ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- IV May  - 2023
Innovation The Research Concept
महिला सहभागिताः अवधारणात्मक विश्लेषण
Participation of Women: Conceptual Analysis
Paper Id :  17632   Submission Date :  14/05/2023   Acceptance Date :  22/05/2023   Publication Date :  25/05/2023
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निर्मला सैनी
शोधार्थी
राजनीति विज्ञान विभाग
राजऋषि भर्तृहरि मत्स्य विश्वविद्यालय
अलवर,राजस्थान, भारत
सारांश भारत में महिलाओं की स्थिति ने पिछली कुछ सदियों में कई बड़े बदलावों का सामना किया है। प्राचीन काल में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल के निम्न स्तरीय जीवन और साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक भारत में महिलाओं का इतिहास प्रगतिशील रहा है। महिलाएं सृष्टि का अभूतपूर्व तोहफा है, महिला के बिना सृष्टि का निर्माण सम्भव नहीं है इसलिए नारी को सशक्त व जागरूक बनाकर ही समाज को सशक्त बनाया जा सकता है। महिलाओं में सशक्तिकरण का तात्पर्य है शिक्षा और स्वतंत्रता को समाहित करते हुए सामाजिक सेवाओं के समान अवसर प्रदान करना, राजनैतिक और आर्थिक नीति निर्धारण में उन्हें भागीदार व राज्य के नीति निर्देशक तत्व, समान कार्य के लिए समान वेतन, कानून के तहत सुरक्षा, स्वालम्बन का अधिकार, आदि मुद्दों को समाहित किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The status of women in India has faced many major changes in the last few centuries. From a position of equal status with men in ancient times to a low standard of living in the medieval period, as well as the promotion of equal rights by several reformers, the history of women in India has been progressive. Women are an unprecedented gift of creation, world of creation is not possible without women, therefore society can be empowered only by making women empowered and aware.
Empowerment of women means providing equal opportunities for social services including education and freedom, participation in political and economic policy making and directive principles of state policy, equal pay for equal work, protection under law, self-reliance. Rights, etc. issues have been included.
मुख्य शब्द सशक्तिकरण, सहभागिता, आर्थिक, सामाजिक, महिलाएं, राजनैतिक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Empowerment, Participation, Economic, Social, Women, Political.
प्रस्तावना
आज विश्व में सभी जगह महिलाओं के समुचित विकास एवं सशक्तिकरण के लिए अनुकूल वातावरण बनता जा रहा है। प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की सहभागिता होने के कारण 21वीं सदी को महिलाओं की सदी कहकर विभूषित किया जाने लगा है। अब महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर अपनी अंतर्निहित क्षमता, आत्मविश्वास और साहस के साथ पुरुष प्रधान समाज में अपने अस्तित्व का एहसास दिलाने का सफल प्रयास कर रही है. इसके साथ ही महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए, आज कुछ प्रयास हर जगह और हर स्तर पर किये जा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वतंत्रता के बाद नारी की स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन आए हैं।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत लेख का उद्देश्य महिलाओं की वर्तमान स्थिति की जानकारी प्राप्त करना तथा महिला सहभागिता के अर्थ को विस्तारपूर्वक समझना है। महिला सहभागिता वर्तमान में एक व्यापक शब्द बन चुका है, जिसमें सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक, प्रशासनिक, शैक्षिक आदि सभी क्षेत्रों को अपने में समाहित कर लिया है। ये सभी क्षेत्र महिलाओं की निर्णय लेने की क्षमता को सकारात्मक रुप से परिभाषित करते हैं। प्रस्तुत लेख में यह भी स्पष्ट किया गया गया है कि महिला सहभागिता को कौनसे कारक प्रभावित करते हैं। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को स्वयं के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बहुत सी समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। किसी भी समाज व काल में महिलाएँ राजनीतिक व प्रशासनिक व्यवस्था की रीढ़ रही हैं। समाज में जितने भी परिवर्तन होते हैं, उनमें हमेशा से ही महिलाओं की अहम् भूमिका रही है।
साहित्यावलोकन

मीरा देसाई, ऊषा ठक्कर: भारतीय समाज में महिलाएँ’ (2009) इस अध्ययन ने यह संकेत दिया है कि बाजार की नई शक्तियों ने महिला मुद्दों के प्रतिमान तय किए हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि कुछ महिलाओं की स्थिति में सुधार का यह मतलब कदापि नहीं है कि प्रत्येक महिला की स्थिति में व्यापक सुधार हुआ हो, अतः महिलाओं की स्थिति में सकारात्मक सुधार के लिए प्रयास करने होंगें।

शान्ति कुमार स्याल: नारीत्व (1998) समाज में नारी एक प्रबन्धक, प्रशिक्षक तथा प्रशासक के रुप में दृष्टिगोचर होती है। नारियों ने अपनी प्रतिभा के आधार पर पुरुषों की प्रत्येक क्षेत्र में बराबरी की है, परिणामस्वरूप देश के ऊंचे पदों को भी महिलाओं ने सुशोभित किया है।

मुख्य पाठ

संविधान की प्रस्तावना में हम भारत के लोग.....की सैद्धांतिक घोषणा के शुरुआती वर्षों के बाद, भारतीय जनतंत्र, राजनीतिक समानता की पृष्ठभूमि में सामाजिक ऊँच-नीच की श्रेणीबद्ध व्यवस्था है और राज्य तथा उभरती जातीय और समुदायिक पहचान के बीच का टकराव है।

