ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- V June  - 2023
Innovation The Research Concept
"विषाद मठ" में समाज का चारित्रिक हनन
Character Violation of The Society in
Paper Id :  17836   Submission Date :  08/06/2023   Acceptance Date :  19/06/2023   Publication Date :  25/06/2023
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सीमा देवी
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
महाराजा सूरजमल बृज विश्वविद्यालय
भरतपुर, राजस्थान, भारत
सारांश डॉ0 रांगेय राघव ने अकाल में भूख से तड़पते लोगों का इतना मार्मिक चित्रण किया है कि पाठक का हृदय फटने लगता है और ऐसे समय में जब मनुष्य भूख से कुछ भी कर गुजरने से पीछे नहीं हट रहे थे, उस समय भी ऐसे लोगों या कहें भेड़ियों की कमी नहीं थी जो उन मरते लोगों का फायदा उठाने के लिये उन गिद्धों से भी बदतर हो गए थे जो मरे हुए पशुओं को नोंच-नोंच कर खाते हैं। समाज की वास्तविक समस्या चरित्र का हनन ही है। अगर लोगों का चारित्रिक हनन न हो तो समाज में आने वाली समस्त समस्याओं का समाधान मिल-जुलकर सुगमता से किया जा सकता है। परन्तु विषम परिस्थितियों में ही लोगों के चरित्र की वास्तविक परीक्षा होती है। दूसरों की मजबूरियों का फायदा उठाने वाले लोग जो भलमनसाहत का चोला ओढ़े बैठे हैं; वे अपना चोला उतार देते हैं और किस हद तक नीचे गिर कर अपनी लोलुपता का परिचय देते हैं, यह अत्यंत गंभीर विषय है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Dr. Rangeya Raghav has given such a poignant portrayal of the people suffering from hunger in the famine that the heart of the reader starts bursting and at a time when humans were not holding back from doing anything due to hunger, even at that time such people or rather wolves There was no dearth of people who had become worse than vultures who scavenge for dead animals to take advantage of those dying people. The real problem of the society is character assassination. If there is no violation of the character of the people, then all the problems coming in the society can be easily solved together. But it is only in adverse circumstances that the real test of the character of the people takes place. People who take advantage of the compulsions of others, who are wearing a cloak of goodness; They take off their clothes and show their gluttony by stooping low, this is a very serious matter.
मुख्य शब्द चारित्रिक हनन, भूख, नैतिक मूल्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Character Assassination, Hunger, Moral Values.
प्रस्तावना
डॉ0 रांगेय राघव ने अपने छोटे से जीवन काल में इतना साहित्य सृजन किया जितना आज तक शायद ही कोई अन्य साहित्यकार कर पाया हो। उनका साहित्य सामाजिक जीवन का दर्पण रहा है। मुगलों का राज्य समाप्त होने के समय बंगाल में अकाल पड़ा था, उस समय बंकिम चंद्र चटर्जी ने ‘आनंद मठ‘ लिखा था और जब अँग्रेजों का राज्य समाप्त होने पर आया तब फिर से बंगाल की धरती पर अकाल पड़ा उसी का वर्णन डॉ0 रांगेय राघव ने अपनी पुस्तक ‘विषाद मठ‘ में किया है।
अध्ययन का उद्देश्य मानव का चरित्र ही समाज का निर्माण करता है। समाज एक ऐसी संस्था है जिसका निर्माण मनुष्य ने इस हेतु किया है कि इस झुण्ड़ में रहने वाले लोग एक दूसरे की जरूरत के वक्त काम आ सकें। परन्तु चारित्रिक हनन के कारण लोग एक दूसरे की सहायता करने के बजाय एक दूसरे की मजबूरियों का फायदा उठाते हैं। आपदा को अवसर बनाने की यह आदत मनुष्य को मनुष्यत्व से दूर कर रही है। इसी गंभीर समस्या की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना इस शोध-पत्र का उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन

डॉ0 रांगेय राघव ने स्वयं अपने उपन्यास विषादमठ की भूमिका में लिखा है "प्रस्तुत उपन्यास तत्कालीन जनता का सच्चा इतिहास है। इसमें एक भी अन्योक्ति नहीं, कहीं भी जबरदस्ती अकाल की भीषणता को गढ़ने के लिए कोई मनगढंत कहानी नहीं। जो कुछ है, यदि सामान्य रूप से दिमाग में, बहुत अमानुषिक होने के कारण, आसानी से नहीं बैठता, तब भी अविश्वास की निर्बलता दिखाकर ही इतिहास को भी तो फुसलाया नहीं जा सकता"[1]

