ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- I February  - 2023
Innovation The Research Concept
रामचरितमानस में सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन एक विश्लेषणात्मक अवलोकन
An Analytical Overview of Socio-cultural Life in Ramcharitmanas
Paper Id :  17223   Submission Date :  02/02/2023   Acceptance Date :  20/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
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गोविन्द शरण शर्मा
सहायकआचार्य
हिंदी विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय
टोडाभीम (करौली),राजस्थान, भारत
सारांश साहित्यकार अपने युग से सर्वथा निरपेक्ष नहीं रहता है। प्रत्येक साहित्यकार अपने युग से प्रभावित रहता है। तुलसीदास का रामचरितमानस तत्कालीन सामाजिक सांस्कृतिक दशा का बोध कराने में पूर्णतः सक्षम हैं ।जब हम मानस का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि‐ तुलसीदास युगीन समाज विदेशी आक्रांताओं के अत्याचार से आतंकित था। वास्तव में रामचरित मानस में भारतीय समाज का वास्तविक चित्र दृष्टिगोचर होता है।रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने स्त्री को समाज की एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में निरूपित किया है। किसी भी सभ्य समाज की वस्तुस्थिति उस समाज में स्त्रियों की दशा देखकर ज्ञात की जा सकती है। महिलाओं की स्थिति में समय समय पर देशकाल के अनुसार परिवर्तन होता रहा है। स्त्रीपात्रों का सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन करने के लिए तत्कालीन समाज में व्याप्त स्त्री से संबंधित रीतिरिवाज, परंपराएं, विविध संस्कार, समाज में व्याप्त विभिन्न प्रथाएँ और विभिन्न सामाजिक मान्यताएँ आदि का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि-- रामचरित मानस की स्त्रीपात्रों ने अपने में सभी सामाजिक रीतिरिवाजों और परंपरा को निभाते हुए सभी कर्तव्यों और दायित्वों का पालन किया है। कहने का तात्पर्य है कि—स्त्रियों में कर्तव्य की भावना कूट कूटकर भरी दिखाई देती है। उन्होंने सामाजिक कर्तव्यों का पालन अत्यंत धैर्य, पूर्ण निष्ठा व लगन के साथ किया है। वे पति की सहगामी बनकर समस्त उत्तर दायित्वों का पालन करते हुए गुरुजनों की सेवा शुश्रूषा, आतिथ्य सत्कार, धार्मिक और पारंपरिक या पारिवारिक परंपराओं का पूर्ण रूप से पालन करती है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The litterateur does not remain absolutely neutral from his era. Every writer is influenced by his era. Ramcharitmanas of Tulsidas is fully capable of giving an understanding of the then socio-cultural condition. When we study Manas, we find that the Tulsidas-era society was terrorized by the tyranny of foreign invaders. In fact, the real picture of the Indian society is visible in Ramcharitmanas. In Ramcharitmanas, Tulsidas ji has represented women as an important power of the society. The reality of any civilized society can be known by looking at the condition of women in that society. The status of women has been changing from time to time according to the country. In order to make a socio-cultural study of female characters, after studying the customs, traditions, various rites, various customs and various social beliefs prevalent in the society, we find that-- Ramcharit Manas's female characters have shown all Followed all the duties and obligations by following the social customs and tradition. It means to say that-the sense of duty is clearly visible in women. she has performed her social duties with utmost patience, full devotion and dedication. By becoming a companion of her husband, she follows all the responsibilities of serving the teachers, hospitality, religious or family traditions completely.
मुख्य शब्द साहित्य, रामचरितमानस, परम्परा, संस्कार, प्रथा, समाज।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Literature, Ramcharitmanas, Tradition, Rituals, Customs, Society.
प्रस्तावना
एक सामाजिक प्राणी हैं। समाज के बिना वह नहीं रह सकता, अतः मनुष्य और समाज का अन्योन्याश्रित संबंध है। समाज से उसका संबंध इतना घनिष्ठ है कि उससे अलग अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। व्यक्ति और समाज का संबंध बहुत ही प्राचीन है। ज्यों ही व्यक्ति की उत्पत्ति हुई उनके साथ-साथ ही समाज का निर्माण हुआ। व्यक्ति अपना विकास समाज की सुदृढ़ एवं अनुकूल परिस्थितियों में ही कर सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि व्यक्ति समाज के बिना और समाज व्यक्ति के बिना दोनों अपने आप में अधूरे है।[1]
अध्ययन का उद्देश्य साहित्य समाज का दर्पण है। जो भी समाज में घटित होता है, साहित्यकार उसको साहित्य में अभिव्यक्ति प्रदान करता है। साहित्यकार समाज से या युग से निरपेक्ष नहीं रह सकता। इसलिए प्रत्येक साहित्यकार अपने युग से प्रभावित होता है। उसी प्रकार तुलसीदास का रामचरितमानस भी तत्कालीन समाज की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करता है। तुलसीदासकालीन समाज विदेशी आक्रमणकारियों, आततताइयो, आक्रांताओं के अत्याचार से व्यथित था।
साहित्यावलोकन

