ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- IV May  - 2023
Innovation The Research Concept
ग्रामीण महिलाएं एवं जनसम्प्रेषण साधन: सामाजिक चेतना का उभरता परिदृश्य
Rural Women and Mass Media: Emerging Scenario of Social Consciousness
Paper Id :  17607   Submission Date :  15/05/2023   Acceptance Date :  21/05/2023   Publication Date :  25/05/2023
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मनोज कुमार तोमर
प्रोफेसर
समाजशास्त्र विभाग
राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय
सवाईमाधोपुर,राजस्थान, भारत
सारांश भारतीय ग्रामीण महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक प्ररिथति नगरीय महिलाओं की तुलना में अत्यधिक दयनीय है। राष्ट्रीय विकास के विभिनन सूचकों में महिलायें कुल जनसंख्या की लगभग आधी है लेकिन उनकी प्रस्थिति और विकास की दशाएं पुरूषों की तुलना में अत्यधिक निचले स्तर पर है। महिलाएं मॉं, बहन और पत्नी की भूमिका का निर्वाह करती है। परिवार में बच्चों के जन्म और सामाजीकरण में महिलाएं प्रमुख योगदान देती हैं। परिवार के अन्य विभिन्न कार्यो का सम्पादन और आवश्यक कार्यो में सक्रिय सहयोग के लिए आधार स्तम्भ का कार्य करती है। मानव सभ्यता के विकास और मानव प्रजाति के निरन्तरता के लिए इस परम्परा को बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक है।[1] विश्व के सभी समुदायों में महिलाएं केवल बच्चों को जन्म देने कार्य ही नही करती, अपितु अपने परिवार के प्रतिदिन के जीवन को बनाये रखने के लिए आवश्यक कर्तव्य और उत्तरदायित्व का भी निर्वाह करती है। गृहस्थी के उत्तरदायित्व के निर्वाह के साथ-साथ महिलाओं द्वारा बच्चों को देखभाल करना, परिवार की व्यवस्था और अन्य आर्थिक क्रियाकलापों में भी सहभागिता की जाती है। यह स्थिति ग्रामीण महिलाओं के संदर्भ में अधिक महत्वपूर्ण है, जहाँ वे घरेलू कार्यो के साथ-साथ पुरूषों के साथ कृषि कार्यो में भी भाग लेती है। एक समकक्षी सहयोगी की भांति ग्रामीण महिलाएं, कृषि, पशुपालन और अन्य उत्पादक क्रियाओं में महत्वपूर्ण योगदान करती है। कुछ क्षेत्रों में महिलाएं पुरूषों के अधिक उम्र श्रम करती है, लेकिन उनकी भूमिका और प्रस्थिति को समुचित महत्व नहीं दिया जाता। भारतीय ग्रामीण समाज में महिलाओं की दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति का कारण यह है कि अपनी भूमिका के प्रति जागरूक नहीं है। उसमें बचपन से ही यह सामान्य विश्वास निवेशित कर दिया जाता है कि पुरूष और स्त्री दोनों का जन्म एक निश्चित भूमिकाओं के सम्पादन के लिए हुआ है और पुरूष उससे बड़ा है। चक्रवर्ती (1975)[2] का कथन है कि भारतीय महिलाओं में अपने विकास और अपनी स्थिति के प्रति प्राकृतिक रूप से उन्मुख होने का अभाव निहित है। ग्रामीण समाज में प्रचलित बुराईयों ने भी ग्रामीण महिलाओं के विकास में अवरोध उत्पन्न करने का कार्य किया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The socio-economic condition of Indian rural women is very pathetic as compared to urban women. In various indicators of national development, women constitute almost half of the total population, but their status and conditions of development are at a much lower level than men. Women perform the role of mother, sister and wife. Women play a major role in the birth and socialization of children in the family. She works as a pillar for the execution of various other tasks of the family and for active cooperation in the necessary works. It is very necessary to maintain this tradition for the development of human civilization and continuity of human species.[1]
In all societies of the world, women not only perform the work of giving birth to children, but also perform the duties and responsibilities necessary to maintain the daily life of their families. Along with carrying out the responsibility of the household, women also participate in taking care of the children, arranging the family and other economic activities. This situation is more important in the context of rural women, where they participate in domestic work as well as agricultural work along with men. As a peer partner, rural women contribute significantly in agriculture, animal husbandry and other productive activities. In some areas, women work longer than men, but their role and status are not given due importance. The reason for the pathetic socio-economic condition of women in Indian rural society is that they are not aware of their role. The general belief that both men and women are born to perform certain roles and that the man is superior to her is inculcated from childhood. Chakraborty (1975)[2] states that Indian women lack a natural orientation towards their development and their status. The prevailing evils in the rural society have also created obstacles in the development of rural women.
मुख्य शब्द महिलाऐं, ग्रामीण, जनसम्प्रेषण, सामाजिक चेतना।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Women, Rural, Mass Communication, Social Consciousness
प्रस्तावना
भारतीय समाज व्यवस्था के परम्परागत ढांचे के रूपान्तरण की प्रक्रिया औद्योगीकरण, नगरीकरण, यातायात मुक्त बाजार व्यवस्था और सूचना सम्प्रेषण आदि संसाधनों में विकास का प्रतिफल है। सामाजिक मूल्य, परम्पराएं धार्मिक प्रतिबद्धता रीति-रिवाज और अन्य विशिष्ट सांस्कृतिक मूल्यों में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में गति लाने में सबसे अधिकउत्तरदायी अभिकरण संचार सम्प्रेषण की आधुनिक तकनीकी है।
अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान भारतीय समाज में जनसम्प्रेषण क्रांति का प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर पड़ा है। प्रस्तुत अध्ययन में यह जानने का प्रयास किया गया है कि इन जनसम्प्रेषण साधनों का ग्रामीण महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा है एवं किस प्रकार से इनकी सामाजिक चेतना (social consciousness) को प्रभावित किया है।
साहित्यावलोकन

