ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- I February  - 2023
Innovation The Research Concept
भारत तथा ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्थाएं: एक अध्ययन
Parliamentary Systems of India and Britain: A Study
Paper Id :  17137   Submission Date :  11/02/2023   Acceptance Date :  21/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
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गोमती चेलानी
प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष
राजनीति विज्ञान विभाग
महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय
इंदौर,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था के अन्तर्गत शासन के अंगों, कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के मध्य सम्बन्धों के आधार पर शासन के 2 प्रकार होते हैं—1. संसदीय शासन व्यवस्था तथा 2 अध्यक्षीय शासन व्यवस्था। जहां संसदीय शासन व्यवस्था के अन्तर्गत व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है, वहां अध्यक्षीय शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के मध्य सम्बन्धों की वह घनिष्ठता नहीं पाई जाती तथा ये एक दूसरे से पृथक रहकर कार्य करते हैं। जहां संसदीय शासन व्यवस्था में कार्यपालिका के सदस्यों के लिए व्यवस्थापिका का सदस्य होना अनिवार्य है, वहां अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में कार्यपालिका के सदस्यों का चयन व्यवस्थापिका में से नहीं होता और यदि कोई सदस्य व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका दोनों का सदस्य है तो उसे इन में से किसी एक सदस्यता से त्यागपत्र देना होता है। इसके अतिरिक्त संसदीय शासन व्यवस्था में कार्यपालिका दोहरी होती है, एक वास्तविक तथा दूसरी नाम मात्र की तथा वास्तविक कार्यपालिका का कार्यकाल व्यवस्थापिका के विश्वास पर्यंत होता है, अध्यक्षात्मक व्यवस्था में एक ही कार्यपालिका पाई जाती है, जिसका कार्यकाल निश्चित होता है। संसदीय शासन व्यवस्था का उद्भव तथा विकास ग्रेट ब्रिटेन से हुआ। भूतकाल में ब्रिटेन द्वारा शासित देशों भारत, ऑस्ट्रेलिया तथा कैनाडा में भी संसदीय शासन व्यवस्था को ही स्वीकार किया गया है। हर देश की भौगोलिक स्थिति, सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक परिस्थितियां, राजनीतिक मूल्य तथा ऐतिहासिक अनुभव भिन्न प्रकार के होते है, जिनका प्रभाव उस देश द्वारा अंगीकृत संविधान पर पड़ता है। भारत तथा ब्रिटेन दोनों देशों में संसदीय शासन व्यवस्था है, किंतु दोनों की संसदीय व्यवस्थाओं में पर्याप्त अन्तर है। प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारत तथा ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्थाओं में व्याप्त समानता तथा भिन्नता का अध्ययन करना है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Under the democratic government, there are 2 types of governments based on the relationship between executive and legislature. These are —
1. Parliamentary system
2 presidential system
Where there is a close relationship between the legislature and the executive under the parliamentary system of governance, that closeness of the relationship between the executive and the legislature is not found under the presidential system of governance and they work separately from each other. Where it is mandatory for the members of the executive to be a member of the legislature in the parliamentary system, in the presidential system, the members of the executive are not selected from the legislature and if a member is a member of both the legislature and the executive, then he should resign from one of these memberships. In addition to this, the executive is dual in the parliamentary system of governance, one is real and the other is nominal and the tenure of the real executive is till the trust of the legislature, in the presidential system only one executive is found, whose tenure is fixed.
Parliamentary system originated and developed from Great Britain,
has been accepted in India, Australia and Canada also in the countries ruled by Britainin the past. Geographical location, cultural heritage, social conditions, political values and historical experience of every country are of different types, which affect the constitution adopted by that country. There is a parliamentary system of government in both India and Britain, but there is a substantial difference between the parliamentary systems of both. The purpose of the present research paper is to study the similarities and differences between the parliamentary systems of India and Britain.
मुख्य शब्द भारत, ब्रीटेन, संसदीय, व्यवस्था।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद India, Britain, Parliament, System.
प्रस्तावना
संसदीय सरकार अथ्वा कैबीनेट सिस्टम उस शासन व्यवस्था को कहते हैं, जिसमें वास्तविक कार्यपालिका अर्थात मंत्रिमंडल अपने कार्यों के लिए विधानमंडल अर्थात संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। संसदीय व्यवस्था का आधारभूत तत्व यह है कि संसद में विविध राजनीतिक दलों में से बहुमत प्राप्त दल को सरकार बनाने का अवसर दिया जाता है और वह दल संसद के विश्वास पर्यंत अपनी सरकार को कायम रखता है। कभी कभी किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिल पाने की स्थिति में एक से अधिक दलों द्वारा मिली- जुली सरकार भी बनायी जाती है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारत तथा ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्थाओं में व्याप्त समानता तथा भिन्नता का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन
लेखक ने अनूप चंद्र कपूर तथा के.के. मिश्रा की Select Constitutions पुस्तक का अध्ययन किया। साथ ही दुर्गादास बसू की पुस्तक भारत का संविधान  एक परिचय तथा संविधान सभा के वाद विवादों का भी अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त भारत तथा ब्रिटेन के संविधानों के अन्तर को दर्शाने वाले लेखों का इंटरनेट से अध्ययन किया।
मुख्य पाठ