रामचरित मानस के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों पर विपुल शोध कार्य हुआ है। अनेक शोध -पत्र लिखे गए हैं। साहित्य में सामाजिक- सांस्कृतिक समीक्षा के अंतर्गत विभिन्न शोधों एवं पुस्तकों का अध्ययन किया गया। जिसमें रामचरित मानस में सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन भी अंतर्निहित है। इनके अध्यन से अपने शोध-पत्र का कार्य आगे बढ़ाने में सहायता मिली। इनमें पूजा शर्मा के जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू (2020) शोधपत्र एवं पूजा शर्मा के ही रामचरित मानस के स्त्रीपात्रों का परिचायात्मक अध्ययन (2019) शोध-पत्र प्रमुख हैं। साथ ही अमृतलाल नागर का मानस का हंस (2018), डॉ क्षमाशंकर पांडेय का शोध आलेख  भारतीय नारीवाद: स्थिति और संभावना (2018), डॉ पांडुरंग राव केरामायण के महिला पात्र (2016) एवं तुलसीदास कृत श्री रामचरितमानस सम्वत (2069) से  अध्ययन के लिए विपुल एवं विस्तृत जानकारी प्राप्त की है। भारतीय मानस में नारी का स्थान उच्च कोटि का है। उसे त्याग, ममता ,उदारता और तपस्या की मूर्ति माना गया। इस बात को मनुस्मृति में मनुने कहा है-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला क्रिया।[2]
कहने का तात्पर्य है कि नारी का समाज में महत्वपूर्ण स्थान है।  समाज का निर्माण नारी और नर दोनों के द्वारा किया जाता है किंतु नारी का स्थान उच्चतम सोपान पर है। अनादि काल से नारी का भारतीय समाज में सम्माननीय स्थान रहा है। वह कभी माँ, कन्या, पुत्री, गृहलक्ष्मी आदि के रूप में पूजनीय स्थान की अधिकारिणी है।
समाज में नारी शक्तिरूपा भी है। ऋग्वेद में नारी के विषय में कहा गया है-
अनादि काल से ही भारतीय जनमानस में स्त्री का आदरणीय स्थान रहा है। कन्या, पुत्री, गृहलक्ष्मी तथा माँ के रूप में स्त्री को बहुत सम्मान दिया जाता रहा है। ऋग्वेद में तो उसे घर की साम्रागी माना है[3]

मुख्य पाठ

तत्कालीन मानस युग की नारी की सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डालने के लिए, उस समय की नारी से संबंधित मान्यताएँ रीति-रिवाज ,परंपराएं एवं विविध सामाजिक मान्यताओं जैसे कन्याधन, बहुविवाह, प्रर्दा-प्रथा  आदि। इन सभी से नारी का सामाजिक मूल्यांकन किया जा सकता है-

