ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- VI July  - 2023
Innovation The Research Concept

आयुर्वेद में प्रतिपादित आहार और विहार

Diet and Lifestyle Proposed in Ayurveda
Paper Id :  17975   Submission Date :  14/09/2023   Acceptance Date :  22/07/2023   Publication Date :  25/07/2023
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पुष्पा
सह आचार्य
संस्कृत विभाग
मानविकी विद्यापीठ
इग्नू,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

आयुर्वेद में सभी जीवों के उत्तम स्वास्थ्य का रहस्य विद्यमान है। उत्तम स्वास्थ्य हम सबका ध्येय है। आयुर्वेद जीवन जीने की कला  सिखाने वाला विज्ञान है।

स्वस्थ तन और मन के लिए हमें आयुर्वेद में वर्णित दिनचर्यारात्रिचर्या को आवश्यक रूप से जीवन के अपरीहार्य अंग के रूप मे अपनाने पर बल देना चाहिए । वर्तमान समय मे आयुर्वेद को समाज में विश्वास व श्रद्धा के मजबूत स्तम्भ की भाँति स्वीकारोक्ति तथा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आयुर्वेद के मध्यम से नीरोगी तन, मन और बुद्धि द्वारा न केवल हम अपने को अपितु आगे आने वाली पीढी को यह विरासत सौंप सकते हैं।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The secret of good health of all living beings lies in Ayurveda. Good health is the goal of all of us. Ayurveda is a science that teaches the art of living.
For a healthy body and mind, we need to follow the daily routine and night routine described in Ayurveda.
Emphasis should be laid on adopting it as an inevitable part of life. At present, Ayurveda has received acceptance and important place in the society as a strong pillar of faith and reverence. Through the medium of Ayurveda, we can hand over this legacy not only to ourselves but also to the coming generations by having a healthy body, mind and intellect.
मुख्य शब्द आयुर्वेद, स्वास्थ्य, रात्रिचर्या, दिनचर्या, आहार, शरीर इत्यादि।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Ayurveda, health, night routine, daily routine, diet, body etc.
प्रस्तावना

जैसा खाएंगे अन्न वैसे रहेगा मन

यह वाक्य हमें दैनिक जीवन में प्रायः सुनने को मिलता है, जिसका सार यही है कि आहार का प्रभाव न केवल हमारे शरीर पर ही अपितु हमारे मन पर भी पड़ता है।

इसी प्रकार यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक थेल्स के अनुसार ‘‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है‘‘

अरस्तु ने भी कहा है ‘‘शिक्षा स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निर्माण करती है‘‘

अतः शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए आहार आवश्यक तत्व है। वर्तमान भागदौड़ भरी जिंदगी में हम सभी के लिए उत्तम स्वास्थ्य की महती आवश्यकता है। हमारा स्वास्थ्य कैसे अच्छा हो? हमारी दिनचर्या कैसी हो? हमारा खानपान किस प्रकार का हो? इन्हीं प्रश्नों के तर्कपूर्ण जवाब देता है -आयुर्वेद । आयुर्वेद अथर्ववेद का एक उपवेद है । चरक संहिता के अनुसार आयुर्वेद शाश्वत, अनादि और नित्य है तथा जबसे हमारे जीवन का प्रादुर्भाव हुआ है तथा जीवों को ज्ञान हुआ है उनमें सोचने- विचारने की शक्ति उत्पन्न हुई, उसी समय से आयुर्वेद की सत्ता प्रारम्भ हुई।

अध्ययन का उद्देश्य

प्रस्तुत शोध पत्र लेखन के उद्देश्य निम्नलिखित है -

1. प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से भारतीय चिकित्सा प्रणालियों में अत्यन्त प्राचीन, लोकप्रिय आयुर्वेदीय ज्ञान से लोगों को परिचित करवाना।

2. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य लाभ हेतु जनमानस में आयुर्वेद का प्रचार व प्रसार करना।

3. आयुर्वेद अनुसार प्रत्येक ऋतु में हमारी दिनचर्या व रात्रिचर्या कैसी हो इस ज्ञान से अवगत करवाना।

4. आयुर्वेद में प्रतिपादित ऋतु अनुसार गृहणीय व अगृहणीय तत्वों पर प्रकाश डालकर जनमानस में जागरुकता फैलाना।

5. प्रत्येक व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वास्थ्य लाभ करवाना।

6. नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुरूप प्राचीन ज्ञान को उद्घाटित करना।

7. आयुर्वेदिक ज्ञान के प्रति लोगों में रुचि उत्पन्न करना।

साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोध पत्र लेखन हेतु निम्नलिखित को आधार बनाया गया -

शोध कार्य -

1. आयुर्वेद में पथ्य, अपथ्य विचार (1987), शोधार्थी - बालचन्द्र कृष्ण भागवत, शोध निर्देशक- एस. पी. सरदेशमुख, तिलक आयुर्वेद महाविद्यालय,सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय, पुणे

2. आयुर्वेद में शरीर विज्ञान का सैद्धांतिक अध्ययन, (2015) शोधार्थी - राजीव कुमार सिंह, शोध निर्देशक- पदमा गुप्ता, बी, आर, विश्वविद्यालयआगरा

3. छात्रों में वर्तमान भोजन की आदतों और उनके मनोदैहिक प्रभाव का अध्ययन, शोधार्थी -गुणवंत एच येओला, शोध निर्देशक - बी.के. भगत, तिलक आयुर्वेद महाविद्यालय सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय, पुणे

4. आधुनिक युग में व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्वच्छता में स्वास्थ्य वृत्त का योगदान, (1992) शोधार्थी -एच.बी. वैद्य देशपाण्डे, शोध निर्देशक- पी.एच. कुलकर्णी, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ पुणे सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय पुणे