प्रो0 मदन मोहन/प्रो0 लक्ष्मीनारायण गुप्त ने अपनी पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञानमें चरित्र को परिभाषित करते हुए लिखा है "चरित्र वास्तव में जन्मजात प्रवृतियों तथा विकास जिसको कि व्यक्ति अर्जित करता है उसका परिणाम है। चरित्र अर्जित संस्कारों का योग है यह एक मानसिक संरचना है जो स्थायी है तथा स्थायी रूप से हमारे आचरण को प्रभावित करती है। यह निश्चित रूप से सामाजिक अंतः क्रिया की उपज है। अच्छे चरित्र का सदैव निर्माण होता है, वह जन्मजात नहीं होता।"[2]

डॉ0 नगेन्द्र ने अपनी पुस्तक 'अरस्तु का काव्यशास्त्र' में लिखा है -"जिसके बल पर हम अभिकर्ताओं में गुणों का आरोप करते हैं उसे चरित्र कहते हैं।"[3]

आप्टेवामन शिवराम की पुस्तक संस्कृत हिन्दी कोश' में चरित्र शब्द की परिभाषा ‘‘चरित्र शब्द का निर्माण चरधातु में इत्रप्रत्यय लगाने से हुआ है जिसके विभिन्न अर्थ हैं- "व्यवहार, आदत, चाल-चलन, अभ्यास, कृत्य, कर्म, अनुष्ठान, पर्यवेक्षण, इतिहास, जीवन चरित्र, आत्मकथा, वृतान्त, संहार, साहस कथा, प्रकृति, स्वभाव, कर्तव्य, अनुमोदित नियमों का पालन आदि"[4]

मुख्य पाठ

चरित्र शब्द का प्रचलन व्यक्ति के गुण-अवगुण, स्वभाव प्रकृति और विशेषताओं के रूप में होता है। आज के भौतिकवादी जीवन में चारों ओर आर्थिक दृष्टि से आगे बढ़ने की होड़ लगी हुई है परन्तु साधनों के औचित्य पर विचार न करने के कारण अनैतिक दृष्टि वाली यह होड़ मनुष्य में स्वार्थ, घृणा, लालच, ईर्ष्या जैसी भावनाओं को जन्म देकर मनुष्य के सामाजिक एवं चारित्रिक पतन का कारण बन रही है।

उपन्यास विषाद मठमें जिन परिस्थितियों को चित्रित किया  है कमोबेश मनुष्य का चरित्र उसी रूप में कहीं न कहीं विद्यमान है। गरीबों की मजबूरी और भोलेपन का अमीर और ताकतवर लोग फायदा उठाते हैं और अपने मुनाफे के लिए उनका दमन करते हैं।‘‘किसानों ने अपनी राय में दाम बढ़ाकर माँगे और रुद्रमोहन ने पहले पुराने कर्जे, बैनामें और रसीदें चुकता कराके श्यामपद को कुल सवा सौ रुपये थमा दिए; तब श्यामपद के पैरों के नीचे से धरती खिसक गई और उसने कहा मालिक, इसमें कितने दिन काम चलेगा? "अरे, तेरा सारा कर्जा चुक गया, पागल,‘ रुद्रमोहन से सिर हिलाकर कहा, ‘सोचते हो, सूद दे दिया बड़ा अहसान कर दिया..................."[5]

कम दाम में अपना ही उपजाया अन्न बेचकर किसानों को अधिक दाम देकर खाने के लिए खरीदना पड़ता है ऊपर से जापानी जहाजों की बमबारी की मार से अपना घर तक खो चुके किसानों को संबल प्रदान करने के बजाय उनकी जमीन हड़प कर जाना चाहते हैं। "मालिक के यहाँ गए थे? कहा नहीं, दया करो?' हरिदासी ने झिझकते हुए कहा........कहा था हरिदासी सब कहा था, क्या नहीं कहा मैंने? लेकिन वह तो गुस्सा होकर बोले गधा कहीं का, गहना क्यों बेच आया? हमारे पास नहीं ला सकता था? फसल तुमने बढ़ाकर नहीं बेची? कर्जा तो सब का चुका गए, फिर अब आकर झूठ बोलता है? यह कौन कुबेर भंडार है। रुद्रमोहन ने कहा- मालिक; दया करिए। उसे जमीन बेचनी पड़ जाएगी......' हाँ, जमीन हीकालीपद ने भर्राए स्वर में कहा, ‘फसल नहीं, जमीन! बाप दादों की एक मात्र धरोहर। उसे बेचना हो हरिदासी"[6]

