ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- I February  - 2023
Innovation The Research Concept
छायावादी युग और निराला-काव्य की अन्तःप्रवृत्तियाँ
Chhayavadi Era and Internal Tendencies in Poetry of Nirala
Paper Id :  17654   Submission Date :  07/02/2023   Acceptance Date :  21/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
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सत्यदेव सिंह
सह आचार्य
हिन्दी विभाग
श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी गवर्नमेंट पी.जी. कॉलेज
किशनगढ़,राजस्थान, भारत
सारांश सूर्यकांत त्रिपाठी निराला मूलतः एक छायावादी कवि माने जोते रहे हैं किन्तु उनकी काव्य रचना प्रक्रिया न केवल छायावादी काव्यधारा का निर्वाह करते हुए भी उसका अतिक्रमण करती है वरन् एक साथ अनेक काव्य स्तरों में क्रियाशील भी रहती है। अतः कालक्रम के अनुसार छायावादी काल में उनके द्वारा छायावादी रचना प्रक्रिया से इतर रचनाएँ भी लिखी गयी हैं और इस काल के बाद भी छायावादी रचना प्रक्रिया की कविताएँ रची गयी हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Suryakant Tripathi Nirala has basically been considered as a Chhayavadi poet, but his poetry composition process not only follows the Chhayavadi poetry stream but also transcends it, and also remains active in many poetic levels simultaneously, so according to the chronology, his Compositions other than Chhayavadi composition process have also been written by in Chhayavad and even after this period poems of Chhayavadi composition process have been composed.
मुख्य शब्द आदर्शवादी, व्यक्तिवादी विद्रोह, काल्पनिक, भावनात्मक सौन्दर्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Idealist, Individualistic Rebellion, Imaginary, Emotional Beauty.
प्रस्तावना
द्विवेदी युग के साथ ही वस्तुवादी, स्थूल, आदर्शवादी नैतिक परम्पराओं के रूढ़ परिपालन एवं उपदेश प्रधान युग का प्रायः समापन हो गया था। छायावादी युग के साथ ही काव्य में व्यक्तिवादी विद्रोह की भावना का स्वर मुखर हो चला। निराला में इस विद्रोह का स्वर सर्वाधिक मुखर रूप में स्पष्ट होता है। किन्तु उनके काव्य में वैयक्तिक संवेदना समाज के सुष्ठ स्वरूप का विरोध प्रकट नहीं करती। उसमें उच्छृंखल व्यक्तिवादिता के स्थान पर वैयक्तिक एवं सामाजिक सामंजस्य व तादात्मय के दर्शन होते हैं।
अध्ययन का उद्देश्य निराला का काव्य रचनाकाल सन् 1916 से लेकर सन् 1961 तक 45 वर्षो का एवं मुक्तिबोध का काव्य रचनाकाल सन् 1935 से सन् 1964 तक लगभग 30 वर्षो का रहा है इसमें लगभग 26 वर्ष तक दोनों ने समानान्तर रूप से एक ही समय में काव्य सृजन किया। दोनों की वैयक्तिक स्थिति एवं युगीन परिस्थितियों से उनके काव्य प्रभावित हुए और दोनों ही के काव्य ने कई सोपन, कई मोड़ और कई धाराओं को पार किया। इसी परिप्रेक्ष्य में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के छायावादीकालीन काव्य का अध्ययन किया गया है।
साहित्यावलोकन
छायावाद की वृहत्त्रयी में भी निराला का महत्वपूर्ण स्थान हैI आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने कहा है- निराला जैसे अनेक क्षितिजों और दिगन्त भूमिकाओं के कवि को "वाद" की सीमा में बाँधना और भी कठिन है, यद्यपि निराला छायावाद के प्रवर्त्तकों में परिगणित होते हैं। निराला के साथ छायावाद का सम्बन्ध ऐतिहासिक भूमिका पर बना था, परन्तु आरंभ से ही उनकी स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियाँ उनको छायावाद की सीमित भूमि से बाहर खींच रही थी। "अतः स्पष्ट है कि निराला जी वैविध्य के कवि हैं और उनकी यह विविधता उनके काव्य में पग-पग पर दिखायी देती है। अभिमन्यु के अनुसार महाप्राण पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला छायावादी कवि हैं। छायावाद का सम्पूर्ण लक्षण उनकी रचनाओं में समाया हुआ है। छायावादी काव्य में रहस्यात्मकता, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रीय चेतना, विद्रोही भावना, सौन्दर्यानुभूति आदि विशेषताएँ विद्यमान हैं। निराला जी साहित्यिक क्रांतिकारी, ओजस्वी कवि माने जाते हैं।  केवल कृष्ण घोडेला के अनुसार  छायावादी चतुष्टयी में निराला अपना विशिष्ट स्थान रखते है। इस तरह की कविताए हर तरह के भाव, विषयानुसार भाषा में रचित किये गये है। निराला को विविधताओं का कवि कहा जाता है। रामस्वरूप चतुर्वेदी की सम्मति में,'' आधुनिक युग के सर्वाधिक मौलिक क्षमता से संपन्न कवि है।
मुख्य पाठ