मूल ग्रन्थ

चरक संहिता 

सुश्रुत संहिता

मुख्य पाठ

सोऽयमायुर्वेदः शाश्वतो निर्दिश्यते, अनादित्वात् स्वभावसंसिद्ध लक्षणत्वात् भावस्वभावनित्यत्वाच्च-च.सू. 30/26
ऐसा कहा जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व ही ब्रह्मा जी ने स्वास्थ्य संरक्षण एवं रोगों के जडसहित नाश हेतु आयुर्वेद की उत्पत्ति की थी तत्पश्चात दक्ष प्रजापति को ब्रह्मा जी से यह ज्ञान प्राप्त हुआदक्ष प्रजापति ने इस ज्ञान को अश्वनीकुमारों को दिया और उनसे आयुर्वेद के ज्ञान की प्राप्ति इंद्र देवता को हुई। इंद्र से आयुर्वेद का ज्ञान क्रमशः विभिन्न आचार्यपरम्परा द्वारा होते-होते पृथ्वी लोक पर पहुँचा।
आयुर्वेद का अवतरण किस प्रकार से धरती पर हुआ इसका वर्णन हमें आयुर्वेद की मुख्य संहिता जैसे चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में आयुर्वेद की परंपरा का वर्णन है उसके अनुसार दो संप्रदायों - आत्रेय सम्प्रदाय और धान्वन्तर सम्प्रदाय स्वीकार किए जाते हैं। आत्रेय सम्प्रदाय के अनुसार ब्रह्मा, दक्ष प्रजापति, अश्विनी कुमार, इन्द्र और पृथ्वी लोक पर  भारद्वाज ऋषि उसके बाद आत्रेय, पुनर्वसु , अग्निवेश, भेल, जतुकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि इत्यादि हैं। इसी प्रकार आयुर्वेद अवतरण का एक अन्य सम्प्रदाय  धान्वन्तर सम्प्रदाय के अनुसार जो क्रम है - उसमें ब्रह्मा, दक्ष प्रजापति, अश्विनी कुमार, इन्द्र, इंद्र के बाद  धन्वन्तरी तत्पश्चात् औपधेनव, वतरण,औरभ्र, पौष्कलावत, करवीर्य, गौपुरक्षित और सुश्रुत इत्यादि है।
आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य
आयुर्वेद के उपलब्ध प्राप्त ग्रंथों को मुख्यतः दो रूप में बांँट सकते हैं बृहत्त्रयी सहिताएँ  और लघुत्रयी सहिताएँ
बृहत्त्रयी संहिता में-
चरक संहिता (ग्रन्थकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक चरक है।)
सुश्रुत संहिता (सुश्रुत कृत) 
अष्टांग संग्रह (वाग्भट कृत)
लघुत्रयी सहिता में-
माधव निदान (माधव रचित)
शांर्गधर संहिता (शांर्गधर द्वारा रचित) 
भावप्रकाश (भाव मिश्र द्वारा रचित)
आयुर्वेद मात्र चिकित्सा की पद्धति ही नहीं है अपितु स्वस्थ जीवन जीने की पद्धति सिखाने वाला विज्ञान भी है। आयुर्वेद के मुख्यतः दो प्रयोजन हैं जैसे कि चरक ने उपदेश दिया है
प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थय रक्षणातुरस्य विकार प्रशमनं (चरक सूत्र 30/26)
अर्थात् स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और आतुर अर्थात् रोगी के विकार अर्थात् रोग का प्रशमन अर्थात् चिकित्सा करना। स्वस्थ जीवन शैली को अपनाना हम सभी के लिए हितकर है। इसके लिए आयुर्वेद में उचित प्रकार का आहार और विहार बताया गया है। किस प्रकार से हमारी दिनचर्या, रात्रिचर्या और ऋतुचर्या हो यदि हम दिनचर्या रात्रि चर्या और ऋतुचर्या का आयुर्वेद में बताए गए नियमों के अनुसार पालन करते हैं तो हम कम से कम बीमार होंगे और यदि हम बीमार हैं तो हम निश्चित तौर पर जल्दी ही स्वस्थ भी हो जाएंगे। स्वास्थ्य रक्षणम के लिए दिनचर्या, रात्रिचर्या और ऋतुचर्या का विशद विवेचन हमें आयुर्वेद के ग्रन्थों में प्राप्त होता है।
आयुर्वेद के अनुसार हमारे शरीर में तीन तत्व विद्यमान होते हैं- वात, पित्त और कफ तीनों के योग से ही हमारे शरीर का निर्माण होता है। तीनों में यदि संतुलन होगा तब हम स्वस्थ रहेंगे परंतु यदि वात की अधिकता हो जाएगी या कफ की अधिकता हो जाएगी अथवा पित्त की अधिकता हो जाएगी तब हमारे शरीर में किसी न किसी प्रकार का रोग हमें देखने को मिलेगा। वात, पित्त और कफ तीनों संतुलित रहे इसके लिए हमें दिन में क्या करना चाहिए और क्या नही करना चाहिए, रात में क्या करना चाहिए और क्या नही करना चाहिए तथा   किस प्रकार से  अलग- अलग षड ऋतओं में हमारा खान-पान होना चाहिए इस सब का  विशद वर्णन इस शोध पत्र का ध्येय है।
आहार-विहार के सन्दर्भ में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। 
                                                                   श्रीमदभगवतगीता 06/17
जिसका आहार-विहार सम्यक है, कर्मों के प्रति जिसकी चेष्टा सम्यक है तथा जो यथा योग्य सोता और जागता है ऐसे व्यक्ति का ऐसे साधक का इस प्रकार के योग से दुःख समाप्त हो जाता है।
आहार के संबंध में महर्षि चरक का अत्यन्त ही सुन्दर एक उदाहरण है कि एक बार महर्षि चरक ने अपने शिष्यों से यह सवाल किया को अरुण को अरुण कौन रोगी नहीं है अर्थात् कौन स्वस्थ है। महर्षि चरक के प्रबुद्ध शिष्य वाग्भट ने उत्तर दिया हितभुक, मित्रभुक रितु भूख था जो व्यक्ति हितकारी उचित और ऋतु के अनुसार भोजन करता है वही निरोगी है इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति तथा वात, पित्त और कफ के विषय में जानकर उसी के अनुसार भोजन करना चाहिए। आहार शुद्धि सत्व शुद्धू ध्रुवा स्मृति स्मृति लब्धि सर्व ग्रंथि नाम भी प्रमुख शहर की शुद्धि से शुरू होता है और सत्य की शुद्धि से हमारी स्मृति स्थिर होती है और स्मृति के स्थिर होने से सारी ग्रंथियों का भेदन होकर हम मोक्ष की और बढ़ते हैं अर्थ मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
दैनिक कार्यक्रम को दिनचर्या कहते हैं दिन का अभिप्राय है दिन का समय और चर्चा का अभिप्राय है उसका पालन करना अनुशासन में रहना प्रतिदिन हमारा दैनिक कार्यक्रम कैसा हो आयुर्वेद प्रात काल के समय पर केंद्रित होता है क्योंकि वह पूरे दिन को नियमित करने में अत्यंत ही महत्वपूर्ण है प्रतिदिन कर्तव्य चर्या दिनचर्या अर्थात आयुर्वेद का मानना है कि दिनचर्या शरीर और मन का अनुशासन है जिससे हमारी प्रतिरक्षा शक्ति मजबूत होती है और हमारे शरीर के विषैले तत्व शरीर से निष्कासित होकर हमारे शरीर को शुद्ध बनाते हैं स्वस्थ दिनचर्या आहार-विहार के क्या नियम हैं आयुर्वेद के अनुसार वह निम्नलिखित हैं 
प्रातः उत्थान हमें प्रतिदिन सूर्योदय से पहले गर्मी के दिनों में 4 बजे और सर्दी के दिनों में 5 बजे अपनी शय्या का त्याग कर देना चाहिए। सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटा पहले वातावरण में विशाल ऊर्जा विद्यमान होती है।  अतः इसी प्रकार मनुस्मृति में भी आचार्य मनु ने कहा है -
ब्राह्मे मुहुर्ते बुध्येत धर्मानुचिन्तयेत्।
कायकलेषांश्च तन्मूलान्वेद तत्वार्थमेवच।।
                                                    मनुस्मृति, 4/92
अपनी हथेलियों को देखते हुए लक्ष्मी,सरस्वती और पार्वती देवी का स्मरण करें। यथा-
कराग्रे वसते लक्ष्मीः कर मध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्दः प्रभाते कर दर्शनम्।।