प्रस्तुत अध्ययन विषय पर समय-समय पर समाज वैज्ञानिकों एवं विद्वानों द्वारा इसके विभिन्न पक्षों पर अध्ययन किये है और ग्रामीण महिलाओं पर जन-संप्रेषण के प्रभाव के संदर्भ में लेखों के माध्यम से अपने विचार प्रस्तुत किये हैं इनमें से कुछ प्रमुख अध्ययनों एवं लेखों का विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जो इस प्रकार से हैः

नीलम और कुमार (1987)[5] ने भारत के चार प्रमुख समाचार पत्रों (दो हिन्दी और दो अंग्रेजी) में महिलाओं के संबंध में प्रकाशित होने वाले समाचारों का विवेचन किया है। सन् 1987 में तीन माह के समाचारों पर आधारित विषय वर्गीकरण प्रविधि के माध्यम से विश्लेषित इस अध्ययन से यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि महिलाओं के सम्बन्ध में समाचारों में प्रतिदिन की प्रघटनाओं में, मूल रूप में, समाचार परक कहानियों में उन्हें स्थान मिलता है, जबकि सम्पादकीय एवं परिचर्चा में बहुत सीमित या कभी-कभी महिलाओं के बारे में लिखा जाता है। निष्कर्षतः यह मत प्रस्थापित किया गया है कि समाचार-पत्र द्वारा सामाजिक परिवर्तन के अभिकरण की अपनी क्षमता का उपयोग नहीं किया जा रहा है। महिलाओं के सामाजिक मुद्दों पर और विकास में उनकी भूमिका के संदर्भ में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। यह सुझाव दिया गया कि महिला संचार सम्प्रेषकों और संकलनकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जाए।

