ISSN: 2456–5474 RNI No.  UPBIL/2016/68367 VOL.- VIII , ISSUE- XI December  - 2023
Innovation The Research Concept

उत्तराखण्ड में बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के कारक एवं शासन की नीति

Causes of Increasing Natural Disasters in Uttarakhand and Government Policy
Paper Id :  18366   Submission Date :  11/12/2023   Acceptance Date :  19/12/2023   Publication Date :  25/12/2023
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DOI:10.5281/zenodo.10490138
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देव कृष्ण थपलियाल
असिस्टेंट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
राठ महाविद्यालय पैठाणी,
पौडी, गढवाल,उत्तराखण्ड, भारत
सारांश

स्थानीय निवासियों के लम्बे संघर्ष के पश्चात इस जटिल भौगोलिक क्षेत्र को 09 नवम्बर 2000 को देश के मानचित्र पर 27 वाँ राज्य के रूप में  के नाम से स्थापित किया गयाअब उत्तराखण्ड (उत्तरांचल, 53,483 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले इस राज्य की विपुल वन एवं प्राकृतिक संपदा 67 प्रतिशत यानीं 38,000 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैली है। इसके अलावा कार्बेट राष्ट्रीय उद्यानराजाजी राष्ट्रीय उद्यानफूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान राष्ट्रीय महत्व के अनेक महत्वपूर्ण संस्थान मौजूद हैं। अत्यधिक संवेदनशील मध्य हिमालय क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहॉ प्राकृतिक आपदाएं स्वाभाविक घटना हैंकिन्तु शासन और नीति-निर्धारकों द्वारा लगातार व्यावसायिक निर्माणपर्यटनहाइड्रो पावर प्रोजेक्ट व व्यापारिक हितों की पूर्ति के लिए प्रकृति की सहनशीलता की उपेक्षा की जा रही है। जिससे लगातार प्राकृतिक आपदाएं यहाँ के जनमानस को विचलित कर रही है। फरवरी 2021 जोशीमठ के अंर्तगत ऋषिगंगा में अचानक आई बाढ़ से रैंणी और तपोवन में भारी तबाही हुईइस आपदा में 206 लोगों के मारे जानें की पुष्टि हुई विशेषज्ञों द्वारा इस बात की पुष्टि हुई हैंकि ऋषिगंगा के ऊपरी क्षेत्र में हैगिंग’ ग्लेशियर टूटकर ऋषिगंगा में गिर गया थाइसी तरह अनेक घटनाएं राज्य में निरंतर बढ़ रही है। बेमौसमी से वर्षा से चार धाम जैसी यात्राओं को रोकना पड़ रहा है। हर साल की बारिश और भूस्खलन से कई लोगों की मौंतें हो रही है। साथ ही अनेक तरह से लोगों को प्राकृतिक आपदाएं सामने आ रही हैं। किन्तु इन्हीं सभी तथ्यों की उपेक्षा करते हुए शासन-प्रशासन ऐसे अनेक कारकों को प्रोत्साहित कर रहा है जिसे यहाँ की धरती लगातार विचलित हो रही है।

सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद After a long struggle of the local residents, this complex geographical area was established as the 27th state on the map of the country on 09 November 2000 with the name of 'Uttaranchal now Uttarakhand. Spread over an area of 53,483 square km, this state has abundant forests. And natural wealth is spread over 67 percent i.e. 38,000 square km area. Apart from this, there are many important institutions of national importance like Corbett National Park, Rajaji National Park, Valley of Flowers National Park. Due to its location in the highly sensitive Central Himalayan region, natural disasters are a natural phenomenon, but the government and policy makers are continuously ignoring the tolerance of nature to fulfill commercial construction, tourism, hydro power projects and business interests. Due to which natural disasters are continuously disturbing the people here. February 2021: Sudden flood in Rishiganga under Joshimath caused huge devastation in Raini and Tapovan, 206 people were confirmed dead in this disaster. Experts have confirmed that the 'hanging' glacier in the upper region of Rishiganga broke. and fallen in Rishiganga, many similar incidents are continuously increasing in the state. Yatras like Char Dham have to be stopped due to unseasonal rain. Many people are dying every year due to rains and landslides. Also, people are facing natural disasters in many ways. But ignoring all these facts, the government and administration are encouraging many such factors which are continuously disturbing the earth here.
मुख्य शब्द संवेदनशील, पर्यावरण-पर्यटन, आपदा, हिमस्खलन, भूस्खलन, व्यावसायिक, भू-आकृति, खनिज पिंड, जलवायु फ्रेंडली, ग्लेशियर, बेमौसमी, पारिस्थितिकी तंत्र।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Sensitive, Eco-tourism, Disaster, Avalanche, Landslide, Commercial, Landform, Mineral Body, Climate Friendly, Glacier, Off-season, Ecosystem.
प्रस्तावना

