ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- VI July  - 2023
Innovation The Research Concept
महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी की आवश्यकता
Need for Political Participation of Women
Paper Id :  17854   Submission Date :  18/07/2023   Acceptance Date :  23/07/2023   Publication Date :  25/07/2023
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सुमन यादव
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय महाविद्यालय, कृष्णनगर
नारनौल, महेन्द्रगढ़,हरियाणा, भारत
सारांश

महिला पुरुष समानता का दावा सैद्धान्तिक मात्र है। भारतीय समाज इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि राजनीतिक जीवन में सक्रियता राष्ट्र विकास के लिए आवश्यक है। महिला विकास एवं स्वतन्त्रता का आन्दोलन किसी भी दृष्टि में पुरुष विरोधी नहीं है। आन्दोलन का लक्ष्य है कि राष्ट्र की क्षमता जो जनसंख्या का आधा भाग है का उपयोग राष्ट्रीय विकास में किया जाये दुनिया की बेहतरी, विकास और प्रगति की बातें तब तक बेमानी रहेंगी जब तक की असमान स्थिति वाली आधी दुनिया यानी महिलाओं को बराबरी का दर्जा हासिल न हो। महिलाओं ने राजनीति में सचेत व सक्रिय रूप से योगदान दिया है। विधानसभा में व लोकसभा में स्त्रियों की संख्या कम ही है और यही स्थिति सरकारी पदों व नौकरियों में भी दिखाई पड़ती है। राजनीतिक दलों के सामान्य सदस्यों के रूप में स्त्रियां काफी संख्या में होती हैं। किन्तु ऊंचे पद पर व नेतृत्व करती हुई कम ही होती है। राजनीतिक क्षेत्र के ऐसे पदों पर स्त्रियां ही कम होती हैं जहां महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाते हैं। आज की स्थिति में राजनीति में महिलाओं की मुखरित उपस्थिति इतनी आवश्यक है जितनी पहले कभी नहीं थी। आखिर सभी सामान्य विधेयक कानून नियम जो पुरुषों को प्रभावित करते है महिलाओं को भी प्रभावित करते ही है, परन्तु इनके अतिरिक्त अनेक ऐसे मसले है जो केवल महिलाओं को ही प्रभावित करते हैं। उनकी सही चर्चा की पात्रता तो केवल महिलाओं की ही है। जो सदनों में न के बराबर है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The claim of equality between men and women is only theoretical. Indian society is not able to accept the fact that activism in political life is essential for national development. The movement for women's development and freedom is not anti-male in any way. The goal of the movement is that the potential of the nation, which is half of the population, should be used in national development. The talk of betterment, development and progress of the world will remain meaningless until half of the world with unequal status i.e. women get equal status. Are. Women have contributed consciously and actively in politics. The number of women in the Vidhansabha and Lok Sabha is less and the same situation is also seen in government posts and jobs. There are a large number of women as ordinary members of political parties. But she is rarely on a high position and leading. There are very few women in such positions in the political field where important decisions are taken. In today's situation, the vocal presence of women in politics is more necessary than ever before. After all, all general bills, laws and rules that affect men affect women as well, but apart from these, there are many issues that affect only women. Only women are eligible for their proper discussion. Which is not equal in the houses.
मुख्य शब्द समानता, राजनीतिक भागीदारी, राष्ट्र विकास।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Equality, Political Participation, Nation Development.
प्रस्तावना

