ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- VII August  - 2023
Innovation The Research Concept
भारतीय राजदर्शन में सामाजिक न्याय की संकल्पना
Concept of Social Justice in Indian Raj Darshan
Paper Id :  17948   Submission Date :  08/08/2023   Acceptance Date :  12/08/2023   Publication Date :  14/08/2023
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/innovation.php#8
हंसा शर्मा
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
चिमनपुरा, (शाहपुरा),जयपुर, राजस्थान, भारत
सारांश ‘सामान्य हित’ की भावना पर आधारित सामाजिक न्याय की अवधारणा का उद्देश्य ऐसी व्यवस्था की स्थापना करना जिसमें सामज के असुरक्षित व उपेक्षित वर्ग को सुरक्षा व सम्मान मुहैया करवाया जा सके। भारतीय परिप्रेक्ष्य में सामाजिक न्याय की अवधारणा की बात की जाय तो प्राचीन भारत में सामाजिक न्याय के विचार से समृद्ध हमारा समाज, मध्यकाल की विसंगतियों के मध्य सामाजिक न्याय की स्थापना का प्रयास एवं आधाुनिक युग में विभिन्न राजनीतिक विचारकों द्वारा सामाजिक न्याय की संकल्पना की अभिव्यक्ति से प्रतीत होता है कि भारत में सामाजिक न्याय का विचार प्रत्येक युग का प्रमुख विचारणीय विषय रहा है। हमारे वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य गीता जैसा धर्मशास्त्र इत्यादि सभी जगह आचरण व कर्म को महत्व देते हुए सभी वर्गो के साथ समानता व प्रेमपूर्वक व्यवहार की बात, शूद्र को भी तपस्या, विद्या ग्रहण करने की बात आचरण से ब्राह्मण बनने, समान व्यवहार का संदेश इत्यादि विचार सामाजिक न्याय की संकल्पना को साकार रूप देने के श्रेष्ठ प्रयास कहें जा सकते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The purpose of the concept of social justice based on the spirit of 'common interest' is to establish such a system in which security and respect can be provided to the vulnerable and neglected sections of the society. If we talk about the concept of social justice in the Indian perspective, our society enriched with the idea of social justice in ancient India, the efforts to establish social justice amidst the anomalies of the medieval period and the expression of the concept of social justice by various political thinkers in the modern era. It seems that the idea of social justice has been the main concern of every era in India. In our Vedas, Upanishads, Ramayana, Mahabharata, epics like Gita, theology, etc. everywhere giving importance to conduct and deeds, talk of equality and loving treatment with all classes, penance to Shudras, acquisition of knowledge, becoming Brahmin by conduct, equal The message of behavior etc. can be said to be the best efforts to make the concept of social justice a reality.
मुख्य शब्द सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता, समानता, विकास, भारत, व्यक्ति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Social Justice, Freedom, Equality, Development, India, Individual.
प्रस्तावना

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। वसुधैव कुटुम्बकम्की भावना से ओत प्रोत भारतीय दर्शन सामाजिक न्याय की स्थापना को लेकर सदैव सजग रहा है। सामाजिक न्याय की अवधारणा सभी मनुष्यों को समान मानने के विचार पर आधारित है। इस विचार के अनुसार किसी भी व्यक्ति के साथ सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृति पूर्वाग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। सम्मानपूर्वक जीवन जीने हेतु प्रत्येक व्यक्ति के पास संसाधनों की सुलभता सामाजिक न्याय की संकल्पना का उद्देश्य है। भारत की छवि सदैव कल्याणकारी राज्य के रूप में प्रसिद्ध रही है, जिसका लक्ष्य लैंगिक, जातिगत, नस्लीय व आर्थिक भेदभाव के बिना सभी नागरिकों की मूलभूत अधिकारों तक समान पहुंच सुनिश्चित करना है। सभी व्यक्ति सुखी हो, सभी व्यक्ति निरोगी हो, सभी का कल्याण हो