दाने-दाने को मोहताज इंसानों के अलावा कुछ ऐसे भी लोग थे जिनका मानवता से कहीं दूर-दूर तक नाता न था। "........अरुण उठकर उसके पास जाकर देखने लगा। बाहर किसी ने जूठन फेंकी। इमारत के बाहर एकदम अनेक भूखे टूट पड़े और गुत्थमगुत्था करने लगे। नालियों में जूठन फेंकने वाले से इतना न हो सका कि वह उसे सूखी जगह में ही फेंक देता।"[7]

जमींदारों ने अपने गोदाम भर रखे थे वह अन्न का एक दाना किसी को देना नहीं चाहते थे परन्तु दिखावा इस प्रकार करते कि गरीबों का उनसे बड़ा जैसे कोई हितैषी ही न हो। "मैंने कलकत्ते से चने मँगवाए थे कि भूखों को बाँटे जा सकें, लेकिन जानते हो क्या हुआ? सरकार उसके लिए रेलें नहीं दे सकती, नहीं दे सकतीउन्होंने तड़पकर कहा, ‘तो हमारे किसान मर जाऐंगे, लेकिन सरकार फिर भी लगान नहीं छोड़ेंगे, चाहे जमीन जोतने को हो या न हों।"[8]

भूखे मनुष्य को प्रेम, प्रीत, ममता कुछ होश नहीं रहता एक-एक दाने को तरसता मनुष्य सब कुछ भूल जाता है। "एक बच्चा धीरे-धीरे नाली में से कुछ बह-बह कर आते बीजों को इकट्ठा करने लगा। उसकी माँ उसके पास पड़ी देखती रही और जब बालक ने प्रसन्न हो मुठ्ठी भरकर मुँह की तरफ हाथ उठाया, माँ ने झपटकर वे बीज छीनकर अपने मुँह में रख लिए"[9]

जहाँ लोग भूख से मर रहे थे वहीं ऐसे भी लोग थे जो किसी भूखे को अपनी जूठन देने के बजाय खाने को बर्बाद करना उचित समझते थे। "इसी समय एक नौकर ने आकर दरवाजे की बांई तरफ कुछ जूठन लाकर फेंक दी। थोड़ी देर तक थाल का बचा-खुचा हाथ से गिराकर वह थाल बजाता हुआ भीतर लौट गया। दोनों ने देखा और दोनों ही उस खाने की जूठन पर टूट पड़े। रहमान को जल्दी-जल्दी खाते देख श्यामपद ने उसे धक्का दे दिया। रहमान लुढ़क गया, किन्तु श्यामपद के जल्दी सब समाप्त कर जाने के भय से उठकर वह फिर खाने पर टूट पड़ा। श्यामपद को क्रोध हो उठा। वह गुर्राया और उसने पूरा बल लगाकर रहमान को धकेल दिया रहमान अंधकार में गिरकर मुर्छित हो गया। धक्के का जोर वह सँभाल नहीं सका। उसके गिर जाने पर श्यामपद धीरे-धीरे खाने लगा। जूठन काफी थी। वह उन सबको बीन-बीनकर, धूल पोंछे, बिना पोंछे खा गया।.................................................... किनारे ही बैठे खाते हुए एक व्यक्ति ने कहा "मैनेजर साहब, यह क्या नई बला पाल ली है आपने? खाने भी देंगे या नहीं?" "हराम कर दिया है खाना इसने, "किसी दूसरे ने कहा, "भई ऐसे कोई लाश पर रोए तो सामने बैठकर हमसे तो नहीं खाया जाता।"[10]

विषाद मठ में अकाल की भयानकता के चित्र इस प्रकार खींचे गए हैं कि वे पाठक के हृदय को चीर डालते हैं। हर तरफ लाशें, एक-एक आने को एक-दूसरे को मार डालने को आतुर लोग और अपनी अस्मत को बेचकर पेट पालने को मजबूर स्त्रियाँ  "...श्यामपद ने देखा, कुछ नंगी स्त्रियाँ दौड़कर झाड़ियों में छिप गईं। एक नहीं दो नहीं, अनेक थीं वह और झाड़ियों के पीछे से घरघराती आवाजें आने लगीं, किछु दाओ बाबू किछु दाओ बाबू!" ".....कहने वाला पागल की तरह चिल्ला उठा," और इन्हीं से अठखेली करने को आते हैं कमीने जो अपनी पशुता की प्यास मिटाते हैं और लाचार औरतों को करना पड़ता है, क्योंकि हमारी-तुम्हारी तरह वह भी जीवित रहना चाहती हैं।"[11]  