महिलाओं के प्रति भेदभाव मिटाने तथा राजनीति में भागीदारी निभाने के लिए सतत् प्रयासों की आवश्यकता इसलिए महसूस की जाती रही है क्योंकि महिलायें मूल मानव अधिकारों का लाभ उठाकर और संगठित होकर समाज के प्रति अपने योगदान को मान्यता प्रदान कर सकें। महिलाओं के साथ भेदभाव को मानव प्रतिष्ठा और परिवार व समाज के कल्याण की दृष्टि से असंगत ठहराया गया। किसी भी देश के पूर्ण व संर्वांगीण विकास, विश्व कल्याण व शान्ति के लिए सभी क्षेत्रों में महिलाओं व पुरुषों द्वारा अधिकाधिक रूप से भाग लेना जरूरी है। महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए राजनैतिक संकल्प की सबसे अधिक जरूरत है। किसी भी देश में विकास व शान्ति के व्यापक उद्देश्यों को पाने के लिए आवश्यक है कि समाज में स्त्री पुरुष समान रूप से कर्तव्यों का निर्वाह करें व महिलायें बुद्धिजीवियों, नीति निर्धारकों, नियोजकों और विकास के क्षेत्र में योगदान देने वालों व लाभ प्राप्त करने वालों की केन्द्रीय भूमिकायें निभायें। जिसको अब जरूरत है वह है राजनैतिक संकल्प जो विकास को इस प्रकार बढ़ावा दे कि महिलाओं को गौण व्यक्ति बताना और महिलाओं के मुद्दों को निम्न प्राथमिकता देना जारी रखने वाली वर्तमान दशाओं व संरचनाओं को बदलने वाली महिलाओं के उन्नयन की रणनीतियां प्रथम व अग्रणी रहें। महिलाओं की प्रगति ने एक विशेष वेग ग्रहण कर लिया है जो कि एक मान्य शक्ति के रूप में बना रहेगा। महिलाओं के सामाजिक स्तर को उन्नत करने के लिए यह भी आवश्यक है कि अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के सिद्धातों को अपनाया जाए। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जब तक कि कुछ बड़े उपाय नहीं किये जायेंगे तब तक ऐसी अनेक बाधाएँ बनी रहेंगी जो राजनैतिक जीवन में महिलाओं की सहभागिता को तीव्र नहीं होने देती।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी की आवश्यकता का अध्ययन करना है।

साहित्यावलोकन

महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु आवश्यक है कि महिलाओं के अधिकारों के आधार को स्थापितसशक्तसंशोधित व विस्तृत बनाने के लिए राजनैतिक प्रतिवद्धता को मजबूत बनाया जाये। महिलाओं को सभी स्तरों पर समान सुविधाएं व अवसर प्रदान किया जाएयहां तक कि वे पुरुषों के समान शक्ति की भागीदार हो ऐसी सुधार समितियों का गठन भी किया जाना चाहिए। जिससे कानूनों की समीक्षा हेतु सरकारी व गैर सरकारी संगठनों की महिलाओं व पुरुषों दोनों का प्रतिनिधित्व हो। सरकार महिलाओं को उनके राजनैतिक अधिकारों के प्रति सजगता प्रदान करें और मत देने तथा चुनाव में हिस्सा लेने हेतु प्रोत्साहित करें।[1]