निराला की छायावाद कालीन रचनाएँ-अनामिक (प्रथम) (1923),परिमल (1930), गीतिका(1936), अनामिका(नवीन) (1937) एवं तुलसीदास (1938) काव्यसंग्रहों में प्रकाशित हुई हैं। यद्यपि इन संग्रहों में आंतरिक एवं पारस्परिक रूप से विषयवस्तु, भाव, संवेदना और भाषिक संरचना की एकरूपता नहीं है फिर भी इनमें छायावादी प्रभाव अधिक गहरे रूप में प्रकट होता है। साथ ही निराला का राष्ट्रीय उद्बोधन का स्वर, सामाजिक यथार्थवादी मानवीय संवेदना का स्वर, अन्तः संगीत के विविध धरातल एवं अनेकानेक प्रयोग भी इनमे ध्वनित होते हैं।

निराला का व्यक्ति स्वातन्त्रय का आह्वान वायवीय एवं काल्पनिक न होकर भौतिक जीवन की दृढ़ आधारशिला पर स्थित है। परिमलकी निवेदन’ ’शेष’, ’वृत्ति’, ’अध्यात्मफल, ’ध्वनि’, ’रास्ते के फूल से’, विफल वासना और रेखा तथा अनामिकाकी प्रेयसी, ’सतप्त’, ’हताश’, उक्ति आदि अनेक कविताएँ इस यथार्थ व्यक्ति संवेदना की पुष्टि करती हैं-

आज हो गये ढीले सारे बन्धन
मुक्त हो गये प्राण
रुका है सारा करुणा क्रन्दन।
बहती कैसी पागल उसकी धारा।
हाथ जोड़ खड़ा देखता दीन
विश्व यह सार।[1]

परिमल की अधिवासकविता में वैयक्तिक अनुभूति का मानवीय संवेदना से तादात्मय भौतिकता के उदात्तीकरण का परिचायक है-

मैंने मैं शैली अपनायी,
देखा दुःखी एक निज भाई
दुःख की छाया पड़ी हृदय में मेरे,
झट उमड़ वेदना आयी।[2]

वस्तुतः अपने जीवन (वैयक्तिक) बिम्ब और काव्य (रचना) बिम्ब को एकमेव करने वाली आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति निराला काव्य का केन्द्रीय भाव है।

छायावाद ने प्रेम, सौन्दर्य एवं श्रृंगार को भावजगत का आधार बनाया। उसने इससे एक ओर आंतरिक सौन्दर्य के उद्घाटन के अवसर बढ़ा दिये वहीं उससे अशरीरी वायवीय धुँधली सौन्दर्य चेतना का भी विकास हुआ। निराला में भी कहीं-कहीं यह धुँधली सौन्दर्य दृष्टि प्रकट हुई है-

अलसता की-सी लता
किन्तु कोमलता की वह कली,
सखी नीरवता के कन्धे पर डाले बाँह
छाँह-सी अम्बर पथ से चली।[3]

किन्तु अधिकांशतः निराला ने छायावाद की भावात्मक सौन्दर्य चेतना के साथ-साथ अधिक स्वस्थ यथार्थ एवं मांसल सौन्दर्य बोध का परिचय दिया है।

भावनात्मक सौन्दर्य चित्रण
सौंदर्य-सरोवर की वह एक तरंग
किन्तु नहीं चंचल प्रवाह-उद्दाम वेग
संकुचित एक लज्जित गति है वह
प्रिय समीर के संग।[4]

स्वस्थ शारीरिक सौन्दर्य चित्रण-

कर पार कुंज-तारूण्य सुघर
आयी, लावण्य भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों मालकोष नव वीणा पर।[5]

निराला ने अतिपरिचित में अपरिचित सौन्दर्य एवं विरूप में रूप दर्शन कर सौन्दर्य चेतना का उदारीकरण भी किया है। पत्थर तोड़ती श्रमिक महिला एवं उसके कर्म सौन्दर्य का उद्घाटन निराला जैसा मानवतावादी कवि ही कर सकता है-