एलेप्रिया आरटेगा (1988)[6] ने सोयआपेरा और व्यावसायिक समाचारों में महिलाओं को प्रस्तुति के सम्बन्ध में सन् 1988 ई. के प्राइम टाइम टी.वी. कार्यक्रमों के एक सप्ताह के विषय पर विवेचन करते हुए यह स्पष्ट किया है कि इन कार्यक्रमों में महिलाओं की जो तस्वीर दिखलायी जाती है वह उपनिवेशावादी और पितृत सत्तात्मक वैचारिकी को प्रकट करती है। उपनिवेशवाद की मौलिक विशेषताएं निर्भरता, प्राधिकारवादिता, प्रजातिवाद और लिंगवाद हैं। पितृ सत्तात्मक व्यवस्था की विशेषताओं में श्रम का लैंगिक विभाजन पुरूष प्रधान सत्ता और महिलाओं की निम्न प्रस्थिति प्रमुख हैं। इसमें महिलाओं को पुरूषों की सम्पत्ति के रूप में समझा जाता है।

मित्रा (1994)[7] ने भारतीय संस्कृति और राष्ट्र के विषय में एक विशेष वैचारिकी के सृजन में प्रमुख धार्मिक ऐतिहासिक महाकाव्य महाभारत के प्रसारण के प्रभावों का मूल्यांकन किया हैं। अध्ययन से प्राप्त  निष्कर्षो से यह स्पष्ट होता है कि दूरदर्शन भारतीय महाकाव्य का केन्द्र बन गया है और आदर्श हिन्दू महिलाएं इनमें कार्य करने वाले कलाकारों की पूजा करने लगी हैं। हिन्दू रूढ़िवादी और पारम्परिक कथानकों पर लोगों की विश्वसनीयता को अधिक सम्पुष्ट करने में दूरदर्शन की भूमिका उल्लेखनीय है। इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि परम्पराओं एवं प्रथाओं के साथ-साथ व्यवहार प्रतिमानों के प्राचीन कथानक जब दूरदर्शन के माध्यम से लोगों में प्रसारित किये जाते है, तो वे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को पुनर्जीवित कर देते है और उनमें अभिनय करने वाले कलाकार उन आदर्श नायकों के प्रतिरूप के रूप में महिलाओं द्वारा स्वीकृत कर लिये जाते है।

वानस्नीपेनबर्ग (1998)[8] ने जनसम्प्रेषण के विभिन्न माध्यमों के प्रभाव के सम्बन्ध में शिक्षा, आयु, लिंग, आय और राजनीतिक सूचना के प्रति सामान्य लगाव के प्रभाव का विवेचन करते हुए यह स्पष्ट किया है कि उच्च शिक्षित और अधिक सम्पन्न लोग निर्धन एवं कम शिक्षित लोगों की अपेक्षा राजनीति के प्रति अधिक ध्यान देते है। अध्ययन से प्राप्त निष्कर्ष यह स्पष्ट करते है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरूष राजनीति कार्यक्रमों को देखने की प्रवृत्ति की बढ़ती जाती है।

ग्लास्त्रा (1998)[9] ने अन्तः सांस्कृतिक सूचनाओं के प्रसारण और महत्व का विवेचन करते हुए स्पष्ट किया है सम्प्रेषण उपागम के अन्तर्गत कोई सूचना किसी स्रोत से उत्पन्न होती है। वह एक माध्यम से भेजी जाती है तथा किसी के द्वारा उसे प्राप्त किया जाता है। इसमें स्त्रोत रूप से नियंत्रण में होता है। अन्तः सांस्कृतिक सम्प्रेषण और प्रौढ़ शिक्षा आदि के संदर्भ में चलाये जाने वाले कार्यक्रम जनसंप्रेषण के माध्यम से अधिक सरलतापूर्वक ग्रामीण क्षेत्र में सम्प्रेषित किये जा सकते है। वस्तुतः जनसंप्रेषण के विभिन्न माध्यम संस्कृतियों के किसी भी स्वरूप को सम्प्रेषित करने में अधिक सकारात्मक एवं सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर सकता है।