सरकारों तथा राजनीतिक दलों को सभी राष्ट्रीय तथा स्थानीय विधायकों में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने और भागीदारी में समानता सुनिश्चित करने के लिए और इन निकायों की प्रशासकीयविधायी और न्यायिक शाखाओं में ऊंचे पदों पर महिलाओं की नियुक्तियां चुनावों और पदोन्नतियों में समानता हासिल करने के लिए सघन प्रयत्न करने चाहिए। स्थानीय स्तर पर राजनीतिक भागीदारी में महिलाओं की समानता को सुनिश्चित करने के लिए नीतियों को व्यवहारिक होना चाहिए। स्थानीय स्तरों पर महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दों पर नजदीकी संबंध बनाने चाहिए और स्थानीय मूल्यों तथा जरूरतों के अनुसार प्रस्तावित उपायों के औचित्य को ध्यान में रखना चाहिए। सरकारों को विधायी और प्रशासनिक कदमों के जरिये राष्ट्रीय और राज्य तथा स्थानीय स्तरों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी प्रभावशाली ढंग से सुनिश्चित करनी चाहिए। उम्मीद की जाती है कि सरकारी विभाग अपने संचालन की जिम्मेदारी प्राथमिक तौर पर किसी महिला को सौपेगें। इस कार्यालय का काम महिलाओं के समान प्रतिनिधित्व की प्रक्रिया को तेज करना और सावधि उसको निगरानी करना होगा। महिलाओं को भर्ती तथा पदोन्नति को बढ़ाने के लिए विशेष गतिविधियां शुरू की जानी चाहिए और खासतौर से निर्णय लेने वाले और नीति निर्धारित करने वाले पदों पर महिलाओं को भर्ती को बढ़ाने के लिए विशेष गतिविधियां शुरू की जानी चाहिए। यह कार्य पदों को और ज्यादा सार्वजनिक करके और गतिशीलता को बढ़ाकर किया जा सकता है। जब तक की महिलाओं की समान भागीदारी हासिल नहीं कर ली जाती है।[2]
हालांकि भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था महिलाओं को मानव उधम के सभी क्षेत्रों में अधिक भागीदारी के लिए सभी समर्थक एवं आवश्यक स्थितियां मुहैया कराती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि सभी स्तरों पर निर्णय लेने में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। यह व्यापक रूप से स्वीकार किया गया कि सार्वजनिक जीवन और निर्णय लेने में काफी बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। उनका विलक्षण अनुभव और परिप्रेक्ष्य उन तरीकों को बरतेगाजिन समस्याओं को आज देखते है क्योंकि वे अभिनव और सुस्पष्ट तरीके से नई एवं भिन्न प्राथमिकताओं को उनके कार्यान्वयन द्वारा निर्धारित करेगीं।
विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र के रूप में महिलाओं की समानता के लिए विविध प्रकार के संगठनों और ढांचों के निरन्तर प्रयोग हुए है। राष्ट्रीय महिला दशक द्वारा महिलाओं के उन्नति के लिए राष्ट्रतन्त्र की धारणा को विश्व व्यापी बनाने से पहले हीवर्ष 1947 में अर्थात आजादी प्राप्त करने के बाद से हीयहां इनकी शुरूआत हो गयी थी सामाजिक बदलाव लाने में शासन को एक प्रमुख प्रवर्तक के रूप में देखा जाता है और इस पर महिलाओं और पुरुषों के समानता के मूलभूत अधिकारों का सुनिश्चयन करने तथा लिंग के आधार पर भेदभाव समाप्त करने का उत्तरदायित्व है।