तथा कोई भी व्यक्ति दुखी ना हो ऐसी संकल्पना से युक्त भारत का धर्म, सभ्यता व संस्कृति सामाजिक न्याय की अवधारणा की प्राचीनता को दर्शाते हैं। सामाजिक न्याय की स्थापना की परम्परा वैदिक युग से प्रारम्भ होकर महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, मनु, कौटिल्य जैसे महान राजनीतिक विचारक, मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के पुरोधा कबीर, नानक, मीरा से होते हुए राजा राम मोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिबा फूले जैसे मजबूत हाथों में रही है। प्रस्तुत शोधपत्र के माध्यम से प्राचीन भारत में सामाजिक न्याय की संकल्पना को स्थापित करने में सहायक विभिन्न कारकों का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाएगा।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोधपत्र के माध्यम से प्राचीन भारत में सामाजिक न्याय की संकल्पना को स्थापित करने में सहायक विभिन्न कारकों का सकारात्मक रूप से विश्लेषण करने का प्रयास किया जाएगा।

साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र के विषय से सम्बंधित कोई भी साहित्य उपलब्ध नहीं है।

मुख्य पाठ
प्राचीन भारत एवं सामाजिक न्याय-
सामाजिक न्याय की अवधारणा ऋग्वैदिक युग में पूर्णतः चरितार्थ थी। ऋग्वैदिक युग में पूर्ण समनता युक्त समाज था जिसमें वर्णव्यवस्था कर्मप्रधान थी। समाज में निम्न, उच्च, छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं था। ऋग्वेद में कहा गया है कि ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अतिशूद्र पांचों के मनुष्य यज्ञ को प्रीतिपूर्वक सेवें। पृथ्वी पर जितने मनुष्य है वे सब ही यज्ञ करें।’ यह कथन इस बात का प्रमाण है कि वैदिक युग में सभी वर्गों को समानाधिकार प्राप्त थे।यजुर्वेद में शूद्र को बहुत परिश्रमी, कठिन कार्य करने वाला, साहसी और परम उद्योगों अर्थात् तप को करने वाला बताया गया है।[1] यह माना गया है कि शिल्प, कारीगरी विद्या से युक्त जो परिश्रमी जन (शूद्र/निषाद) हैं उनको नमस्कार अर्थात् उनका सत्कार करें।[2] जैसे- ईश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र से एक समान प्रीति करता है वैसे ही विद्वान लोगों द्वारा भी सभी वर्णों से एक समान प्रेम के भाव का विचार भी यजुर्वेद में वर्णित है।[3] इस प्रकार अनेक प्रमाण यह बताते हैं कि शूद्र को तप व यज्ञ करने का का अधिकार प्राप्त था तथा समाज में उसे सम्मानपूर्वक देखा जाता था।
‘यत्र नार्यस्तु  पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ की धारणा में विश्वास करने वाले इस युग में सामाजिक परम्पराओं की मान्यतानुसार स्त्रियों का पद बहुत ऊँचा था। पर्दा प्रथा नहीं थी। शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिए खुले हुए थे। धार्मिक साहित्य में रूचि रखने वाली स्त्रियों को अपनी प्रवृत्ति के पालन में कोई बाधा नहीं थी। कई ऋषि स्त्रियों की रचनाएँ ऋग्वेद संहिता में है। कन्याओं को वैदिक शिक्षा दी जाती थी, उनका उयनयन संस्कार होता था। ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, विश्वारों जैसी पारंगत एवं विदुषी स्त्रियों का उल्लेख किया गया है। स्त्रियों को यज्ञ करने का अधिकार था। बाल विवाह की प्रथा नहीं थी। स्त्री को अपनी इच्छा से विवाह करने का अधिकार था। विधवा विवाह का निषेध भी ऋग्वेद में नहीं किया गया। 
उत्तरवैदिक काल सामाजिक जीवन के उत्तरोत्तर विकास की अवस्था थी। उत्तर वैदिक काल में भी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्णव्यवस्था ही था किन्तु वर्ण व्यवस्था में कठोरता आने लगी थी। समाज में अनेक धार्मिक श्रेणियों का उदय होने लगा था जो कठोर होकर अनेक जातियों में परिवर्तित होने लगी। इस काल में समाज के चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों को द्विज कहा जाता था। ये तीनों ही वर्ण उपनयन संस्कार के अधिकारी थे। चतुर्थ वर्ण शूद्र वर्ण को उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं माना गया और यही से शूद्रों को अपात्र व अयोग्य समझने की प्रक्रिया शुरू हुई। यज्ञ का अत्यधिक महत्व बढ़ने के कारण ब्राह्मणों की शक्ति में वृद्धि हुई स्त्रियों की दशा में भी इस काल में गिरावट आई ऋग्वैदिक काल में जहाँ स्त्रियों का उपनयन संस्कार होता था वहीं उत्तरवैदिक काल में यह प्रतिबंधित हो गया। फिर भी इस काल में गार्गी, मैत्रियी, गंधर्व, गृहीता जैसी विदुषी स्त्रियों के उदाहरण भी मिलते है। हमारे वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत सभी ग्रंथों में समानता व स्वतंत्रता जो कि सामाजिक न्याय के प्रमुख आधार है विचारों की अभिव्यक्ति हुई है।