बाजार की नई शक्तियाँ, जिनका जोर तकनीक और प्रबंधन पर है, महिला मुद्दों समेत राष्ट्रीय विकास के प्रतिमान तय करने लगी। इस तरह के राजनीतिक प्रशासनिक और वैचारिक परिवर्तन ने समाज के वंचित वर्गों और महिलाओं के लिए मूलभूत प्रश्न खड़े कर दिए हैं। इतिहास हमेशा इस बात पर भी जोर देता है कि सत्ता केंद्रों में कुछ महिलाओं की उपस्थिति से यह जरूरी नहीं है कि सामान्य महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ हो।[1] नारी अध्ययन को केवल नारियों के बाबत अध्ययन या नारी विषयक सूचनाओं तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसे सामाजिक और अकादमिक विकास के महत्वपूर्ण उपकरण के तौर पर लिया जाना चाहिए।[2]

समाज में नारी एक प्रबन्धक, प्रशिक्षक तथा प्रशासक के रूप में दृष्टिगोचर होती है। नारियों ने अपनी प्रतिभा के आधार पर पुरुषों के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में बराबरी की है।[3] भारत सरकार अब लोकसभा तथा राज्यसभा में भी महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने पर विचार कर रही है। वैसे आज सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के अपने स्थाई महिला संगठन हैं जो महिलाओं को संसद और विधानमण्डलों में अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व दिलाने का प्रयत्न करते हैं। परिणामस्वरूप देश में ऊँचे पदों को भारतीय महिलाएँ सुशोभित करती चली आ रही हैं।[4] बीसवीं सदी के प्रथम 45-50 वर्षों को नारी जागरण का युगकहा जा सकता है और स्वतंत्रता के पश्चात जो युग प्रारंभ हुआ, उसे नारी-प्रगतिका। अपनी क्षमताओं के साथ वह अपनी सीमाओं को भी पहचानने लगी है।[5]

महिला का प्रमुख दायित्व मातृत्व माना जाता है, जिसे वह अनन्तकाल से निभाती चली आ रही है और आगे तक निभाती चली जायेगी किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका जीवन केवल यहीं तक ही सीमित है। समाज में महिला को दूसरे दर्जे का मानना या पुरुष से हीन समझना उचित नहीं है। जिन कार्यों को करने की उनमें स्वाभाविक योग्यता है, वे सभी काम करने का अधिकार उन्हें मिलना चाहिए।[6] महिलाओं ने अपनी प्रतिभा व क्षमता से राजनीति में अपनी भूमिका को आवश्यक व महत्वपूर्ण सिद्ध किया है। इस सम्बंध में ए.ओ.ह्यूम ने कहा है कि सभी कार्यकर्ताओं को चाहे वह किसी भी राजनीतिक विचारधारा से संबंधित हो, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि महिलाओं की प्रगति यदि राष्ट्र की प्रगति के साथ-साथ तथा समान स्तर पर नहीं होगी तो राजनीतिक मताधिकार के लिए किया गया सम्पूर्ण प्रयास व्यर्थ सिद्ध होगा।[7]

भारत में सामाजिक पुनर्जागरण और राजनीतिक चेतना का विकास साथ-साथ हुआ है। इस बात में समाज को अज्ञानता, गरीबी, शोषण, दासता और अपनी प्राचीन रूढ़ियों से एक साथ लड़ाई करनी पड़ी। भारतीय नारी, जो सदियों से पुरुष प्रधान समाज की दी हुई व्यवस्थाओं और पतनोन्मुख समाज की स्थितियों में रहने के कारण पिछड़े वर्गों में गिनी जाती थी, प्रायः प्रत्येक सुधार आंदोलन का आधार बनी। इसलिए स्त्री की मुक्ति संघर्ष को सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर अलग-अलग करके नहीं, एक साथ ही देखना होगा।[8] 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारंभ हुए सुधारवादी आंदोलनों ने भारतीय समाज की संरचना को गहराई तक प्रभावित किया। समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त जड़ता के खंडित होने की प्रक्रिया शुरू हुई। दलित, पिछड़े वर्गों के साथ-साथ महिलाएँ भी इस नयी चेतना से सुसज्जित हुई। समाज ने स्त्रियों के आगे बढ़ने पर जो प्रतिबंध लगाये थे, वे एक-एक करके समाप्त होने लगे। जब देश ने पराधीनता के विरुद्ध संघर्ष किया तो इस स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं ने भी सहयोग किया।[9]

अंग्रेजी शासन काल में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आंदोलन चले। साथ ही राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, रानाडे जैसे महापुरुषों ने महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए अनेक प्रयास किए, जिनके परिणामस्वरूप सती प्रथा निषेध अधिनियम 1829, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1850, बालविवाह प्रतिबंध अधिनियम 1929 आदि पारित हुए। इन प्रयासों से भारतीय महिलाओं में जागरूकता आई।[10]

महिला सहभागिता का अर्थः

महिला सहभागिता से तात्पर्य महिलाओं की सभी क्षेत्रों, जैसे राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, मीडिया, खेल, शिक्षा जगत, स्वास्थ्य आदि में भागीदारी से है। प्रायः महिला सहभागिता व महिला सशक्तिकरण को एक-दूसरे का पर्याय माना जाता है। महिला सशक्तिकरण  से ही महिलाओं की प्रत्येक क्षेत्र में सहभागिता बढ़ती है।[11] महिला सशक्तिकरण  से तात्पर्य महिलाओं के सर्वांगीण विकास से है। महिला सशक्तिकरण  महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्तर को उच्च बनाने की प्रक्रिया है। महिलाओं की सहभागिता व सशक्तिकरण  हेतु केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने नई-नई नीतियाँ तथा कार्यक्रम विकसित किया है। इसी के साथ न्यायपालिका भी महिलाओं के अधिकारों को संरक्षण प्रदान कर सशक्त बनाने का प्रयास कर रही है।[12]