मुख्य पाठ

आधुनिक भारत का गणतन्त्रात्मक, लोकतन्त्रात्मक और धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक ढांचा, मानव उद्यम के सभी क्षेत्रों और दिशाओं में महिलाओं की आधिकाधिक भागीदारी के लिए आवश्यक तथा अनुकुल परिस्थितियां उपलब्ध कराता है। हमारे राजनैतिक ढांचे में समानता की गारन्टी दी गई है तथा लिंग, भाषा, धर्म, जाति अथवा मत के आधार पर महिलाओं की भागीदारी की गति धीमी है। शक्तियों के बंटवारे में असमानता को दूर करने के लिए सरकार तथा समाज को जिस कठिन कार्य का सामना करना पड़ रहा है वह है भारत जैसे विविधता पूर्ण, मिली-जुली संस्कृति वाले विभिन्न धर्म-भाषाएं तथा विभिन्न जातियों के लोग रहते है। सदियों से रची-बसी अभिवृति संबंधी, संस्थागत सांस्कृतिक तथा सामाजिक रूढ़ियों को समाप्त करना है। अब इस बात पर लोग एकमत नहीं है कि सार्वजनिक जीवन तथा निर्णय लेने की प्रक्रिया में अधिक संख्या में महिलाओं की भागीदारी से समाज में सार्थक परिवर्तन आएगा। उनके विशिष्ट अनुभव तथा नजरिए से समस्याओं को समझने और उनके समाधान की दिशा में नये दृष्टिकोण का सूत्रपात होगा क्योंकि वे समस्याओं के समाधान हेतु नवीन तथा अलग प्राथमिकताएं निर्धारित करेगीं और उनके कार्यान्वयन के लिए नये तथा अलग तरीके अपनायेगी।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका तथा स्थिति की समीक्षा करने के पश्चात भारत में महिलाओं की स्थिति पर गठित समिति (1974) ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि "भागीदारी, अभिरुचियां तथा प्रभाव संबंधी सभी सूचक एक ही परिणाम को दर्शाते है। महिलाओं के राजनैतिक और सामाजिक दर्जे में क्रान्ति, जिसके लिए संवैधानिक समानता ही एक मात्र उपाय था, का यह लक्ष्य अभी भी अधूरा है। राज्य के प्रतिनिधि निकायों में बड़ी संख्या में महिलाओं का अब तक कोई ऐसा प्रवक्ता नहीं है, जो उनकी सामाजिक समस्याओं को समझता हो तथा उनके निराकरण के प्रतिबद्ध हो..." महिलाओं के पास प्रवक्ताओं की कमी नहीं है परन्तु महिलाओं की आवाज अब भी बहुत कमजोर है, जबकि इसे दृढ़ और बुलन्द किये जाने की आवश्यकता है। महिलाओं की भागीदारी, न केवल लोकतन्त्रात्मक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण अंग है, बल्कि यह नागरिक जीवन को सुदृढ़ बनाने और उसमें गुणवत्ता लाने के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है चूंकि महिलायें जनसंख्या का आधाभाग है। अतः अत्याधिक अनिवार्य है कि सार्वजनिक क्षेत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलायें भी शामिल हों और महिलाओं की पूर्ण भागीदारी में रुकावट पैदा करने वाले अवरोध का पता लगाया जाए और उन्हें दूर किया जाए प्राय: सामाजिक संरचना और सामाजिक रीति-रिवाज हो अवरोध बनते है। यदि निर्णय लेने की प्रक्रिया में अधिकाधिक महिलाओं को शामिल किया जाये तो इससे सार्वजनिक नीति पर सार्थक प्रभाव पड़ेगा। महिलाओं से सम्बन्धित मामलों को सामाजिक मुद्दे बनाये जाने की आवश्यकता है तथा सामाजिक मसले महिलाओं के मुद्दे और उनके उत्तरदायित्व का एक भाग होने चाहिए। महिलायें नये दृष्टिकोणों के लिए अवश्य आवाज उठाये तथा सामाजिक समस्याओं के लिए वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करें। अब तक किसी न किसी स्तर पर व्यक्तिगत त्याग, यातनाएं सहन करने अथवा भेदभाव की पीड़ा से गुजरें बिना बहुत कम महिलायें उच्च स्तर पर उपर उठ सकी है।

प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में जन्म लेता है, परन्तु परिस्थितियां पग-पग पर उसके लिए अवरोध उत्पन्न करती है और उसकी दशा जंजीरों से जकड़े व्यक्ति की तरह हो जाती है। अपनी परतन्त्रता का ज्ञान होने पर वह स्वतन्त्र रूप से जीवनयापन करने का अधिकार चाहता है, क्योंकि स्वतन्त्रता उसका जन्मसिद्ध अधिकार होता है। उक्त परिवेश में जन्म लेने वाली नारी को भी अपनी स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए प्रयास करने को स्वतन्त्रता चाहिए। नारी के लिए तो स्वतन्त्र और उचित अवसर और भी अधिक मूल्यवान है क्योंकि नारी एक परिवार, समाज तथा देश की नींव होती है। अतः नारी के बहुमुखी विकास के लिए उसे पूर्ण स्वतन्त्रता का अधिकार मिलना अत्यन्त आवश्यक है। स्वतन्त्रता का प्रथम सोपान नारी की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता है। भारत में आज भी अनेक स्थानों पर नारी अपने व्यक्तिगत अधिकारों से वंचित है, उसे अपनी रुचि और आवश्यकतानुसार नहीं, बल्कि वंश और समाज की इच्छानुसार जीवन व्यतीत करना पड़ता है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के बाद ही नारी अन्य क्षेत्रों के बारे में सोच सकती है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अनेक नारियों ने अपनी प्रतिभा तथा शक्ति के बल पर अविस्मरणीय योगदान किया था। ऐसी नारियों की संख्या में वृद्धि के लिए आवश्यक है कि नारी को प्रत्येक क्षेत्र में सफलता की प्राप्ति के लिए स्वतन्त्रता दी जाएं। पूर्ण रूप से स्वतन्त्र नारी ही अपना समुचित विकास कर सकती है। जो व्यक्ति स्वयं में विकसित होता है वही देश तथा समाज की प्रगति में अपना योगदान कर सकता है। आज नारियां राजनीति, समाज सेवा आदि अनेक क्षेत्रों में अपना बहुमूल्य योगदान दे रही हैं उन्हें मिली पूर्ण स्वतन्त्रता ने ही उन्हें इस ऊंचाई पर उपस्थित किया है। अब वह समय दूर नहीं जब नारी अपनी प्रतिभा के बल पर स्वतन्त्रता के आधार पर समाज तथा देश को आदर्श रूप प्रदान करेगी जो किसी भी देश के विकसित रूप को आभासित करता है।

