P: ISSN No. 2231-0045 RNI No.  UPBIL/2012/55438 VOL.- XI , ISSUE- III February  - 2023
E: ISSN No. 2349-9435 Periodic Research
"कचनार" और "मृगनयनी" उपन्यासों की नायिकाएँ
The Heroines of the Novels "Kachanar" and "Mriganayani"
Paper Id :  17322   Submission Date :  06/02/2023   Acceptance Date :  22/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
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पूनम काजल
एसोसिएट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
हिन्दू कन्या महाविद्यालय
जीन्द,हरियाणा, भारत
सारांश वृन्दावनलाल वर्मा हिन्दी के प्रख्यात उपन्यासकार हैं। इनकी ख्याति का मुख्य आधार उनके ऐतिहासिक उपन्यास हैं। कुछ विद्वान उनकी तुलना अंग्रेजी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार सर वाल्टर स्कॉट से करते हुए उन्हें हिन्दी का ‘वाल्टर स्कॉट’ भी कहते हैं। इन्होंने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में तथ्य और कल्पना एवं अनुभूति और अभिव्यक्ति का सुन्दर समन्वित रूप प्रस्तुत किया है। वर्मा जी के ऐतिहासिक उपन्यासों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी भूमि के निकट का विषय चुनते हैं, उनसे बाहर नहीं जाते। गढ़कुंडार, कचनार, मृगनयनी, झाँसी की रानी, विराटा की पद्मिनी आदि उपन्यासों में वर्मा जी ने बुंदेलखंड के इतिहास को समग्रता में प्रस्तुत किया है। अपने अधिकांश ऐतिहासिक उपन्यासों के कथानक उन्होंने अपनी वीरप्रसू भूमि बुन्देलखंड के गौरवशील अतीत से लिए हैं और अपनी कल्पनाशीलता द्वारा ऐतिहासिक वातावरण का पुनर्निर्माण किया है। तत्कालीन लोक जीवन उनकी प्रभावशाली लेखनी से जीवन्त हो उठा है। डॉ0 श्रीमती ओम शुक्ल लिखती हैं - ”उन्होंने विस्मृतप्राय अतीत के अस्पष्ट एवं धुंधले चित्रों को अपनी कल्पना द्वारा निखारा। उनके उपन्यासों में ऐतिहासिक सत्य तथा कल्पना का मानो मणिकांचन संयोग है।“[1]
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Vrindavanlal Verma is a famous Hindi novelist. The main basis of his fame is his historical novels. Some scholars compare him with the famous English historical novelist Sir Walter Scott and also call him 'Walter Scott' of Hindi. He has presented a beautiful coordinated form of fact and imagination and feeling and expression in his historical novels. The biggest feature of Verma ji's historical novels is that he chooses a subject close to his land, does not go beyond it. Verma ji has presented the history of Bundelkhand in totality in novels like Garhkundar, Kachnar, Mrignayani, Jhansi ki Rani, Virata ki Padmini etc. He has taken the plots of most of his historical novels from the glorious past of his Veerprasu land Bundelkhand and has reconstructed the historical environment with his imagination. The then folk life has become alive with his influential writing. Dr. Mrs. Om Shukla writes - "He enhanced the obscure and blurred pictures of the forgotten past with his imagination." In his novels, historical truth and fiction are like Manikanchan coincidence."[1]
मुख्य शब्द वीरप्रसू, प्रतिद्वन्द्विता, नैराश्यपूर्ण, सलज्ज।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Veerprasu, Rivalry, Desperate.
प्रस्तावना
वर्मा जी के अधिकांश उपन्यासों का नामकरण इनमें चित्रित प्रमुख नारी-पात्रों के नामों पर आधारित है। कचनार, मृगनयनी, झाँसी की रानी, महारानी दुुर्गावती, विराटा की पद्मिनी के नाम इनकी नायिकाओं के नामों पर ही रखे गए हैं। इन उपन्यासों में नारी के बाह्य सौदर्य की अपेक्षा अन्तः सौन्दर्य पर अधिक बल दिया गया है। ‘कचनार’ और ‘मृगनयनी’ उपन्यासों के लिए कथानक जिस युग से चुने गए हैं वह मध्यकालीन सामंती संस्कृति का युग था। वर्मा जी ने अतीत के माध्यम से वर्तमान की समस्याओं पर विचार किया है। वृन्दावनलाल वर्मा जी ने अपने नारी-पात्रों व उनकी मनोवृत्तियों का चित्रण इतनी व्यापकता व गहराई से किया है मानो उन सबसे भली-भाँति परिचित हों। उन्होंने नारी-जीवन से जुड़ी हुई अनेक समस्याओं को बड़े कौशल के साथ उठाया है। इसी कारण उनकी सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वृत्तियों को उभार सकने में वे सक्षम हुए हैं।
अध्ययन का उद्देश्य डॉ0 वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने एतिहासिक उपन्यासों में चौंदहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के बुन्देलखण्डीय जीवन के इतिहास को चित्रित किया है। यह युग बुन्देलखंड के गौरव के साथ-साथ उसके पतन का काल भी रहा है। भारत के पतन के मूल कारण रूढ़ि-जर्जर समाज को इन्होंने अपनी ऐतिहासिक रचनाओं में प्रयोगशाला बनाया है तथा सामाजिक कुरीतियों की ओर इंगित किया है। बाहरी आक्रमणों का निरन्तर भय, राज्यों की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कूटनीति के कारण जन-जीवन त्रस्त एवं नैराश्यपूर्ण रहा। इन सब परिस्थितियों का प्रभाव नारी-जीवन पर भी पड़ा, जिसका चित्रण प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में वर्मा जी के सभी ऐतिहासिक उपन्यासों में देखने को मिलता है। सत्य तो यह है कि नारी-जीवन से जुड़ी अनेक समस्याओं को उठाकर उन्होंने अतीत के माध्यम से वर्तमान युग की समस्याओं के हल खोजने का भी प्रयास किया है।
साहित्यावलोकन

