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अणहिलपुर पाटण का संस्कृत साहित्य में प्रदान | |||||||
Sanskrit Literature of Anhilpur Patan | |||||||
Paper Id :
17332 Submission Date :
01/03/2023 Acceptance Date :
06/03/2023 Publication Date :
07/03/2023
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सारांश | अणहिलपुर पाटण में बहु विध कवि हो चुके है, जिनका परिचय अल्प शब्दों में नहीं दिया जा सकता । ११वीं शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी तक प्राय: २००वर्ष पर्यन्त अणहिलपुरपाटण का प्रभुत्व अपने चरमोत्कर्ष पर रहा। पाटण के श्रेष्ठजनो का प्रदान संस्कृत साहित्य में जो रहा है । जिसे ‘स्वर्णयुग’ भी कहा जाता है। | ||||||
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | There have been many poets in Anhilpur Patan, whose introduction cannot be given in a few words. From the 11th century to the 13th century, almost 200 years, the dominance of Anhilpur Patan remained at its peak. The award of the best people of Patan has been in Sanskrit literature. Which is also called 'Golden Age'. | ||||||
मुख्य शब्द | अणहिलपुर पाटण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Anhilpur Patan. | ||||||
प्रस्तावना |
संस्कृत साहित्य के विशाल भण्डार को इतना गौरवमय एवं समृद्ध बनाने में काश्मीर के बाद गुजरात का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गुजरात में भी प्रसिद्ध राज्य अणहिलपुर पाटणविद्वानों का प्रमुख आश्रय स्थान और भारतीय वाङ्मय की सेवा एवं समृद्धि में सबसे अग्रण्य राज्य रहा है। प्राचीनकाल के अणहिलपुरपाटण की स्थापना विक्रम संवत ८०२ के महावद-७, शनिवार, (ई.७४६) को हुई थी। वर्तमान का पाटण प्राचीन में एक राज्य हुआ करता था और उसका विस्तार वर्तमान का उत्तर गुजरात है, जिसमें उत्तर गुजरात के कई जिले शामिल है। |
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अध्ययन का उद्देश्य | अन्य संस्कृतसाहित्यकी समज सामान्यजन तक कराना। | ||||||
साहित्यावलोकन |
प्रस्तुत शोधपत्र के लिए प्रबन्ध चिन्तामणि, प्रभावकचरित, आचार्य हेमचन्द्र का अध्ययन किया गया है। |
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मुख्य पाठ | पाटण के
प्रथम राजा वनराज चावडा थे। वनराज चावडा से लेकर सामंत सिंह तक का काल ८०२-९९८ई. तक
है। उसके बाद सोलंकी वंश का उदय हुआ, जिसे ‘स्वर्णयुग’ भी कहा जाता है। मूल राजसोलंकी से लेकर
त्रिभुवन पाल तक का काल ९९८- १३०० (३०२वर्ष) तक रहा। उसी समय में वस्तुपाल और तेजपाल
दो महामंत्री भी हुए। उसके राजा प्राय: शैव सम्प्रदाय के अनुपायी थे,
किन्तु वहाँ साहित्य समृद्धि
के क्षेत्र में जैनों का विशेष महत्वपूर्ण भाग रहा है। ११वीं शताब्दी से लेकर
१३वीं शताब्दी तक प्राय: २०० वर्ष पर्यन्त अणहिलपुरपाटण का प्रभुत्व अपने चरमोत्कर्ष
पर रहा। इस बीच में उन राजा के समय 'अण़हिलपुरपाटण' विद्वानों का अत्यन्त प्रिय केन्द्र बन
गया। शेवाचार्य ज्ञानदेव, सोमेश्वर पुरोहित, सुराचार्य, श्रीधर, श्रीपति, हेमचन्द्राचार्य आदि धर्म के प्रसिद्ध विद्वानों ने पाटण को साहित्य से समृद्ध
किया। ११वीं शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी तक प्राय: २०० वर्ष पर्यन्त अणहिलपुरपाटण
का प्रभुत्व अपने चरमोत्कर्ष पर रहा। अणहिलपुर
पाटण में बहुविध कवि हो चुके है, जिनका परिचय अल्प शब्दों में नहीं दिया जा सकता,
किन्तु उनका का परिचय १.