राजनीति के प्रति महिलाओं में जागृति उत्पन्न करना एक आवश्यक कार्य है। महिलायें राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय योगदान दें, अपनी सहभागिता से राजनैतिक क्रियाकलापों को बढ़ावा दें तभी राष्ट्र का विकास सम्भव है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है। महिलायें राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय योगदान दें। अपनी सहभागिता से राजनैतिक क्रियाकलापों को बढ़ावा दें, तभी राष्ट्र का विकास सम्भव है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न करने की है। इसके लिए पूर्ण प्रयास किया जाना भी एक आवश्यक कार्य है। इस कार्य में शिक्षित व जागरूक महिलायें अपना सहयोग दे सकती हैं।

सबसे प्रमुख आवश्यकता यह है कि प्रत्येक बुद्धिजीवी व्यक्ति, चिंतक तथा देश के नेता समस्याओं की जड़ों तक पहुँचे और अधिकार प्राप्त करने के लिए मात्र नारेबाजी करने, भाषण देना ही पर्याप्त नहीं है। इन समस्याओं के समाधान हेतु विज्ञापनों, पत्र पत्रिकाओं का उपयोग किया जा सकता है। प्रचार व प्रसार के माध्यम से घरेलू कार्य करते हुए न दिखाकर राजनीतिक गतिविधियों या अन्य महत्वपूर्ण कार्य करते हुए दिखाया जाना चाहिए और ऐसी महत्वपूर्ण विकृतियों को उभार कर सामने लायें, ताकि नारी जन-मानस में जागृति लाई जा सके। राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के लिए अलग राजनीतिक प्रशिक्षण शिवरों की व्यवस्था की जाये ताकि महिलाओं में राजनीतिक समझ को बढ़ावा मिले।

यदि देश की जनसंख्या का आधा भाग निष्क्रिय बना रहेगा तो देश का पूर्ण विकास सम्भव नहीं हो पायेगा हालांकि जनसंख्या की दृष्टि से महिलाओं को अल्पसंख्यक वर्ग में नहीं रखा जा सकता है फिर भी महिलाओं की स्थिति आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक दृष्टि से कमजोर होने के कारण तथा प्रगति के समान अवरार उपलब्ध नहीं होने के कारण महिलाओं को पिछड़े वर्ग में सम्मिलित किया जा सकता है।

ऐसी स्थिति में इस पिछड़े वर्ग को अन्य अल्पसंख्यक वर्गों की भांति प्रतिनिधित्व प्रदान करने वाली समस्त सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में कुछ अवधि के लिए आरक्षण पद्धति अपनाकर महिलाओं में हीनभावना को दूर करने एवं उनमें राजनीतिक गतिशीलता का विकास करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

यदि महिलाओं को समान सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति प्रदान करना चाहते हैं तो कुछ सीमित अवधि के लिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति की भांति सेवाओं के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रतिनिधित्व प्रदान करने वाली संस्थाओं में कम से कम 33 प्रतिशत आरक्षण तो प्रदान किया जाना चाहिए।