संसदीय शासन व्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता कार्यपालिका का दोहरा स्वरूप है। इस शासन व्यवस्था में कार्यपालिका के 2 अध्यक्ष होते हैं—1 औपचारिक अध्यक्ष, जो कि वंशानुगत अथ्वा निर्वाचित हो सकता है तथा जिसके नाम से सारा शासन कार्य संचालित किया जाता है। दूसरा वास्तविक अध्यक्ष, जिसे व्यवस्थापिका के निम्न व प्रथम सदन में बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है तथा वह और उसका मंत्रिमंडल निम्न तथा प्रथम सदन के विश्वास पर्यंत अपने पद पर बने रहते हैं। कार्यपालिका का औपचारिक अध्यक्ष राज्य करता है शासन नहीं करता, जबकि वास्तविक अध्यक्ष शासन करता है तथा अपने समस्त कार्यों हेतु व्यवस्थापिका में जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी होता है।([1] पी.वी. डाइल, तुलनात्मक शासन और राजनीति भाग 2, पृ.4)  संसदीय शासन प्रणाली की एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका का घनिष्ठ संबंध है। तात्पर्य यह है कि कार्यपालिका के सदस्यों के लिए यह अनिवार्य है कि वे व्यवस्थापिका के भी सदस्य हों तथा वे व्यवस्थापिका में बहुमत दल के प्रभावशाली व्यक्ति होने के कारण व्यवस्थापन सम्बन्धी कार्यों में व्यवस्थापिका का नेतृत्व भी करते हैं। यदि यह कहा जाये कि व्यवस्थापिका वही करती है जो कार्यपालिका उससे करवाती है तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। वैसे तो विश्व के अनेक देशों में संसदीय शासन व्यवस्था विद्यमान है किंतु प्रस्तुत शोधपत्र में हम संसदीय शासन व्यवस्था की जननी ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्था की तुल्ना भारत की संसदीय व्यवस्था से करने का प्रयास कर रहे हैं।