हाब्स आदि (2000)[10] ने अफ्रीका के जनजातीय ग्रामीणों द्वारा पहली बार दूरदर्शन देखने और उससे साक्षरता में वृद्धि की स्थिति का मूल्यांकन किया है। इस अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट किया गया है कि दूरदर्शन में ऐसे कार्यक्रमों के प्रति अधिक आकर्षण पाया गया है।

डेविस (2001)[11] ने महिलाओं के सम्बन्ध में जनसम्प्रेषण के विभिन्न माध्यमों द्वारा प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों का मूल्यांकन करते हुए कहा है कि सन 1990 से सन 2000 के मध्य कुछ विशिष्ट जन-सांख्यिकीय मूल्यों के प्रति विभिन्न जनसम्प्रेषण माध्यमों द्वारा प्रसारित किये जाने वाले कार्यक्रमों में झुकाव परिलक्षित होता है।

नास और रीब्स (2003)[12] का कथन है कि किसी भी संचार सम्प्रेषण तकनीकी के लिए सामाजिक प्रतिक्रिया आधारभूत महत्व रखती है। यदि लोगों में सम्प्रेषित कार्यक्रमों के प्रति लगाव उत्पन्न नहीं होगा तो जल्द ही ऐसे कार्यक्रम किसी भी सम्प्रेषण माध्यम से अपने प्रसारण का महत्व खो देते है। इसलिए यह आवश्यक है कि जनसम्प्रेषण द्वारा केवल उन्हीं कार्यक्रमों को प्रसारित किया जाए जो लोगों में अपनी अभिरूचि बनाये रखने में सक्षम है।

विश्लेषण

विश्व के सभी समुदायों में महिलाएं केवल बच्चों को जन्म देने का कार्य ही नही करती, अपितु अपने परिवार के प्रतिदिन के जीवन को बनाये रखने के लिए आवश्यक कर्तव्य और उत्तरदायित्व का भी निर्वाह करती है। गृहस्थी के उत्तरदायित्व के निर्वाह के साथ-साथ महिलाओं द्वारा बच्चों को देखभाल करना, परिवार की व्यवस्था और अन्य आर्थिक क्रियाकलापों में भी सहभागिता की जाती है। यह स्थिति ग्रामीण महिलाओं के संदर्भ में अधिक महत्वपूर्ण है, जहाँ वे घरेलू कार्यो के साथ-साथ पुरूषों के साथ कृषि कार्यो में भी भाग लेती है। एक समकक्षी सहयोगी की भांति ग्रामीण महिलाएं, कृषि, पशुपालन और अन्य उत्पादक क्रियाओं में महत्वपूर्ण योगदान करती है। कुछ क्षेत्रों में महिलाएं पुरूषों के अधिक उम्र श्रम करती है, लेकिन उनकी भूमिका और प्रस्थिति को समुचित महत्व नहीं दिया जाता। भारतीय ग्रामीण समाज में महिलाओं की दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति का कारण यह है कि अपनी भूमिका के प्रति जागरूक नहीं है। उसमें बचपन से ही यह सामान्य विश्वास निवेशित कर दिया जाता है कि पुरूष और स्त्री दोनों का जन्म एक निश्चित भूमिकाओं  के सम्पादन के लिए हुआ है और पुरूष उससे बड़ा है। चक्रवर्ती (1975)[13] का कथन है कि भारतीय महिलाओं में अपने विकास  और अपनी स्थिति के प्रति प्राकृतिक रूप से उन्मुख होने का अभाव निहित है। ग्रामीण समाज में प्रचलित बुराईयों ने भी ग्रामीण महिलाओं के विकास में अवरोध उत्पन्न करने का कार्य किया है। ग्रामीण महिलाओं में जातियता और छुआछूत की भावना पुरूषों की अपेक्षा अधिक है। झूठी प्रस्थिति और समाज के रूढ़िपरक मूल्यों से जीवित रहने वाली इन महिलाओं ने न तो संवैधानिक प्रावधानों से लाभ प्राप्त करने में सफल हुई है। पितृ सत्तात्मक मूल्यों पर आधारित भारतीय समाज में आर्थिक सत्ता और शक्ति पुरूषों के हाथ में केन्द्रित है। वर्धन (1985)[14] का कथन है कि पितृ परम्परा और पैतृक स्थान से जुड़े परिवारों में परिवार को आर्थिक व्यवस्था का नियंत्रण पुरूषों के हाथ में है। ऐसी स्थिति में महिलाओं की परम्परागत जीवन शैली में परिवर्तन तथा उसके विकास की दशाओं को पुरूषों के समकक्ष गति प्रदान करना अत्यन्त दुरूह है। इस प्ररिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय योजना आयोग द्वारा विकासपरक नीतियों को लागू किये जाने दिशा में निरन्तर प्रयास किया जा रहा है।