वर्तमान समय में लोकतंत्रीय विकेन्द्रीकरण के कारण महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता मात्र मतदान एवं राजनीतिक सक्रियता तक सीमित नहीं है, बल्कि राजनीतिक सत्ता में भागीदारी से भी जुड़ गई है। राजनीतिक सहभागिता महिलाओं में जागरूकता लाने हेतु एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जहाँ से शक्ति प्राप्त कर अन्य क्षेत्रों में उपस्थित महिला सहभागिता के मार्ग में बाधक तत्वों को शीघ्र समाप्त किया जा सकता है।[13] दूसरे शब्दों में महिला सहभागिता का अभिप्राय महिलाओं को पुरुषों के बराबर वैधानिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में उनके परिवार, समुदाय, समाज एवं राष्ट्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में निर्णय लेने की स्वायत्ता है। भारत में महिलाएँ विशेषकर ग्रामीण महिलाएँ बहुत सी समस्याओं से ग्रसित हैं। अतः भारत में महिला सहभागिता का प्राथमिक उद्देश्य महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में दशा सुधारना व भागीदारी से है।[14]

वर्ष2001 महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया। इस दौरान महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के बारे में जागरूक बनाने के प्रयास किए गए, अर्थात सशक्तिकरण का प्रथम उद्देश्य महिलाओं में आत्मविश्वास और स्वाभिमान जाग्रत करना है।[15]

वर्तमान में बिना महिला को सशक्त किए कोई भी समाज अपने आप में सम्पूर्ण नहीं हो सकता, अतः महिला सशक्तिकरण  एक महत्वपूर्ण विचार के रूप में उभर रहा है। सशक्तिकरण  वह माध्यम है जिसके द्वारा महिलाओं के विकास के आयामों के अतिरिक्त महिलाओं के निर्णय लेने की क्षमता में वृद्धि सम्बंधी प्रवृत्ति को विकसित किया गया है। सशक्तिकरण  के माध्यम से अवसरों की उपलब्धता में वृद्धि सुनिश्चित की गई।[16] सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में सहभागिता द्वारा महिलाओं को पुरुषों के समान स्तर व अवसर प्रदान किए। राजनीतिक सहभागिता महिलाओं को राजनीति में सशक्त बनाने के साथ राजनीतिक मुद्दों पर महिलाओं की महत्वपूर्ण निर्णय क्षमता का विकास करती है, जिससे स्वस्थ समाज का निर्माण हो। महिला सहभागिता के उपरांत महिलाओं की साक्षरता में वृद्धि देखी गई। जिसके फलस्वरूप शिक्षा में महिलाओं को विभिन्न क्षेत्र में प्रवेश का मार्ग सुनिश्चित किया।[17]

वैश्विक स्तर पर महिला शक्तिवाद के अवधारणीकरण में मेरी वोल्सटनक्रॉफ्ट को प्रारम्भिक चिन्तकों में गिना जाता है। उसकी कृति विडींकेशन ऑफ दी राइट्स ऑफ वूमेनमें स्त्रियों की कानूनी, राजनीतिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में समानता प्रदान करने के लिए सशक्त समर्थन किया गया था। वोल्सटनक्रॉफ्ट की तरह ही मिल और टेलर का भी मानना था कि कथित स्त्रियोचित गुण सामाजिक परिवेश में रचते-बसते हैं। वोल्सटनक्रॉफ्ट और मिल दोनों इस बात की ओर इशारा करते हैं कि महिलाएँ मानव जाति की सदस्य होने के नाते तार्किक विचार में सक्षम हैं और पुरुषों की तरह समान प्राकृतिक अधिकारों की हकदार हैं।[18]

वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी महिला सहभागिता के क्षेत्र में सार्थक भूमिका का निर्वाह किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयास महिला उत्थान में सहायक सिद्ध हुए हैं, किन्तु भारतीय संदर्भ में महिलाओं द्वारा अधिकारों की प्राप्ति लम्बे संघर्ष की गाथा कही जा सकती है। सशक्तिकरण तक पहुँचने से पूर्व महिलाओं द्वारा वर्षों तक लंबी यात्रा तय की गई। 19वीं शताब्दी में पश्चिम शिक्षा के आगमन तथा देश में हुए धर्म एवं समाज सुधार आंदोलनों के फलस्वरुप महिला अधिकारों की माँग जोर पकड़ने लगी तथा महिला शिक्षा को बढ़ावा मिला। भारत में स्वतंत्रता से पूर्व 1915 से 1927 के बीच अनेक महिला संगठनों की स्थापना हुई।[19] जिनमें महिला सशक्तिकरण  के क्षेत्र में 1917 में गठित वूमेन्स इण्डियन एसोसियशन’,1927 में ऑल इण्डिया वूमेन्स लीगप्रमुख हैं तथा स्वतंत्र भारत में 1992 में भारतीय महिला आयोगके गठन व तदुपरान्त 1993 में 73वाँ व 74वाँ संविधान संशोधन पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं की सहभागिता से संबद्ध आवश्यक प्रयत्न माने जा सकते हैं। इसके उपरान्त सरकार द्वारा महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए कई संवैधानिक व कानूनी कदम उठाए गए।[20]

महिला विकास से संदर्भित वह अवधारणा जो महिला की प्रस्तुत प्रस्थिति को बदलने हेतु सामने आई उसे सशक्तिकरण कहा जा सकता है। महिला सशक्तिकरण के अनेक निहितार्थ दिये गये हैं। सैद्धान्तिक स्तर पर उदारवादी, नव-उदारवादी, मार्क्सवादनव-मार्क्सवादी, मानववादी, महिलावादी का अभिप्राय सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैयक्तिक सभी क्षेत्रों में प्रभावी हस्तक्षेप की क्षमता से लिया जाता है, साथ ही इसके लिए संरचनात्मक स्तर पर संसाधनों तक पहुँच तथा वैयक्तिक स्तर पर चेतना, आत्मविश्वास और आत्मावलंबन की आवश्यकता है।[21]

