ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- VIII September  - 2023
Innovation The Research Concept

तुलसी की भक्ति भावना

Devotional Feeling of Tulsi
Paper Id :  18120   Submission Date :  16/09/2023   Acceptance Date :  22/09/2023   Publication Date :  25/09/2023
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असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
वी.वी.पीजी कॉलेज
शामली,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश

तुलसीदास जी राम के प्रति अटल श्रद्धा एवं परम विश्वास से युक्त हैं। वे संसार को त्याग कर प्रभु की शरण में जाने के लिए अपने मन को बारंबार समझाते हैं। तुलसी की भक्ति पद्धति में राम के प्रति अनन्यता दिखाई पड़ती है। उनकी भक्ति दास्य भाव की है, जिसमें दैन्य की प्रधानता है। उन्हें प्रभु राम की शक्ति एवं सामर्थ्य पर पूर्ण विश्वास है। उनकी भक्ति भावना में हमें नवधा भक्ति के दर्शन होते हैं।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Tulsidas ji has unwavering faith and utmost faith in Ram. They repeatedly persuade their mind to give up the world and take refuge in the Lord. Tulsi's devotion towards Ram is reflected in his exclusivity. His devotion is of servile nature, in which charity has predominance. He has full faith in the power and capability of Lord Ram. We see Navdha Bhakti in his devotional spirit.
मुख्य शब्द तुलसीदास, भक्ति भावना, नवधा भक्ति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Tulsidas, Bhakti Bhavana, Navadha Bhakti
प्रस्तावना

तुलसीदास जी मूल रूप में एक भक्त हैं। राम की भक्ति ही उनके जीवन का एक मात्र ध्येय है। उन्हें रामकाव्यधारा का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। वे भक्तिकाल की सगुणकाव्यधारा  के प्रमुख कवि हैं। श्री राम की भक्ति में लीन होकर उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह काव्य बन गया। यही कारण है कि उनकी भक्ति भावना उनके संपूर्ण काव्य में दिखाई देती है।

अध्ययन का उद्देश्य

'नवधा भक्ति' अर्थात नौ प्रकार की भक्ति। मनुष्य अपने जीवन काल में कई प्रकार की भक्ति करता है, इस भक्ति का विधिवत् पालन करने से भक्त और भगवान में समन्वय स्थापित होता है। वैष्णव भक्तों ने इस भक्ति का बहुत अधिक प्रचार- प्रसार किया।' नवधा भक्ति 'के अंतर्गत प्रभु के गुणों का गान, संतों का संग, प्रभु की भक्ति, इंद्रिय निग्रहछल- कपट का त्यागसरलता के मार्ग का अनुसरण आदि सद्गुणों का अनुकरण किया जाता है। यदि वर्तमान में व्यक्ति इस भक्ति को अपनाता है तो निश्चित रूप से वह लाभान्वित होगा और एक  श्रेष्ठ और आदर्श समाज की स्थापना में अपना सहयोग प्रदान करेगा।

साहित्यावलोकन

तुलसीदास जी की भक्ति मूल रूप में 'दास्य भाव' की भक्ति है। भागवत पुराण में नौ प्रकार की भक्ति का वर्णन किया गया है, जिसे हम 'नवधा भक्ति' कहते हैं। नवधा भक्ति के अंतर्गत भक्ति के नौ रुप देखने का मिलते है। जैसे- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद- सेवन, अर्चन वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। तुलसीदास जी के साहित्य में भक्ति के ये नौ रूप देखने को मिलते हैं। तुलसीदास जी की भक्ति  मे दैन्य की प्रधानता होने के कारण उनकी भक्ति दास्य भाव की भक्ति है। तुलसी की भक्ति पद्धति में राम के प्रति अनन्यता दिखाई देती है। उन्हें प्रभु राम के शक्ति और सामर्थ्य पर पूर्ण विश्वास है। वे संसार को त्याग कर भगवान की शरण में जाने के लिए अपने मन को बारंबार समझाते हैं। वे राम के प्रति अटल श्रद्धा एवं परम विश्वास से युक्त है। भक्ति के जितने भी वर्गीकरण शास्त्रों में कीए गए हैं, उन सभी में नवधा भक्ति सर्वाधिक लोकप्रिय है। वह इस प्रकार है-

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वंदनं दास्यं सख्मात्मनिवेदनम्।।

इस नवधा भक्ति के विविध अंगों की तुलसी ने प्रसंगानुसार  विविध स्थलों पर चर्चा की है-सगुण अथवा निर्गुण भक्ति के प्रतिपादक शब्द का कान द्वारा ग्रहण और बोध श्रवण कहलाता है। तुलसीदास जी का कथन है -

जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना।

श्रवनरंध अहि भवन समाना।।

अर्थात् जो कान भगवान का गुणगान नहीं सुनते वे सांप के बिल के समान हैं।

ईश के गुणों, लीला, रूप आदि का गायन करना कीर्तन कहलाता है। तुलसीदास जी राम के भजन करने को राज डगर के समान बताते हैं। जैसे-

गुरु कह्ये राम भजन नीको मोही लागत राम डगर सो।

इसके साथ ही राम की लीला गान न करने वालों को वे कहते हैं-

रसना सांपिन बदन बिल, जे न जपहि हरी नाम।

अर्थात् जो राम की लीला का गायन नहीं करते हैं, उनकी जीभ सर्पिणी है और उनका शरीर बिल है।

ईश्वर की लीला ,गुण आदि का जाप स्मृति  ही स्मरण है। क्योंकि उनका मानना है-

सुमिरत श्री रघुवीर की बांहें।

होत सुगम भव उदधिअति, कोउ लांघत कोठ उतरत काहें।।

अर्थात् राम नाम का स्मरण करने से ही भवसागर से पार उतरा जा सकता है।

भगवान और उनके चरणों की सेवा ही पाद सेवन है-

कर नित करहिं  रामपद पूजा राम भरोस हृदय नहीं दूजा।।

विधिविधान से भगवान की पूजा करना अर्चन है। तुलसी के काव्य में अनेक स्थल ऐसे हैं जिनमें  पूजन के विषय में बतलाया गया है-

लिंग थापि  विधिवत करि पूजा सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।

सीता जी भी पार्वती जी की पूजा करती हैं। तुलसी ने कहा है-

तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि- पुनि मुदित- मन- मंदिर चली।

भगवान की स्तुति करना वंदन भक्ति है। रामचरितमानस और विनय पत्रिका की स्तुतियों में इसी वंदन भक्ति को महत्व दिया गया है-

बन्द राम लखन वैदेही। जे तुलसी के परम सनेही।।

ईश्वर को पूर्णरूपेण  समर्पण एवं स्वामी समझना तथा अपनी लघुता का आभास करके स्वयं को दास समझना ही दास्य-भाव की भक्ति है-

जानकी जीवन की बलि जहिं।

यह घर भार ताहिं  तुलसी जाको दास कहैहौं।।

तुलसीदास जी के काव्य में सख्य भाव की भक्ति का निरूपण नगण्य रूप में हुआ है, क्योंकि तुलसीदास जी दास्य भाव को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। किंतु जिन पदों में गोस्वामी जी ने राम को खरी -खोटी सुनाई है, वह पद सख्य भाव के उदाहरण माने जा सकते हैं। अपने आराध्य के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण  करना ही आत्म निवेदन है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण गोस्वामी जी की विनय पत्रिका है क्योंकि इसमें इन्होंने विनय विभिन्न प्रकार से आत्म निवेदन किया है।

तुलसीदास जी जीवन के चार पुरुषार्थों के अतिरिक्त पांचवें पुरुषार्थ के रूप में भक्ति को प्रतिष्ठित करते हैं   

अरथ न धरम न काम रुचि, गति न चहऊं विरवान।

जनम जनम रति राम पद यह वरदान न आन।।

तुलसीदास जी भक्ति को साधक  एवं साध्य दोनों मानते हैं। यद्यपि भक्त को सांसारिक सुख एवं समृद्धि की कामना नहीं होती। किंतु भक्ति सिद्धि स्वरूप होने के कारण ये स्वतःही एकत्र होने लगते हैं। तुलसी में राम के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को चातक पक्षी के प्रतीक स्वरूप वर्णित किया है-

एक भरोसो एक बल एक आस विस्वास।

एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।।

तुलसीदास जी दशरथ नंदन राम को अपना आराध्य देव मानते हैं। वह पुरुषोत्तम राम को कोई साधारण मनुष्य न मान कर भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं। तुलसी के राम सृष्टि के कर्ता, धर्ता और संहार करने  वाले है। वे दीनबंधु, भक्त वत्सल और करुणानिधान हैं। वह शक्ति, सौंदर्य और शील का समन्वित रूप परब्रह्म है। उनका मानना है कि अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए ही उन्होंने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है। वह अपने काव्य में बारंबार अपनी दीनता का वर्णन करते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि प्रभु दीनों पर शीघ्र कृपा करते हैं। यही कारण है कि तुलसी अपने काव्य में अपनी दीनता का वर्णन करके उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं। सामान्यतः जीवन में भी जब हम किसी से कुछ मांगना चाहते हैं तो अपनी विवशता को प्रकट करते हैं, बिल्कुल वैसी ही स्थिति भक्तों की भी होती है। वह स्वयं को सेवक और राम को सेव्य रूप में मानते हैं। उनका मानना है कि जब तक भक्त और प्रभु के बीच सेवक-सेव्य भाव नहीं होगा, तब तक भवसागर से पार होना संभव नहीं है-

"सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारी।।"

तुलसीदास जी निर्गुण और सगुण भक्ति में कोई अंतर नहीं मानते क्योंकि दोनों एक ही ईश्वर की प्राप्ति का साधन मात्र हैं। वे कहते भी हैं-

सगुनहि अगुनहि नहीं कछु भेदा।

गवाहि  मुनि पुरान बुध  वेदा।।

यद्यपि तुलसीदास जी सगुण भक्ति में विश्वास रखते हैं, किंतु फिर भी उनके काव्य में निर्गुण और सगुण का समन्वय देखने को मिलता है। जब वे दशरथ सुत श्री राम को विष्णु का अवतार अथवा पर ब्रह्म के रूप में चित्रित करते हैं तो उनकी निर्गुण भक्ति के दर्शन होते हैं।

तुलसीदास जी मानते हैं की सांसारिक दुखों से मुक्ति पाने के लिए मानव के पास दो मार्ग है- इनके काव्य में ज्ञान और भक्ति का समन्वय देखने को मिलता है यद्यपि वे दोनों मार्गों को समान महत्व देते हैं तथापि वे भक्ति के मार्ग को सरल मानते हैं, क्योंकि ज्ञान का मार्ग तलवार की धार के सदृश है, जिसमें जरा सी भी चूक होने पर साधक को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है, जबकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए भक्ति का मार्ग सीधा और सरल है, इसमें साधक अपने आराध्य का यदि उल्टा सीधा भी नाम ले लेता है तो वही पर्याप्त है। ज्ञान को माया मोहित कर सकती है, भक्ति को नहीं। लेकिन फिर भी उनके काव्य में ज्ञान और भक्ति का समन्वय देखने को मिलता है। उनका मानना है-

भगतहिं ज्ञानहि नहीं कछु भेदा।

उभय हरहिं भव संभव खेदा।।

तुलसीदास जी की भक्ति भावना का एक मुख्य पक्ष है अहंकार का त्याग। संपूर्ण रामचरितमानस में अहंकार, मोह आदि के विभिन्न प्रसंग आए हैं। जिनका प्रभु ने शमन किया है ।नारद मोह प्रसंग, सती मोह प्रसंग, गरुड़ प्रसंग, काक भुशुंडी प्रसंग इसी और इशारा करते हैं। काक भुशुंडी गरुड़ से कहते हैं कि प्रभु श्री राम किसी के भी अहंकार को नहीं रहने देते, क्योंकि यही समस्त शोक और क्लेश का कारण है- 

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ।

जन अभिमान न राखहिं काऊ।।

संसृत मूल सूलप्रद नाना।

सकल सोक दायक अभिमाना।।

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि तुलसी लोकदर्शी कवि थे।उन्होंने व्यक्ति कल्याण के साथ लोक कल्याण करने वाले भक्ति मार्ग की स्थापना की। उन्होंने लोक धर्म विरोधी भक्ति पद्धतियों का खारेपन के साथ विरोध किया। रामचरितमानस आदि ग्रन्थों की रचना कर उन्होंने भक्ति रस के उस साहित्य का निर्माण किया जिसने देश काल की सीमा को पार करके करोड़ नर-नारियों की जीवन धारा को राममय कर दिया है। वे दशरथ नंदन श्री राम को अपना आराध्य मानते हैं। राम की सगुण सगुण रूप में भक्ति और आराधना करना उनकी भक्ति का मूल लक्ष्य और दास्य भावना ही उनकी भक्ति का मूल आधार है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

1. तुलसी काव्य मीमांसा उदय भानु सिंह

2. तुलसी की काव्य- कला (उनकी रचनाओं में,) डॉ भाग्यवती सिंह

3. तुलसी के रचना सामर्थ्य का विवेचनयोगेंद्र प्रताप सिंह

4. तुलसी —-उदय भानु सिंह

5. लोक वादी तुलसीदास विश्वनाथ त्रिपाठी -हिंदी कुंज

6. तुलसी : दृष्टि और सृष्टि