ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VII , ISSUE- III April  - 2022
Innovation The Research Concept
ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय चिंतन परंपरा के विभिन्न स्वरुप : एक सिंहावलोकन
Historically Different Forms of Indian Thought Tradition: An Overview
Paper Id :  15965   Submission Date :  14/04/2022   Acceptance Date :  20/04/2022   Publication Date :  25/04/2022
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तरुण जैन
पूर्व शोध छात्र
इतिहास विभाग
बरकतउल्लाह यूनिवर्सिटी
,भोपाल, मध्य प्रदेश, भारत
सारांश स्वरूप से तात्पर्य उन विमाओं से है जिन क्षेत्र में भारतीयों द्वारा चिंतन किया जा रहा है। यह बात पूर्णतः सत्य है कि भारतीयों द्वारा चिंतन का प्रमुख क्षेत्र धर्म व दर्शन हैं। किन्तु, अन्य क्षेत्रों जैसे संस्कृति, समाज तथा राजनीति के क्षेत्र में भी भारतीयों द्वारा चिंतन किया गया है और निर्बाध रूप से जारी है। दर्शन यदि एक विचारधारा है, तो धर्म उसे कार्य रूप में परिणत करने का माध्यम है। आध्यात्मिक खोजें इस बात को प्रमाणित करती है भारतीयों की रूचि सदैव पारलौकिक क्षेत्र में ही रही है। गौतम बुद्ध हो या महावीर स्वामी ये सभी राज परिवार से ताल्लुक रखते थे। किन्तु, फिर भी इन्होंने राज-सुख छोड़कर सन्यास ग्रहण किया और आध्यात्मिक रहस्यों को समझने में अपना समय व्यतीत किया। देखा जाए तो भारतीय संस्कृति की अपनी एक विशेष पहचान रही है। संस्कृति का संबंध उन मानवीय मूल्यों से है जो उस क्षेत्र विशेष के लोगों की प्रगति हेतु आवश्यक है। समाज के क्षेत्र में देखा जाए तो आज भी कई समाजशास्त्री इस बात को लेकर हमेशा चिंतनशील रहते हैं कि समाज के सभी वर्गों का सामूहिक विकास कैसे हो। एक स्वस्थ समाज ही प्रगतिशील राष्ट्र का कारण बनता है। राजनीति के क्षेत्र में भी आचार्य चाणक्य और महात्मा गांधी जैसे विचारक हुए है जिन्होंने अपनी विचारधारा से भारतीय राजनीति को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया था।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Swaroop refers to the dimensions in which Indians are contemplating. It is absolutely true that the main areas of thought by Indians are religion and philosophy. However, other areas such as culture, society and politics have also been contemplated by Indians and continue uninterrupted.
If philosophy is an ideology, then religion is a means of transforming it into action. Spiritual searches prove that the interest of Indians has always been in the transcendental realm. Gautam Buddha or Mahavir Swami, all of them belonged to the royal family. But, still he left the pleasures of the kingdom and took sannyas and spent his time in understanding the spiritual mysteries.
If seen, Indian culture has a special identity of its own. Culture is related to those human values ​​which are necessary for the progress of the people of that particular area.
If seen in the field of society, even today many sociologists are always reflective about how the collective development of all sections of the society should take place. A healthy society becomes the reason for a progressive nation.
In the field of politics also there have been thinkers like Acharya Chanakya and Mahatma Gandhi who had influenced Indian politics in a big way with their ideology.
मुख्य शब्द दर्शन, धर्म, संस्कृति, आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीति ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Philosophy, Religion, Culture, Spirituality, Social, Politics.
प्रस्तावना