सशक्तिकरण का तात्पर्य उस प्रक्रिया से लिया जाता है, जिसमें व्यक्ति एक विस्मृत सहभागिता निभाते हैं, उनके स्वयं के विचारों के साथ जो राजनीतिक व सामाजिक परिवर्तन के लिए होते हैं।[22] सशक्तिकरण कुछ वर्षों से व्याप्त सशक्त अवधारणा कही जा सकती है, जिसके माध्यम से महिलाओं को समाज में विभिन्न प्रकार के विचारधाराओं के संप्रेषण में सहायता मिलती है तथा वे स्वयं से सम्बंधित मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर सकती है।[23] सशक्तिकरण  व्यापक अवधारणा है जो कि महिलाओं के उत्थान हेतु अस्तित्व में आई व विकसित हुई है। सशक्तिकरण  में स्वैच्छिक गतिविधियाँ संस्थागत प्रगति और सामाजिक परिवर्तन सम्मिलित है। सामाजिक परिवर्तन प्रगति, विकास व नागरिकों की सहभागिता प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं निर्णय लेने हेतु प्रेरित करती है। सशक्तिकरण में सहभागिता, संस्थागत विकास एवं सामाजिक परिवर्तन तीनों ही तत्व सम्मिलित हैं जो कि सशक्तिकरण  को बहुमुखी एवं सभी और विकसित प्रक्रिया का स्वरूप प्रदान करते हैं।[24]

महिला सशक्तिकरण  सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक रूपान्तरण की वह प्रक्रिया है, जिसमें महिला के नियन्त्रण के साथ ही, लाभ एवं निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता विकसित होती है। इसके अन्तर्गत आर्थिक स्वतंत्रता, ज्ञान, जागरूकता, व्यक्तित्व निर्माण तथा आत्मानुशासन प्रमुख हैं, जो कि महिला की महत्ता पर जोर देते हैं।[25] महिलाओं के प्रति सामाजिक, राजनीतिक दृष्टिकोण में परिवर्तन, महिलाओं में स्वयं की स्थिति में सुधार एवं विकास हेतु चेतना जाग्रत होना, उनका स्वयं के जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण, साक्षरता एवं शिक्षा का स्तर, रूढ़ियों के प्रति दृष्टिकोण एवं सहभागिता, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्रों में शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने की प्रवृत्ति का बीजारोपण, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र एवं पहुँच के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण सम्बंधी समझ, सभी को महिला विकास की श्रेणी में रखा जा सकता है तथा महिला विकास मापक भी कहा जा सकता है।[26]

महिला सशक्तिकरण  महिलाओं द्वारा अपने जीवन के सम्बंध में अपनी पसन्द के निर्धारण तथा समाज में और अधिक भूमिका का निर्वहन पर बल देता है।[27] अन्य अर्थ में महिला सशक्तिकरण  से तात्पर्य उन्हें अधिक शक्ति या सत्ता दिये जाने से है, अर्थात महिलाओं को अधिक सुविधापूर्ण कार्य करने देने के लिए उनमें चेतना एवं नई क्षमताओं का विकास किया जाना ताकि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकें।[28] व्यापक अर्थों में सशक्तिकरण से तात्पर्य भौतिक संपदा, बौद्धिक साधनों व विचारधारा पर महिलाओं का नियंत्रण होने से है।[29] महिला सहभागिता की प्रक्रिया ने शक्ति के नवीन स्वरूप को जन्म दिया है एवं समाज के लोकतंत्रीकरण व शक्ति विभाजन तथा नवीन उत्तरदायित्वों, निर्णय प्रक्रिया में निश्चयों को महिला सुलभ बनाना है।[30]

महिला सशक्तिकरण का सीधा सम्बंध महिलाओं की अपनी संवैधानिक और वैधानिक अधिकारों के प्रति चेतना के स्तर से जुड़ा हुआ है।[31] महिला सशक्तिकरण को महिला अधिकारियों के संदर्भ में देखने पर स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि नारीवादी चिंतन में महिला सशक्तिकरण  की अवधारणा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया।[32]

19वीं शताब्दी के पूवार्द्ध तक महिलाओं हेतु समान अधिकार की माँग एक प्रबल राजनीतिक प्रश्न का स्वरूप लेने लगी। कानून, राजनीतिक तथा शिक्षा आदि समस्त क्षेत्रों में एक आन्दोलन का प्रारम्भ हो गया। महिलाओं के लिए मतदान के अधिकार की माँग ने एक विश्वव्यापी जन-आन्दोलन का रूप ले लिया।[33] महिलावादी चिन्तन द्वारा महिला शक्तिवाद की अवधारणा को महिला अधिकारवाद व सशक्तिकरण  की महिला शक्तिवाद के साथ निरन्तर पोषित तथा प्रेरित किया गया। इस विचारधारा ने सरकार व कानून के माध्यम से नारी की प्रस्थिति में परिवर्तन लाने पर बल दिया।[34]

महिला सहभागिता की परिभाषाएं

1. अंग्रेजी लॉगमैन डिक्शनरी के अनुसार-‘‘किसी को उसके जीवन या हालत पर अधिक नियन्त्रण की स्वतंत्रता प्रदान करना सशक्तिकरण  है।’’[35]

2. अर्थशास्त्री बीना अग्रवाल के अनुसार,‘‘महिला सशक्तिकरण  को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में व्याख्याचित किया गया है, जिसमें दुर्बल एवं उपेक्षित लोगों के समूहों की क्षमता बढ़े। जिससे महिलाएँ अपने आपको निम्न आर्थिक, सामाजिक और राजनीति स्थिति में डालने वाले मौजूदा शक्ति संबंधों को बदल कर अपने पक्ष में कर सके।