श्याम तन भर बँधा यौवन
नत नयन, प्रिय-कर्म रत मन
गुरू हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार-
-    -       -
सजा सहज सितार
सुनी मैंने वह नहीं जजो की सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर
ढुलक माथे से गिरे सीकर[6]

निराला काव्य में भावुकता की अन्तः सलिला प्रवाहित होती है किन्तु उसमें गलदश्रु की अपेक्षा उदार भाव सबलता और भावों का उदात्तीकरण दृष्टिगोचर होता है। निराला काव्य में उच्छल पावनता, आत्मसमर्पण, सुख, आत्मतोष, गरिमामयता, अवसाद, खिन्नता, जर्जरपन शरणागति की पावनतम उच्छल भावोच्छलता,[7] दैन्य संशय, अनवरत जिजीविषा, युयुत्सा आदि भाव संवेदनाओं का छलछलाता हुआ अजस्त्र प्रवाह है। इसका उद्गम निराला के व्यक्तिगत युगीन जीवन संदर्भो से हुआ है किन्तु निराला ने इस प्रवाह में पूर्णतः बह जाने की अपेक्षा अपनी दार्शनिक विट (WIT) से इस प्रवाह को साधा है।

प्रेम की प्रखर अनुभूति की पहली प्रतिक्रिया मन में आह्लाद की होती है। इस आह्लाद को निराला ने अनेक बिम्ब-छावियों में बाँधा है-

जैसे हम हैं वैसे ही रहें
लिए हाथ एक दूसरे का
अतिशय सुख के सागर में बहें।
मुँदे पलक, केवल देखें उर में,
सुनें सब कथा परिमल सुर में,
जो चाहें कहें वे कहें।
वहाँ एक दृष्टि से अशेष प्रणय
देख रहा है जग को निर्भय
दोनों उसकी दृढ़ लहरें सहें।[8]

यह अशेष प्रेमानुभूति का आह्लाद क्षणजीवी या रोमाण्टिक नहीं स्थायित्वयुक्त सर्वकालिक आस्था एवं पावनता से परिपूर्ण है।’’निराला उसी अशेष प्रणय को सारी सृष्टि में रमा हुआ देखते हैं। उसकी लहरें आप्लावनकारी होती हैं उसकी पवित्रता और तेजस्विता को सहना आसन नहीं है।’’[9]

राम की शक्ति पूजा में अपराजेय साहस और युयुत्सा से ऊर्जस्वित राम का मन स्वयं निराला की ही अनवरत संघर्षशीलता और अपराजेयता का परिचायक बन जाता है-

वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युत् गति हत चेतन।[10]

निराला की यह अपराजेय युयुत्सा अज्ञानपूर्ण दम्भ पर आश्रित नहीं है वरन् मायावरण का भेदन कर बुद्धि के दुर्ग तक पहुँचने वाले मनोबल पर आधारित है। निराला भीतरी और बाहरी संघातों से गहरी अवसन्नता, निरन्तर आत्मक्षय, अपने काव्य में उदात्त स्तर पर अभिव्यक्त करते हैं-

दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म रहे नत सदा माथ
इस पथ पर मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के से शतदल।
कन्ये, गतकर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण।[11]

सम्पूर्ण जीवन की पीड़ा असफलता, निराशा, कारुणिक अवसन्नता सरोज के प्रति अपने दायित्व निर्वाह में असफल होने के बोध से उमड़ आया है। निराला ने अपनी व्यक्तिगत असफलता को भी कवि जीवन की सम्पूर्ण निरर्थकता से जोड़कर अधिक मर्मान्तक बना दिया है।

छायावादी कल्पना वैभव के अतिरेक से उत्पन्न वायवीयता एवं दिवास्वप्नशीलता से निराला मुक्त नहीं हैं किन्तु उनकी कल्पना की विराट योजना और साथ ही जीवन की यथार्थ भूमि को निराला कभी नहीं छोड़ते।

निराला अपने काव्य में ऐतिहासिक एवं पौराणिक संदर्भो की ओर दृष्टिपात तो करते हैं किन्तु यह संदर्भ निराला की युग चेतना से अनुरंजित होकर नये अर्थ व्याख्यायित करने में सफल होते हैं। निराला के राम’, ’तुलसी', ’हुनमानजैसे पौराणिक चरित्र स्वयं निराला के जीवन तथा परतन्त्र भारतीय जनजीवन के संक्रान्त मूल्यों को उभारते हैं। शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरूगोविन्द सिंह आदि ऐतिहासिक पात्र राष्ट्रीय स्वाभिमान के उन्नायक बनकर उभरते हैं।