प्रभाचन्द्रसूरी कृत ‘प्रभावकचरित्र’, २. मेरुतुंङ्गाचार्य कृत 'प्रबंध चिंतामणि’३. राजशेखरसूरी कृत 'प्रबंधकोष’ और ४. जिनप्रभसूरि कृत ‘विविधतीर्थकल्प’
इन चार ग्रंथों में दिया गया
है, जिसके
अध्ययन से हमें प्राचीन विद्वानों के विषय में परिचय मिलता है। ये चारों ग्रंथ ‘संचालक-सिंघी जैन ग्रन्थमाला’ अहमदाबाद-कलकत्ता से प्रकाशित हो चुके
है। इन
ग्रंथों में ‘प्रबंधचिंतामणि' मुख्य है। प्रभाचन्द्रसूरी कृत ‘प्रभावकचरित्र’ग्रंथ में वज्रस्वामिचरितम्से लेकर हेमचन्द्र
सूरिचरितम् तक २२ विद्वानों के विषय में लिखा गया है। प्राचीन
अणहिलपुर पाटन के प्रसिद्ध एवं प्रमुख कवि एवं विद्वान राजा
भीमदेव के सन्धिविग्रहिक दामोदर पंडित उस समय अपनी विद्वता के लिए अत्यन्त
प्रसिद्ध थे। उनके प्रभाव से ही उस समय 'अणहिलपुरपाटण'
विद्वानो के ज्ञान का केन्द्र
बन गया था। वैसे तो अणहिलपुरपाटण का राज्य शैव राज्य था। उसके राजा 'सान्धि विग्राहिय'
दामोदर पण्डित दोनों शैव सम्प्रदाय
के अनुयायी थे, किन्तु उनके यहाँ सभी धार्मिक विद्वानो का समान रूप से स्वागत होता था एक ओर
शैवाचार्य ज्ञानदेव विद्वान उनकी सभा को सुशोभित करते थे। शैवाचार्य ज्ञानदेव पाटण नरेश
दुर्लभराज, पुरोहित सोमेश्वर, तत्रस्थ याज्ञिकों एवं शैवाचार्य ज्ञानदेव को अपने वर्चस्व से विशेष प्रभावित
कर पाटण में सुविहितमार्गी मुनियों के लिए आवागमन की सुलभता प्राप्त करने का श्रेय
इन युगल बंधु मुनियों को है। सुराचार्य सुराचार्य
गुजरात में सोलंकी काल के बहुमुखी आचार्य (एक चिकित्सक समूह के प्रमुख) ओर उनकी
काव्य शक्ति अतुलनीय थी। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों में ‘नेमिचरित’ नामक महाकाव्य की रचना की। श्रीधर और श्रीपति ब्राह्मण
पुत्र श्रीधर और श्रीपति युगल बंधु वेद विद्या के प्रकांड विद्वान् थे। वें१४
विद्याओं के ज्ञाता थे। स्मृति, इतिहास, पुराण का उन्हें गंभीर अध्ययन था। हेमचंद्राचार्य आचार्य
हेमचन्द्र का जन्म गुजरात में अहमदाबाद से ६० मील दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित ‘धन्धुका’ नगर में वि. सं. ११४५ में कार्तिकी
पूर्णिमा की रात्रि को हुआ था। गुजरात के प्रसिद्ध राजा सिद्धराज जयसिंह के
सभा-पंडित तथा कुमारपाल के समकालीन होने पर भी आचार्य हेमचन्द्र का कुमारपाल के
साथ गुरु-शिष्य जैसा सम्बन्ध था। इसी महापुरुष के प्रभाव में कुमारपाल के राज्य
में जैन सम्प्रदाय ने सर्वाधिक उन्नति की। इन्होने