इतिहास के पन्ने इस बात के प्रमाण हैं कि अनादिकाल से ही भारतीयों में चिंतन करने की प्रवृत्ति विद्यमान रही है। भारत में विभिन्न धर्म, पंथ, दर्शन, मत तथा इन सभी की शाखाएँ तथा उप शाखाएँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि आज भी यहाँ चिंतन करने की धारा निर्बाध रूप से बह रही है। धर्म, दर्शन तथा आध्यात्म के क्षेत्र में जितना चिंतन भारत में हुआ है उतना चिंतन अन्य किसी देशों में नहीं हुआ। कहना न होगा कि भले ही भौतिक दुनिया की अधिकांश खोजें पश्चिमी देशों ने की हो किन्तु आध्यात्मिक जगत की महत्वपूर्ण खोजों का श्रेय भारतीयों को ही जाता है। देखा जाए तो भारत के सभी दार्शनिक चिंतन मुक्ति की ओर ले जाते हैं। जिस प्रकार कई नदियां अलग-अलग दिशाओं से आती हैं, उनके नाम भी भिन्न-भिन्न होते हैं लेकिन उनकी अंतिम परिणति महासागर में मिल जाना होता है। उसी प्रकार विभिन्न धर्म, पंथ, दर्शन के रास्ते भिन्न हो सकते हैं किंतु उनकी मंजिल एक ही है और वह है आत्मा का परमात्मा में परिणत हो जाना।बहरहाल, जैन दर्शन एक ऐसा दर्शन है जो मानव मात्र को आत्म कल्याण की तरफ प्रेरित करता है, मोक्ष मार्ग की दिशा बतलाता है। यह प्राचीनतम् धर्म है। मेजर जे.सी.आर. फरलांग के अनुसार - ‘‘जैन धर्म के प्रारंभ को जान पाना असंभव है। यह भारत का सबसे पुराना धर्म मालूम होता है।’’[1] जैन परम्परा के अनुसार मूल जैन शास्त्रों की रचना तीर्थकरों की वाणी सुनकर गणधरों (एक प्रकार के जैन संत) ने हजारों वर्षों पहले की थी। इन शास्त्रों का मूल उद्देश्य जन-सामान्य को मोक्ष मार्ग के बारे में विस्तार से समझाना था। इसके साथ ही कई गौण विषयों पर भी चर्चा इन शास्त्रों में की गई थी। मुनि तरूण सागर जी कहते हैं कि थोड़ी देर ही सही हर रोज प्रार्थना जरूर करें। कारण यह है कि प्रार्थना से जीवन को ऊर्जा व प्रेरणा मिलती है। मगर हाँ, एक बात का ख्याल रखे - प्रार्थना में होशियारी और चतुराई बिल्कुल काम नहीं आती। प्रार्थना में थोड़ा सा भोलापन/थोड़ा सा पागलपन चाहिए। बच्चों जैसा भोलापन और मीरा जैसा पागलपन चाहिए। मैं हर रोज महावीर स्वामी से एक प्रार्थना करता हूँ और चाहता हूँ कि आप भी यह प्रार्थन अवश्य करें कि कोई बच्चा बाल्यावस्था में अपनी माँ को न गँवाए, कोई सौभाग्यवती स्त्री युवावस्था में अपने पति को न गँवाए और कोई वृद्ध माता-पिता अपने बेटे को न गँवाए।[2] जैन संत ये अच्छे से जानते हैं कि अध्यात्म तथा मोक्षमार्ग के सिद्धांतों से पहले समाज को नैतिकता तथा मूल्यों का पाठ पढ़ाना जरूरी है। नैतिक मूल्यों को आत्मसात करने वाला व्यक्ति ही अध्यात्म की राह पर ठीक से चल सकता है।
अध्ययन का उद्देश्य भारतीय चिंतन परंपरा के स्वरुप का विश्लेषणात्मक अध्ययन कर उसकी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासांगिकता का निर्धारण करना।
साहित्यावलोकन
आचार्य गुणभद्र के अनुसार - ‘‘स धर्मोे यत्र नाधर्मों’’ धर्म वहीं है जहाँ अधर्म नहीं। धर्म, अधर्म के साथ नहीं रह सकता। प्रकाश-अंधकार दोनों साथ-साथ नहीं रहते, धर्म की यह सबसे बड़ी कसौटी है। अधर्म के रहते धार्मिक चेतना का विकास संभव नहीं है। क्या है अधर्म? वही जो दूसरों को पीड़ा दे। हिंसा, अन्याय, अनीति, अनाचार सब अधर्म की पर्याय है। इनके रहते धर्म नहीं रह सकता। धर्म का अर्थ है - अहिंसा और सत्य से अनुप्राणित आचरण। धर्म धारण करने के लिए पाप का अभाव अनिवार्य है। जिसका आचरण पाप मुक्त है, धर्म सदैव उसके साथ रहता है। उसके लिए देश काल की सीमाएँ बाधक नहीं बनती। धर्म की इससे व्यापक परिभाषा और क्या हो सकती है? आज जितने भी मूल्यों की चर्चा की जाती है, वे सभी मनुष्य के सत्य और अहिंसामय आचरण में समाहित हैं। धर्म की आत्मा को न पहिचान पाने के कारण, प्रायः लोग एक भूल में जी रहे हैं। इस भूल ने धर्म की अवधारणा को बदल डाला है। इसका ही यह परिणाम है कि जो व्यक्ति जितना अधिक पूजा-पाठ और धार्मिक क्रियाएं करता है, वह व्यक्ति उतना ही बड़ा धार्मिक माना जाता है। इसी कारण लोग जितना महत्व धार्मिक क्रियाओं को देने लगे हैं, उतना अपने परिणामों के सुधार को नहीं देते। यहीं कारण है कि धर्म धारण करने के बाद भी जीवन में रूपांतरण घटित नहीं होता। [3] महात्मा गांधी ने सत्य, अहिंसा जैसे सिद्धांतों का प्रयोग आज़ादी की लड़ाई के लिए किया था। इन सिद्धांतों में इतनी दम थी कि तत्कालीन विश्व की सबसे बड़ी शक्ति इंग्लैण्ड को भी घुटने टेकने पड़े थे। नैतिक मूल्यों पर चलने वाला व्यक्ति किसी भी महाशक्ति को अपने आगे झुका सकता है। यह सच्चाई की ताकत होती है। गांधीजी को सत्य, अहिंसा का पाठ उनके मित्र रायचंद भाई ने पढ़ाया था, जो कि एक जैन विद्वान थे। भारतीय संविधान के ‘राज्य के नीति निर्देशक तत्वों’ में गांधीजी के कई सिद्धांतों को लिया गया है जो कि जैन विद्वानों का प्रतिबिम्ब परिलक्षित करते हैं।
मुख्य पाठ