आयुर्वेद के अनुसार नासा छिद्र से ब्रह्म मुहूर्त में पानी पीना उषा पान कहलाता है। उषा पान के लिए न बहुत गर्म जल और न ही बहुत ठण्डा जल होना चाहिए जिसके लिए भावप्रकाश में भावमिश्र ने बताया है कि-
सवितुः समुदयकाले प्रसृतिसलिलस्य पिवेदेष्टौ।
रोग जरा परिमुक्तो जीवेदवत्सरशतं साग्रम।।
नित्य क्रियाओं को संपादित करना -
प्रातःकाल मल, मूत्र विसर्जन करके स्नान करना चाहिए । दांँतो को साफ करते हुए जीभ और नाक को भी हमें साफ करना चाहिए।
आपोथिताग्रं द्वौ कालौ कषायकटुतिक्तकम् । 
भक्षयेद्दन्तपवनं दन्तमांसान्यबाधयन् ।। (च.स.5/71)
तन्नादौ दन्तपवनं द्वादशांगुलमायतम् । 
कनिष्ठिकापरीणाहमृज्वग्रन्थितम व्रणम् ।। (सु.चि.24/4) 
आयुर्वेद में वर्णन है कि दन्तधावन के लिए 12 अंगुल लम्बी कनिष्ठिका अंगुलि के अग्रभाग की तरह मोटी, सीधी, गांठ और छिद्र से रहित दातुन से हमें अपने दाँतो को मार्जन करते हुए साफ करना चाहिए। यह दातुन आक,वट,खैर, करंज, अर्जुन इत्यादि वृक्षों की अथवा कषाय, कटु ,तिक्त रस वाली जिसका अग्रभाग कोमल हो जिससे हमारे मसूड़ों को कोई हानि नहीं पहुचें, ऐसे दातुन से अपने मुख के प्रत्येक भाग को अच्छी तरह से रगड़कर साफ करते हुए मुख को साफ पानी से धोकर, कुल्ला करना चाहिए। इसके पश्चात हमें जीभ के गन्दगी को साफ करना चाहिए हमें जिसके लिए जीभी का प्रयोग करना चाहिए। चांँदी अथवा तांबे की हो तो बेहतर है यदि नहीं हो तो कोमल और मुलायम जीभी से अपने जीभ की गंदगी, दुर्गंध और मैल इत्यादि को हटाते हुए शीतल जल से कुल्ला करते हुए प्रत्येक भाग को साफ करते हुए पूरी तरह से मुख को साफ पानी से धोना चाहिए। जिसके कारण किसी भी प्रकार की दुर्गंध मुंह से नहीं आएगी। मुख को धोने के लिए लोध और आमलक आदि को उबालकर उस पानी से मुख और आंँखों को अच्छी तरह से धोना चाहिए जिसके कारण मुंह की अतिरिक्त चिकनाई और गन्दगी हट जाती है।।
नस्य, गण्डूषअभ्यंग कर्म और व्यायाम  
हमें प्रतिदिन दो से तीन बूँद गर्म करके ठण्डा किया हुआ सरसों अथवा तिल का तेल नाक में डालना चाहिए, जिससे हमारी आँखें और नाक स्वस्थ होते हैं, हमारी नेत्र ज्योति बढ़ती है, बाल काले और लंबे होते हैं और असमय सफेद भी नहीं होते हैं।
गण्डूष कर्म के लिए तिल अथवा सरसों के प्रयोग को अच्छा माना जाता है। गण्डूष कर्म से होठों का फटना, मुंह का सूखना, दाँतों के रोग और स्वर आदि में भेद नहीं होता है जिसके कारण मुख की दुर्गन्ध, अरूचि तथा मलिनता भी दूर होती है।
अभ्यंग कर्म आयुर्वेदिक चिकित्सा का एक रूप है जिसमें शरीर की गुनगुने तेल से मालिश की जाती है। इस तेल में औषधि भी मिलाई जाती हैं परिणाम स्वरूप शरीर और मन की ऊर्जा में संतुलन बना रहता है, शरीर का तापमान नियंत्रित रहता है ,रक्त का प्रवाह भी अच्छा होता है और शरीर के सभी विषैले तत्व निकल जाते हैं।
व्यायामः-  शरीरायास जनकं कर्म व्यायाम संज्ञितम् ।
शरीर में श्रम उत्पन्न करने वाली चेष्टाएंँ व्यायाम कहलाती हैं। जिससे हमारे शरीर और मन दोनों में स्थिरता तथा बल की प्राप्ति होती है। व्यायाम आयु, अवस्था,शारीरिक सामर्थ्य अनुसार करना चाहिए। आचार्य सुश्रुत के अनुसार शरीर के आधे बल के बराबर व्यायाम करना चाहिए। आयुर्वे भी कहता है कि व्यायाम करते समय वय, बल, शरीर, देशकाल और आहार का विचार अवश्य ही करना चाहिए।  उदाहरण के लिए कृश और दुर्बल व्यक्ति के लिए चंक्रमण (पैदल चलना) या लघु व्यायाम उपयोगी माना गया है। 
यत्तु चड्.क्रमणं नातिदेह पीड़ाकरं भवेत् । 
तदायुर्बलमेंधाग्नि प्रदमिन्द्रिय बोधनम् ।। (स.चि. 24/80) 
क्षौरकर्म तथा शरीर परिमार्जन -
बाल-नाखून आदि को समयानुसार काटना क्षौर कर्म कहलाता है। नित्य व्यायाम के समान ही नित्य रूप से क्षौरकर्म करना चाहिए। आचार्य सुश्रुत कहते हैं क्षौरकर्म का शमन करने वाला और आनन्द को देने वाला सौभाग्य समझकर हमें इसे करना चाहिए। पुरुषों को प्रतिदिन दाढ़ी बनाने से स्फूर्ति आती है तथा महीने में एक बार बाल काटने अवश्य ही चाहिए। उद्वर्तन (उबटन कर्म), उत्सादन, उदघर्षण (अस्निग्ध हाथों को शरीर के अवयवों पर रगडना) तथा फेनक आदि द्वारा शरीर का परिमार्जन किया जाता है।शरीर के अंगों पर हमें उत्तम का प्रयोग करना चाहिए जिससे हमारी त्वचा में निखार आता है बेजान त्वचा हट जाती है त्वचा में शुद्धता आती है और रक्त का संचार ढंग से होता है कार्य करने के प्रति एक नई ऊर्जा हमें प्राप्त होती है । 
स्नान और ईश्वर ध्यान -
आचार्य चरक के अनुसार प्रतिदिन स्नान करने से अतिनिद्रा, दाह-श्रम, स्वेद दौर्गन्ध्य, कण्डू एवं तृष्णा का नाश होता है तथा  यह हृदय आनन्दक, श्रेष्ठ मलहर, सर्वेन्द्रियबोधक, तन्द्रानाशक, पुष्टिदायक, पुंस्त्व और अग्निवर्धक होता है ।
पवित्रं वृष्यमायुष्यं श्रमस्वेदमलापहम् । 
शरीर बल सन्धानं स्नानमोजस्करं परम् ।। (च0सू0 5/94) 
स्नान स्वेद, दौर्गन्ध्य, विवर्णता और श्रम को नष्ट करने वाला तथा ओजवर्धक एवं सौभाग्यकर होता है। तदुपरान्त निर्मल एवं स्वच्छ वस्त्रों का धारण करना चाहिए। मालिन वस्त्रों के धारण से शरीर में कृमि, खुजली ,आलस्य, रोग, दारिद्रता की ही प्राप्ति होती है। स्नान कर्म हमारे शरीर को साफ करने के साथ-साथ हमारे शरीर में उत्साह और बल को देने वाला गंदगी को दूर भगाने वाला और हमें स्वच्छता प्रदान करने वाला होता है। हमें मौसम के अनुकूल ही स्नान करने के लिए जल का प्रयोग करना चाहिए यथा गर्मी में ठण्डे जल से स्नान करना चाहिए और सर्दियों में हमें गर्म जल से स्नान करना चाहिए। सिर पर अत्यंत गर्म जल से स्नान करना सदा ही आँंखों के लिए बुरा माना जाता है जो व्यक्ति शरीर में आंवला मल कर स्नान करता है वह 100 वर्षों तक जीवित रहता है। स्नान करने के पश्चात् हमें वस्त्र से अंगो को खूब रगड़ कर पोछना चाहिए जिससे हमारे शरीर में रक्त का संचार व कांति बढ़ती है। खुजली और त्वचा के विकार दूर होते हैं। हमें भोजन के तुरंत बाद कभी भी स्नान नहीं करना चाहिए। स्नान करने के उपरान्त प्रतिदिन हमें ईश्वर का ध्यान लगाना चाहिए प्राणायाम, सूर्योपासना, गायत्री मंत्र इत्यादि का जाप करते हुए अपने इष्ट देवता को याद करना चाहिए। है। प्राणायाम अभ्यास से फेफड़े सुदृढ़ एवं सुचारू रूप से क्रियाशील रहते हैं। योगाभ्यास से शारीरिक दृढ़ता के साथ-साथ मानसिक शान्ति भी मिलती है। 
आहार