1. परंपराएं रामचरितमानस युग की नारी कि सामाजिक रूप का उद्घाटन करने के लिए तत्कालीन युग की परम्पराओं के विषय में जानना आवश्यक है। प्रत्येक युग में नारी की स्थितियां, परिस्थिति अलग अलग रही है। देश काल या परिस्थिति के अनुसारनारी की सामाजिक स्थिति परिवर्तित होती रही है। वैदिक काल में तो स्त्री पुरुष को समान अधिकार प्राप्त थे। परंतु इसके बाद नारी की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन होने लगा। शनै-शनै उसके अधिकारों को सीमित कर दिया गया। तरह तरह की मान्यताओं या रीति रिवाजों में नारी को बांधा गया। उसकी स्वतंत्रता को बाधित किया गया। समाज में प्रचलित रीतिरिवाज, मान्यताएँ, परंपराएं, लोकमान्यताएँ या विश्वास का पालन नारी करती थीं। रामचरित मानस में बताया गया है कि घर पर आए अतिथि का सत्कार देवता के समान किया जाना चाहिए। कहा भी गया है- अतिथि देवो भव[4]

रामचरितमानस में बताया गया है कि जब राम शबरी के आश्रम पहुँचते हैं। तो शबरी किस प्रकार राम का आदर सत्कार करती है-

सादर जललैंचरण पखारे

पुनी सुंदर आसन बैठारे।[5]

शबरी लक्ष्मण को कंद, मूल, फल देकर राम और लक्ष्मण का स्वागत करती है।

तत्कालीन समय की नारी भगवान राम के वनवास जाने के कारण को विधाता को ही मानती है ।माता सुमित्रा कौशल्या राम के वनगमन का कारण विधाता को ही मानती है। तत्कालीन समय में नारी शुभअशुभ समय पर देवी देवताओं की आराधना या पूजा करती थी। माता पार्वती भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या करती है-

उर धरि उमा प्राणपति चरना

जाइविपिन लागीतपुकरना।[6]

जब राजा दशरथ के कोई संतान नहीं होती है। तब उनकी तीनों रानियाँ पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ में अग्निदेव से प्राप्त खीर को खाती है।

माता सीता भी भगवान राम को पति रूप में प्राप्त करने के लिए माँ गिरजा की पूजा करती है-

जयजय गिरिवर राजकिशोरी

जय महेश मुख चंदचकोरी।[7]

माता सीता विधाता पर विश्वास करती है। वनवास मिलने का कारण भाग्यको मानती है-

सेवा समय दैववनदीन्हा

मोर मनोरथु सफल न कीन्हा।[8]

रामचरितमानस की नारी शुभ-अशुभ, शकुन-अपशकुन पर विश्वास करती थी। जब माता सीता गौरी की सेवा पूजा करते समय भगवान राम को पति रूप में मांगती है। तब उनके बाम अंग फड़कने लगते हैं। उसको वे शुभ मानतेहुए बहुत ही प्रसन्न होती है-

वाम अंग फरकन लगे[9]

माता कौशल्या राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर दास, दासियों, ब्राह्मणों को दान देती है एवं देवी देवताओं आदि की पूजा करती है। स्वप्न में बानर दर्शन, नंगा, और मुंडे हुए गधे पर सवार होकर दक्षिण दिशा में जाना स्वप्न को अशुभ मानती है।

जब कैकेयी राम को वनवास मांगती है तो दशरथजी को लगता है कि कैकेयी के ऊपर कोई पिशाच या भूत प्रेत का साया पड़ गया है-

लागेहूँ तोही  पिशाच जिमिकालु कहावत मोर[10]

मानसकालीन इन परंपराओं से प्रतीत होता है कि तत्कालीन नारी उस समय प्रचलित सामाजिक रीतिरिवाज लोकमान्यता, आस्था, विश्वास, संस्कार और परंपराओं से बंधी हुई थी।

2. संस्कार-

भारतीय संस्कृति में 16 संस्कार माने गए हैं।वे इस प्रकार है- गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमन्तो संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, मुंडन संस्कार, कार्ण वेधन संस्कार, विद्या आरंभ संस्कार, उपनयन संस्कार, बेद आरंभ संस्कार, केशांत संस्कार सम्वर्तन संस्कार, विवाह संस्कार और दाहसंस्कार या अंत्येष्टि संस्कार है।