जागो फिर एक बार
समर में अमर कर प्राण
गान गाये महासिन्धु से
सिन्धु-नद-तीरवासी।
सैन्धव तुरंगों पर
चतुरंग चमू संग,
सवा सवा लाख पर
एक को चढ़ाऊँगा
गोविन्द सिंह निज
नाम जब कहाऊँगा।[12]

छायावादी काव्य को राष्ट्रीय जागरण का काव्य कहा जाता है। उस युग की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या देश की परतंत्रता से मुक्ति के प्रयास की थी। निराला की राष्ट्रीय चेतना इस राजनीतिक स्वतंत्रता के प्रखर आह्वान के साथ ही सामाजिक सांस्कृतिक जागरण का भी उद्बोधन कराती है। एक ओर उन्होंने परतंत्र भारत के निष्क्रिय जन-मन को ललकारते हुए कहा-

शेरों की माँद में
आया है आज स्यार
जागो फिर एक बार![13]

तो दूसरी ओर वे अंग्रेजों द्वारा भारत के आर्थिक शोषण के प्रति भी आगाह करते हैं-

चूम चरण मत चोरों के तू।
गले लिपट मत गोरों के तू।

इसी के साथ निराला सामाजिक ऊँच-नीच और निम्न वर्ग के शोषण के विरुद्ध भी आवाज बुलन्द करते हैं।

निराला का राष्ट्रीय उद्बोधन का स्वर आध्यात्मिक अनुभूति से भी अनुस्यूत है। इस कारण निराला भारतीय नवजागरण के प्रतिनिधि कवि कहलाते हैं। पाश्चात्य राजनीतिक एवं सांस्कृतिक आक्रमण से भारत की दुर्दशा को मध्यकालीन सांस्कृतिक अव्यवस्था से व्यंजित करते हुए निराला कहते हैं-

भारत के नभ का प्रभपूर्ण
शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे-तमस्तुर्य दिड्.मंडल।[14]

दिल्ली, पतनोन्मुख, यमुना के प्रति, खण्डहर के प्रति, शिवाजी का पत्र, जागो फिर एक बार, तुलसीदास, राम की शक्ति पूजा आदि पौराणिक सांस्कृतिक जागरण की प्रतिनिधि रचनाएँ निराला को नवजागरण का प्रतिनिधि कवि प्रमाणित करती हैं। भारतीय अध्यात्मिक गौरव का भान कराते हुए निराला पराधीन भारत के दीन-हीन जनमानस को आन्दोलित करने के लिए आह्वान करते हैं-

योग्य जन जीता है
पश्चिम की उक्ति नहीं
गीता है गीता है,
स्मरण करो बार-बार।[15]

पश्चिमी संस्कृति के प्रति मुखापेक्षियों को इस प्रकार अपने सांस्कृतिक वैभव का स्मरण कराना उनमें नया आत्मविश्वास भरने का प्रयास था।

निराला ने रामकृष्ण मिशन के निकट सम्पर्क में रहकर तथा स्वामी रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानन्द का अध्ययन कर उनके अद्वैत वेदान्तको अपने काव्य का आधारस्तम्भ बनाया। इससे उनका सम्पूर्ण चिन्तन प्रभावित हुआ और उनकी सांस्कृतिक राष्ट्रीय चेतना प्रखर हुई। निराला की राष्ट्रीयता विविध आयामी थी। वे राष्ट्र के राजनीतिक स्वातन्त्र्य के साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्वातन्त्र्य के भी पक्षधर थे। उनका साहित्य इसका ज्वलन्त प्रमाण है।

निराला के सम्पूर्ण साहित्य का केन्द्रीय संवेदन उनका मानवतावादी दृष्टिकोण है। प्रत्येक प्रकार के अन्यायपूर्ण शोषणयुक्त तंत्र का अन्त कर स्वतंत्रता, समानता, न्याय और जनचेतना पर आधारित एक नयी मानवतावादी संस्कृति की स्थापना करना ही निराला का मूल मन्तव्य था। उपेक्षित उत्पीड़ित सामन्य जन को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने के लिए वे शक्तिशाली शोषक वर्ग से समाज तंत्र को मुक्ति दिलाना चाहते थे।