संतुलन की अनिवार्यता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है। यदि हमारे जीवन में संतुलन होगा तब हम अपने लक्ष्य को प्राप्त करन लिऐ सही दिशा में जा पाएंगे।  इसी प्रकार यदि हमारा भोजन भी संतुलित होगा तो हमारे शरीर में किसी भी प्रकार के पोषक तत्व की कमी नहीं होगी और हम कुपोषण के शिकार नही होंगे। आयुर्वेद के अनुसार शरीर के 3 मुख्य तत्व अथवा प्रकृति होती है जैसे वात, पित्त और कफ। हमारे शरीर में जब वात पित्त और कफ तीनों तत्वों में असंतुलन हो जाता है तो हम बीमार पड़ जाते हैं इससे बचने के लिए हमें ऐसा भोजन करना चाहिए जो सुपाच्य हो पोषक तत्वों से परिपूर्ण हो और किसी भी पोषक तत्व को उपेक्षित नहीं किया जाए। अपनी थाली में सभी प्रकार के आवश्यक घटक जैसे- प्रोटीन, विटामिन ,वसा, कार्बोहाइड्रेट, मिनरल्स, सभी प्रकार के पोषक तत्वों को हमें समाविष्ट करना चाहिए उत्तम स्वास्थ्य के लिए किसी पोषक तत्व की उपेक्षा नही करनी चाहिए । हमें लगातार नियमित रूप से संतुलित आहार ही ग्रहण करना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार खाने में छह रस होने चाहिए यह 6 रस हैं मधुर ,मीठा ,नमकीन, खट्टा ,कड़वा और कसैला हमें अपने शरीर की प्रकृति के अनुसार भोजन करना चाहिए। सभी के शरीर की प्रकृति अलग-अलग प्रकार की होती है किसी के शरीर में कफ की प्रधानता होती है किसी के शरीर में वात की प्रधानता होती है और किसी के शरीर में पित्त की प्रधानता होती है। अत्यधिक गरिष्ठ भोजन से हमें बचना चाहिए अत्यधिक खाने से बचना चाहिए आयुर्वेद के अनुसार भोजन दो बार करना चाहिए दिन का भोजन 12 बजे से पूर्व और रात्रि का भोजन 7 बजे तक हमें ग्रहण कर लेना चाहिए। हमें भोजन को चबा -चबा कर खाना चाहिए। भोजन के तुरंत बाद हमें पानी नहीं पीना चाहिए उसके 1 घंटे के पश्चात ही हमें पानी पीना चाहिए नहीं तो यह पानी हमारी जठराग्नि को मन्द कर देता है, जिससे हमें भोजन पचाने में असुविधा होती है और हमें अपच की शिकायत हो जाती है।
सदाचरण
हमें त्रिवर्ग ;धर्म, अर्थ और कामद्ध से रहित कोई कार्य नहीं करना चाहिए। हमें धर्म अर्थ और काम का सेवन करना चाहिए हम इस प्रकार से तीनों का सेवन करें जिससे इनमें आपसी विरोध न हो। हम लोकाचार का पालन करें सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठने से लेकर दिन में की जाने वाली प्रत्येक क्रियाएं सभी जीवो के लिए हितकारी होनी चाहिए। किसी भी प्रकार से किसी के साथ अत्याचार करने वाली नहीं होनी चाहिए। जैसे प्रातःकाल में उसी प्रकार सायकाल में हमें सन्ध्योपासना करनी चाहिए तत्पश्चात भोजन करना चाहिए।   इस प्रकार इन नियमों को अपनाकर आदर्श दिनचर्या का पालन करना चाहिए सुबह से लेकर रात्रि में अपनी शैय्या पर जाने तक यदि हम इन नियमों को विधिवत रूप से पालन करते हैं तो निश्चित तौर से हम स्वस्थ ही रहेंगे।
रात्रिचर्या
आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य चरक ने कहा है कि आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य को स्वस्थ जीवन का उपस्तम्भ माना है। यदि हम उचित प्रकार का आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य तीनों का पालन करते हैं तो इनका पालन करने से मनुष्य उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त होता है जबकि इनका पालन ना करने से मनुष्य का निम्न की ओर ही पतन होता चला जाता है। उसके शरीर में में विविध प्रकार के रोग घर कर लेते हैं।
हमारी स्वस्थ रात्रिचर्या कैसी होनी चाहिए ? हमें किन नियमों का पालन करना चाहिए और किन को ग्रहण करने से बचना चाहिए वह तत्व निम्नलिखित हैं-
रात्रि के वक्त एक बार आहार ग्रहण करने के पश्चात बाद में यदि हमें भूख लगे तो हमें भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। आयुर्वेद के मुख्य ग्रंथ भावप्रकाश में कहा है-
‘‘रात्रौ तु भोजनं कुर्यात् प्रथम पहरान्तरे।
किचिंदूनं समश्नीयाद् दुर्जरं तत्र वर्जयेत्।।’’
अभिप्राय है कि विषम यदि हम विषम परिस्थितियों को छोड़ दें तो हमें रात्रि काल के प्रथम प्रहर में ही  शुद्ध सात्विक भोजन कर लेना चाहिए तत्पश्चात हमें बीच- बीच में कुछ नहीं खाना चाहिए।
रात्रिकालीन निद्रा हमारे जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है। रात्रिकाल में निद्रा का आना मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यदि हम रात्रि को अच्छी तरह से शयन करते हैं तो हम सुबह नई ताजगी ऊर्जा और स्फूर्ति के साथ अपनी दैनिक क्रियाओं को संपादित कर पाते हैं अन्यथा हम पूरे दिन आलस्य मे डूबकर उबासी लेते रहते हैं और किसी भी कार्य को करने में मन नहीं लगा पाते जिसका हमारे शरीर और मन पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध महर्षि चरक ने निद्रा के स्वरूप की व्याख्या की है-
यदा तु मनसि क्लान्ते कर्मात्मानः कलामान्विता।
विषयेभ्यो निवर्तन्ते तदा स्वपिति मानवः।।
जब हम कार्य करते- करते थक जाते हैं हमारी इंद्रियाँं भी थक जाती हैं इंद्रियाँं विषयों से निवृत हो जाती हैं तब मनुष्य को निद्रा आ जाती है। इस प्रकार आयुर्वेद में निद्रा को विश्राम की अवस्था विशेष कहा गया है जिसमें मन और इंद्रियों की अपने-अपने विषयों से निवृत्ति हो जाती है। एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य को 24 घंटे के चतुर्थांश अर्थात् 6 घण्टे की अथवा 8 घंटे की निद्रा अवश्य ही लेनी चाहिए। हमें पूर्व एवं दक्षिण दिशा में सिर करके सोना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र में गीले पैर भोजन एवं सूखे पैर शयन को उत्तम कहा गया है। रात्रि काल में सोते समय हमें प्रेरणादायक महापुरुषों के चरित्र का चिंतन करना चाहिए मन में किसी भी प्रकार के नकारात्मक भावों को नहीं आने देना चाहिए। मादक द्रव्यों के सेवन से बचना चाहिए। सदा मन में सकारात्मकता का चिन्तन करते हुए ही हमें रात को शयन करना चाहिए। रात्रि के समय ब्रह्मचर्य इंद्रियों पर संयम रखते हुए शरीर की महत्वपूर्ण धातु की संयम पूर्वक रक्षा करनी चाहिए। अतः हमें रात्रिचर्या के तीन महत्वपूर्ण करणीय कर्म रात्रिकालीन आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य का ज्ञान प्राप्त होता है इसे यदि हम विधिवत रूप से नियमानुसार अनुकरण करते हैं तो हमारे लिए उपयोगी होता है।
आयुर्वेद जीवन का वह विज्ञान है जिसमें मनुष्य की सुख आयु को बढ़ाने और दःुख आयु को कम करने का उपदेश दिया गया है। सुखायु को बढ़ाने औरदुःख आयु को कम करने के लिए तीन महत्वपूर्ण तत्वों पर प्रकाश डाला है जिसमें स्वस्थ दिनचर्या, स्वस्थ रात्रिचर्या और ऋतु के अनुसार आहार-विहार करना अत्यंत ही उपयोगी होता है। ऋतुएँ कौन-कौन सी होतीऋतु के अनुसार आहार-विहार किस प्रकार का हो  यह हम निम्नलिखित रुप में समझ सकते हैं-
अंग्रेजी कैलेण्डर का प्रयोग प्रायः प्रत्येक समाज के प्रत्येक प्रतिष्ठान में, घर  में, देखने को मिलता है। आयुर्वेद शास्त्र और अंग्रेजी कैलेण्डर के ऋतु विभाजन में मुख्यतः एक समानता यह है कि इन दोनों में ही सम्पूर्ण वर्ष को 12 महीनों में विभाजित किया गया है। आयुर्वेद में 1 वर्ष को 12 महीनों में और 6 ऋतुओं में विभाजित किया जाता है। आयुर्वेद के महीनों को हम हिंदी महीनों के रूप में निम्नलिखित नाम से जानते है-