कवि वृन्दावनलाल वर्मा के साहित्य पर विपुल शोध कार्य हुआ है। इतिहास व कल्पना से प्रसूत उनके नारी-पात्र निश्चय ही पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। प्रस्तुत शोध-पत्र के लेखन में मुहम्मद इरफान के शोध-ग्रंथ वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में इतिहास दृष्टिसे वर्मा जी के इतिहास के प्रति दृष्टिकोण को समझने में मदद मिली। सुनील कुमार के शोध-पत्र वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों में नारी-पात्रसे उनके विभिन्न उपन्यासों के नारी चरित्रों को गहराई से समझा। सन 2019 में प्रकाशित डॉ प्रेमसिंह के. क्षत्रिय के शोध-पत्र हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक उपन्यास और वृन्दावनलाल वर्मासे भी शोध-पत्र को लिखने में मदद मिली। सुनील कुमार ने फरवरी 2019 में प्रकाशित अपने शोध -पत्र  वृन्दावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यासों में नारी पात्र  में वर्मा जी के नारी के प्रति दृष्टिकोण के बारे में  लिखा  है कि नारी के बाह्य सौंदर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है।

मुख्य पाठ

वर्मा जी के ऐतिहासिक उपन्यासों के नारी-पात्र अत्यन्त प्रबल हैं, जो संघर्षो से जूझते हुए अपनी शक्ति का परिचय देते हैं। कचनार, मृगनयनी, अहिल्या बाई, रूपा, मन्ना और लक्ष्मीबाई ऐसे ही पात्र हैं। कचनारउपन्यास की नायिका के चरित्र को लेखक ने अत्यन्त उदात्त धरातल पर प्रस्तुत किया है। चूँकि वह एक मर्यादित नारी है, इसलिए उसकी कोमलता व पवित्रता में स्वत्व की रक्षा का आग्रह है। अत्यन्त संघर्षशील व नैराश्यपूर्ण वातावरण में उसने जिस दृढ़ता का परिचय दिया है, वह दर्शनीय है। वर्मा जी ने स्थान-स्थान पर उसके संयम एवं प्रेम की दृढ़ता पर बल दिया है। राजा दिलीपसिंह जब उसे अपनी कामुकता का शिकार बनाना चाहते हैं, तो वह स्पष्ट शब्दों में अपना विरोध जताती है - मेरे साथ भाँवर डालिए। मुझको अपनी पत्नी की प्रतिष्ठा दीजिए। अपनी जीवन-सहचरी बनाइए। वचन दीजिए, मैं आपके चरणों पर अपना मस्तक रख दूँगी।[2]