समाज की आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में सत्ता के समीकरण की ही राजनीति है यदि हम भारत में महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता की दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पाते है कि पूर्व वैदिक युग में मातृसत्तात्मक परिवार देखे जा सकते थे, किन्तु धीरे-धीरे रामायण, महाभारत व प्राचीन भारत तथा मध्यकालीन रा भारत तक महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। स्वाधीनता आन्दोलन में गांधी के आह्वान पर महिलाएं राजनीति के क्षेत्र में कुछ आगे आई। संविधान में महिलाओं के समान अधिकार की बात कहकर यह समझ लिया गया, लेकिन उन्हें समाज में बराबरी का अवसर और बराबर भागीदारी प्रदान करने के लिए कुछ ऐसी अहम् आवश्यकताएं भी हैं जिनको पूरा किये बगैर महिला को समाज में बराबरी प्राप्त नहीं हो सकेगी। यह बात एक प्रकार से भुला दी गई, किन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के बाद सामान्यतः राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और निर्णयात्मक पदों पर उनकी उपस्थिति नहीं के बराबर है। क्या कारण है कि राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी इतनी कम है? वास्तविकता यह है कि महिलाओं को अपने अधिकार के लिए खुद ही लड़ना होगा। महिलाओं को समाज में समान सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए कानूनी संरक्षण की अत्यधिक आवश्यकता है और इस कानूनी संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक अधिकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलायें अधिक से अधिक संख्या में प्रतिनिधि सभाओं में पहुचें और संगठित होकर महिलाओं के हक में कानून बनाएं। साथ ही राजनीतिक दलों के संगठनों में भी अधिक से अधिक महिलायें निर्णय ले सकने वाले पदों पर पहुंचे और महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए एवं न्याय दिलाने के लिए दबाव समूह के रूप से कार्य करें। इसीलिए यह देखने का प्रयास किया गया कि महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता एवं उनके द्वारा सत्ता के उपभोग के सन्दर्भ में विविध राजनीतिक दल कैसा रूख अपनाते हैं।

राजनीति में महिलाओं की निम्न भागीदारी उनके दोयम दर्जे और शक्तिहीनता की परिचायक है। अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता, सामाजिक रीतिरिवाज, परम्पराएं एवं विश्व में व्याप्त पितृ सत्तामक दृष्टिकोण महिलाओं की राजनीतिक निष्क्रियता के मूल आधार है।[3]

आजादी की आधी सदी बीत जाने पर भी इस देश की महिला पूरी आजादी और बराबरी का दर्जा हासिल नहीं कर पायी है। भले ही नारी को पुरुष की अर्धागिनी, देवी, शक्ति, जननी और इसी तरह की और भी बहुत-सी भारी भरकम पद्धतियों से सुशोभित किया गया है। किंतु व्यवहारिक धरातल पर वह पुरुष से छोटी ही रही है। पुरुष शासित समाज का ढांचा ही कुछ इस तरह का है कि सक्षम, शक्तिशाली, गुणी तथा अधिकार सम्पन्न होने पर भी वह अबला कहलाती है और समझी जाती है। यह सच है कि पिछली एक शताब्दी में औरत पहले के मुकाबले मजबूत हुई है। उसने कुछ हद तक स्वतन्त्रता और अधिकार भी हासिल किये है। वह आर्थिक स्वावलम्बन की दिशा में अग्रसर हुई है। राजनीति, व्यापार, व्यवसाय, समाज-सेवा, कला संस्कृति और पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में उसकी भागीदारी का विस्तार हुआ है।