महाकाव्यकाल की सामाजिक स्थिति पर दृष्टिपात किया जाय तो मर्यादापुरूषोत्तम श्रीराम का रामराज्य सामाजिक न्याय की स्थापना का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसका अनुसरण प्रत्येक युग की महती आवश्यकता है। रामराज्य केवल शब्द संकल्पना नहीं है, अपितु एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था है। रामराज्य का महत्वपूर्ण आधार था मानवतावाद। रामराज्य में प्रेम व अंहिसा जनता की सबसे बड़ी शक्ति थी। शासक प्रजा को अपनी संतान तुल्य मानकर सब कुछ त्यागने के लिए तैयार रहता था। इन सबके मध्य जो बात रामराज्य में इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी वह थी राम का दलित प्रेम। राम राज का मूल मंत्र था ‘जाति-पांति पूंछै नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।’ रामराज में वर्ण, जाति, धर्म आदि के कारण किसी का बहिष्कार नहीं किया गया। रामायण में कुछ उदाहरण ऐसे भी है जो सामाजिक भेदभाव के पोषक लगते है उदाहरणतः शम्बूक वध। माना जाता है कि ब्राह्मणों की तरह तपस्या करने के कारण राम ने उसका वध कर दिया पर आश्चर्य होता है कि शबरी के झूठे बेर खाने वाले, निषादराज व केवट को अपने भाई से अधिक सम्मान देने वाले, कोल व किरातों का कल्याण करने वाले श्रीराम शंबूक का वध कैसे कर सकते हैं। यह सत्य है कि शंबूक वध व सीता त्याग का प्रकरण वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में मिलता है, किन्तु इस बात पर समस्त प्रमाण एकमत है कि उत्तरकांड मूल वाल्मीकि रामायण का हिस्सा नहीं है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के प्रथम सर्ग  में एक अनुक्रमणिका मिलती है, जिसमें अध्योध्याकांड से लेकर युद्धकांड तक के विषयों का उल्लेख है, पर इन विषयों में उत्तरकांड का उल्लेख नहीं मिलता। अन्तिम उन्नीस श्लोकों में जो फलश्रुति है वह प्रमाणित करती है कि युद्धकांड तक ही मूल वाल्मीकि रामायण सीमित थी। इसलिए हो सकता है शंबूक वध को कथा के बाद में उस पुरोहित वर्ग द्वारा जोड़ा गया हो जो अपने निहित स्वार्थों की पूर्ती के लिए शूद्रों को दबाना चाहता था। चित्रकूट में राम की कोल किरातों से भेंट के सम्बंध में तुलसीदास जी लिखते है। ‘रामहिं केवल प्रेम पियारा जानि लेऊ जो जान निहारा।’ जब हम मुगल काल में इन कोल किरातों का आखेट होता देखते हैं, इनको बेचना खरीदना देखते हैं, ब्रिटिशकाल में इस प्रजाति पर होने वाले अत्याचार देखते हैं, तब रामराज्य का प्रगतिशील समाज समझ आता है। केवट व निषाद के प्रसंग मे देखते हैं कि दलित जाति के लोग श्रीराम के लिए भाई का दर्जा पा जाते है। निषाद के लिए राम स्वयं कहते हैं, ‘तुम्ह मम सखा भरत रम भ्राता। वनवास काल में श्रीराम द्वारा निषादराज द्वारा लाये गए भोजन को ग्रहण करना[4] तथा शबरी के झूठे बेर खाना[5] राम के दलित वर्ग के प्रति अपने स्नेह को प्रकट करता है। इसी क्रम में वाल्मीकि लिखते है कि शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्विनी थी।[6] यह तथ्य बस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि रामायण काल में सभी वर्गों को समानाधिकार प्राप्त थे। शूद्र वर्ग को भी तपस्या करने पर कोई प्रतिबंध नहीं था। 
उपनिषद् में भी शूद्र को पृथ्वी के समान सबका भरण-पोषण करने वाला बताया गया है।[7] महाभारत का यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में युधिष्ठिर कहते है कि व्यक्ति कुल, 
स्वाध्याय व ज्ञान से द्विज नहीं बनता अपितु आचरण से बनता है। महाभारत के अनुगीता पर्व 91/37 में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी के तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्ति की बात कही गई है।