"देखो, परमात्मा की भी अजीब गति है अकाल क्या आया, रोटी गायब हुई, मगर औरत तिनके-तिनके पर आ बैठी? और एक जमाना वह भी था कि महरी का साया पड़ना भी एक अचरज की बात थी। तब तो सिरफ बड़े आदमियों के सुख की बात थी।"[12]

मजबूर औरतें अपने बच्चों का पेट भरने के लिए दो मुठ्ठी में अपनी अस्मत बेचने को तैयार थीं वहीं उनके मुँह से उनकी यह कमाई भी छीनने वालों की भी कोई कमी न थी। ‘‘भिखारी ने पेड़ पर से ही खाते -खाते कहा, "तुझे अभी दस आदमी और मिल सकते हैं, मगर मुझे नहीं। मैं कहाँ से लाऊँगा?"[13]

भूखे लोगों को जाति धर्म समझाते लोग आज भी दिखाई पड़ ही जाते हैं ‘‘वही औरत सकपकाकर बोल उठी बाबू, लंगर जा रहे हैं। एक मुसलमान बाबू मिला था उसने अपने लंगर में खाने को बुलाया है।अरुण ने कहा, ‘अच्छा! तुम हिन्दु होकर वहाँ जा रहे हो?"[14]

जमाखोरी करने वाले लोगों का दिल एक-एक दाने को तरसते और भूख से मरते बच्चों को देखकर भी नहीं पसीजता है वे लाशों के ढ़ेर पर चढ़कर भी अपनी तिजोरी को भर लेना चाहते हैं। "रुद्रमोहन ने रात ही गांव से आकर बताया था कि जमींदारी काफी बढ़ गई थी और अब छिपे गोदाम को उचित मूल्य पर दलालों के जरिए बेच देने का भी इंतजाम हो गया है।"[15] ‘क्रोध से भीषण लावण्यमयी दरवाजे पर खड़ी होकर बकने लगी, ‘तुम पिशाच हो, तुम राक्षस हो..........तुमने लोगों को भूखा मारा है........"[16]

एक और अन्य स्थान पर जमाखोर अपने चावलों को बेचने के लिए भेज रहा था। "एक आदमी कह रहा था, ‘देखो, माल ले जा रहे हो, मगर ध्यान से रखना चावल खराब न हो जाए, इसीलिए मैंने बोरों में ऊपर से रेत भरवा दी है।................ दूसरा आदमी एकाएक बोल उठा, ‘मगर फसल आने से पहले ही गोदाम खोल दोगे तो लोग न कहेंगे कि अब माल कहाँ से आया?"[17]

जमींदार का बेटा अरुण अकाल से पीड़ित एक-एक दाने को तरसते लोगों की कुछ मदद करने की बजाय क्रांति करने की सलाह देता है वह यह नहीं समझता कि 10-10 दिन के भूखे लोगों को कहाँ कुछ और सूझेगा वह भीख मांगने को अत्यन्त हीन समझता है हालांकि वह स्वयं उन्हें एक आना भी नहीं देता बल्कि वह उन्हें कहता है कि भीख माँगने से अच्छा मर जाना चाहिए। "अरुण चौंक उठा। उसने कहा कुछ काम क्यों नहीं करते? ‘भूखा यह सुनते ही आहत सा पुकार उठा, ‘‘बाबू, मैं भिखारी नहीं था। किसान हूँ मैं। मेरे पास जमीन थी, खेत थे; किन्तु भाग में नहीं था मेरे, मेरा केशवपुर सब बिक गया। बेघर-बार भटक रहा हूँ। "अरुण ने घृणा से कहा, "इतने ही सीधे हो तो मर जाना ही क्या खराब है।" भूखों ने सुना। आँखों में गुस्सा झलक रहा था। वह भूखे मर रहे हैं और यह बाबू घमण्ड़ में मर जाना ही अच्छा समझता है?"[18]