ब्रिटिश तथा भारत की संसदीय व्यवस्थाओं में समानता

ब्रिटेन तथा भारत की संसदीय व्यवस्थाएँ ऊपरी तौर पर देखने पर पर्याप्त समान प्रतीत होतीं हैं। दोनों देशों में दोहरी कार्यपालिका पाई जाती है। दोनों ही देशों में वास्तविक कार्यपालिका (प्रधान मंत्री तथा उसका मंत्रिमंडल) संसद में निम्न तथा प्रथम सदन का नेतृत्व करता है क्योंकि उसका चयन उस सदन के बहुमत प्राप्त दल में से किया जाता है। दोनों ही देशों में मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से संसद के प्रथम सदन के प्रति उत्तरदायी होता है तथा उसे प्रथम सदन के सदस्यों द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पारित कर हटाया भी जा सकता है। दोनों ही देशों में द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका पाई जाती है तथा प्रथम सदन का कार्यकाल 5 वर्ष का है, जिसे समय से पूर्व भी भंग किया जा सकता है। दोनों देशों का उच्च सदन स्थायी है तथा वित्तीय मामलों में प्रथम सदन से पर्याप्त शक्तिहीन है। दोनों देशों में विधेयकों को कानून बनाने के लिए दोनों सदनों में पारित होने के पश्चात उन पर शासन के औपचारिक अध्यक्ष के हस्ताक्षर होना आवश्यक हैं।

ब्रिटेन तथा भारत की संसदीय प्रणालियों में अन्तर

भारत तथा ब्रिटेन की संसदीय शासन व्यवस्थाओं में दृष्टिगोचर उपरोक्त समानताएँ केवल ऊपरी तौर पर ही दिखायी देतीं हैं। यदि इन दोनों देशों की शासन व्यवस्थाओं का गहराई से अध्ययन किया जाए तो हमें इन व्यवस्थाओं में पर्याप्त अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं। इन असमानताओं के लिए दोनों देशों का आकार, उनमें केंद्र तथा इकाई में पाया जाने वाला भिन्न संबन्ध, संविधान का भिन्न स्वरूप, विविध ऐतिहासिक अनुभव, संवैधानिक परंपराओं की भिन्नता तथा अलग राजनीतिक मूल्य आदि कारण उत्तरदायी हैं। दोनों देशों की संसदीय व्यवस्थाओं में व्याप्त असमानता के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं।

औपचारिक अध्यक्ष की स्थिति

दोनों ही देशों में औपचारिक अध्यक्ष की स्थिति, उनकी नियुक्ति का तरीका तथा शक्तियों की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर है। जहां ब्रिटेन में शासन का औपचारिक अध्यक्ष वंशानुगत होता है, भारत में उनका निर्वाचन 5 वर्ष के लिए होता है। ब्रिटेन नें सम्राट की शक्तियाँ परंपराओं से निश्चित हुईं हैं। सम्राट ने 1707 के पश्चात अपने निषेधाधिकार का प्रयोग नहीं किया।([2] वही, पृ.81) इसलिए अब यह एक स्थापित परंपरा बन गयी है कि ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित विधेयक पर सम्राट पहली बार में ही हस्ताक्षर कर देते हैं, जबकि भारत में स्थिति इससे भिन्न है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 111 के अनुसार भारत का राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य नहीं है। यदि वह चाहे तो उस विधेयक को अपने पास विचारार्थ सुरक्षित रख सकता है।([3] आचार्य दुर्गादास बसू भीरत का संविधान एक परिचय, पृ.175-176)  इतना अवश्य है कि यदि वह उस विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार हेतु भेजता है और यदि संसद उसे फिर से पारित कर देती है, तो उसे उस विधेयक पर हस्ताक्षर करने ही होते हैं।

इस प्रकार ब्रिटेन के सम्राट को प्राप्त निषेधाधिकार को अभिसमय के विकास द्वारा सीमित कर दिया गया है, जबकि भारत के राष्ट्रपति को सीमित निषेधाधिकार लिखित संविधान द्वारा प्राप्त है, जिसमें संशोधन संविधान में संशोधन द्वारा ही किया जा सकता है।