किसी भी देश के सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक विकास में एक निश्चित सम्बन्ध पाया जाता हैं। सामाजिक परिवर्तन में संचार माध्यमों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसलिए ऐसे प्रत्येक राष्ट्र को अपने विकास के लिए संचार सुविधाओं का उपयोग करना पड़ता है। दूरसंचार व्यवस्था में यह आशा की जाती है कि इसके कार्यक्रम जिन सामाजिक मूल्यों को जन्म देंगे, वे अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भ में राष्ट्रों के आपसी अन्तर्विरोध को कम करेंगे तथा एक-दूसरे को समझने में सहायता देंगे।

भारत एक विकासशील राष्ट्र है इसलिए सूचना सम्प्रेषण की सुविधाओं की उपयोगिता भी स्वयं सिद्ध है। आधुनिक भारत में सरकार द्वारा लोगों को शिक्षित करने की दिशा में आधुनिक संचार माध्यमों के व्यवस्थापकों द्वारा कई कदम उठाये गये हैं। ग्रामीण परिवेश और उसके प्रसार क्षेत्रों की तुलना में नगरीकरण औद्योगीकरण और यंत्रिकीकरण सीमित क्षेत्रों में ही है। यदि भारत को विश्व के अन्य राष्ट्रों के साथ आर्थिक विकास और सर्वांगीण प्रगति के परिप्रेक्ष्य में अपनी प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति बनाये रखना है, तो इसे राष्ट्र निर्माण के कार्यक्रमों को ग्राम्य स्तर से शुरू करना होगा। ग्रामीण क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों के पिछड़ेपन का मूल कारण उनकी निर्धनता, अज्ञानता, निरक्षरता और अवसररहित जीवन परिवेश है। व्यक्तित्व विकास के उद्देश्य से योजनाकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्र के लोगों में उच्च उन्मुखता निवेशित करने का निरन्तर प्रयास किया जा रहा है, जिससे अन्ततः राष्ट्रीय विकास को भी सुनिश्चित किया जा सके। वृहद् जनसंख्या को औपचारिक शिक्षा माध्यमों से शिक्षित करने के वर्तमान प्रयास सफल नहीं हो पाये है इसलिए इस दिशा में जनसम्प्रेषण माध्यमों के अधिकतम उपयोग की आवश्यकता है।

राष्ट्रीय विकास की संतुलित स्थिति को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं को भी पुरूषों के समान विकास का अवसर प्राप्त हो। लैंगिक आधार पर भेदभाव समाप्त किया जाना चाहिए। लघु परिवार का सृजन, बच्चों की उचित देख-रेख के साथ-साथ उनके श्रम मूल्य का समुचित सम्मान स्वीकृत किया जाना चाहिए और समाज की आर्थिक संरचना में उनकी बराबर सहभागिता को स्वीकार किया जाना चाहिए। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्र में परिवर्तित हो रहे मूल्यों, व्यवहार प्रतिमानों और उनकी सकारात्मक स्थिति के सम्बन्ध में जब तक महिलाएं जागरूक नहीं होगी।[15] तब तक उनके विकास की संभावनाएं भी सीमित रहेगी। इसका परिणाम अन्ततः राष्ट्रीय विकास में अवरोध के रूप में सामने आया।