महाभारत के वन पर्व में बताया गया है कि सत्य, दान, दया, शील, तप, क्षमा जिसमें हो वह ब्राह्मण है और जिसमें ये गुण नहीं हो वह शूद्र होता है।[8] अर्थात् व्यक्ति के गुण व कर्म उसके वर्ग निर्धारण का आधार है।
आपस्तम्ब धर्मसूत्र में भी यही वर्णित है कि जिस प्रकार धर्मपूर्वक आचरण से निकृष्ट वर्ग अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है जिसके वह योग्य हो उसी प्रकार अधर्म का आचरण कर उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे वर्ण को प्राप्त होता है।[9]
अहिंसा पर आधारित जैन दर्शन के अनुसार सभी जीव समान है, अतः उनमें समादर का भाव होना चाहिए। जैन धर्म कहता है कि दूसरों के प्रति हमारा आचरण वैसा ही होना चाहिए, जैसा हम दूसरों का आचरण अपने प्रति चाहते हैं। जैन धर्म वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता है। उसके अनुसार ब्राह्मण और शूद्र में कोई अन्तर नहीं है। जैन धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है चाहे वह ब्राह्मण हो या फिर शूद्र। सदाचारी व्यक्ति ही जैन धर्म के अनुसार निर्वाण का अधिकारी है चाहे वह किसी भी वर्ण का हो। महावीर स्वामी ने स्त्री जाति के सम्मान पर भी विशेष बल दिया है। ‘‘नारी गुणवती धत्ते सृष्टि अग्रिमम् पदम्’’ अर्थात् गुणवान नारी सृष्टि में अग्रिम पद को धारण करती है। तीर्थंकरों ने समवशरण में नारियों को दीक्षित कर आर्यिका बना के उच्च स्थान दिया है। भगवान ऋषभदेव ने राज्य अवस्था में अक्षर और अंक विद्या पहले ब्राह्मी व सुंदरी को प्रदान की बाद में भरत व बाहुबलि को। जैन धर्म में कन्या को सचित्त मंगल कहा गया है।
सत्य एवं न्याय के मार्ग पर चलने वाले बौद्ध धर्म में समानता व न्याय को अत्यधिक महत्व दिया गया है। बौद्ध धर्म मनुष्य के दुख निवारण का मार्ग बताता है। इस धर्म में मनुष्य मनुष्य के मध्य किसी भी प्रकार के भेद को नहीं स्वीकारा गया है। भगवान बुद्ध ने सम्पूर्ण विश्व को शांति का संदेश दिया है। सभी व्यक्तियों को सम्मान के साथ जीने के अधिकार का समर्थन बौद्ध धर्म में किया गया है। समाज के पिछड़े वर्ग की अस्मिता, आत्मगौरव व अधिकार की महत्ता बौद्ध धर्म को महान बनाने का आधार रही है। 
निष्कर्ष

समान्यतः सामाजिक न्याय की संकल्पना का उद्देश्य न केवल समाज के दलित, शोषित एवं वंचित वर्ग बल्कि महिलाओं, वृद्धों, बच्चों आदि को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से समाज की मुख्यधारा में शामिल करना है, जिसके लिए एक संवेदनशील समाज की महती आवश्यकता है। सामाजिक न्याय की स्थापना में राजनीतिक संस्थाओं के साथ-साथ व्यक्तिगत एवं सामाजिक कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। आवश्यकता इस बात की है कि ये सभी कारक अपने सामाजिक व आर्थिक उत्तरदायित्वों का न केवल कुशालतापूर्वक निर्वहन करें अपितु मानवतावादी दृष्टिकोण स्थापित करें। प्राचीन भारतीय चिंतन में सामाजिक न्याय की स्थापना में योगदान देने वाले अनेक दृष्टांत वर्तमान व भावी पीढ़ी के मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं। ऐसा मार्गदर्शक जिसमें मानवीयता, संवेदनशीलता और वर्तमान समय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण आवश्यकता सकारात्मक कूट कूट कर भरी हो जो मनुष्य में उच्च व निम्न के भेद जैसी नकारात्मक ऊर्जा को पूर्णरूपेण नष्ट करने में सक्षम हो और जब प्रत्येक मनुष्य अपनी नकारात्मक भावना को नष्ट कर मानवता के भाव से परिपूर्ण हो जाएगा तब इस पृथ्वी पर जाति, धर्म, नस्ल, भाषा व लिंग के आधार पर जन्म लेने वाला उच्च व निम्न का भेद भी समाप्त हो जाएगा और तब सामाजिक न्याय से युक्त समाज की संकल्पना साकार हो सकेगी।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. यजुर्वेद- 30/5
2. उपर्युक्त- 16/27
3. उपर्युक्त- 18/48
4. वाल्मीकि रामायण बालकांड 1(37-40)
5. उपर्युक्त अरण्यकांड 74/.7
6. उपर्युक्त अरण्यकांड 74/10
7. बृहदारण्यक उपनिषद् 1/4/13
8. महाभारत वन पर्व 180/21-26
9. आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2/5/11/10-11