उत्तराखण्ड में निरंतर हो रही प्राकृतिक आपदाओं के पीछे आदिकाल से ही शासन और नीति-नियंताओं की नीति के व्यावसायिक ही रही है। सत्तर के दशक में चिपको ऑदोलनइस तथ्य का प्रतीक है, कि शासन हमेशा से मनमानी करता रहा है और प्राकृतिक संपदा को व्यापारिक हितों के लिए प्रयोग करता रहा है, आज भी अपनी आर्थिक शक्ति को बढ़ावा देने के लिए प्रकृति को मनमानें तरीके से दोहन कर रहा है, इस क्षेत्र में तीव्र गति से रेल लाइन, चारधाम यात्रा मार्गों का चौड़ीकरण, आदि अनेक बड़े-बड़े निर्माण कार्यों के कारण इस क्षेत्र की संवेदनशील धरती निरंतर खंडित हो रही है वहीं पर्यटन उद्योग से लोग, परिवहनों तादात में वृद्धि, कूड़े आदि का उचित प्रबंन्धन न होने से यहाँ के पर्यावरण को क्षति पहुॅच रही है नतीजतन धरती कमजोर हो रही।

अध्ययन का उद्देश्य

1. प्रस्तुत शोध का उद्देश्य मध्य हिमालय क्षेत्र में स्थित उत्तराखण्ड राज्य  में हर वर्ष आ रही प्राकृतिक आपदाओं के कारण जनधन की क्षति तथा उसके कारणों का पता करना।

2. शासन व नीति-निर्धारकों की अदूरदर्शी नीति के द्वारा इस संवेदनशील क्षेत्र में पर्यटन-तीर्थाटन, को बढ़ावा देने से राज्य के संवेदनशील पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करना।

3. विकास के नाम पर बड़े-बड़े निर्माण, जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण, रेल व चार धाम यात्राओं की सुविधाओं के लिए सड़कों का तेजी से निर्माण-चौड़ीकरण, करने से यहाँ के प्रकृति पर्यावरण हो रही क्षति से अवगत होना

4. निरंतर बढ़ रहे तीर्थाटन व पर्यटन के कारण हिम क्षेत्रों और ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया में तेजी आनें के कारणों का विश्लेषण करना ।

5. वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की गति में तीव्रता होने तथा शासन द्वारा इस क्षेत्र में यात्रियों, परिवहनों की संख्या में वृद्धि व दूसरे उद्योग धन्धों को प्रोत्साहित करने की नीति से हो रही क्षति का अध्ययन करना ।
साहित्यावलोकन

अनिल पी जोशी (2004) (’पहाड़ सम्पादित शेखर पाठक) में पर्यावरणविद् अनिल जोशी ने पहाड़ में लगातार हो रहे पलायन पर चिंता व्यक्त की है, जैसे ही वहाँ का निवासी सुविधाओं के लिए अपने घर-गाँव छोड़ता है, तो उसके चारों ओर की धरती बंजर, खरपतवार उग आते हैं, तथा वे जल, जंगल और जमीन भी बिना संरक्षण के रह जाते हैं। पहाड़ के पलायन के लिए पर्यावरणविद् अनिल जोशी जीवन की मुलभूत सुविधाओं का अभाव मानते हैं, अस्पताल, स्वच्छ पानी का अभाव, लोगों में शराबखोरी, सड़क, का अभाव जैसी समस्या आज भी खडी है।[1]

डॉ. कौशल कुमार शर्मा, डॉ. एस.के.बन्दूनी व डॉ. वी.एस. नेगी द्वारा संपादित पुस्तक हिमालय पर्वत में संसाधन प्रबंधनमें अनेक लेखकों नें हिमालय में भूमि क्षमता, मिश्रित वनों की जैव विविधता में महत्वपूर्ण भूमिका पशुपालन से पर्यावरण संरक्षण में लाभकारी भूमिका का वर्णन-विश्लेषण किया है।[2]