बहुत बड़े ओर बहुत महत्वपूर्ण साहित्य की रचना की है। व्याकरण,
न्याय,
साहित्य,
छन्दशास्त्र आदि सभी विषयों पर
उनके प्रौढ़ एवं अत्यंत उच्च कोटि के ग्रन्थ पाए जाते हैं: १.सिद्ध-हेमशब्दानुशासन,
२.काव्यानुशासन,
३.छन्दोऽनुशासन,
४.वादानुशासन,
५.धातुपारायण,
६.द्वयाश्रय महाकाव्य,
७.देशीनाममालाभिधान चिन्तामणि,
८.अनेकार्थ संग्रहनिनिघण्टु
९.सप्त सन्धान महाकाव्य, १०.विपट्टिका पुरुषचरित, ११.परिशिष्ट पर्वन, १२.योगशास्त्र,
१२.स्तोत्र,
१४.द्वात्रिंशिका द्वयोति
१५.प्रमाणमीमांसा १६.पुराणआधारित- त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित,
१७.काव्यानुशासन आदि उनके लिखे
हुए ग्रन्थों की सूचि बहुत लम्बी है। रामचन्द्र और गुणचन्द्र रामचन्द्र
ने अपना परिचय आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य के रूप में दिया है। राजा जयसिंह
सिद्धराज के समय में ही आचार्य हेमचन्द्र ने उन्हें अपना पट्टशिष्य घोषित कर दिया
था। उन्होंने अपना परिचय ग्रंथों की प्रस्तावना में दिया गया है। उनकी ३९ कृतिया
उपलब्ध हुई है। उनमें से ६ ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार है- १. नाट्यदर्पण,
२. नलविलास नाटक,
३. कौमुदीमित्रान्द,
४. निर्भयभीमव्यायोग,
५. सत्य श्रीहरिश्चन्द्र नाटक और
६. कुमारविहारशतक।‘नाट्यदर्पण’ के रचयितारामचन्द्र और गुणचन्द्र है। गुणचन्द्र रामचन्द्र का सहपाठी हैएवं
रामचन्द्र के साथ मिलकर ‘नाट्यदर्पण’ और उसकी ‘स्वोपज्ञवृत्ति’ की रचना की है। रामचन्द्र
के अतिरिक्त १.महेन्द्रसूरि, २.गुणचन्द्रसूरि, ३.वर्धमान, ४.देवचन्द्रमुनि,
५.यशश्चन्द्र ६.उदयचन्द्र तथा
७.बालचन्द्र ये सात उनके सहपाठी तथा आचार्य हेमचन्द्र के विशेष कृपापात्र शिष्य
थे। १.
महेन्द्रसूरि-आचार्य हेमचन्द्र के ‘अनेकार्थं संग्रह’
नामकग्रंथके ऊपर ‘हेमानेकार्थं संग्रहटीका’
लिखीहै। २.
गुणचन्द्रसूरि– ‘नाट्यदर्पण’ (स्वोपज्ञवृत्ति सहित) ग्रन्थ और दूसरा इसी प्रकार का 'द्रव्यालङ्कारवृत्ति'
ग्रन्थ की रचना रामचन्द्र के
साथ मिलकर की है। ३. वर्धमानगणि-
वर्धमान ने 'कुमार विहार-प्रशस्ति' नामक ग्रन्थ की व्याख्या की है। ४.
देवचन्द्रमुनि - ‘चन्द्रलेख विजय’ नामक ‘प्रकरण’ (रूपक भेद) की रचना की है। ५.
यशश्चन्द्रगणि - दूसरा नाम मेरुतुङ्ग सूरि था,उनके द्वारा विरचित ‘प्रबन्ध-चिन्तामरिण’
में आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य
रूप में पाया जाता है।उनका कोई ग्रंथ नहीं है। ६.