संस्कार का सामान्य अर्थ होता है संस्कृत या शुद्ध करना। किसी वस्तु को विशेष क्रियाएं द्वारा उत्तम बनाना ही संस्कार हैं। इसी प्रकार किसी साधारण मनुष्य को विशेष प्रकार की धार्मिक क्रियाकलापों द्वारा उत्तम बनाना ही सुसंस्कार करना कहलाता है।

संस्कार मन, वचन ,कर्म और शरीर को निर्मल करना ही संस्कार हैं। स्मृति और पुराणो में इसके बारे में गहरी जानकारी मिलती है। वेदज्ञो के अनुसार गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के दोषों का शोधन विशिष्ट विधि या मंत्रों से करने को संस्कार कहा जाता है। इस विषय में कहा गया है-

जन्मना जायते शूद्रसंस्काराद्द्विजउच्चयते-

रामचरितमानस में विवाह संस्कार का विशेष महत्व है। विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार है। संपूर्ण समाज की वृद्धि इसी पर निर्भर है। विवाह विशिष्ट वहनम अर्थार्थ विशिष्ट रूप से वहन करना। विवाह एक ऐसा संस्कार है जिसमें वधू को पिता के घर से पति के घर पर ले जाया जाता है। विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं-ब्रह्मा, देव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गंधर्व, राक्षस और पैशाच आदि बताए गए हैं।[11]

तुलसीदास जी ने विवाहकेचार प्रकार माने हैं- स्वयंवर, प्रजापत्य गंधर्वएवं असुर।[12]

मध्ययुग में विद्वानों ने दो प्रकार के विवाह का उल्लेख किया है- अनुलोम, प्रतिलोम। उस समय स्वयंवर प्रथा भी प्रचलित थी। कहने का तात्पर्य है कि किसी न किसी रूप में विवाह संस्कार प्रचलन में था।

सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से विवाह के बाद स्त्री पुरुष का साथ रहना सम्मानजनक माना जाता है। विवाह के समय वर-वधू दोनों पक्षों के यहाँ मांगलिक गीतों का विशेष महत्व है। विवाह के अवसर पर कन्या का नाम लेकर महिलाएं मंगलाचरण गाती है। विवाह के समय मूहर्त का विशेष महत्व है अर्थार्थ ज्योतिषी के बताएं समय पर ही विवाहजैसा शुभ कार्य संपन्न करवाया जाता है। विवाह से पूर्व वर वधू की कुंडली मिलान, गण-वर्ग आदि मिलाने का कार्य भी किया जाता था।[13]

मानसयुग में विवाह के अनेक प्रकार प्रचलित थे। इस युग में लक्ष्मण -उर्मिला, भरत-मांडवी और शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति का विवाह संस्कार प्राजापत्यविधि से हुआथा।[14]

राम और सीता का विवाह स्वयंवरप्रथासेकरवाया जाता है परंतु राजा जनक द्वारा स्वयंवर के साथ साथ शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की भी शर्त रखते हैं--

सीए स्वयंवर देखिअ जाई[15]

मानसयुग में देव, प्रजापत्य, राक्षस असुर पद्धतियां प्रचलित थी। इस युग में शक्ति के बल पर कोई भी पुरुष किसी दूसरेकी पत्नी को अपनी पत्नी बना सकता था । यही कारण है की बाली अपने भाई की पत्नी को छीनकर अपनी पत्नी बनाकर रखने लगा था।[16]

विवाह में वर पक्ष द्वारा वधु पक्ष के यहाँ बारात ले जाने का प्रचलन था। साथ ही बारात को सजा कर ले जाने का प्रचलन भी था-

वनइ नबरनत बनी बराता[17]

मानसकालीन युग में वधु पक्ष द्वारा बारात की अगवानी कर के बारात को जनमासेमेंठहराया जाता था ।विवाह के मांगलिक अवसर पर गीत गाए जाते थे-