कचनार आत्मसम्मान से परिपूर्ण नारी है। कचनार का सामीप्य पाने के इच्छुक राजा दिलीपसिंह जब उसे वस्त्रालंकार का प्रलोभन देते हैं, तो वह अपने आत्मसम्मान का परिचय देते हुए कहती है- मैं गोंड कन्या हूँ, वृक्षों की छाल से अपना शरीर ढँक सकती हूँ। मेरे माता-पिता सिपाही थे और कुलीन भी। वे लड़ाई में मारे गए। कलावती दीदी के कुटुम्ब में मेरा पालन-पोषण हुआ और उन्होंने ही मुझको दहेज में दे दिया।[3]

कचनार की कोमलता में स्वरक्षा का भाव लिपटा हुआ है। उसमें रूप है, यौवन है। साथ ही उसकी दिव्यता रूप-लोलुपों के प्रति उपेक्षा के तीखेपन को लिए हुए है। जब दिलीपसिंह की तथाकथित मृत्यु के पश्चात् मानसिंह उसे अपनी वासना का शिकार बनाना चाहता हे, तो वह किले से भाग जाती है ओर गोसाइयों के अखाड़े में पुरुष वेश धारण करके रहने लगती है। अखाड़े में रहते हुए वह संयमित चरित्र का निर्वाह करती है। लेखक ने उसे एक दृढ़ व ओजस्वी नारी के रूप में चित्रित किया है, जिसका चरित्र व्यथाजनित वातावरण में भी कंचन सदृश निखरता ही जाता है। इस सन्दर्भ में सियारामशरण प्रसाद लिखते हैं - वह नारी जाति को अपनी अभूत शक्ति की पहचान का प्रेरणामूलक दृष्टिबोध कराती है और आवेष्ठन की माँग का निराकरण भी।[4]

सत्य तो यह है कि कचनार ने संघर्षशील व नैराश्यपूर्ण वातावरण में जिस दृढ़ता और कमलपत्र सदृश उदात्तता का परिचय दिया है, वह दर्शनीय है। उसका प्रेम उदात्त और आदर्शोन्मुख है। महन्त जी उसके चरित्र के इस पक्ष का उद्घाटन करते हुए कहते हैं - तुम्हारी सरीखी स्त्रियाँ हमारे समाज में हो जाएँ, तो घर-घर में उजाला छा जाए।[5]

कचनार के माध्यम से वर्मा जी ने दासी प्रथा के दुष्प्रभावों को रेखांकित करते हुए समसामयिक माँग के अनुरुप उसका समाधान प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। साथ ही पुरुष की उस मानसिकता को भी उजागर करने का प्रयास किया है जब वह हिंसात्मक भावना से प्रेरित हो नारी के शोषण के लिए लालायित रहता है। ऐसी स्थिति में नारियों को किस प्रकार आत्मबल के विकास द्वारा सिद्धि ग्रहण करनी चाहिए, इसका सफल चित्रण कचनार के चरित्र द्वारा किया गया है। वस्तुतः कचनार नारीत्व-रक्षाकी महत्वपूर्ण समस्या और उसका हल प्रस्तुत करती   है। वर्मा जी ने सामयिक माँग के अनुरूप नारी-समाज की एक समस्या का निदान खोजने की चेष्टा की है।