उदयचन्द्र तथा ७. बालचन्द्र का नाम भी आचार्य हेमचंद्र के शिष्य के रूप में मिलता
है।किंतु उनकी भी कोई रचना ज्ञात नहीं है। ग्रन्थिलाचार्य जयमंगलसुरी जय मंगलसूरी
वादी देवसूरी के शिष्यरामचन्द्र के शिष्य थे। उन्होंने संस्कृत कवि शिक्षा और
अपभ्रंश में 'महावीरजन्माभिषेक' काव्य की रचना की। कवि श्री सोमेश्वर पुरोहितएवंठकुर अरिसिंह गुर्जर
महामात्य वस्तु पालकी कीर्ति को काव्यबद्ध करने का जिन कवियों ने प्रयत्न किया है,
उनमें राजपुरोहित कवि सोमेश्वर
और ठाकुर अरिसिंह मुख्य है। कवि सोमेश्वरने कीर्तिकौमुदी नामक काव्य रचकर और
अरिसिंहने सुकृतसंकीर्तन काव्य बनाकर वस्तुपालकी यशः कीर्ति को युगान्त तक स्थिर
रखने का सत्प्रयत्न किया है। मेरुतुङ्गाचार्य मेरुतुङ्गाचार्यरचित
‘प्रबन्धचिन्तामणि’
नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक
प्रबन्ध संग्रहात्मक संस्कृत ग्रन्थ है। इनकी एक ओर कृति उपलब्ध होती है जिसका नाम
‘महापुरूपचरित’
है। गुजरात के प्राचीन इतिहास की
विशिष्ट श्रुति और स्मृतिके आधारभूत जितने भी प्रबन्धात्मक और चरित्रात्मक
ग्रन्थ-निबन्ध इत्यादि प्राकृत, संस्कृत या प्राचीन देशी भाषा में रचे हुए उपलब्ध होते हैं,
उन सबमें इस प्रबन्ध चिन्तामणि
का स्थान सबसे विशिष्ट और अधिक महत्व का है श्रीपाल |
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निष्कर्ष | अणहिलपुर पाटण में इन कवियों के अलावा ओर भी कई कवि हो चुके है। जिनमें हरिभद्रसूरी, बालचन्द्रसूरी, दीर्धाचार्य, गोविंदाचार्य, निचन्द्र, देवचन्द्रसूरी, शिलाकणचन्द्रसूरी, अभयदेवसुरि, सिद्धपाल, विजयपाल आदि कवि शामिल है। जिन्होंने संस्कृत साहित्य में विशेष योगदान दिया है। | ||||||
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | १. आचार्य हेमचन्द्र, लेखक डॉ. वि. भा. मुसलगांवकर, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी-भोपाल, प्र. सं. १९७१
२. कीर्ति कौमुदी-सोमेश्वर देव एवं सुकृत संकीर्तन-अरिसिंह ठकुर, सं. श्रीपुण्यविजयसूरि, अधिष्ठाता- सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्या भवन-बम्बई,१९६१
३. नाट्यदर्पण, रामचन्द्र-गुणचन्द्र, व्या. आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्त शिरोमणि, सं. डॉ. नगेन्द्र, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय-दिल्ली
४. प्रबन्ध चिन्तामणि, श्रीमेरूतुङ्गाचार्य, अनु. पं. हजारीप्रसादजी द्विवेदी, सं. जिन विजय मुनि, सिंघीजैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद-कलकत्ता,१९४०
५. प्रभावक चरित, प्रभाचन्द्राचार्य, सं.जिन विजयमुनि, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद-कलकत्ता, १९४०
६. યુગે યુગે પાટણનીપ્રભુતા,લેખક-સંપાદકપ્રા. મુકુન્દભાઈ પ્રહલાદજી બ્રહ્મક્ષત્રિય, પ્ર. આ. ૨૦૦૮ |