच्छेद 42 के अनुसार राज्य काम की न्याय संगत और मानवीय परिस्थितियों को सुरक्षित करने एवं प्रसूति सहायता का प्रावधान करेगा।

अनुच्छेद 43 के अनुसार राज्य सभी कामगारों के लिये निर्वात योग्य मजदूरी और एक उचित जीवन स्तर सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 43क में राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि उद्योग व अन्य उपक्रमों में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करें। सभी कर्मकारों के लिये निर्वाह मजदूरी सुनिश्चित करे।

अनुच्छेद 45 के अनुसार बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध करे। अनुच्छेद 46 में कहा गया है कि राज्य दुर्बलतर लोगों जिनमें अनुसूचित जातियाँ तथा जनजातियाँ आती हैंकी शिक्षा सम्बन्धी तथा आर्थिक हितों की रक्षा करेगा और सभी प्रकार के सामाजिक अन्याय एवं शोषण से उनको बचायेगा।

अनुच्छेद 47 के अनुसार राज्य मादक पेयों के उपभोग का प्रतिषेध करे।

अनुच्छेद 330 के अनुसार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये लोकसभा में स्थान उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षित रहेगा।

अनुच्छेद 332 के अनुसार सभी राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जनजाति व अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे।

अनुच्छेद 335 के अनुसार केन्द्रीय व राज्य स्तरीय सेवाओं में अनुसूचित जाति व अनसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

अनुच्छेद 338 के अनुसार अनुसूचित जातियों के कल्याण एवं हितों की रक्षा के लिये राज्य में सलाहकार परिषदों एवं पृथक-पृथक विभागों की स्थापना का प्रावधान किया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि राष्ट्रपति अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये एक विशेष पदाधिकारी नियुक्त करेगा।

हिन्दू कोड बिल

डॉ. अम्बेडकर ने 1948 में महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु संसद में हिन्दू कोड बिल प्रस्तुत किया। यह बिल हिन्दू महिलाओं के विवाह विच्छेदपिता की सम्पत्ति में उत्तराधिकारसंतान गोद लेनाविधवा होने पर पुनर्विवाह से सम्बन्धित था। यह बिल हिन्दू परम्परावादियों को पसन्द नहीं था। डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि यदि आप हिन्दू प्रथाहिन्दू संस्कृति एवं हिन्दू समाज को सुव्यवस्थित बनाये रखना चाहते हैं तो जहां सुधार की सम्भावना हैंउसे करने में संकोच न करें। हिन्दू कोड बिल केवल उन्हीं अंशों का सुधार चाहता है जो विकृत हो गये हैं। यह बिल संसद में पुनः सितम्बर 1951 में पेश किया गया किन्तु भारी विरोध के कारण पास नहीं हो सका। इससे व्यथित होकर उन्होंने 27 सितम्बर 1951 को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। वे मार्च 1952 में राज्यसभा के लिये निर्वाचित हुए।

24 मई 1956 को उन्होंने ऐलान किया कि वह अक्टूबर में बौद्ध धर्म अपनाएंगे और सभी अस्पृश्य भी ऐसा ही करें। 14 अक्टूबर को दशहरे के दिन धर्मांतरण कार्यक्रम आयोजित किया गया। भारत के बौद्ध साधुओं के प्रमुख बर्मा से आए भिक्कू महास्थवीर चन्द्रमणि को यह अनुष्ठान संचालित करने के लिये आमंत्रित किया गया। अम्बेडकर और उनकी दूसरी पत्नी ने सबसे पहले बौद्ध धर्म स्वीकार किया। भिक्कू ने उन्हें बुद्ध की और धम्म (बुद्ध का सिद्धांत) की और संघ (संन्यासियों के समुदाय) की शपथ दिलाई। इसके बाद उन्होंने पति-पत्नी को पंचशील (पांच सिद्धांत) किसी की हत्या न करनाचोरी न करनाझूठ न बोलनाअवैध सम्बन्ध न रखना और मदिरा पान न करने के पालन का संकल्प दिलाया।

अन्त में अम्बेडकर ने यह शब्द कहे-

"असमानता और उत्पीड़न के प्रतीकअपने प्राचीन धर्म को त्यागकर आज मेरा पुनर्जन्म हुआ है। अवतरण के दर्शन से मेरा कोई विश्वास नहीं हैयह दावा सरासर गलत है और शातिराना होगा कि बुद्ध भी विष्णु के अवतार थे। मैं किसी हिंदू देवी-देवता का भक्त नहीं हूँ। आइन्दा मैं कोई श्राद्ध नहीं करूंगा। मैं बुद्ध के बताए अष्टमार्ग का दृढ़ता से पालन करूंगा। बौद्ध धर्म ही सच्चा धर्म है और मैं ज्ञानसद्मार्ग और करूणा के तीन सिद्धांतों के प्रकाश में जीवन-यापन करूंगा।"

इसके बाद उन्होंने अपनी ओर से तय की गई 22 शपथ लीं। इसके बाद उन्होंने वहां मौजूद जनसमूह को तीन शरण (तिसरना)पांच संकल्प और अपनी ओर से तय की गई 22 शपथ दिलाई।

6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में दलित वर्गों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर का निधन हो गया।

निष्कर्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर, दलितों के मसीहा, महान समाज सुधारक थे। उन्होंने दलितों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिये आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने दलितों को हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश दिलाने के लिये मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह आयोजित किये, कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। उन्हीं के प्रयासों से दलितों को विभिन्न सरकारी नौकरियों को प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ। देश के संविधान के माध्यम से दलितों, पिछड़ों, महिलाओं सहित समस्त नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किया। राज्य को कल्याणकारी राज्य बनाने के लिये नीति निर्देशक तत्व शामिल किया। दलितों व जनजातियों को लोकसभा, विधान सभा, सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया गया। डॉ. अम्बेडकर ने अपनी मृत्यु के कुछ दिन पूर्व कहा था मेरे शोषित व गरीब भाईयों मैंने तुम्हारे लिये जो कुछ भी किया है, वह बेहद मुसीबतों, अत्यन्त दुःखों और बेशुमार विरोधों का मुकाबला करके किया है। यह कारवां आज जिस जगह पर है, इस जगह पर मैं इसे बड़ी मुसीबतों के साथ लाया हूं। तुम्हारा कर्तव्य है कि यह कारवां सदैव आगे भी बढ़ता रहे, बेशक कितनी ही रूकावटें क्यों न आयें। यदि मेरे अनुयायी इस कारवां को आगे न बढ़ा सके तो इसे यहीं छोड़ दें, पर किसी भी हालत में इसे पीछे न जाने दें। अपने लोगों को मेरा यही संदेश है। डॉ. अम्बेडकर को वर्ष 1990 में देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारतरत्न से से सम्मानित किया गया। उनके सामाजिक न्याय हेतु किये गये योगदान के लिये भारतीय समाज सदैव उनका ऋणी रहेगा।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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