द्वितीय सदन की स्थिति

भारत तथा ब्रिटेन दोनों ही देशों में द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका है, किंतु दोनों के उच्च सदन तथा द्वितीय सदन के गठन तथा शक्तियों में पर्याप्त अन्तर है। जहां ब्रिटेन में लॉर्डसभा वंशानुगत तथा आजीवन मनोनीत सदस्यों का सदन है जो कि उच्च व धनिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहाँ भारत का द्वितीय सदन राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है तथा उसके प्रतिनिधियों का राज्यों की विधानसभाओं द्वारा निर्वाचन किया जाता है। शक्ति की दृष्टि से भारत की राज्यसभा ब्रिटेन की लॉर्डसभा से अधिक शक्तिशाली है। ब्रिटेन का संविधान लचीला संविधान है अर्थात वहाँ साधारण कानून की ही तरह संवैधानिक कानून पारित किया जाता है। संवैधानिक कानून को पारित करने हेतु किसी भिन्न प्रक्रिया को नहीं अपनाया गया   है। वहां की लॉर्डसभा साधारण विधेयक, भले ही वह संविधान संशोधन विधेयक क्यों न हो, को केवल एक वर्ष तक पारित होने से रोक सकती है। व्यवहार में उसने अपनी इस शक्ति का प्रयोग करना बहुत कम कर दिया है। भारत में राज्यसभा को संविधान संशोधन के विषय में निम्न सदन लोकसभा के समान शक्ति प्राप्त है। भारत की राज्यसभा को कुछ ऐसी शक्तियाँ प्राप्त हैं, जो लोकसभा को भी प्राप्त नहीं है जैसे अनुच्छेद 249 के अनुसार दो तिहाई बहुमत से राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करने का अधिकार,([4] भारत शासन एवं राजनीति, बी.बी. चौधरी, प.176-177)  अनुच्छेद 312 के अनुसार दो-तिहाई बहुमत से नई अखिलभारतीय सेवाओं के गठन की अनुशंसा का अधिकार।([5], वही)  इस प्रकार के अधिकार ब्रिटेन की लॉर्डसभा को प्राप्त नहीं हैं।

राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों के साथ राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेते हैं। वे राष्ट्रपति तथा न्यायालय के न्यायाधीशों पर महाभियोगः की प्रक्रिया में भी सक्रिय भूमिका अदा करते हैं। महाभियोगः का प्रस्ताव दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित होने पर ही संबन्धित व्यक्ति को अपने पद को त्यागना होता है। आंतरिक या बाह्य अशांति से उत्पन्न संकट, राज्यों में संवैधानिक यंत्र की विफलता से उत्पन्न संकट या आर्थिक संकट की घोषणा की पुष्टि लोकसभा के साथ साथ राज्यसभा में भी दो-तिहाई बहुमत से होना आवश्यक है। लॉर्डसभा के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है।

संसदीय संप्रभुता

ब्रिटेन की संसद संप्रभु है जबकि भारतीय संसद उसकी तुलना में सीमित संप्रभुता का उपभोग करती है। सिद्धांत रूप में ब्रिटिश संसद की शक्तियाँ विशाल और असीमित हैं। यह कानून बना सकता है, कर लगा सकता है, युद्ध और शांति की घोषणा कर सकता है और पर्यवेक्षण द्वारा सभी सरकारी मशीनरी को नियंत्रित कर सकता है। यह राजाओं को गद्दी से उतार सकता हे; यह राजशाही को समाप्त कर सकता है। डायसी ने कहा, "संसद की संप्रभुता, कानूनी दृष्टिकोण से हमारे राजनीतिक संस्थानों की प्रमुख विशेषता हे", और उन्होंने कहा, संसदीय संप्रभुता के सिद्धांत का अर्थ न तो इससे अधिक है और न ही इससे कम, अर्थात्, इस प्रकार परिभाषित संसद को, ब्रिटिश संविधान के तहत, किसी भी कानून को बनाने और हटाने का अधिकार है।([6]  Dicey A. Introduction to the Law of Constitution PP 39-40, अनुवाद स्वयं)

डायसी के इस कथन के आधार पर निम्न लिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हे।

1. ऐसा कोई कानून नहीं है जो संसद नहीं बना सकती; और

2. ऐसा कोई कानून नहीं है जिसे संसद रद्द न कर सके।  उपरोक्त दोनों मान्यताओं के आधार पर तीसरी मान्यता यह है:

3. कि ब्रिटिश संविधान के तहत साधारण कानूनों तथा संवैधानिक कानूनों के बीच कोई स्पष्ट या अस्पष्ट अंतर नहीं है; और

4. कि ब्रिटेन के कानून द्वारा मान्यता प्राप्त कोई प्राधिकरण नहीं है जो इस तरह के कानून को अवैध घोषित कर सके और शून्य कर सके।

और अंत में डायसी ने कहा कि

5. वह संसदीय संप्रभुता राजा के प्रभुत्व के हर हिस्से तक फैली हुई है।([7], Kapoor A.C. & Mishra K.K, 2001,  PP119. अनुवाद स्वयं)

उपरोक्त विवरण से, यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिश संसद अपनी इच्छानुसार कोई भी कानून बना सकती है और अदालतों को संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की व्याख्या करनी चाहिए और उन्हें लागू करना चाहिए। जैसा कि संवैधानिक कानून और अन्य कानूनों के बीच कोई औपचारिक अंतर नहीं है, संसद विधायी निकाय और संविधान सभा दोनों ही है और इसीलिए संसद समान प्रक्रिया द्वारा किसी भी कानून को बना या निरस्त कर सकती है। संसद के किसी अधिनियम को किसी भी न्यायालय में नहीं बुलाया जा सकता है। साथ ही इसे अमान्य भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ब्रिटेन में संसद द्वारा बनाए गए कानून से बड़ा कोई कानून मौजूद नहीं है। इक्विटी और कॉमन लॉ, जो ब्रिटिश संविधान के सबसे पुराने और सबसे मौलिक हैं, संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को खत्म नहीं कर सकते। यदि संसद द्वारा पारित 2 कानून एक-दूसरे के विरोध में हैं, तो संसद के एक अधिक हालिया अधिनियम को कम हाल के अधिनियम पर वरीयता दी जाती है और इसके साथ असंगत किसी भी पूर्व वैधानिक प्रावधान को अधिक्रमित किया जाता है। ब्रिटिश संसदीय संप्रभुता का एक और पहलू यह है कि ब्रिटेन में कार्यपालिका के पास डिक्री जारी करने की शक्ति नहीं है, जिसके पास कानून का बल है, सिवाय इसके कि वह शक्ति उसे संसद द्वारा प्रदान की जाती है और इसलिए संसद द्वारा छीनी जा सकती है। न तो शाही विशेषाधिकार के माध्यम से और न ही किसी अन्य माध्यम से संसद पर कोई कानूनी सीमा लगाई जा सकती है। एक परिणाम के रूप में, कर लगाने का अधिकार अकेले संसद के पास है। फिर से, अकेले संसद को अतीत की अवैधताओं को वैध बनाने का अधिकार है। कानूनी रूप से, इसलिए, संसद किसी भी कानून को बना या बिगाड़ सकती है, कानून द्वारा सबसे दृढ़ता से स्थापित परंपरा को नष्ट कर सकती है और अदालतों के फैसलों को उलट कर अतीत की अवैधताओं को वैध कर सकती है। यहां तक कि सामान्य से परे विधायी तरीकों से अपने स्वयं के जीवन को बढ़ाने की शक्ति रखती है। संसद अधिनियम, 1911 द्वारा निर्धारित पांच वर्ष की अवधि को घटा या बढ़ा सकती है।( [8], Ibid PP120. अनुवाद स्वयं)