एक तरफ जहाँ इंसान दाने-दाने को मोहताज था वहीं दूसरी तरफ मजबूर लोगों की बेबसी का फायदा उठाने वालों की भी कमी नहीं थी। घरों में चावल का एक दाना न था लोग अपनी बहिन-बेटियों की अस्मत तक बेचने को मजबूर हो गये थे। "बाहर बुढ़िया पड़ोसिन से कहने लगी, "बेटी, घर के घर, मुहल्ले के मुहल्ले सभी तो यही कर रहे हैं। बाप-बेटे सभी तो जानते हैं। न हो तो खाएँगे क्या? आखिर मरना भी तो इतना आसान नहीं है।"[19] "बूढ़े ने कहा, ‘क्या बताऊँ सरकार! मेरी तीन लड़कियाँ हैं - एक बीस की, एक अठारह की, एक सोलह की। चलिए आप! बड़ी प्यारी हैं मुझे। बल्कि  वे ही मेरी सेवा करती हैं। क्या बताऊँ, पर्दा करती हैं। परेशानी की हालत है, फिर आप तो जानते हैं। तकलीफ न हो तो आइए।............ अमिताभ चल पड़ा बूढ़ा चिल्लाने लगा, "बाबू कहाँ जा रहे हैं आप? बाबू, मेरी लड़कियाँ बहुत अच्छी हैं, वह आपको जरूर खुश कर देंगी। आइए तो एक बार........"[20]

निष्कर्ष भ्रष्टाचार, लोलुपता, ईर्ष्या, दूसरे लोगों को ठगकर अपना फायदा करने की चाह, भूख से मरते लोगों को देखकर भी दिल न पसीजना इत्यादि का वास्तविक कारण मनुष्य का चारित्रिक हनन ही है। मनुष्य के व्यवहार से दया, क्षमा जैसे गुणों का नितांत अभाव हो चुका है। लोभ-लालच, हवस की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक गिरते लोगों को देखकर यह भान होने लगा है कि जिस उद्देश्य के लिए समाज की परिकल्पना की गई थी। उसकी चूलें हिलने लगी हैं। प्राचीन समय में अपनी भूख या किसी मजबूरीवश अपराध होते थे एवं उनकी भी संख्या गिनी-चुनी थी। परन्तु आज के समय में जिस तरह के अपराधों की सूचनाएँ मिलती हैं; वह यह बताने में सक्षम हैं कि समाज का चारित्रिक हनन किस हद तक हो चुका है। संसार में बढ़ते अपराध एवं उसकी प्रकृति यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि अब किसी अन्य तरीके को अपनाकर समाज को सुधारना आवश्यक है।
भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव ‘विषाद मठ‘ उपन्यास के माध्यम से डॉ0 रांगेय राघव ने समाज में बढ़ते चारित्रिक हनन को पाठकों के समक्ष रखा है। इस पुस्तक को पढ़ने के उपरांत यह विचार करना आवश्यक है कि समाज के ढ़ाँचे को बनाए रखने के लिए समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपने चरित्र को दृढ़ बनाए रखना होगा। इस हेतु बचपन से ही चरित्र निर्माण की शिक्षा को बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल करने के साथ-साथ उसे व्यवहार में लाने हेतु भी प्रेरित करना होगा। बच्चे, बड़ों को देखकर ही उनका अनुसरण करते हैं अतः यह भी आवश्यक है कि माता-पिता, अध्यापक एवं समाज का प्रत्येक अंग अपने चरित्र को इस प्रकार से बच्चों के समक्ष प्रस्तुत करें कि बच्चों का चरित्र बड़े होकर एक उत्तम समाज का निर्माण कर सके।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. भूमिका, विषाद मठ , डॉ रांगेय राघव 2. शिक्षा मानोविज्ञान- प्रो0 मदन मोहन/प्रो0 लक्ष्मीनारायण गुप्त, पृ.सं.-45 3. अरस्तु का काव्यशास्त्र, डॉ0 नगेन्द्र, पृ.सं.-20 4. संस्कृत हिन्दी कोश, आप्टेवामन शिवराम- पृ0सं0 -344 5. पृ0सं032, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 6. पृ0सं0 37, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 7. पृ0सं0 46, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 8. पृ0सं0 49, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 9. पृ0सं0 55, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 10. पृ0सं0 144, विषाद मठ , डॉ रांगेय राघव 11. पृ0सं0 52, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 12. पृ0सं0 158, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 13. पृ0सं0 63, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 14. पृ0सं0 73, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 15. पृ0सं0 89-90, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 16. पृ0सं0 94, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 17. पृ0सं0 110, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 18. पृ0सं0 105, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 19. पृ0सं0 119, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव 20. पृ0सं0 132, विषाद मठ, डॉ रांगेय राघव