मृगनयनीवर्मा जी का एक चर्चित नारी-प्रधान ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास की नायिका बाह्य व आन्तरिक सौन्दर्य से युक्त अपूर्व सौन्दर्य की स्वामिनी है। वस्तुतः मृगनयनी के माध्यम से लेखक ने नारी का समन्वित रूप वर्णित किया है। इस उपन्यास में मृगनयनी का जैसा सजीव चित्रण हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। तीरंदाज़ी में निपुण उस अनाथ कृषक  बाला के सान्दर्य व शौर्य से प्रभावित होकर राजा मानसिंह उससे विवाह करते हैं। ग्वलियर पहुँचकर रानी मृगनयनी के व्यक्तित्व में रक्षात्मक शौर्य और सृजनात्मक कला का समन्वित विकास होता है। वह दाम्पत्य का आदर्श प्रस्तुत करती है। वह पग-पग पर अपनी संयमशीलता का परिचय भी देती है। उसके संयमशील आचरण और सलज्ज नारीत्व का उद्घाटन करते हुए मानसिंह कहते हैं-तुम संयम से प्रेम को अचल बनाती हो और मैं अपने विकार से उसको चंचल कर देता हूँ। संयम के आधार वाला प्रेम ही आगे भी टिके रहने की समर्थता रखता     है।[6]

मृगनयनी नारीत्व की मर्यादा से भी भली-भाँति परिचित है। जब राजा मानसिंह आखेट प्रतियोगिता देखने राई ग्राम में आते हैं और विजयी निन्नी से विवाह का निवेदन करते हैं, तो उसे शंका होती है - कहीं मानसिंह द्वारा विवाह से उसके सम्मान को आघात न पहुँचे। उसने धीरे से मानसिंह को कहा कि गरीबों और बड़ों का जन्म-संग कैसा? बड़े लोग कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं, ऐसा सुना है कथा-कहानियों में।[7]

नारी पुरुष की प्रेरणा मानी गई है। मानसिंह के प्रति सच्ची निष्ठा रखती हुई वह राजा को हर पल कर्त्तव्य-पथ पर अग्रसर एवं दृढ़ रहने का आग्रह करती है। मृगनयनी के ग्वालियर आने पर जब मानसिंह भोग-विलास में डूबकर राज्य के प्रति उदासीन हो जाते हैं, तो वह उन्हें सजग करती हुई उनमें नवीन चेतना भर देती है। स्वयं मानसिंह उससे हार मानते हुए कहते हैं - मैं वचन देता हूँ प्राण प्यारी मृगनयनी ! समझ गया कि मन में तुमको जीवन-पर्यन्त बनाए रखने के लिए नियम-संयम ही बल दे सकेगा। तुमको कलाओं को सीखने के लिए पूरा-पूरा समय दिया करूँगा और तुमको सदा अपने निकट समझता हुआ इतना काम किया करूँगा, इतना कि काम को पूरा करते-करते घनी उमंग बनी रहे तुम्हारे दर्शन प्राप्त करने की।[8]

मृगनयनी सुन्दरता और कोमलता के साथ-साथ शौर्य व ओज की प्रतिमूर्ति है। वह त्याग की साक्षात प्रतिमा है जो बलिदान में जीवन की सिद्धि स्वीकार करती है। वस्तुतः वह कल्याणकारी भावना से युक्त एक प्रेरणाशील नारी है। राष्ट्र के कल्याण के लिए सदैव राजा को प्रेरित करती रहती है - संकल्प और भावना जीवन-तखड़ी के दो पलड़े हैं, जिसको अधिक भार से लाद दीजिए, वही नीचे चला जाएगा। संकल्प कर्त्तव्य है और भावना कला। दोनों के समान समन्वय की आवश्यकता है।[9] वस्तुतः मृगनयनी त्याग, संयम, बलिदान और सहनशीलता में ही मानव-जीवन की सिद्धि और सार्थकता मानने वाली, अपने जीवन में इनके निर्वाह की सजग चेष्टा करने वाली नारी है।