ब्रिटिश संसद की संप्रभुता पर सीमाएं

डायसी और अन्य संवैधानिक विशेषज्ञों द्वारा वर्णित संसदीय संप्रभुता की उपरोक्त अवधारणा केवल कानूनी है। इसका ब्रिटिश राजनीतिक प्रणाली की वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि ब्रिटेन में वास्तविक राजनीतिक जीवन की वास्तविकता यह है कि एक कानूनी सत्य बहुत बार एक राजनीतिक असत्य बन जाता है। संसद कुछ भी और सब कुछ नहीं कर सकती है और न ही किसी प्रकार का कानून बना या बिगाड़ सकती है। कई नैतिक और राजनीतिक नियंत्रण हैं जो इसकी शक्तियों को सीमित करते हैं। संसदीय संप्रभुता की पहली सीमा जनता की राय है। लोकतंत्र का अर्थ सहमति से सरकार है और लोकतांत्रिक सरकार में कानून अनिवार्य रूप से लोगों की इच्छा के अनुसार होने चाहिये। संसद एक कानून पारित नहीं कर सकती है, जो प्रकृति के तथ्यों के खिलाफ है या सार्वजनिक या निजी नैतिकता के कोड के खिलाफ है। इसी प्रकार संसद कोई भी कानून नहीं बना सकती है, जो देश के स्थापित रीति- रिवाजों के विरुद्ध हो। यहाँ तक कि ब्रिटेन में संसदीय संप्रभुता की अवधारणा सुस्थापित रीति- रिवाजों का परिणाम है।

संसदीय संप्रभुता के सिद्धांत की दूसरी सीमा कानून के शासन का सिद्धांत है जो ब्रिटिश संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। कानून के शासन का अर्थ है कि भूमि का सामान्य कानून सार्वभौमिक अनुप्रयोग का है, वहां अलग अलग वर्गों के लिए अलग अलग कानून नहीं है। संसद की संप्रभुता के सवाल पर चर्चा करते हुए, हेमन फाइनर कहते हैं, "सब कुछ सच है, सिवाय इसके कि, वास्तव में, संसद के अधिकार के लिए अभ्यास में सीमाएँ हैं, सीमाएँ जो मतदाताओं के अधिकार में शामिल हैं, मध्यस्थ हैं या नहीं राजनीतिक दल। संसद की संप्रभुता, लोगों की शक्ति द्वारा सीमित है-- लेकिन किसी अन्य साधन द्वारा नहीं।" ([9], Finer H. Governments of Great European Powers PP 47, अनुवाद स्वयं)

इस तरह संसद की संप्रभुता ब्रिटिश संविधान का एक जैविक सिद्धांत बन गई है। लेकिन यह भी सच है कि यह संप्रभुता कानूनी है न कि राजनीतिक। व्यवहार में, ब्रिटेन में संसद का अर्थ हाउस ऑफ कॉमन्स है, क्योंकि ब्रिटेन में दूसरा सदन (हाउस ऑफ लॉर्ड्स) शक्तिहीन है और हाउस ऑफ कॉमन्स प्रधान मंत्री और मंत्रिपरिषद की इच्छा के अनुसार कार्य करता है क्योंकि वे बहुमत के शक्तिशाली सदस्य हैं। पार्टी इसलिए संसद केवल उन्हीं कानूनों को लागू करती है जो सत्तारूढ़ दल या दूसरे शब्दों में प्रधान मंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद द्वारा प्रस्तावित किए जाते हैं।

भारत में संसद की स्थिति

यद्यपि भारत के संविधान ने केंद्र में अपने विधानमंडल का वर्णन करने में ब्रिटेन की भाषा को अपनाया है, और राष्ट्रपति को उस देश के सम्राट की तरह संसद का एक घटक बनाया है, फिर भी भारतीय संसद ब्रिटिश संसद की तरह संप्रभु विधानमंडल नहीं है। . यह एक लिखित संविधान की सीमा के भीतर कार्य करता है, एक संघीय राज्य व्यवस्था की स्थापना करता है और एक सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ निवेश करता है। संसद की विधायक क्षमता, सामान्य समय के दौरान, संघ सूची में उल्लिखित विषयों और संविधान की सातवीं अनुसूची में समवर्ती सूची तक सीमित है। इसके अलावा, अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर इसकी सर्वोच्चता संविधान के भाग III में नागरिकों को गारण्टी कृत मौलिक अधिकारों द्वारा सीमित है। अनुच्छेद 13 खंड (2) निर्दिष्ट प्रतिबंध के अधीन, राज्य को कोई भी कानून बनाने से रोकता है जो इनमें से किसी को भी हटा या कम कर देगा। मौलिक अधिकार जहां राज्य मौलिक अधिकारों के उल्लंघन में कानून बनाता है, वह कानून उल्लंघन की सीमा तक शून्य होगा। ([10], Select Constitution Opcit part 2,  PP 188 अनुवाद स्वयं) इस प्रकार भारत तथा ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्थाओं में संसदीय संप्रभुता की धारणा की दृष्टि से पर्याप्त अन्तर है। सिद्धान्ततः जहां ब्रिटेन की संसद पूर्ण रूपेण संप्रभु है, वहां भारत की संसद की संप्रभुता पर लिखित संविधान, न्यायिक पुनरावलोकन तथा मौलिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अनेक प्रतिबन्ध है।