यद्यपि राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी स्वतन्त्रता प्राप्ति से काफी पहले होने लगी थी और एनी बीसेंट, सुचेता कृपलानी, सरोजनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, मैडम कामा, अरुणा आसफ अली, विजयलक्ष्मी पण्डित सरीखी असंख्य महिलाओं ने अपनी नेतृत्व क्षमता का भी परिचय दिया किंतु स्वतन्त्रता के बाद निश्चित रूप से राजनीतिक सत्ता में महिलाओं का योगदान बहुत बड़ा है। प्रधानमंत्री के रूप में इन्दिरा गांधी तथा राज्यसभा की उपाध्यक्ष के रूप में डाक्टर नजमा हेपतुल्ला के अलावा बहुत सी महिलाओं ने केन्द्रीय मन्त्री, मुख्यमंत्री और राज्यों के मन्त्री के रूप मे कार्य किया है। संसद और विधान मण्डलों में महिलाओं का प्रतिशत हालांकि उनकी संख्या की दृष्टि के अनुपात से बहुत कम है। किन्तु इसमें उत्तरोतर वृद्धि होती गई है। नगर पालिकाओं और पंचायतों में तो आरक्षण के बाद महिलाओं की भागीदारी में कई गुना वृद्धि होने जा रही है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि महिलाओं को सचमुच सत्ता में बराबर का हिस्सेदार मान लिया गया है। संविधान में बराबरी का दर्जा मिलने, सार्वजनिक रूप से स्त्रियों के अधिकारों को मान्यता दिये जाने तथा महिलाओं के लिए आरक्षण के बावजूद उन्हे सत्ता में बराबरी देने की बात हमारे राजनेताओं के गले नहीं उत्तर पा रही है।

लोकसभा और विधान सभाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का विधेयक जिस प्रकार सभी दलो में पुरुषों के विरोध के कारण अधर में लटक गया उससे स्त्रियों को सत्ता का भागीदार बनाने की घोषणाओं की सच्चाई का पर्दाफाश हो जाता है।

भारतीय संविधान के निर्माताओं ने महिलाओं की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत को देखते हुए उन्हें पुरुषों के समान मान कर सारे संवैधानिक अधिकार दे दिये। परन्तु सदियों से पुरुष और परिवार की सेवा में समर्पित अपनी आहुति देती, देश की आधी आबादी के घर-आंगन और घूंघट तक आजादी की किरण नहीं पहुँच पाई। खेत-खलिहान और कल कारखाने में काम करती मजदूर महिलाओं तक भी नहीं। इसलिए उनकी राजनीतिक भागीदारी भी नगण्य रही। अब तक लोकसभा में भी महिलाओं की अधिकम संख्या दस प्रतिशत तक ही पहुँच पायी है।

महिलाओं की उन प्रणालियों और माध्यमों तक पहुँच होनी चाहिए, जहाँ वे स्वयं को अभिव्यक्त कर सके और अपनी संभावनाओं को मूर्त रूप देकर अपने अधिकार हासिल कर सके।[4]

यूं तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अति विकसित राष्ट्रों में भी लोकतान्त्रिक संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। और निर्णायक प्रक्रिया में उनका स्थान तो नगण्य ही है। इसीलिए महिलाओं के हक के लिए आन्दोलन कर रही तमाम महिला नेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में उठ रहे रोष विभिन्न मंचों में सक्रिय कार्यकर्ताओं के रूप में कठिन परिश्रम करने के बावजूद दल में उन्हें उचित भागीदारी नहीं मिलती, पद नहीं मिलता अर्थात पुरुष प्रधान समाज का हस्तक्षेप राजनीतिक जीवन में भी परिलक्षित होता रहा है। और इसीलिए पंचायतीराज कानून में एक तिहाई आरक्षण की कानूनी मंजूरी पर विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं और आंशकाएं उठने लगी। कार्य कठिन है परन्तु इतना निश्चित है कि विधानसभा और लोकसभा तक पहुंचने के लिए महिलाओं को राजनीतिक जिम्मेदारी निभाने का सबसे पहले प्रशिक्षण लेना आवश्यक हैं और यह प्रशिक्षण भी छोटे-छोटे राजनीतिक पद व दायित्वों को निभा कर प्राप्त किया जा सकता है। निर्वाचित हुई पदाधिकारी के लिए भी अपना दायित्व निभाना प्रारम्भ में आसान नहीं होगा। अगूंठे का निशान और दस्तखत भले ही उन महिलाओं के होते है, परन्तु निर्णय पुरुषों के, लेकिन यह स्थिति बहुत दिनों तक नहीं चलेगी। अनुभव बताता है कि महिलाओं को भी किसी क्षेत्र का प्रशिक्षण देने में देर नहीं लगती। यदि राजनीति में महारत हासिल किए गांवों में बैठे राजनीतिक वर्चस्वधारी नेताओं में थोड़ा सा सब हो तो महिलायें अपने पदों की गरिमा दिखाने में देर नहीं करेगीं। इन लोकतन्त्रीय संस्थाओं में चुनी हुई महिलायें अपनी गरिमा के अनुकूल अपनी क्षमता दिखायेगी। जहां महिला प्रमुख है वे संस्थाए समाज में अलग पहचान और छवि बनाएंगी। समाज और परिवार ने अब तक जो जिम्मेदारी महिलाओं को दी है उसमें वे सदैव पूर्ण आस्था के साथ जुटी रही हैं। सम्पूर्ण समाज इसका साक्षी है। कर्तव्य के प्रति निष्ठा और लगाव तो उनका प्राकृतिक गुण रहा है।