क्र. सं.

हिन्दी मास

कब से कब तक

आयुर्वेदीय ऋतु

1

चैत मास

16 मार्च से 15 अपै्रल

वसन्त ऋतु

2

वैशाख मास

16 अपै्रल से 15 मई

वसन्त ऋतु

3

ज्येष्ठ मास

16 मई से 15 जून

ग्रीष्म ऋतु

4

आषाढ़ मास

16 जून से 15 जुलाई

ग्रीष्म ऋतु

5

श्रावण मास

16 जुलाई से 15 अगस्त

वर्षा ऋतु

6

भाद्रपद मास

16 अगस्त से 15 सितम्बर

वर्षा ऋतु

7

आश्विन मास

16 सितम्बर से 15 अक्टूबर

शरद ऋतु

8

कार्तिक मास

16 अक्टूबर से 15 नवम्बर

शरद ऋतु

9

मार्गशीर्ष मास

16 नवम्बर से 15 दिसम्बर

हेमन्त ऋतु

10

पौष मास

16 दिसम्बर से 15 जनवरी

हेमन्त ऋतु

11

माघ मास

16 जनवरी से 15 फरवरी

शिशिर ऋतु

12

फाल्गुन मास

16 फरवरी से 15 मार्च

शिशिर ऋतु

आयुर्वेदीय साहित्य में शरीर एवं व्याधि दोनों को आहार सम्भव माना गया है-आहारसम्भवं वस्तु रोगाश्चहारसम्भवाः’ चरकसूत्र 28/45। शरीर के समुचित पोषण एवं रोग रहित रहने के लिए सम्यक् (पथ्य) आहार-विहार का होना जरूरी है। आहार द्वारा शरीर-पोषण की प्रक्रिया अग्नि पर निर्भर है। आहार ग्रहण के उपरान्त उसका पाचन, अवशोषण एवं चयापचय आदि सभी क्रियाएँ अग्नि व्यापार में समाहित है। अतः अग्नि का सम होना अत्यन्त आवश्यक है। 
आयुर्वेद में पथ्य विज्ञान एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। हितकर आहार को पथ्यएवं अहितकर अहार को अपथ्यकी संज्ञा दी है। आचार्य चरक के अनुसार पथ्य वह है जो शरीर के लिए उपकारी हो, जो मन को प्रिय लगे इसके अतिरिक्त जो शरीर के लिए अपकारी हो, जो मन को अप्रिय लगे वही अपथ्य है। लोलम्बिराज ने पथ्य को औषधी से भी महत्वपूर्ण बताया है। चरकसूत्र में पथ्य और अपथ्य के विषय में कहा है कि-
पथ्यं पथोऽनपेतं यद्यच्चोक्तं मनसः प्रियम्।
यच्चाप्रियमपथ्यं च नियतं तन्न लक्षयेत्।
चरकसूत्र स्थान, 25/45
वसंत ऋतु
आयुर्वेद में 12 महीनों में 06 ऋतु होती हैं । हिन्दी महीनों में वसंतऋतु गर्मी और सर्दी की समतुल्यता का काल होता है। वसंत ऋतु चारों ओर वसंत का काल, सुहावना मौसम, संपूर्ण प्रकृति में नवजीवन का आरंभ इस ऋतु से होता है। इस ऋतु को सभी ऋतु में प्रधान होने के कारण ऋतुराज नाम से भी जाना जाता है।
वसंत ऋतु चारों ओर वसंत का काल, सुहावना मौसम, संपूर्ण प्रकृति में नवजीवन का आरंभ इस ऋतु से होता है। इस ऋतु को सभी ऋतु में प्रधान होने के कारण ऋतुराज नाम से भी जाना जाता है।
वसन्त ऋतु में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए। इस ऋतु में जठराग्नि के मन्द होने के कारण अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होती है जैसे- खांँसी, जुकाम, नजला, दमा, गले में टॉन्सिल्स इत्यादि यह रोग मुख्यतः देखने में आते हैं।
वसंत ऋतु में पथ्य
वसन्त ऋतु में हमें रूखे कसैले रसों का सेवन करना चाहिए। सोंठ के क्वाथ को ग्रहण करना चाहिए मधु मिश्रित जल और नागर मोथा से बना क्वाथ इस समय हितकारी होता है।
न केवल इस ऋतु में अपितु ;विशेष अवसरों को छोडकरद्ध सदैव ही हमें ताजा, हल्का और सुपाच्य भोजन ही करना चाहिए। मूंग, चना, जौ की रोटी, पुराना गेहूं और चावल, हरा साग, सरसों का तेल हमें प्रयोग में लाना चाहिए। सब्जियों में करेला, लहसुन, पालक, काली मिर्च, आंवला, नींबू, मौसमी, शहद का प्रयोग करते हुए अत्यधिक मात्रा में जल का सेवन करना चाहिए। इस ऋतु में क्योंकि कफ बढ़ जाता है इसलिए हमें कफ का नाश करने वाली औषधियों का भी सेवन करना चाहिए जिसमें मुख्यतः हमें काली मिर्च को अधिक प्रयोग में लाना चाहिए। इस ऋतु में कफ निःसारक औषधियों का सेवन करना चाहिए। इस काल में यौगिक षट्कर्मों के अभ्यास द्वारा शरीर का शोधन किया जाना चाहिए। इस ऋतु में शंख प्रक्षालन क्रिया के द्वारा भी शरीर शोधन करने का उपदेश यौगिक शास्त्रों में वर्णित है।
वसन्त ऋतु में प्रातः एवं सायंकाल शीतल एवं सुगन्धित वायु बहती है। अतः इन दोनों कालों में भ्रमण करने का उपदेश करते हुए कहा गया-वसन्ते भ्रमणे पथ्येअर्थात् वसन्त ऋतु में भ्रमण करना हितकारी होता है। इस ऋतु में तेल मालिश करके तथा उबटन लगाकर गुनगुने पानी से स्नान करना हितकारी माना गया है।
ग्रीष्म ऋतु
ग्रीष्म ऋतु वसंत ऋतु के बाद की ऋतु होती है। इस ऋतु में गर्मी अपने शिखर तक पहँुंच जाती है। इस ऋतु में आने वाला 21 जून का दिन वर्ष का सबसे बड़ा दिन माना जाता है इस समय अवधि में सूर्य पृथ्वी के सबसे अधिक निकट होता है जिसका प्रभाव हम पृथ्वी पर प्रत्यक्ष तौर पर देखते हैं।
इस समय दिन बड़े और रात छोटी हो जाती हैं।
अर्थात ग्रीष्म काल में सूर्य अपने किरणों से संपूर्ण संसार के द्रव्य और मनुष्य के जलीय सार्थक स्नेह को अपनी किरणों के माध्यम से सोख लेता है अथवा खींच लेता है। अतः ग्रीष्म ऋतु में मीठा रस वसंत ऋतु में जल स्वरूप में परिवर्तित हुआ कफ इस ऋतु में क्षीण पड़ जाता है कहने का अभिप्राय है कि ग्रीष्म ऋतु में कफ दोष के क्षीण हो जाने से परंतु वात दोष में वृद्धि होती है। वात दोष में वृद्धि होने के कारण वात संबंधित रोग जैसे जोड़ों में दर्द, गठिया, अपच इत्यादि रोग शरीर मे घर कर लेते हैं। 
ग्रीष्म ऋतु में पथ्य
इस ऋतु में जौ , चावल, चौलाई, गेंहू ,मटर, खीरा, तरबूज, खरबूजा, ककड़ी, सीताफल, पेठा, लौकी, करेला, घीया इत्यादि जलवाले फल और सब्जियों का प्रयोग हमें ज्यादा करना चाहिए।