सुभग सुमंगल गांवहिनारी[18]

बंधु के माता पिता द्वारा वर् के चरणों को पखारा जाता था[19]

विवाह के समय वरवधूकी हथेलियों को मिलाकर मंत्रोचार करवाए जाते थे। वर-वधू द्वारा भावरे लिए जाते थे दूल्हे के द्वारा दुल्हन की मांग में सिंदूर भरा जाता था-

राम सीयसिर सेंदुर देहीं।[20]

मानसयुग में विवाह के बाद दुल्हन को कुलदेवता पर ले जाया जाता था। विवाह के बाद दुल्हन विदा होकर जब पति के घर जाती है तो दूल्हा दुल्हन का मंगलगीतों के साथ स्वागत सत्कार किया जाता था। कहने का तात्पर्य है कि विवाह संस्कार मानसयुग का महत्वपूर्ण संस्कार है।

3. कन्यादान और दहेज परंपरा

कन्या के विवाह के अवसर पर वधु पक्ष द्वारा बर वधू को दिया जाने वाला धन दहेज कहा जाता है। दहेज शब्द अरबी भाषा का है। जो कि जहेज से बना है। जिसका अर्थ है सौगात। दुल्हन के परिवार, सगे संबंधी या मित्रों द्वारा नकदी या उपहार की वस्तुओं के रूप में यह दूल्हे के परिवार को दुल्हन के साथ दिया जाता है। इस दहेज को अन्य नामों से भी जाना जाता है- जैसे वर् दक्षिणा, कन्या धन आदि।[21]

ऐसा कहा जाता है कि प्रारंभ में दहेज प्रथा उच्च कुलीय, साधन संपन्न परिवारों तक ही सीमित थी ।राजा अपनी पुत्री के विवाह में आभूषण के साथ साथ मूल्यवान वस्तु, अश्व, हाथी भी दहेज में दिए जाते थे।

डॉ अल्तेयर का कहना है कि मध्य युग में दहेज का संबंध संभवत दान के साथ जुड़ा था। धार्मिक दान को स्वर्ण अथवा धन के साथ जोड़ दिया गया था।[22]

कहने का तात्पर्य है विवाह के अवसर पर पक्ष द्वारा मांगना निंदा के योग्य था। किंतु यथाशक्ति अलंकारवस्त्र और वाहन देना प्रशंसनीय था। इस प्रकार दहेज देने में कोई बुराई नहीं थी क्योंकि यह वधु पक्ष की स्वेच्छा पर निर्भर करता था।

मानसयुग में दहेज परंपरा का प्रचलन था किन्तु दुल्हन का पिता दूल्हे से किसी प्रकार की धनराशि नहीं लेता था।

माता पार्वती और शिव के विवाह में भी दहेज के रूप में दास, दासी, घोड़ेहाथीरथ गाय, वस्त्रअन्नऔर सोने के बर्तन दिए गए थे-

दासी दास तुरग रथ नागा धेनु वसनमनिवस्तु विभागा।

अन्न कनक भाजन भरिजाना दाइज़ दीन्हन जाइ बखाना।।[23]

सीता के विवाह में पिता जनक द्वारा बहुत सारा दहेज दिया गया। विवाह होने पर मंडप को सोने और मणियों से भर दिया गया था। जनक जी ने वस्त्र, हाथी, रथ, घोड़े दास, दासियां गहनों से सजी हुई कामधेनु गाय आदि दी।

सीता की विदाई के समय जनक जी ने बहुत सारा दहेज दिया। जो मुख से कहा नहीं जा सकता। जिसे देखकर लोकपाल लोकोंल की संपदा थोड़ी जान पड़ती थी-

दाइज़ अमित न सकिअकहिंदीन्ह विदेही बहोरी।[24]

कहने का तात्पर्य है कि मानस युग में पिता अपनी पुत्री को विदाई के समय दहेज देकर विदा करता था और हाथ जोड़कर वर पक्ष के सामने यही कहता है कि मैं आपको कुछ भी नहीं दे सका-