भारतीय दर्शन का स्वरूप

सामान्य रूप से दर्शन का सामान्य अर्थ देखना होता है। लेकिन गहराई से देखा जाए तो दर्शन का अर्थ सोच से हैंविचार धारा से है। दर्शन अत्यन्त व्यापक है। सभी लौकिक तथा पारलौकिक विषय दार्शनिक माने जाते हैं। अतः इसकी विशालता तथा व्यापकता के कारण इसके स्वरूप का निर्धारण कठिन कार्य हो जाता है। किसी विषय के स्वरूप का निर्धारण करना तो विषय की सीमाओं को बतलाना है। परन्तु जिसके विषय ससीम और शान्त से लेकर असीम और अनंत सभी होउसकी सीमा का निर्धारण एक दुष्कर कार्य बन जाता है।

परन्तुइस कठिनाई का अर्थ यह नहीं कि उसका स्वरूप निर्धारण नहीं हो सकता। जिसके स्वरूप का पता नहीं लग सकताउसके विवेच्य-विषय का भी हमें ज्ञान नहीं हो सकता। अतः दर्शन का विवेच्य-विषय या विषय-वस्तु क्या है उस पर विचार करने से ही दर्शन के स्वरूप का ज्ञान हो सकता है। दर्शन के स्वरूप ज्ञान में संभवतः दर्शन की परिभाषा सहायक है। परन्तु दर्शन की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं। उसकी समस्याएँ परिवर्तनशील है। अतः उसकी परिभाषा में भी परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन काल से लेकर आज तक अनेक परिभाषाएँ दी जा चुकी हैं। परन्तु कोई परिभाषा अंतिम नहीं। दर्शन शब्द स्वयं बड़ा ही व्यापक है। अंग्रेजी में दर्शन या ‘फिलासफी’ शब्द दो शब्दों के योग से बना है- फिलास तथा सोफिया जिसका अर्थ है ज्ञान के प्रति प्रेम। प्रेम श्रद्धा या निष्ठा का सूचक है। अतः यह ज्ञान के प्रति निष्ठा है। 