3. डॉ.दिग्विजय सिंह के अनुसार-‘‘महिला सशक्तिकरण  का अभिप्राय सत्ता प्रतिष्ठानों में स्त्रियों की साझेदारी से है। निर्णय लेने की क्षमता सशक्तिकरण  का एक बड़ा मानक है। इस प्रकार महिला सशक्तिकरण का अर्थ है - उनके द्वारा समाज की वर्तमान व्यवस्था और तौर-तरीकों को चुनौती में समान अवसर, राजनीतिक व आर्थिक नीति निर्धारण में भागीदारी, समान कार्य के लिए समान वेतन, कानून के तहत सुरक्षा, प्रवचन का अधिकार आदि।’’[36]

4. द यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर ह्यूमन राइट्स के अनुसार-‘‘यह औरतों को शक्ति, क्षमता तथा काबिलियत देता है, ताकि वह अपने जीवन स्तर को सुधार कर अपने जीवन की दिशा को स्वयं निर्धारित कर सके।[37]

महिला सहभागिता की प्रकृति एवं विशेषताएँ

1. एक व्यापक व समग्र अवधारणा-महिला सहभागिता एक व्यापक अवधारणा है क्योंकि यह महिलाओं के विकास के किसी एक क्षेत्र विशेष से सम्बंधित नहीं है अपितु महिला सहभागिता में महिलाओं के उत्थान से सम्बंधित सभी क्षेत्र समाहित है। वर्तमान में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, कानून, शैक्षिक, वैज्ञानिक, अन्तरिक्ष, शोध आदि सभी क्षेत्रों में महिलाएँ अपनी क्षमता व हुनर का परचम लहरा रही हैं। सहभागिता का तात्पर्य यहाँ उस प्रक्रिया से लिया जाता है, जहाँ महिलाएँ समाज के प्रत्येक क्षेत्र में हो रहे परिवर्तन का माध्यम बनती है।[38]

महिला सहभागिता एक समग्र अवधारणा है, जिसके माध्यम से महिलाओं की परिवार, समाज, शासन में सम्पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित हो तथा वे नीति क्रियान्वयन की प्रक्रिया से पूर्णतः संबद्ध हों। यह अवधारणा महिला अधिकारों से सम्बंधित कही जा सकती है अर्थात् क्षमताओं का विकास, मूलभूत आवश्यकताओं, आर्थिक सुरक्षा, सम्मानजनक जीवन यापन आदि भी इसमें सम्मिलित हैं।[39]

2. महिलाओं की चहुँमुखी विकास में सहायक- महिला सहभागिता, सशक्तिकरण का प्रक्रिया का एक भाग कहा जा सकता है। महिला सहभागिता का एक सकारात्मक प्रभाव यह हुआ है कि महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति जाग्रत हुई हैं, जिसके कारण उन्हें उस प्रत्येक क्षेत्र की जानकारी हो पाई है, जिन क्षेत्रों से पूरी तरह अनभिज्ञ थी। महिला सशक्तिकरण हेतु बनाए गए कानूनों के माध्यम से भी वर्तमान में महिलाओं द्वारा अनेक क्षेत्रों में प्रगति की गई है।[40]

3. महिलाओं की चेतना स्तर में वृद्धि का माध्यम- महिला सहभागिता का मूल मंतव्य महिलाओं को अधिक शक्ति या सत्ता प्रदान किये जाने से है, जिससे वे शासन की नीति निर्माण व निर्णय प्रक्रिया से संबद्ध हो सके। इस संदर्भ में महिला सशक्तिकरण  अवधारणा महिलाओं को पुरुष आधिपत्य, पैतृक रूढ़ियाँ, लिंग आधारित असामनता के विरुद्ध आवाज उठाने की शक्ति प्रदान करती है, जिससे उनके स्वावलम्बन में वृद्धि हो, उन्हें आधारभूत अधिकारों की प्राप्ति हो तथा महिलाएँ अपने संवैधानिक वैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक हो।[41]

4. एक तथ्यात्मक अवधारणा- महिला सहभागिता स्वयं एक बहुसमावेशक, बहुमार्गी एवं अधिक विवादपूर्ण विषय होने के साथ ही अधिक गत्यात्मक प्रक्रिया है जो कि महिला जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में निहित क्षमताओं की वृद्धि में सहायक है। महिला सहभागिता की धारणा एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें महिलाओं के लिए सर्वसंपन्न एवं विकसित होने हेतु संभावनाओं के द्वार खुले हो, नए विकल्प तैयार हो, जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों के साथ कानूनी हक और प्रतिभाओं के विकास हेतु पर्याप्त रचनात्मक अवसर निरन्तर प्राप्त हो।[42]

महिला सहभागिता इतिहास से वर्तमान तक

नारी है तो समाज है, समाज है तो उसका धर्म और शील, शुचिता है। उसकी मर्यादा समाज को स्थिरता प्रदान करती है। सौंदर्य की अभिव्यक्ति और महाशक्ति नारी पूर्व वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक सामाजिक व्यवस्था की निर्माता रही है।[43] भारतीय इतिहास का सूर्योदय वैदिक काल से होता है। इस युग में बौद्धिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विकास अपनी चरम सीमा पर था। इस काल में स्त्री को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समान अवसर उपलब्ध है। बराबरी का दर्जा यहाँ तक मिला हुआ था कि कला, साहित्य, धर्म-संसदों और युद्धों तक में वह पुरुषों के साथ सम्मिलित होती थी। वैदिक काल में लोपमुद्रा, सूर्या, ममता, विश्वधारा, अपाला, घोषा, गार्गी आदि मंत्र द्रष्टा, दर्शन व उपनिषद के क्षेत्र में निपुण थी।[44] वैदिक काल में पुत्र और पुत्री दोनों का उपनयन संस्कारअनिवार्य था, परन्तु मध्यकाल आते-आते महिलाओं पर सामाजिक मर्यादाओं के अंकुश लगाए जाने लगे और उनकी स्थिति में बड़े परिवर्तन हुए। धर्म, नीति और सामाजिक मर्यादाओं की रचना पुरुषों ने की और नारी की स्वतंत्रता को गुलामी की जंजीरों में कसने में कोई कसर नहीं रखी।[45]