ग्रीष्म ऋतु में मिश्री युक्त दूध खांड युक्त दही अथवा मट्ठे से बनी हुई लस्सी, छाछ, नारियल का पानी, नींबू की शिकंजी, आम का पन्ना,बेलफल इत्यादि का सेवन करना चाहिए। हमें इस ऋतु में बासी भोजन के सेवन से बिल्कुल ही परहेज करना चाहिए क्योंकि सूर्य की तपन अत्यधिक होती है इसलिए उसके तेज प्रकाश में जाने से बचना चाहिए। किरणों के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने से परहेज करना चाहिए अत्यंत आवश्यकता हो तो हम छतरी का इस्तेमाल कर सकते हैं। अपने सर को ढककर जा सकते हैं इस ऋतु में गर्म हवाएं चलती हैं जिन्हें लू की संज्ञा दी जाती है लू से बचने के लिए हमें घर से निकलते समय अत्यधिक पर पदार्थों का सेवन करना चाहिए। 
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें सीधी धरती पर नहीं पहुँच पाती अतः हमें वृक्षों से भरे बाग-बगीचे में भ्रमण करना लाभकारी होता है क्योंकि  वहाँ अधिक गर्मी नहीं होती। रहने का स्थान विशेषकर शयन कक्ष, पानी के फव्वारे, पंखों, कूलर आदि से ठण्डा करना चाहिए। रात के समय ऐसे स्थान पर सोना चाहिए जहाँ वातावरण ताजी हवा और चन्द्रमा की किरणों से ठण्डा होना चाहिए। शरीर पर चन्दन का लेप करना चाहिए और मोतियों के आभूषण पहनने चाहिए क्योंकि मोती में शीतलता प्रदान करने का एवं उपचारात्मक गुण होता है।
आचार्य चरक के अनुसार- ग्रीष्म ऋतु में दिन के समय शीतल घर में और रात्रि में चाँदनी से शीतल हुए तथा हवादार घर की छत पर चन्दनादि का लेप लगाकर शयन करना चाहिए-
दिवा शीतगृहे निद्रां निशि चन्द्रांशुशीतले।
भजेच्चन्दनदिग्धाङ्गः प्रवाते हर्म्यमस्तके।।
                                         चरकसंहिता सूत्र स्थान, 6/30
ग्रीष्म ऋतु में अपथ्य
1.ग्रीष्म ऋतु में कभी भी भूखे पेट बाहर नहीं निकलना चाहिए ।
२.खाली पेट कभी भी हमें तपती दोपहरी में घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए।
३.बासी खाना बिल्कुल भी नहीं खाना चाहिए ।
4.अत्यधिक तैलीय व गरिष्ठ भोजन से इस ऋतु में हमें परहेज करना चाहिए।
5.ग्रीष्म ऋतु में लवण, अम्ल, कटुरस प्रधान तथा गर्म पदार्थों के सेवन तथा शारीरिक व्यायाम से बचना चाहिए जैसा निम्न श्लोक में बताया है -
मद्यमल्पं न वा पेयमथवा सुबहूदकम्।
लवणाम्ल कटूष्णानि व्यायामं चाज वर्जयेत्।।
                                         चरकसंहिता सूत्र स्थान, 6/29
वर्षा ऋतु -
ग्रीष्म ऋतु के पश्चात् वर्षा ऋतु का आगमन होता है। ग्रीष्म ऋतु की तपती गर्मी को वर्षा ऋतु का जल शान्त कर देता है। इस समय कभी तो वातावरण अत्यंत ही सुहावना ठण्डी हवाएंँ चलती हैं और कभी-कभी उमस से भी भर जाता है।
इस ऋतु को चौमासा की संज्ञा भी दी जाती है क्योंकि इस ऋतु में हमें गर्मी, सर्दी, वर्षा और वसंत सभी का प्रभाव देखने को कभी न कभी, किसी न किसी रूप में, देखने को मिल ही जाता है इस ऋतु में प्रायः जल दूषित हो जाता है। वर्षा ऋतु में वात दोष के कुपित होने के कारण पाचन तंत्र और अधिक दुर्बल हो जाता है। इस ऋतु में शरीर में पित्त दोष संचित होने लगता है। वर्षा ऋतु में अनेक प्रकार के रोगाणु तेजी से पनपते हैं की जो विविध प्रकार के रोगों के जनक होते हैं। इस ऋतु में संक्रामक रोग जैसे मलेरिया, डेंगू, दाद, खाज, उल्टी, खुजली, तेजी से प्रसारित होते है।
वर्षा ऋतु में  पाचनतन्त्र कमजोर पड जाता है शरीर में पित्त दोष बढ जाता है
वर्षा ऋतु में हमें सभी नियमों का पालन करना चाहिए जिससे हमारे वात पित्त और कफ तीनों में संतुलन बना रहे।
वर्षा ऋतु में पथ्य
वर्षा ऋतु में खट्टे नमकीन रस वाले चिकने भोज्य पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए जिससे वायु का नाश हो।
इन दिनों में अधिक सर्दी का अनुभव होने पर खट्टे, नमकीन रस वाले, चिकने भोज्य पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए। जिससे प्रकुपित वायु का शमन हो सके-
व्यक्ताम्ललवणस्नेहं वातवर्षाकुलेऽहानि,
विशेषशीते भोक्तव्यं वर्षास्वनिलशान्तये।।
                                                चरकसंहिता सूत्र स्थान, 6/37
पुराने जौ ,गेहूं ,चावल का सेवन करना चाहिए और मूंग की दाल, जो भोजन आसानी से पच जाए ऐसे भोजन को ग्रहण करना चाहिए। यथा-
अग्निसंरक्षणवता यवगोधूमशालयः।
पुराणा जाङ्गलैर्मांसैर्भोज्या यूषैश्च संस्कृतैः।।
                                                चरकसंहिता सूत्र स्थान, 6/38
वर्षा ऋतु में चावल,शहद, दूध, खीरा, लौकी, भिंडी, टमाटर, पुदीना, करेला, तुराई ,नींबू ,खजूर जामुन, परवल, गुडपका भुट्टा, आम तथा दूध का सेवन करना चाहिए। इस ऋतु में जल को विशेषकर उबालकर ही पीना चाहिए। वर्षा ऋतु में सेंधा के साथ हरड का सेवन करना उपयोगी माना जाता है।
वर्षा ऋतु में अपथ्य
1. वर्षा ऋतु में हमें साफ-सुथरे वस्त्रों को ग्रहण करना चाहिए।
२. शरीर को हमें स्नान करने के पश्चात रगडकर पोंछ लेना चाहिए, नमी नहीं रहनी चाहिए क्योंकि फफूंदी की संभावना होती है इसलिए हमें अपने शरीर को सुखा कर रखना चाहिए।
३. वर्षा ऋतु में हमें दही की अपेक्षा दूध का प्रयोग ज्यादा करना चाहिए।