हम किसी विषय के संबंध में अंधकार में है। अतः उस विषय को समझना या जानना चाहते हैं जिससे विषय संबंधी प्रकाश प्राप्त हो। अतः ज्ञान के प्रतियह श्रद्धा तो किसी जिज्ञासा की शांति है। इसीलिए दार्शनिकों का कहना है कि दर्शन का प्रारम्भ जिज्ञासा से होता है। जिज्ञासा आध्यात्मिक भूख या प्यास है। इस जिज्ञासा के कारण ही दार्शनिक विश्व की सभी वस्तुओं को आश्चर्य की दृष्टि से देखता है। सभी वस्तुओं की उत्पत्ति और स्थिति के संबंध में जानना चाहता है। इसलिए पाश्चात्य दर्शन के महान दार्शनिक प्लेटों का कहना है कि दर्शन का प्रारम्भ आश्चर्य से होता है। [4]

भारतीय दर्शन की दृष्टि व्यापक है। यद्यपि भारतीय दर्शन की अनेक शाखाएँ हैं तथा उनमें मतभेद भी हैफिर भी वे एक-दूसरे की उपेक्षा नहीं करती है। सभी शाखाएं एक-दूसरे के विचारों को समझने का प्रयत्न करती है। [5] इस प्रकारदेखा जाए तो भारतीय दर्शन का स्वरूप अत्यन्त विस्तृत तथा विस्तीर्ण है।

भारतीय धर्म का स्वरूप

किसी महान् विचारक ने कहा है- धर्म चर्चा का नहीं चर्या का विषय है। धर्म तो आत्मासात कर क्रियान्वयन करने का नाम है। सरल भाषा में कहें तो धर्म जिया जाता है। गहराई से देखें तो धर्म आत्मा का स्वभाव है। अर्थात् धर्म का केन्द्र बिन्दु आत्मा है। जब धर्म का प्रकाश यत्र-तत्र न फैलकर आत्मा तक ही सीमित हो जाए तो व्यक्ति धर्मात्मा बन जाता है। और जब धर्म के प्रकाश पुंज आत्मा में फोकस न करके यत्र-तत्र फैले तो व्यक्ति धार्मिक हो जाएगालेकिन धर्मात्मा कदापि नहीं। आवश्यकता धर्मात्मा बनने की है। धार्मिक होना तो धर्मात्मा होने का एक लक्षण मात्र है। कहा भी गया है-

’’देशयामि समीचीनंधर्मं कर्म - निबर्हणम्।

संसार - दुःखतः सत्तवान्यो धरत्युत्तमे सुखे।।’’ [6]

धर्म का मूल उद्देश्य आत्मा को परमात्मा में परिणत कर देना है। यदि परमात्मा बनना हैतो धर्म को अंगीकार करना होगा। नैतिकता व मूल्य धर्म के पैमाने हैधर्म को मापने की कसौटियाँ हैं। यदि कोई व्यक्ति नैतिक मूल्यों पर खरा नहीं उतरता तो वह धर्मात्मा हो नहीं सकता। चाहे वह कितना भी धर्म क्यों न करता हो। क्योंकिनैतिक मूल्य तो धर्म की नींव हैं। नैतिक मूल्यों की नींव जितनी गहरी व सुदृढ़ होगी इमारत उतनी ही भव्य व ऊँची होगी।

भारत के सारे धर्मों में एक बात उभयनिष्ठ है और वह यह है कि नैतिक मूल्य धर्म की आधार शिला तथा मुक्ति धर्म का उद्देश्य है। किसी भी धर्म को देख लीजिए सारे धर्मों के रास्ते परमात्मा तक ही पहुँचते है। रास्ते भिन्न हो सकते हैं किन्तु मंजिल तो एक ही है।