उपरोक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ब्रिटेन तथा भारत की संसदीय शासन व्यवस्थाओं में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। इस असमानता के लिए प्रमुखतया उनके संविधान के स्वरूप तथा शासन प्रणाली के स्वरूप में पाया जाने वाला अन्तर उत्तरदायी है। जहां ब्रिटेन का संविधान ऐसा विकसित और लचीला संविधान है, जिसका अधिकांश भाग अलिखित है और श्रेष्ठ परंपराओं से पोषित है, वहां भारत का संविधान लिखित, निर्मित तथा अत्यंत व्यापक संविधान है, जिसमें परिवर्तन के लिए साधारण कानून से भिन्न प्रक्रिया को अपनाया गया है। ब्रिटेन का आकार छोटा होने के कारण वहां एकात्मक शासन व्यवस्था सफलतापूर्वक कार्य कर रही है और इसलिए वहा अलिकित तथा लचीला संविधान कार्य कर पा रहा है। साथ ही न्यायालय के पास न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति होने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, जबकि भारत में एक ऐसी संघीय व्यवस्था को अंगीकार किया गया है, जिसमें एकात्मकता के लक्षण पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं। यहां नागरिकों को मौलिक अधिकार संविधान द्वारा प्रदान किये गये हैं और उनकी रक्षा का दायित्व एक अधिकार संपऩ्न सर्वोच्च न्यायालय को सौंपा गया है।

दोनों देशों की संसदीय व्यवस्थाओं में भिन्नता के लिए कुछ परंपराएँ भी उत्तरदायी हैं। जैसे ब्रिटेन में अब यह परंपरा स्थापित हो गयी है कि प्रधान मंत्री के लिए हाउस ऑफ कॉमन्स का सदस्य होना आवश्यक है, भारत में ऐसी किसी परंपरा का विकास नहीं हो सका है इसलिए यहाँ प्रधान मंत्री राज्यसभा का सदस्य भी हो सकता है।

निष्कर्ष उपरोक्त विवेचन के पश्चात यह कहा जा सकता है कि ब्रिटेन की संसदीय व्यवस्ता एकात्मक शासन की संसदीयव्यवस्ता का प्रतीक है, भारत की संसदीय व्यवस्था संघात्मक शासन के साथ संसदीय व्यवस्ता का प्रतिनिधित्व करती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. पी.वी. डाइल तुल्नात्मक शासन और राजनीति भाग 2 सुल्तानचंद ऐंड सन्स नई दिल्ली पृ.4 2. वही पृ.81। 3. आचार्य दुर्गादास बसू भीरत का संविधान एक परिचय पृ.175-176। 4. भारत शासन एवं राजनीति बी.बी. चौधरी महावीर प्रकाशन नई दील्ली प.176-177। 5. वही 6. Dicey A. Introduction to the Law of Constitution PP39-40 अनुवाद स्वयं 7. Kapoor A.C. & Mishra K.K. Select Constitutions New Delhi S.Chand & co. 2001 PP119. अनुवाद स्वयं 8. Ibid PP120. अनुवाद स्वयं 9. Finer H. Governments of Great European Powers pp47 अनुवाद स्वयं 10. Select Constitution Opcit part 2 pp188 अनुवाद स्वयं