4. वर्षा ऋतु में दिन में सोना, धूप में घूमना व सोना, अधिक पैदल चलना एवं अधिक शारीरिक व्यायाम से बचना चाहिए। 
शरद ऋतु -
ग्रीष्म ऋतु के पश्चात शरद ऋतु का आगमन होता है जिसमें आकाश साफ, स्वच्छ और प्रकृति भी अत्यंत ही निर्मल स्वरूप धारण कर लेती है। इस ऋतु में कफ दोष को बल मिलता है।
शरद ऋतु में पथ्य 
शरद ऋतु में हमें अनाज को धी के साथ पकाकर सेवन करना चाहिए। जिससे पित्त दोष कुपित नहीं होता है और शारीरिक बल बना रहता है। इस ऋतु में हमें आंवले का सेवन शक्कर के साथ करना चाहिए।
शरद ऋतु में हरीतकी का चूर्ण शहद, मिश्री अथवा गुड़ के साथ मिलाकर लेना चाहिए।
शरद ऋतु का जल निर्मल और पवित्र होता है। यह जल स्नान करने में , पीने में अमृत की भांँति फल देने वाला होता है।
इस ऋतु में हमें मीठा, सुपाच्य, पित्त को शान्त करने वाला, शीतल भोजन का सेवन, भूख लगने पर, उचित मात्रा में करना चाहिए। ऐसा चरकसंहिता में वर्णित भी है-
तत्रत्रापानं धुरं लघु शीतं सतिक्तकम्।
पित्त प्रशमनं सेव्यं मात्रया सुप्रकाङ्क्षितैः।।
                                         चरकसंहिता सूत्र स्थान, 6/42
आयुर्वेद के अनुसार शरद ऋतु को शरीर शोधन हेतु एवं योगाभ्यास प्रारंभ करने का सर्वोत्तम समय माना जाता है। योगाभ्यास प्रारंभ करने के लिए यह श्रेष्ठ ऋतु स्वीकार की जाती है।
शारदानि च माल्यानि वासांसि विमलानि च।
शरत्काले प्रशस्यन्ते प्रदोषे चेन्दुरश्मयः।।
                                                चरकसंहिता सूत्र स्थान, 6/48
अर्थात शरद ऋतु में फूलों की माला, साफ कपड़े और रात के प्रथम प्रहर (प्रदोष काल) में चन्द्रमा की किरणों का सेवन करना स्वास्थ्यवर्धक होता है।
इस ऋतु में हमें चन्द्रमा की किरणों का सेवन करना चाहिए जो हमारे लिए उपयोगी होता है।
शरद ऋतु में अपथ्य 
शरद ऋतु में हमें बहुत ठण्डी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।
अपने शरीर के तापमान को सामान्य बनाए रखने के लिए यदि हमें ठण्ड का आभास हो तो हमें हल्के गर्म वस्त्र दुशाला, पैरों में जुराब इत्यादि को ग्रहण करना चाहिए।
इस ऋतु में ठंडे जल से स्नान नहीं करना चाहिए सामान्य तापमान वाले जल से ही स्नान करना इस ऋतु में लाभदायक है।
इस ऋतु में ठण्डा ,बासी भोजन नहीं करना चाहिए।
हेमन्त ऋतु 
हेमन्त ऋतु में सूर्य पृथ्वी से अधिकतम दूरी पर होता है, जिसके कारण पृथ्वी पर सूर्य की किरणें तेजी से अपना प्रभाव नहीं दिखा पातीं हैं। उनकी प्रखरता कम होती है वातावरण में चारों ओर शीतलता देखने को मिलती है। इस मौसम में वातावरण में कोहरा छाया रहता है शीतलहर चलती रहती है। पेड़-पौधों, वनस्पतियों, जीव -जन्तुओं में चारों ओर ठण्ड से बचने के लिए प्रयास किए जाते हैं।
हेमन्त ऋतु के पथ्य 
हेमन्त ऋतु उत्तम स्वास्थ्य की ऋतु है।
हेमन्त ऋतु में वात का शमन करने के लिए भारी भोजन का सेवन करना चाहिए। इस ऋतु में शीतल वायु की अधिकता होने के कारण स्वस्थ मनुष्य के शरीर की जठराग्नि प्रबल हो जाती है परिणामस्वरुप भारी आहार को पचाने में हमारी जठराग्नि समर्थ होती है।
स यदा नेन्धनं युक्तं लभते देहजं तदा।
रसं हिनस्त्यतो वायुः शीतः शीते प्रकुप्यति।।
                                                चरकसंहिता सूत्र स्थान, 6/10
इस ऋतु में मोटे अनाज जैसे- बाजरा, ज्वार, रागी ,मसूर व गाजर, मटर, बथुआ ,मेथी ,सरसों का साग , फूल गोभी, पत्ता गोभी इत्यादि का सेवन लाभकारी होता है
इस ऋतु में शरीर को गर्म रखने वाले खाद्य पदार्थों का हमें अत्यधिक मात्रा में प्रयोग करना चाहिए।
शरीर के तापमान को सामान्य रखने के लिए शीतलता से बचने के लिए हमें मोटे ऊनी वस्त्रों को धारण करना चाहिए। ज्यादा सर्दी होने पर कान,पैर,सिर और हाथ को ढककर रखना चाहिए। अपनी शय्या पर भी गर्म आरामदायक और साफ-सुथरे ओढने और बिछाने के वस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए।
शीतेषु संवृत्तं सेव्यं यानं शयनमासनम्।
प्रावाराजिनकीकौषेयप्रवेणी कुथकास्तृतम्।।
                                                चरकसंहिता सूत्र स्थान, 6/15
धूप का सेवन करना चाहिए
तेल से पूरे शरीर पर, सिर पर मालिश करनी इस ऋतु में आवश्यक है। च.स. सूत्र स्थान, 6/15
शिशिर ऋतु
इस ऋतु में सूर्य की किरणों में प्रखरता कम होने के कारण वातावरण में शीतलता पाई जाती है। मुख्यता हेमन्त ऋतु और शिशिर ऋतु का प्रभाव यद्यपि एक जैसा होता है परंतु शिशिर ऋतु में थोड़ी विशेषता यह होती है कि इस समय शीतल वायु और वर्षा होने के कारण सर्दी थोड़ी ज्यादा बढ़ जाती है। चारों ओर शीतलहर का प्रकोप देखा जाता है परंतु इस ऋतु में भी हेमंत ऋतु जैसा ही आहार-विहार करना चाहिए। इस ऋतु में हमें विशेष रूप से वायु रहित और गर्म घर में निवास करना चाहिए।
शिशिर ऋतु में पथ्य
इस ऋतु में हमें पकौड़े, अदरक का अचार, आंवले का मुरब्बा, तिल, गुड, खजूर, घी से बने हुए चिकने भोज्य पदार्थ, खिचड़ी इत्यादि पौष्टिक आहार का सेवन करना चाहिए। इस काल में हमारी जठराग्नि तीव्र रहती है हमें इस समय रात को चने भिगोकर सुबह प्रातःकाल इनका सेवन करना चाहिए। शिशिर ऋतु में शारीरिक श्रम और कठिन योगाभ्यास को करना चाहिए। सूर्य नमस्कार, प्राणायाम इत्यादि इस ऋतु में करना श्रेष्ठ होता है।