भारत में परलोक और परमात्मा पर ज्यादा महत्व दिया जाता है। भौतिक सुखों को महत्व देने की संस्कृति हमारी नहीं रही है। इसलिए भारत को त्याग व तपस्या की भूमि भी कहा जाता है।

बाल्यकाल में यदि बच्चे को नैतिक मूल्यों से सराबोर कर दिया जाए तो धर्म की पटरियों पर उसे गति पकड़ते देर नहीं लगेगी। कुछ लोगों ने तो यहां तक माना है कि नैतिकता तथा मूल्यों को आत्मसात कर जो आचरण किया जाता है वहीं धर्म है। यह तथ्य काफी हद तक सही भी है क्योंकि नैतिक मूल्यों के बिना धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

भारतीय संस्कृति का स्वरूप

संस्कृति किसी देश की पहचान होती है। उस देश का आइडेंटिटी कार्ड होती है। संसार के सारे मुल्कों की अपनी एक संस्कृति हैएक पहचान है सामान्य रूप से यह देखा गया है कि किसी भी मुल्क की एक प्रधान संस्कृति होती हैजिसकी प्रवृत्ति सारे देश में हावी रहती है। इसके साथ ही कुछ गौण संस्कृतियां भी मुल्क में होती है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि एक ही देश में दो प्रधान संस्कृतियां हो नहीं सकती। ऐसी स्थिति कभी उपजी तो इतिहास गवाह है इस बात का कि मुल्कों के विभाजन हो गए। भारत तथा पाकिस्तान का विभाजन इसी का एक उदाहरण है। याद रखना चाहिए कि संस्कृति पर किसी भी धर्म या जाति का एकाधिकार नहीं है। संस्कृति तो राष्ट्र का आईना मात्र हैं और कुछ नहीं।

संस्कृति मनुष्यों के समुदाय में निहित होती है और इसका निकटतम संबंध उच्चतम मूल्यों से होता है। समझने के स्तर पर इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी समाज में निहित उच्चतम मूल्यों की चेतनाजिसके अनुसार वह समाज अपने जीवन को ढालना चाहता हैसंस्कृति कहलाती है। संस्कृति को हम तीन आयामों में देखते हैं। प्रथमतः यह एक नियामक प्रणाली या पद्धति हैजिसके द्वारा दण्ड-विधान के रूप में सामाजिक नियंत्रण का कार्य सम्पन्न होता है। इसी को देखते हुए लोग सामान्यतः स्वीकार्य नैतिक/व्यावहारिक प्रतिमानों का अनुकरण करते हैं। द्वितीयतः इसमें संगीतनृत्य कलासाहित्य एवं अन्य प्रदर्शनकारी माध्यम हैजो लोगों के सांस्कृतिक प्रतीक है। तृतीयतः यह एक विचार पद्धति प्रदान करती हैजिसके माध्यम से समाज के लोग इस जगत का अर्थपूर्ण विवेचन करते हैं। [7]

भारतीय सामाजिक चिंतन

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज व्यक्तियों से मिलकर बना होता है। व्यक्ति समाज की इकाई है और एक स्वस्थ समाज मजबूत राष्ट्र का निर्माण करता है। अतः स्पष्ट है कि व्यक्ति और राष्ट्र के बीच की कड़ी समाज है। व्यक्ति की मनोवृत्ति का सीधा असर समाज की प्रवृत्ति पर पड़ता है और समाज की प्रवृत्ति ही राष्ट्र की दिशा तय करती है। मतलब साफ है। यदि राष्ट्र को सही दिशा में ले जाना है तो प्रत्येक नागरिक को सही दिशा में चलना होगा। किसी ने बड़ा अच्छा लिखा है-

‘‘गंदा कह-कह कर मत कोसोऔरों के पानी को।

खुद को बदल डालोतो समाज बदल जाता है।।’’