यह मानवतावादी प्रवृत्ति रचनाकाल के प्रारम्भ से ही उनके काव्य में विद्यमान थी। उन्होंने न केवल दरिद्र-दुर्बल के बोझिल जीवन के वर्णन तथा अभावग्रस्तता एवं दुखों के प्रभावी चित्र अपने साहित्य में अंकित किये वरन् उनके प्रति स्नेहसिक्त करुणा का स्वर भी उनके काव्य में मुखरित हुआ। विधवा, भिक्षुक, दीन, दान, तोड़ती पत्थर आदि रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक यथार्थ के साथ ही निराला की लोकचेतना भी मुखर हो उठी है।

वह आता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक
मुट्ठी भर दाने को-भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।[16]

डॉ. धनंजय वर्मा के शब्दों में ’’अतिशय कल्पना के आरोप के उस युग में भी निराला साधारण समाज और मानव जीवन की ओर दृष्टि विक्षेप करते हैं।[17]

कुरीतियों एवं अत्याचारों के गलित सामाजिक अंग पर पैनी सजग दृष्टि रखते हुए निराला ने महापुरुष विशिष्ट एवं आदर्श व्यक्ति के स्थान पर दीन-हीन दलित वर्ग को काव्य का आधार बनाकर छायावाद के भावजगत में युगक्रान्ति उत्पन्न कर दी। निराला का मानववाद मानव-मानव की समता, दलितों-पीड़ितों के प्रति करुणा और अत्याचारी पाखण्डी के प्रति आक्रोश, घृणा और व्यंग्य का समन्वित रूप   है। अन्य छायावादी कवियों में मानव-मानव समता का भाव उपलब्ध है किन्तु दलित-पीड़ित के प्रति करुणा का स्वर प्रायः दबा हुआ और अत्याचारी के प्रति घृणा एवं व्यंग्य का भाव नहीं के बराबर है। इन तीनों भावों का सम्यक् निर्वाह निराला काव्य की मौलिक देन है। इस दृष्टि से वे प्रसाद, पंत एवं महादेवी से बहुत आगे हैं। सन् 1936 के बाद जिस असामान्य के सामान्य जीवन का चित्रण काव्यादर्श बन गया था निराला उसे बहुत पहले अपना चुके थे और काव्य में उसकी संभावना की समस्या का निराकरण भी कर चुके थे।

भारतेन्दु युग में काव्य भाषा मुख्यतः ब्रज ही थी द्विवेदी युग में खड़ी बोली काव्य की भाषा बन रही थी किन्तु उसे परम्परावादी आचार्यों द्वारा श्रेष्ठकाव्य के लिए अब भी अनुपयुक्त माना जाता था। निराला ने खड़ी बोली को ब्रजभाषा से मुक्ति प्रदान कर उसकी शब्द संपदा और अभिव्यक्ति के आयामों का अत्यधिक विस्तार किया।

प्रारम्भिक काल से ही अपने भाषा वैविध्य के बावजूद छायावादी काल में निराला की भाषा में तत्सम-बहुल कोमलकान्त पदावली के साथ ओजपूर्ण समासप्रधान पदावली का समन्वय दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि उनके शब्द भण्डार में संस्कृत, बंगाल एवं अन्य प्रान्तीय भाषाओं के शब्द ही प्रधान हैं पर अंग्रेजी एवं उर्दू के शब्द भी इस काल में अल्प मात्रा में समाविष्ट होने लगे हैं।

आर्ट ऑफ रीडिंगपर अधिक जोर देने वाले निराला की भाषा में नाटकीयता, बालाघात एवं सांगीतिक लयात्मकता का उद्भूत चमत्कार है। उनकी भाषा का प्रधान गुण ओज है। कहीं-कहीं भावानुकूल लोकभाषा की निकटता का निर्वाह उनकी भाषा चातुरी का द्योतक है। निराला का भाषा वैविध्य इस काल में ही देखा जा सकता है। यथा-

ओजपूर्ण समास बहुध तत्सम शब्दावली-

विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन-हत लक्ष्य-बाण,
लोहत लोचन -रावण-मदमोचन-महीयान
राघव-लाघव-रावण-वारण-गत युग्म प्रहर,
उद्धत-लंकापति-मददित कपि दल बल विस्तर,[18]
माधुर्यपूर्ण कोमलकान्त तत्सम शब्दावली-
यामिनी जागी।
अलस पंकज-दृग अरुण मुख, तरुण अनुरागी।[19]

प्रसादययुक्त लोक प्रचलित शब्दावली-   

वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर।[20]