मध्यकाल में सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय पंजाब में रावी नदी के किनारे अश्वलायन राज्य की स्त्री शासिका कृपि रानी ने सिकन्दर का डटकर मुकाबला किया था और नौ दिन के घमासान युद्ध में यूनानी सेना को अपार क्षति पहुँचाने के बाद ही उसने हार मानी थी। मोहम्मद गौरी के आक्रमण के समय पाटन पर राजमाता नायकी देवी शासन कर रही थी, जिन्होंने आक्रमण का मुकाबला किया।[46]

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार स्कंधवार’ (सेना के शिविर या पड़ाव के पीछे का हिस्सा) में चिकित्सकों का एक शिविर रहता था, जिसमें महिलाएँ स्वयंसेविकाओं के रूप में उपस्थित रहती थी। रनिवास की रक्षा के लिए भी स्त्री-सैनिक तैनात रहती थीं। स्ट्रैबो व मेगस्थनीज के अनुसार भी, मौर्य व गुप्तकाल में नारी-सेना ही राजा के अंगरक्षक का काम करती थी।[47]

स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय भागीदारी से महिलाओं ने विश्वास व समाज में पहचान अर्जित की। हालांकि स्वतंत्रता संघर्ष के प्रारम्भ में शिक्षित और प्रगतिशील परिवारों की ही कुल महिलाएँ प्रतिनिधि के तौर पर शामिल हुई थी। अधिकांश महिलाएँ स्वयंसेवक के रूप में उपस्थित थी, विचार-विमर्श में इनसे में से कुछ की ही सहभागिता थी या कुछ ही उँचे पदों तक पहुँची। महिलाओं ने अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में सहभागिता की और कुछ राष्ट्रवादी गतिविधियों के सहयोग में भी सम्मिलित थी।[48]

भारतीय महिलाओं के लिए मुक्ति-संघर्ष का अर्थ पश्चिम से बिल्कुल भिन्न रहा है, परन्तु हमारे सामने संविधान से प्राप्त हुए अधिकारों के व्यावहारिक उपयोग का प्रश्न अवश्य है, जिसके लिए महिलाओं में व्यापक शिक्षा व जागृति लाने की जरूरत है। महिलाओं ने कभी भी पुरुष वर्ग को अपना प्रतिद्वन्दी नहीं माना। आजादी की लड़ाई में स्त्री- पुरुष की साझी भूमिका इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। भारत की आम स्त्री पुरानी रूढ़ियो में आबद्ध होने के बावजूद पुरुष से सहयोग करके राष्ट्र-निर्माण में अपने ढंग से सहभागी रहने में कभी पीछे नहीं रही।[49]

वेद ऋचाएँ रचने वाली भी भारत की नारी थी।

शास्त्रार्थ में जमने वाली भी भारत की नारी थी।

रण-कौशल दिखलाने वाली भी भारत की नारी थी।

जौहर-चिता सजाने वाली भी भारत की नारी थी।

बुद्धिमान थी, प्राणवान थी, कभी न वह बेचारी थी।

सोचो, उसने आगे क्यों यह जीती बाजी हारी थी।

सदियों तक अबला कहलाने वाली भारत की नारी अब अबला नहीं है। अनपढ़ हो, कम पढ़ी या उच्च शिक्षित, अब वह बेबसी की चादर ओढ़े सोई नहीं है, करवट लेकर जाग उठी है।[50]

बीसवीं सदी के महान चिंतक, आर्थिक व्यवस्थाओं के नियामक और साम्यवाद के सूत्रधार कार्ल मार्क्स ने स्त्री शक्ति को पहचाना था। उसने अपने ग्रंथ में लिखा है ‘‘किसी समाज के स्तर का मापन करने के लिए उस समाज में स्त्रियों की स्थिति को देखना चाहिए।’’

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और ऐतिहासिक चिंतन के मर्मज्ञ पंडित जवाहरलाल नेहरू का भी स्पष्ट कथन है कि-‘‘महिलाओं की स्थिति ही देश के स्वरूप को सूचित करती है।’’[51]

वर्तमान समय की बात करें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार ने महिला विकास पर विशेष ध्यान केंद्रित किया है। भारत की महिलाएँ राष्ट्र की प्रगति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और सरकार उनके योगदान और क्षमता को पहचानती है। सरकार ने महिला सशक्तिकरण  को लेकर कई मजबूत कदम उठाए हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से लेकर बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं और उनके दैनिक जीवन और उनकी दीर्घकालिक संभावनाओं को सुधारने के लिए कई पहल की है। केन्द्र सरकार ने अपने कामकाज की बदौलत एक तरह से महिलाओं को एक साथ जोड़ दिया है। प्रधानमंत्री के रूप में पदभार ग्रहण करने से पहले श्री नरेन्द्र मोदी ने उन महिलाओं के साथ सहानुभूति व्यक्त की जो असुरक्षित व अस्वास्थ्यकर वातावरण में जीवन निर्वाह कर रही थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके बेहतर स्वास्थ्य के लिए कई योजनाएँ चलाई।[52]

महिला सहभागिता को प्रभावित करने वाले कारक

भारत में प्राचीन समय से लेकर वर्तमान तक महिलाओं की स्थिति में काफी उतार-चढ़ाव आए हैं। वर्तमान समय में महिलाओं की स्थिति सभी क्षेत्रों में सुदृढ़ हुई है, महिलाएँ समाज, राजनीति, आर्थिक, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में अपने निर्णय लेने में सक्षम हुई हैं, परन्तु फिर भी परिस्थितियाँ सभी जगह एक सी नहीं है। महिलाओं को आज भी सशक्त होने के लिए निरन्तर प्रयास करना पड़ रहा है और इसके लिए निम्न कारण महिला सहभागिता को प्रभावित करते हैं-