बहरहालमनुष्य समाज में रह रहा है तो समाज के तौर-तरीके उसे सीखने होंगे। यह जरूरी भी है। प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह समाज की उन्नति में अपना योगदान दे। लेकिनदूसरी तरफ यह भी सत्य है कि समाज को योग्य व प्रतिभाशाली नागरिकों की उन्नति में बाधक न बनकर साधक बनना चाहिए। एक स्थिरीकरण का भाव समाज के लोगों में होना अत्यावश्यक है। स्थिरीकरण अर्थात् किसी भी व्यक्ति को उसकी स्थिति से ऊपर उठानान कि उसका पतन करवाना। समाज में प्रोत्साहन की प्रवृत्ति होनी चाहिए। न कि हतोत्साहित करने की मनोवृत्ति। 

प्रायः यह देखा गया है कि समाज सफल लोगों को तो सम्मान देता है, पुरस्कृत करता है। किन्तुसफल होने के लिए आगे बढ़ने वाले लोगों के मार्ग में समाज का योगदान नगण्य रहता है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि समाज के कुछ तत्व सफलता की सीढ़ी चढ़ने वालों को मार्ग से हटाना चाहते हैं। यह हमारे समाज की कुरीति है। इसे बदलना होगा। इसे बदला जा सकता है। इसके लिए समाज को प्रोत्साहन-मूलक प्रवृत्ति अपनानी होगी।समाज को व्यक्ति का मूल्यांकन करने के पैमाने बदलने होंगे। समाज में आज व्यक्ति की योग्यता उसके धन से मापी जाती है। समाज कभी इस बात पर गौर नहीं करता कि धन किन तरीकों से कमाया गया है। समाज नैतिकतामूल्योंचरित्रप्रतिभायोग्यतागुण-अवगुण आदि पर भी विचार नहीं करता है। बसधन के तराजू में तौलकर उसका मूल्यांकन कर देता है। उसका रिपोर्ट कार्ड बना देता है। यह प्रवृत्ति एक आदर्श समाज के निर्माण के लिए घातक है। समाज एक आदर्श राम-राज्य तो चाहता हैकिन्तु वह कभी राम के मूल्यों को आत्मसात करने पर बल नहीं देता। राम-राज्य की संकल्पना साकार हो सकती है समाज मेंइसके लिए हरेक व्यक्ति में परिवर्तन अपेक्षित है। एक आदर्श समाज का निर्माण इतना कठिन भी नहीं है। चूंकिव्यक्ति ही समाज की इकाई है। इसलिए उसमें होने वाला परिवर्तन ही समाज को नई ऊँचाईयों पर पहुँचाएगा।

भारतीय राजनैतिक चिंतन

देखा जाए तो राष्ट्र को सबसे ज्यादा प्रभावित राजनीति ही करती है। देश की सही राजनीति ही राष्ट्र को सही दिशा दे सकती है। राजनीति राष्ट्र को मजबूत भी बना सकती है और कमजोर भी। प्रायः यह देखा गया है कि राजनीतिक अस्थिरता किसी देश के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर सकती है। सत्ता प्राप्ति का उद्देश्य यदि सेवा है तो समझो राष्ट्र सही दिशा में जा रहा है और यदि सत्ता प्राप्ति का उद्देश्य मेवा है तो सतर्क होने की जरूरत है।

इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाए तो हम यह समझ जाएंगे कि महात्मा गांधी और आचार्य चाणक्य की विचारधारा ने भारतीय राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। आचार्य चाणक्य ने अखंड भारत तथा अखंड भारत का एक सम्राट की संकल्पना को साकार किया था। उन्होंने राजा के कर्तव्यों को भी गहराई से उल्लेखित किया था। वहीं दूसरी ओर महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा की विचारधारा के आधार पर राजनीति करने का प्रतिमान लोगों के सामने रखा था।सरल सी बात है कि नेता वह है जो सही नेतृत्व करें और जनता वह है जो उसका अनुसरण करे। नेता मार्ग दिखाता है तो देश की जनता उसके पीछे चलती हैं। जहाँ नेता जाएगावहाँ जनता जाएगी। जनता अर्थात भीड़। भीड़ की कोई शक्ल नहीं होतीकोई सोच नहीं होती। सोच तो सिर्फ नेता की होती है। विचारधारा तो सिर्फ नेता की होती है। कहने का मतलब यह है कि एक कुशल नेता के नेतृत्व में ही जनता सही दिशा पकड़ती है और जनता का सही दिशा में चलना राष्ट्र की प्रगति के लिए आवश्यक है।