मृगनयनी का राष्ट्र-निर्माण सम्बन्धी दृष्टिकोण भी अत्यन्त व्यापकता लिए हुए है। उसकी मान्यता है कि अशिक्षित तथा अनुशासनहीन जनता को ऊपर उठाने के लिए कर्त्तव्य-प्रेम की पुष्टि पर बल देने की आवश्यकता है। होली के अवसर पर सैनिकों के अभद्र प्रदर्शन को देखकर मानसिंह से कहती है- दण्ड देने से कुछ नहीं होगा महाराज! उनको सदा चौकस बनाए रखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। इधर कलाओं की वृद्धि हुई है, उधर बाण विद्या और युद्ध-विद्या का अभ्यास कम हो गया है। अपने सैनिक किसान घरों से आए हैं। हमारी कला  उनके विवेक में नही बैठी, इसलिए हमारी कला की खिल्ली उड़ाने लगे। हम कलाओं को अधिक समय देंगे, तो अवसर पाते ही अपनी वासनाओं पर उतर-उतर आएँगे।[10] जनहित की भावना से मृगनयनी कहती है कि मैंने महाभारत में पढ़ा है कि देश की रक्षा शस्त्र द्वारा हो जाने पर ही शास्त्र का चिन्तन हो सकता है। मेरा यही प्रयोजन है और कुछ नहीं।

निःसन्देह मृगनयनी बलिदान, संयम व सहनशीलता में ही मानव-जीवन की सिद्धि और सार्थकता मानने वाली एक सजग नारी है। अपने इन्हीं गुणों की बदौलत वह अपने अहम् का त्याग कर अन्य रानियों की द्वेष-भावना व अपमान को सहर्ष झेलती रहती है। सही अर्थों में वह त्याग-भावना के साथ-साथ कला मर्मज्ञता व देश, धर्म और जाति के कल्याण की कामना से ओत-प्रोत नारी है। वह अबला नारी के रूप में नहीं, अपितु पति की मंगलमयी शक्ति के रूप में उभर कर आती है।

निष्कर्ष लेखक वृन्दावनलाल वर्मा ने अपनी ऐतिहासिक उपन्यासों में बुन्देलखंड के विस्मृत ऐतिहासिक प्रसंगों को सजीव कर दिया है। वे अतीत की विगतता को सुरक्षित रखते हुए, विगत की वर्तमानता को उभार पाने में सिद्धहस्त हैं। ‘कचनार’ और ‘मृगनयनी’ उपन्यासों में उन्होंने विविध प्रकार के नारी-पात्रों की सृष्टि की है, जिनके माध्यम से पूरा युग ही सजीव हो उठा है। वर्मा जी ने नारी पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं व दुर्बलताओं का चित्रण अत्यन्त व्यापकता और गहराई से किया है। वस्तुतः ऐतिहासिकता को सुरक्षित रखते हुए वर्मा जी ने वर्तमान समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करने की चेष्टा की हे। डॉ0 श्रीमती ओम शुक्ल के शब्दों में कह सकते हैं - ”उन्होंने इतिहास को कल्पना के साँचे में ढालकर अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है।“[11]
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ0 श्रीमती ओम शुक्ल, हिन्दी उपन्यास की शिल्पविधि का विकास, पृ0 53 2. वृन्दावनलाल वर्मा, कचनार, पृ0 28 3. वृन्दावनलाल वर्मा, कचनार, पृ0 28 4. सियारामशरण प्रसाद, वृन्दावनलाल वर्मा: साहित्य और समीक्षा, पृ0 148 5. वृन्दावनलाल वर्मा, कचनार, पृ0 272 6. वृन्दावनलाल वर्मा, मृगनयनी, पृ0 257 7. वृन्दावनलाल वर्मा, मृगनयनी, पृ0 231-232 8. वृन्दावनलाल वर्मा, मृगनयनी, पृ0 169 9. वृन्दावनलाल वर्मा, मृगनयनी, पृ0 320 10. वृन्दावनलाल वर्मा, मृगनयनी, पृ0 285 11. डॉ0 श्रीमती ओम शुक्ल, हिन्दी उपन्यास की शिल्पविधि का विकास, पृ0 157