1. पुरुष प्रधान समाज

वर्तमान में हम कितनी भी नारी सशक्तिकरण  की बात कर लें, परन्तु हमारा समाज पुरुष प्रधान है, परिणामस्वरूप महिलाओं को अनेक सुविधाओं से वंचित किया गया है। आज भी यह माना जाता है कि स्त्रियाँ हर प्रकार से पुरुषों पर निर्भर हैं। वे सार्वजनिक जीवन से अनभिज्ञ बनी रहती हैं, जिसके कारण उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाता है।[54] महिलाएँ परिवार में श्रम के लिंग आधारित विभाजन के कारण सभी पारिवारिक कार्यों की जिम्मेदारी का वहन करती हैं। ग्रामीण महिला हो या शहरी महिला, उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे परिवार की देख रेख को प्राथमिकता दें। ऐसी स्थिति में अनेकों बार महिलाओं की योग्यताएँ व क्षमताएँ चारदीवारी के भीतर ही रह जाती हैं। ये प्रतिबंध कम या ज्यादा मात्रा में सभी वर्गों और समुदायों की महिलाओं पर लागू होते हैं।[55]

यदि हम राजनीतिक गतिविधियों की बात करें तो पुरुष सभी में आसानी से भाग ले सकते हैं, इससे उनके परिवार को कुछ नहीं झेलना पड़ता क्योंकि परिवार की दैनिक आवश्यकताओं के लिए महिला हमेशा उपलब्ध रहती है। राजनीति में प्रचार कार्य, निर्वाचन क्षेत्र से अपने संपर्क बनाए रखने की आवश्यकता, विचार-विमर्श, मीटिंग जो सामान्यतः रात में होती है, इन सभी के साथ महिलाओं की घरेलू जिम्मेदारियों का टकराव होता है। इसलिए महिलाएँ राजनीतिक गतिविधियों की भागीदारी में कठिनाई महसूस करती हैं।[56]

2. कामकाजी महिलाओं के प्रति भेदभाव

वर्तमान में भारतीय नारी घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर देश के बहुआयामी विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। स्वतंत्रता के बाद की बदलती हुई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण महिलाओं की शिक्षा और रोजगार के अवसरों में काफी वृद्धि हुई है। नियोजित विकास में कामकाजी महिलाओं की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है। इसके बावजूद खेत-खलिहानों में काम करने वाली, हस्तशिल्प और हथकरघे के विभिन्न उत्पादों के माध्यम से विरासत का संरक्षण करने वाली स्त्री और परिवार की आय बढ़ाने में सक्षम स्त्री हमारे यहाँ कामकाजी स्त्री के घेरे में अब भी प्रवेश नहीं कर पाई है। खेती में लगने वाले कुल श्रम का लगभग दो-तिहाई हिस्सा स्त्रियों का होता है। इसके बावजूद उसे कामकाजी स्त्री की परिभाषा से वंचित रखा जाता है।[57]

अपने पुरुष सहकर्मियों की तुलना में महिलाओं को कम मेहनताना मिलता है। छोटे उद्योग-धंधों में काम करने वाली महिला कामगारों की स्थिति भी कृषि तथा हस्तशिल्प के क्षेत्र से जुड़ी हुई महिलाओं जैसी ही है। महिला कामगारों को सुरक्षा व संरक्षण प्रदान करने वाली अनेक व्यवस्थाओं व प्रावधानों के बावजूद गैर-बराबरी व भेदभाव जारी है। यह स्थिति हमारी सामाजिक संरचना के अंतर्विरोधों व असंगतियों के साथ यह भी स्पष्ट करती है कि समाज में अभी असमानता को दूर करने की चेतना नहीं है।[58]

3. शैक्षणिक समस्याएं

भारतीय स्त्रियों के सशक्तिकरण  में एक प्रमुख बाधा शिक्षा का अभाव है। 2001 की जनगणना के अनुसार महिलाओं में साक्षरता का प्रतिशत मात्र 54.28 था। 2011 में साक्षरता के मामलों में पुरुषों और महिलाओं में काफी अंतर था। जहाँ पुरुषों की साक्षरता दर 82.14 है, वहीं महिलाओं में इसका प्रतिशत केवल 65.46 है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अत्यधिक अभाव है। अशिक्षा के कारण महिलाएँ अनेक क्षेत्रों में भागीदारी से वंचित रह जाती हैं।[59] उल्लेखनीय है कि भारत की महिला साक्षरता दर विश्व की औसत 79.7 प्रतिशत से काफी कम है। जनगणना आंकड़े यह भी बताते हैं कि देश की महिला साक्षरता दर (64.46 प्रतिशत) देश की कुल साक्षरता दर (74.04 प्रतिशत) से भी कम है। बहुत कम लड़कियों का स्कूलों में दाखिला कराया जाता है और उनमें से भी कई बीच में ही स्कूल छोड़ देती हैं। कई लड़कियाँ रूढ़िवादी सांस्कृतिक रवैये के कारण  स्कूल नहीं जा पाती हैं। आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारत में अभी भी लगभग 145 मिलियन महिलाएँ हैं जो पढ़ने या लिखने में असमर्थ हैं। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा स्थिति और अधिक गंभीर है, जिसके कारण महिला सशक्तिकरण  में बाधा आती है।[60]