बाद में पति द्वारा पत्नी को भी महत्त्व दिया जाता था।

-वाम भाग सोभित अनुकूला आदि शक्ति छवि निधि जगमूला

जस अंश उपजेहि गुण खानी[25]


4. बहुविवाह प्रथा

बहुविवाह एक ऐसी प्रथा है। जिसमें कोई व्यक्ति स्त्री या पुरुष एक से अधिक व्यक्तियों से विवाह करता है। मुख्यतयह दो रूपों में प्रचलित है -जहाँ एक पुरुष कई महिलाओं से शादी करता है और बहुपतित्व  जहाँ एक महिला कई पुरुषों से शादी करती है। एक तीसरा रूप कई पुरुषों और महिलाओं के बीच सामूहिक विवाह, समान सैक्स बहुविवाह।

बहु पत्नी, बहु पति एक विवाह अर्थात जब एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है तो उसे बहुपत्नी विवाह कहते, जब एक स्त्री के साथ एक से अधिक पुरुषों का विवाह होता है तो उसे बहुपति विवाह कहते हैं, एक पुरुष स्त्री के साथ विवाह को एक विवाह कहा जाता    है।

वैदिक युग में बहुविवाह के उदाहरण मिलते हैं। जिसप्रकार चारों ओर से शत्रु का आक्रमण होने से परेशानी होती है। उसी प्रकार एक पति अपनी ईष्यालु पत्नियों से स्वयं को परेशान पाता   है।[26]

परंतु बाद में बहुविवाह का प्रचलन बढ़ता ही चला गया। महाभारत काल में बहुपति प्रथा समाज में कम प्रचलित थी किंतु थी उसका उदाहरण हमें पंच पांडव और द्रौपदी के रूप में मिलता है।

मध्यकाल में बहुविवाह प्रचलित थी किंतु समृद्ध शासक वर्ग में।

सूद्र की एकवैश्य दोक्षत्रिय की तीन और ब्राह्मण की चार तथा राजा की इच्छानुसार पत्नियां हो सकती थी।

मानसयुग में भी बहुविवाह प्रथा थी। महाराजा दशरथ के तीन रानियाँ थी -कैकेयी, कौशल्या और सुमित्रा।

लंका के राजा रावण के यहाँ भी स्त्रियों की कोई कमी नहीं थी।

मानसयुग में तो विवाह के बिना जबरदस्ती पत्नी बनाने का उदाहरण भी मिलता है। बाली सुग्रीव की पत्नी को जबरदस्ती अपनी पत्नी बनाकर रखता है-

अनुज वधु भगिनी सुतनारी।

सोनु सठ कन्या सम ए चारी।

इन्हहि कुदृष्टि बिलोकई जोई।[27]

तुलसीदास जी जानते थे कि बहुविवाह अच्छा नहीं है। इसलिए वे राम के माध्यम से एक विवाह पर ज़ोर देते है-

एक नारीव्रत रत सब झारी।

ते मन वचन कर्म पति हितकारी।[28]

5. विधवा परिस्थिति

जिंस पत्नी का पति स्वर्गवासी हो जाता है या जिसकी मृत्यु हो जाती है। उसकी पत्नी को विधवा कहा जाता है। समाज में विधवा की स्थिति बड़ी ही दयनीय है। विधवा के साथ भेदभाव किया जाता है। उसे सजने संवरने का श्रृंगार करने का या मांगलिक अवसर पर सामने आना भी अमंगलकारी माना जाता है। विधवा शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है-

मारुति के वेग से जिसप्रकार पृथ्वी कांपने लगती हैउसी प्रकार पति से बिछोह होने पर स्त्री दुखी अथवा दुर्व्यवहार के नाम से कांपती है।[29]

धर्मसूत्र में भी विधवा के विषय में बताया गया है। पति की मृत्यु के बाद एक वर्ष के लिए उसे मधु, मांस, मदिरा तथा नमक का त्याग कर भूमि पर शयन करना पड़ता था।[30]