विकास में सम्प्रेषण माध्यमों, विशेष रूप से दूरदर्शन की भूमिका के संदर्भ में किये गये विभिन्न अध्ययन यह स्पष्ट करते है कि दूरदर्शन आर्थिक रूप से विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में जागरूकता उत्पन्न करने में अधिक सक्रिय भूमिका का निर्वाह कर सकता है। राजनीतिक संदर्भो में जनसम्प्रेषण माध्यमों का उपयोग अधिक गहनतापूर्वक किया जा रहा है और इसकी प्रभावात्मकता भी सिद्ध की जा चुकी है।

आधुनिक विश्व प्रौद्योगिकी परिवर्तन, मुक्त बाजार व्यवस्था और आर्थिक जगत में उत्पादन की नई प्रविधियों के प्रतिफल में दिन-प्रतिदिन विकास की ओर अग्रसर है। विकास के प्रमुख अभिकरणों और उनसे सम्बन्धित रणनीतियों के प्रकार्यात्मक क्षेत्र के सृजन तथा प्रचार-प्रसार में सम्प्रेषण के आधुनिकतम माध्यमों की भूमि का उल्लेखनीय है। आधुनिकतम सूचना सम्प्रेषण की प्रतिनिधियों में दूरदर्शन और कम्प्यूटर तकनीकी विश्व के प्रायः सभी राष्ट्रों में अपना प्रभाव प्रस्थापित कर चुके हैं। जनमानस में नई चेतना एवं विषय-विशेष के प्रति जागरूकता सृजित करने में रेडियों की अपेक्षा दूरदर्शन के कार्यक्रम अधिक प्रभावी सिद्ध हुए है। भारतीय में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाली महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक प्ररिथति विकास के प्राथमिक स्तर पर ही है। अशिक्षा, बेरोजगारी, निर्धनता और शक्तिहीनता इन महिलाओं की नियति बन गई है। दूरदर्शन द्वारा व्यवसाय, राजनीति, शिक्षा और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रसारण करके अशिक्षित लोगों में बदलते सामाजिक-आर्थिक मूल्यों के प्रति नई चेतना के विकास में निरन्तर सक्रिय योगदान दिया जा रहा है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि दूरदर्शन के कार्यक्रम केवल सूचनापरक ही नहीं होते अपितु उनसे लोगों को शिक्षा और मनोरंजन भी प्राप्त होता है। संचार उपग्रहों के स्थापित होने के साथ ही दूरदर्शन के कार्यक्रमों के बहुआयामी प्रसारण को और अधिक सुविधाजनक एवं उद्देश्यपूर्ण बनाया जा सका है।

विकासशील राष्ट्र के रूप में भारत के समक्ष जनसंख्या नियंत्रण निरक्षता एवं निर्धनता उन्मूलन के मौलिक उद्देश्य है। विकसित देशो में इन उद्देश्यों की पूर्ति में सम्प्रेषण माध्यमों से अत्यधिक सहयोग प्राप्त किया जा चुका है। इस अनुभव को दृष्टि में रखते हुए विकासशील देशों ने भी जनसंप्रेषण माध्यमों का उपयोग प्रारम्भ किया है। भारत सरकार द्वारा सामाजिक परिवर्तन को प्रौद्योगिक एवं विकास से सम्बद्ध करने के प्रयास निरन्तर किये जा रहे हैं और इस दिशा में दूरदर्शन जैसे संचार सम्प्रेषण माध्यम की सहायता ली जा रही है। दूरदर्शन के सामाजिक लाभ सामुदायिक एवं सांस्कृतिक सीमाओं से परे एक नवीन संस्कृति के सृजन और सामाजिक समक्ष विकसित करने के रूप में प्राप्त किये जा सकते हैं। भारत में औद्योगीकरण, नगरीकरण और यांत्रिकीकरण के क्षेत्रों में विकास की स्थिति अभी भी संतोषजनक नहीं है। इस संदर्भ में किये गये विभिन्न अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि भारत को विश्व के अन्य देशों के साथ आर्थिक विकास और सम्पूर्ण प्रगति के क्षेत्र में अपनी प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति को बनाये रखना है तो उसे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया से सम्बन्धित कार्यक्रमों को ग्रामीण स्तर से और मूलतः महिलाओं के विकास से आरम्भ करना होगा।

भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाली महिलायें सामान्यतः अशिक्षित वाहन-परिवेश के प्रति अनुभवहीन, निर्धन और निःसहाय है उन्हें शिक्षित करने, आत्मनिर्भर बनाने और स्वविकास के उपयुक्त बनाने की नितान्त आवश्यकता है। वर्तमान औपचारिक शिक्षा व्यवस्था इस दिशा में वांछित उपलब्धि प्राप्त करने में असफल रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यकता के अनुरूप न तो इतनी शिक्षण संस्थाएं ही है और न ही इतनी पूँजी सुलभ है कि प्रत्येक गांव की लड़कियों के लिए अलग विद्यालय प्रशिक्षण संस्थान और विकास के अन्य साधनों की उपलब्धता के लिए आवश्यक प्रस्थापित की जा सकें। ऐसी स्थिति में दूरदर्शन ही एकमात्र ऐसा माध्यम उपलब्ध है जो बहुआयामी भूमिकाओं का निर्वाह कर सकता है। 

विश्व के विभिन्न राष्ट्रों में जनसंप्रेषण माध्यमों के कार्यक्रमों के प्रसारण से प्राप्त किये गये परिणाम इसकी उपादेयता को इंगित करते हैं। भारतीय ग्रामीण समाज में महिलाओं के विकास में जनसम्प्रेषण माध्यमों द्वारा प्रसारित होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों का क्या प्रभाव पड़ा है, इसका मूल्यांकन प्रमुख समस्या है। जनसंप्रेषण माध्यमों के कार्यक्रमों के प्रसारण और उसके प्रभाव के सम्बन्ध में किये गये विभिन्न अनुसंधानों से यह स्पष्ट होता है कि जनसंप्रेषण माध्यमों के कार्यक्रमों का जनमानस पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। राजनीतिक संदर्भ में जनसंप्रेषण माध्यमों द्वारा प्रसारित होने वाले कार्यक्रम लोकमत निर्माण में अत्यधिक सहयोगी रहे है। सांस्कृतिक समक्ष एवं ज्ञान-निर्माण की प्रक्रिया में भी जनसंप्रेषण माध्यमों की भूमिका उल्लेखनीय रही है। इसे दृष्टिगत रखते हुए भारतीय ग्रामीण महिलाओं पर जनसंप्रेषण माध्यमों के प्रभाव का विवेचन करने का प्रयास किया गया है।

निष्कर्ष भारत जैसे विकासशील समाज में ऐतिहासिक सर्वेक्षणों को दृष्टिगत कर देखा जाए तो परिलक्षित होता है कि भारतीय महिला की प्रस्थिति एवं भूमिका में जितना उतार-चढ़ाव एवं परिवर्तन इतिहास के विभिन्न कालक्रमों में हुआ है उतना शायद ही किसी अन्य समाज में दिखाई पड़ता है। इस दृष्टिकोण से वर्तमान सदी के मोड़ पर भारतीय महिलाओं में जनसंचार माध्यमों से उनके चिन्तन, व्यवहार, दृष्टिकोण, जीवनशैली, व्यक्तित्व प्रतिमान तथा सामाजिक अन्तःक्रिया एवं वैयक्तिक परिचय बोध के क्षेत्र में अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित होता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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