निराला की प्रतीक योजना, बिम्ब योजना एवं रंग योजना भी मौलिक उद्भावनाओं से युक्त हैं। श्रृंखलाबद्ध प्रतीक-योजना दृष्टव्य है-

विद्युत्-छवि उर में, कवि नवजीवन वाले!
वज्र छिपा नूतन कविता
फिर भर दो-
बादल गरजो![21]

निराला के प्रतीक-प्रकृति से लेकर पौराणिक संदर्भो और जनसामान्य से लेकर महिमामण्डित तक सभी क्षेत्रों से ग्राह्य हैं। निराला की रंग-योजना का मौलिक स्वरूप रंगों के भावात्मक मूल्यबोध एवं बिम्बयोजना में स्पष्ट हुआ है। लाल रंग अनुराग, हरा रंग प्राकृतिक उत्फुल्लता, ताजगी एवं नवीनता, नीला रंग विराट एवं उदारता बिम्बों और श्वेत रंग पवित्रता उदारता एवं क्रान्तिधर्मिता के रूप में आया है तो प्रकाश एवं अंधाकार का द्वन्द्व उनके काव्य का मूल द्वन्द्व बन गया।

निराला की बिम्ब योजना ऐन्द्रिक संवेदनाओं के साथ प्राकृतिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक सीमाओं को भी छूती है। निराला के बिम्ब प्रायः वस्तुनिष्ठ, संश्लिष्ट उदारता एवं घनीभूत हैं-

शतघूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़
जल-राशि राशिजल पर चढ़ता खाता पछाड़।[22]

संश्लिष्ट बिम्ब-

वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी
वह दीपशिखा सी शांत, भाव में लीन।[23]

’’मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मो के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना।’’[24] इस उद्घोष के साथ निराला ने हिन्दी कविता को छान्दसिक बन्धनों से मुक्त कर एक नवीन मुक्त छन्दप्रदान किया। यद्यपि स्वयं निराला ने छान्दसिक रचनाएँ भी अपने पूर्ण काव्यात्मक वैभव का निर्वहन करते हुए लिखी हैं। निराला का मुक्त छन्द-विधान सांगीतिक लय एवं पठन कौशल पर आधारित है अतः उसे पूर्णतः स्वच्छन्द छन्द-विधान नहीं कहा जा सकता।

संगीत निराला काव्य का सर्वव्यापी तत्व है। शास्त्रीय संगीत के साथ लोक धुनों एवं पाश्चात्य संगीत के साथ रवीन्द्र संगीत का समन्वय उनके काव्य में दृष्टव्य है।

निष्कर्ष इस प्रकार निराला’’... छायावाद के मूर्धन्य कवि होते हुए भी उस धारा के सैद्धान्तिक पक्ष के गुलाम नहीं बने, बल्कि उससे आगे बढ़कर उन्होंने एक और प्रगतिवादी धारा के उपयोगी तत्व को अपनाया, तो दूसरी ओर सांस्कृतिक तत्वों को आत्मसात किया। अन्य छायावादी कवियों के समान न उनमें कहीं पलायन का स्वर है और न साम्प्रदायिकता की गन्ध।’’[25]
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. निराला - परिमल, पृ. 114 2. निराला - परिमल, पृ. 97 3. निराला - परिमल, पृ. 104 4. वही, पृ. 122 5. निराला - अनामिका, पृ. 93 6. वही, पृ. 64-65 7. दूधनाथ सिंह - निराला: आत्महन्ता आस्था, पृ. 30 8. निराला - अनामिका, पृ. 9 9. दूधनाथ सिंह -निराला: आत्महन्ता आस्था, पृ. 38 10. निराला - अनामिका, पृ. 117 11. वही. पृ. 98 12. निराला - परिमल, पृ. 156 13. वही, पृ. 157 14. निराला - तुलसीदास, पृ. 3 15. निराला - परिमल, पृ. 158 16. वही, पृ. 103 17. धनंजय वर्मा - निराला काव्य का पुनर्मूल्यांकन, पृ. 121 18. निराला - अनामिका, पृ. 109 19. निराला - गीतिका, पृ. 34 20. निराला - अनामिका, पृ. 64 21. वही, पृ. 67 22. वही, पृ. 112 23. निराला - परिमल, पृ. 98 24. वही, पृ. 8 25. रामलाल सिंह - पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व -हिन्दी साहित्य सम्मेलन पत्रिका (श्रद्धांजलि विशेषांक), पृ. 406-407