पश्चात विचारक अलवरुनी ने अपनी पुस्तक में विधवा के विषय में कहा है- यदि मृत्यु के कारण किसी का पति नहीं रहे तो वह दूसरे पुरुष से विवाह नहीं कर सकती। उसे केवल दो बातों में से एक चुनना पड़ता है या तो वह आजीवन विधवा रहे या अपने को भस्म कर      दे।[31]

मध्यकाल में विधवा स्त्री का मुंडन करवाया जाता था। विधवा स्त्री श्वेत वस्त्र धारण करती थी तथा अलंकारों का त्याग कर देती थी।[32]

मानसकाल में स्त्री के लिए वैधव्य अभिशाप था। इस युग में विधवा को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। उसका श्रृंगार करना भी अच्छा नहीं माना जाता था

विधवन्ह के सिंगार नवीना।[33]

मानसयुग में सती प्रथा का प्रचलन था, परन्तु तुलसीदास ने इसका विरोध किया है। यही कारण है कि तुलसीदास दशरथ की रानियों को सती होने से रोकने की बात करते हैं-

गहि पद भरत मातु सब राखी।

रहीं रानी दर्शन अभिलाषी।।[34]

मानसयुग में विधवा नारी अपने पति को तिलांजलि भी देती है। जब रावण मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। तब उसकी विधवा पत्नी मंदोदरी और अन्य रानियाँ रावण को तिलांजलि देती       है।[35]

6. पर्दाप्रथा

पर्दाप्रथा को घूंघट भी कहा जाता है। इसका प्रचलन भारत में मुसलमानों के कारण हुआ था ।इसके बाद हिंदू महिलाओं के द्वारा भी इसे अपनाया गया।

पर्दा शब्द अरबी फारसी भाषा का है। जिसका अर्थ होता है ढकना। साधारण शब्दों में घूंघट।

भारतीय संस्कृति में पर्दाप्रथा नहीं थी। यहाँ तक कि वेदों में इसका उल्लेख भी नहीं मिलता है। अपितु विवाह के बाद वधु को  सभी मेहमानों से मिलाया भी जाता था। मानसयुग में पर्दा प्रथा थी। क्योंकि मुस्लिम आक्रमणकारी सुंदर नारी को देखते और उसे बलात् उठाकर ले जाते थे।

निष्कर्ष हम कह सकते हैं कि मानस युग की नारी सभी सामाजिक, रीतिरिवाजों, परंपराओं, बंधनों को मानते हुए अपने सभी दायित्वों का पालन करती है। कर्तव्यपालन अत्यंत उत्साह, जोश, धैर्य के साथ करती है।मानसयुग में बालविवाह का विकृत रूप हमें कहीं भी दिखाई नहीं देता है। यहाँ तक की विधवा विवाह का भी निषेध था । दहेजप्रथा का प्रचलन था किंतु वर पक्ष द्वारा मांगने का प्रचलन नहीं था। बधु पक्ष द्वारा वर पक्ष को अपनी सामर्थ्यानुसार वस्त्र, सोना, हाथी, घोड़े, दास, दासियां दिए जाते थे।इस समय बहुविवाह का बहुत प्रचलन था। विशेषकर राजघरानों में या समृद्ध परिवारों में। मानसयुग में पति की मृत्यु हो जाने पर नारी को चिता के साथ जलकर भस्म हो जाने का प्रचलन था। यानी सती प्रथा का प्रचलन था। नारी की स्वतंत्रता मुगलों के प्रभाव के कारण बहुत कम थी। पर्दाप्रथा का बोलबाला था ।समाज की विभिन्न परंपराओं में विकृतियां आ गयी थी। नारी को समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार भी नहीं था। नारी को कोई भी धार्मिक आयोजन स्वयं द्वारा स्वतंत्र रूप से करने का अधिकार भी नहीं था। कहने का तात्पर्य है देश, काल, परिस्थिति के अनुसार नारी के स्वरूप में अधिकारों में परिवर्तन होते चला गया।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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