4. सामाजिक अधिकारों की अव्यावहारिकता

आज नारी सशक्तिकरण  व नारी सहभागिता की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, इसके लिए संवैधानिक स्तर पर भी बहुत से प्रावधान किए गए हैं, कानून बनाए गए हैं, परन्तु सत्य यह है कि उन अधिकारों का प्रयोग व्यावहारिक रूप से नहीं हो पा रहा है। भारत में महिलाओं से एक निश्चित तरीके से कार्य करने और व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है तो ऐसे में वे संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग कैसे कर पाएगी। यहाँ तक कि समय के साथ समाज की प्रगति हुई है, फिर भी हमारे देश में महिलाएँ वास्तव में मुक्त नहीं हैं। उन्हें अभी भी सीमा में रहने और हमारे पितृसतात्मक समाज द्वारा परिभाषित नियमों के अनुसार कार्य करने की उम्मीद है। दुर्भाग्य से भारतीय समाज में कुछ वर्ग महिलाओं की इस नई मिली हुई स्वतंत्रता व अधिकारों के खिलाफ है, समाज के मापदंड महिलाओं पर कठोर हैं, इसलिए महिलाओं को संविधान से प्राप्त अधिकार अव्यावहारिक प्रतीत होते हैं।[61]

5.स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं

महिलाएं अपने से ज्यादा घर-परिवार पर अधिक समय देती हैं। यही कारण है कि वे अपनी सेहत पर ध्यान नहीं दे पाती हैं और इससे उनके विकास की सम्भावनाओं में कमी आती है। घर की व समाज दोनों की जिम्मेदारियों को निभाने के कारण उनमें थकान, कमजोरी, चिड़चिड़ापन देखा जाता है। स्त्रियों का स्वास्थ्य मुख्यतया जैवकीय, सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों से प्रभावित होता है, जैसे कि कम उम्र में शादी, अशिक्षा, अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएँ, लैंगिक विषमता आदि। सामान्यतया यह माना जाता है कि स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में अधिक आयु जीती हैं, लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि उनकी जीवनशैली उच्च श्रेणी की है। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में शारीरिक रूप से अधिक कमजोर व अयोग्य होती है। महिलाओं के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के संबंध में अध्ययनों से यह ज्ञात होता है कि उनके जीवन से जुड़ी अपने परेशानियाँ एवं मुद्दे हैं, जिन्हें देखने की आवश्यकता है।[62]

6. पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता

महिलाएँ देश की आधी आबादी मानी जाती है, ऐसे में उनके समुचित विकास के बिना हम देश के विकास की कल्पना नहीं कर सकते हैं। महिलाओं का समुचित विकास बिना उन्हें आर्थिक रूप से सशक्त किये नहीं हो सकता है। सदियों से महिलाओं की आवाज दबी हुई है, क्योंकि आज भी वह आर्थिक रूप से सशक्त नहीं है। आज भी स्त्रियाँ आर्थिक रूप से पुरुषों पर ही निर्भर हैं। प्रायः यह देखा गया है कि समाज में जो व्यक्ति आर्थिक रूप से सशक्त होता है तो समाज में भी उसकी बात सुनी जाती है और आर्थिक रूप से सबल इंसान को ज्यादा महत्व दिया जाता है। जब महिलाएँ आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर रहेंगी तो उनमें आत्मविश्वास की कमी होगी, जिसके कारण वह न तो अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़ पाएगी और न ही सशक्तिकरण  की दिशा में कदम बढ़ा पाएगी।

हाल ही में विश्व आर्थिक मंच की ओर से जारी ग्लोबल जेंडर इंडेक्स में लैंगिक समानता के मामले में भारत को 87वाँ स्थान मिला है, जिसमें आर्थिक तौर पर असमानता को सबसे बड़ी चुनौती माना गया है। यानी बिना आर्थिक खाई को पाटकर हम लैंगिक समानता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।[63]

7. महिलाओं की सुरक्षा सम्बंधी कारक

भारतीय महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा एक प्रमुख चिंता का विषय है। यह कारक महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण, मजबूत विरासत अधिकारों और काम करने की स्थिति तथा घरेलू हिंसा की घटनाओं के बीच की कड़ी की खोज करता है। भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध एक विशेष रूप से गंभीर समस्या है। 2012 में थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन द्वारा किए गए सर्वेक्षण में भारत को जी-20 देशों में महिलाओं के लिए सबसे खराब देश के रूप में दिया गया है।

भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2012 के दौरान महिलाओं के खिलाफ घरों के अंदर व बाहर 2,44,270 अपराध हुए। इसके अलावा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के अनुसार 36 प्रतिशत विवाहित महिलाओं ने अपने जीवन साथी द्वारा घरेलू हिंसा को झेला है। अतः ऐसी परिस्थितियाँ महिला सशक्तिकरण  या महिला सहभागिता में बहुत बड़ी रुकावटें हैं।[64]

निष्कर्ष विभिन्न सरकारों के प्रयास से वर्तमान समय में महिलाओं के शिक्षा का स्तर बढ़ता जा रहा है। शिक्षित स्त्री बच्चों के पालन-पोषण एवं परिवार की देखभाल करने के साथ-साथ आर्थिक रूप से ही स्वतंत्र होती जा रही है। इससे महिलाओं में आत्मविश्वास उत्पन्न होता जा रहा है, साथ ही परिवार की आर्थिक स्थिति भी सुदृढ़ होती जा रही है। अधिकांश महिलाएँ अपने कार्य के प्रति कर्तव्यनिष्ठ एवं अनुशासनबद्ध होती हैं। वे अपने कार्य को निपुणता के साथ पूरा करती है। कामकाजी महिलाओं का दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है एवं उनका सामाजिक विकास व समाज में प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। विक्टर ह्यूगों ने कहा है कि -‘‘मनुष्य में दृष्टि होती है और नारी में दिव्य दृष्टि।’’ आज नारी घर की चारदीवारी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि एक साथ कई कर्तव्य निभा रही है। आज वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पर्दापण कर परिवार, समाज एवं देश सेवा में तत्पर है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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