निष्कर्ष वर्षों की तपस्या अर्थहीन हो जाएगी यदि नैतिक मूल्यों को छोड़ दिया जाए। नैतिकता आत्मा का स्वभाव है, मूल्य रास्ता है परमात्मा के दरबार तक पहुंचने का, धर्म साधन है और मोक्ष साध्य। अंतिम परिणति तो मोक्ष है, अर्थात् परमात्मा का पद प्राप्त करना है। मूल्यों का बड़ा मूल्य होता है। यदि मूल्यों पर चलना छोड़ दिया तो तुम्हारा कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। तुम मूल्य विहीन हो जाओगे। मूल्यों पर चलने वाला राम हो जाता है और मूल्यों को छोड़ने वाला रावण बन जाता है। लेकिन विडम्बना यह है कि इस संसार में कितने लोग मूल्यों पर चलते हैं और जो चलते हैं वे एक समय बाद मूल्यों से हट जातेे हैं। लेकिन मृत्यु पर्यन्त मूल्यों पर चलने वाले महान् कहलाते हैं और जो मूल्यों पर चलते हुए देश व समाज के लिए कुछ कर जाए तो वे महात्मा कहलाते हैं। याद रखना ! मानवीय मूल्यों पर इतना जोर इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि सारी चिंतन परम्परा का केन्द्र बिन्दु यही है। नैतिक मूल्य ही भारतीय चिंतन रूपी ब्रम्हाण्ड का सूर्य है। सूर्य के महत्व को तो समझना होगा। बाकी दर्शनों को यदि ग्रह मान लिया जाए तो इस बात में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि सारे दर्शन, नैतिक मूल्यों के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। धर्म को प्रकाशित करते हैं नैतिक मूल्य। लेकिन, विडम्बना इस बात की है कि सारे संसार ने मानवीय मूल्यों व नैतिकता के महत्व को समझना कम कर दिया है। आज धर्म के नाम पर लोग कर्म कर रहे हैं। पाखण्डी साधुओं ने धर्म को अपनी जागीर समझ लिया है। आज देखा जाये तो धर्म एक कारोबर बन चुका है, जिसमें पाखण्डी साधू बहुत कम निवेश कर बहुत ज्यादा कमा रहे हैं। हमेशा ध्यान रखना जो साधू स्वयं आंकाक्षाओं से रहित नहीं है वह दूसरों की आंकाक्षाओं की पूर्ति का हेतु नहीं बन सकता। सन्यास का अर्थ होता है कि घर-परिवार, राज-पाठ, धन-धान्य, नाम-ऐश्वर्य को छोड़कर विरक्त भाव से ईश्वर की आराधना करते हुए जीवन जीना। जिस संत को धन तथा भौतिक वस्तुओं से मोह हो वह संत हो ही नहीं सकता। त्याग और तपस्या ही सच्चे संत होने की पहली शर्त है। अपने इस छोटे से जीवन में सच्चे गुरू का चयन बड़ी सावधानी से करना चाहिए। अपने विवेक से गुरू चुनना चाहिए क्योंकि गुरू ही जीवन को दिशा देता है। सच्चे गुरू का चयन करते समय हमेशा अपनी अंर्तआत्मा की आवाज जरूर सुनना क्योंकि सच्चा गुरू तुम्हारे जीवन को शुरू कर सकता है और पाखण्डी गुरू तुम्हारे जीवन को लघु बना सकता है। अगर तुम्हें इस संसार में से हीरे चुनने हैं तो तुम्हें जौहरी वाली पारखी नजर रखनी होगी। मानव जीवन में तीन बातों का बड़ा महत्व है - पहला अपने विवेक को