जब पंचायती राज कानून में महिलाओं के लिए आरक्षण कर दिया गया, फिर विधानसभा और लोकसभा में आरक्षण हेतु इतने विवाद क्यों उठ रहे हैं? स्थानीय निकायों में जीतकर आई महिलायें कार्यरत है, एक तरह से उनका काम करते हुए प्रशिक्षण हो रहा है। इन महिलाओं को जब विधान सभा और लोकसभा में भी अवसर मिलेगा तो ये अपने अनुभव का नाम देकर दायित्व-निर्वहन में दक्षता ही दिखाएंगी।[30]

निष्कर्ष

महिलाओं की राजनीति में संख्या तभी बढ़ेगी, जब सामाजिक स्थितियां उसके अनुकूल होगी। भारत में एक ऐसा समाज बने, जिसमें पुरुष और महिला दोनों के लिए विकास के समान अवसर उपलब्ध हों। ऐसे समाज में ही महिलाओं को राजनीति और प्रशासन में उचित जगह मिल सकेगी।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. सुभाष चन्द्र सत्य: ‘‘भारतीय नारी कितनी जीती कितनी हारी‘‘ अनिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 1999, पृ0सं0-31

2. मृदुला सिन्हा: ‘‘ मानवी के नाते‘‘ प्रतिभा प्रतिष्ठान, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली, 1998, पृ0सं0-49-51

3. एस. चार्लटोन : वूमेन इन थर्ड वर्ल्ड डवलपमेन्ट बोल्डर वेस्ट व्यू, 1984, एवं पी. नोरिस, पोलिटिक्स एण्ड सेक्सयूल इक्विलिटी: द कम्पेरिटीव पोजीशन ऑफ वूमेन इन वेस्टर्न डेमोक्रेसीज (बोल्डर) लाने रीनर, 1987

4. अधिकार सम्पन्न महिलायें और विकास : एम्पलॉयमेंट न्यूज, नई दिल्ली, 16-12 सितम्बर 2002, पृ. 1-2

5. सुमन रामनाथ : "समाज सुधार : समस्याएं एवं समाधान", हि.न.जी. 7.1.29 उद्धृत गांधी साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद, 1951, पृ.सं. 128

6. शीला मिश्रा : महिलाओं की राजनीतिक क्रिया शीलता एवं विविध राजनीतिक दल, उप्पल पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली, 1989, पृ.सं. 272

7. मीरा कान्त : अन्तर्राष्ट्रीय महिला दशक और हिन्दी पत्रकारिता, क्लासिकल पब्लिसिंग कम्पनी, नई दिल्ली, 1994, पृ.सं. 460, 150, 195

8. अग्रणामी नीतियां : (सन् 2000 तक महिलाओं के विकास के लिए) नैरोबी लेख- निर्णय लेने और राजनीतिक भागीदारी में समानता सेन्टर फॉर वूमेन डवलमेन्ट स्टडीज, नई दिल्ली, 2000, पृ.सं. 23