निष्कर्ष

आयुर्वेद स्वस्थ जीवन की कुंजी है। आयुर्वेद हमें सन्तुलित जीवन की कला सीखाता है । आयुर्वेद में स्वस्थ रहने के लिए किस प्रकार से हम संपूर्ण दिन में क्या खाएँ, कैसा व्यवहार करें, उसी प्रकार हमारी रात्रि चर्या में हमें क्या खाना चाहिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसका विस्तृत वर्णन आयुर्वेद में प्राप्त होता है जो हम सभी के लिए पालनीय है। आयुर्वेद में स्वीकृत छह ऋतुओं में किस प्रकार से हमारा खान-पान होना चाहिए, हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए और हमें कौन सी वस्तुओं अथवा क्रियाओं को ग्रहण करना है और कौन सी वस्तुओं अथवा क्रियाओं का निषेध करना है। इसका भी स्पष्ट और विस्तृत विवरण आयुर्वेद में हमें प्राप्त होता है जिसके माध्यम से हम अपने जीवन में अनुशासन लाकर अपने जीवन को स्वस्थ रखते हुए अत्यधिक ऊर्जा और स्फुर्ति से परिपूर्ण होते हुए स्वस्थ काया के अधिकारी बन सकते हैं। ऐसा ज्ञान हमें आयुर्वेद में प्राप्त होता है। अतः आयुर्वेद हमारे लिए अमूल्य विरासत है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. आयुर्वेद का संक्षिप्त इतिहास, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद। सुश्रुत संहिता,चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी
2. चरक संहिता प्रथम भाग, सम्पादक, एच॰सी॰ कुशवाहा, चौखम्भा ओरियन्टालिया, वाराणसी, 2009
3. वाग्भट् अष्टांग संग्रह, के॰ आर॰ श्रीकण्ठ मूर्ति, चौखम्बा ओरियन्टालिया, वाराणसी, 2005
4. आयुर्वेद दर्शन, वेदमाता गायत्री ट्रस्ट, शान्तिकुंज, 2005
5. स्वास्थ रक्षक, पी॰ डी॰ पाण्डेय, निरोग धाम प्रकाशन, 2004
6. आहारचिकित्सा, डॉ॰ अनीता सिंह स्टार पब्लिकेशन, आगरा
7. आयुर्वेद सारसंग्रह, वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन लि॰।
8. ऋतुचर्या, केन्द्रीय आयुर्वेदीय विज्ञान अनुसंधान परिषद् आयुष मंत्रालय।