जाग्रत करना, दूसरा सम्यक् दृष्टि रखना तथा तीसरा अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनना। इन तीन चीजों के आने पर तुम्हें चौथी चीज़ की जरूरत नहीं पड़ेगी। संसार-सागर के मोती तुम आसानी से चुन सकोगे। तुम्हारे लिए जो हितकारी होगा तुम उसे स्वतः ही पा लोगे। विवेक यथार्थ के चिंतन से जाग्रत होता है। विवेक तुम्हें कोई सिखा नहीं सकता। विवेक के बीज तो तुम्हें खुद ही बोने होंगे। विवेक को कभी बुद्धि समझने की भूल मत कर देना। गहराई से देखा जाए तो बड़ा अंतर होता है बुद्धि और विवेक में। विवेक एक तराजू है, विवेक हमारी नीर-क्षीर दृष्टि को विकसित करता है। जिस तरह हंस दूध और पानी में से दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है, उसी प्रकार विवेक इस संसार में से आत्महित के साधनों को ग्रहण कर लेता है और बाकी को छोड़ देता है। बुद्धि तर्कों, तथ्यों का बोझ मात्र है लेकिन विवेक का संबंध बोध से है। बुद्धि बोझ है तो विवेक बोध है। विवेक, बुद्धि के बाद का चरण है। सम्यक् दर्शन का धर्म के क्षेत्र में अत्यधिक महत्व है। संत कहते हैं कि सम्यक् दर्शन लाइफ जैकेट की तरह है। सम्यक् दृष्टि संसार के इस अथाह महासागर में से आवश्यक चीजें ही चुनता है। यदि विवेक, बुद्धि का उत्कृष्ट रूप है तो सम्यक् दृष्टि, सामान्य दृष्टि का उत्कृष्ट व उन्नत रूप है। सम्यक् दर्शन का तात्पर्य देखने से है, तो विवेक का संबंध सोचने से है। तीसरी एक महत्वपूर्ण चीज है - अंतरात्मा की आवाज पर चलना। अंतरात्मा की आवाज हरेक को सुनाई दे यह जरूरी नहीं। अंतरात्मा की आवाज नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही सुनाई देती है। यह आवाज बड़ी हितकारी होती है, यह कभी असत्य नहीं कहती। संशय की स्थिति से हमें निकालने में अंतरात्मा की आवाज ही कारगर होती है। आचार्य चाणक्य ने तो यहाँ तक कहा है कि जब कभी तुम दुविधा में फंस जाओ तो हमेशा अपनी अंर्तआत्मा की आवाज सुनो, यह आवाज तुम्हें सही राह दिखलाएगी। इसी तरह महात्मा गाँधी ने भी कई निर्णय अंतरात्मा की आवाज पर किए थे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. दि शार्ट स्टडीज इन साइंस ऑफ कम्परेटिव रिलीजन, पृ. 14 2. तरूण सागर, मुनि श्री: कड़वे प्रवचन (दो), पृ. 3 3. प्रमाण सागर महाराज, मुनि श्रीः अंतस् की आँखे, निर्ग्रन्थ फाउण्डेशन, भोपाल पृ. 2 4. सिंह, बी.एन.: पाश्चात्य दर्शन, स्टूडेण्ट्स फ्रेण्ड्स एण्ड कंपनी, वाराणसी, पृ. 1. 5. चटर्जी तथा दत्तः भारतीय दर्शन, पुस्तक भंडार पब्लिशिंग हाउस, पटना, पृ. 4. 6. पीयूष, प्रदीप शास्त्री: रत्नकरण्ड - श्रावकाचार, पन्नालाल जैन ग्रंथ माला, जबलपुर, पृ.1. 7. राजाराम, कल्पना: भारतीय संस्कृति, स्पेक्ट्रम बुक्स प्रा.लि., नई दिल्ली, 2010, पृ.2.