प्रो. शेखर पाठक (2007) ’’टूरिज्म एण्ड हिमालयन बायोडइर्वसीटी‘‘ संपादित डॉ. हर्षवन्ती बिष्ट एवं गोविन्द रजवारमें उत्तराखण्ड  के वनों के ऐतिहासिक महत्व का वर्णन करते हुए, पहाड़ी जनमानस के जीवन के हर पहलू पर उसे प्रभावित करता रहा, चाहे पहाड की संस्कृति, संगीत व साहित्य में आदिकाल से ही रचा बसा है। राज्य का इतिहास वनों के संरक्षण का इतिहास है, चिपको ऑदोलन को रेखांकित करते हुए, पर्यवरण विद् व इतिहासकार शेखर पाठक ने वर्णन किया है कि किस प्रकार वनों को महिलाओं ने अपना मायका बना लिया था।[3]

डॉ. चर्तुभुज मामोरिया एवं डॉ.बी.एल. शर्मा (2010) ’’पर्यावरण एवं विकास‘‘ (पुस्तक)  में पर्यावरण के विभिन्न घटकों का विस्तार किया गया है। पारिस्थितिकी संकट, के वनों के विनाश जैसे कारणों पर प्रकाश डाला है, जैव-विविधता पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण प्रबंधन और विकास की अवधारणों को विस्तार से  स्पष्ट किया है।[4]

डॉ. अलका गौतम (2013) ’’संसाधन एवं पर्यावरण’’ पुस्तक में सभी प्राकृतिक संसाधना यथा जल संसाधन, मिट्टी संसाधन, जीवीय संसाधन, मत्स्य, संसाधन, खनिज संसाधन ऊर्जा, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, पर्यावरण व मानव पर्यावरण के अर्न्तसम्बन्धों को स्पष्ट किया गया है। जनसंख्या विस्फोट के कारण पर्यावरण व पारिस्थितिकी तन्त्र में आ रही गिरावट पर प्रकाश डाला है।[5]

डी.एस. लाल (2013) जलवायु विज्ञानपुस्तक में पृथ्वी के तापमान में वृद्वि के कारणों को स्पष्ट किया है, वायुमंडल सूर्य ताप, पृथ्वी का ऊष्मा बजट, वायु का तापक्रम व उसके समाधानों की चर्चा की है।[6]

अतः अभी तक नवोदित राज्य उत्तराखण्ड के संदर्भ में आपदाओं के कारणों का उचित अध्ययन नहीं किया गया है, प्रस्तुत अध्ययन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण  प्रयास है।

मुख्य पाठ

मध्य हिमालय क्षेत्र सांस्कृतिक महत्व, अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र, वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं व पर्यावरण-पर्यटन (Eco-Tourism) के सामर्थ्य के लिए जाना जाता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप के जल स्रोत, जलवायु के नियामक और प्राकृतिक आपदाओं के न्यूनीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हिमालय में बहुमूल्य खनिज पिंड, ठंडे झरनें भू-तापीय ऊर्जा, संसाधन फोल्ड बेल्ट में हाइड्रोकार्बन, संसाधन, हाइड्रो नवीनीकरण ऊर्जा जैसे अन्य संसाधन प्रचुर मात्रा में है। सम्पूर्ण विश्व में हिमालय  विभिन्न संसाधनों के कारण जाना जाता है। यथा वन, जल, और मनोरम प्राकृतिक दृश्यावली इन्ही सब कारणों से प्राचीन काल से ही हिमालय सबके आकर्षण केंद्र रहा है। भारतीय आध्यात्म जगत में हिमालय को देवताओं का निवास व परम शान्ति देने वाला बताया गया है, कुमार संभव महाकाव्य में कालिदास लिखते हैं, कि हिमालय अनंत प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण है, बर्फ से ढ़का है, और संपूर्ण सौंदर्य युक्त है- अनन्तरत्न प्रभवस्य यस्य हिम न सौभाग्य विलोपि वजातम् (1/3) प्राचीन ऋषि-मुनियों नें इसे जडी-बूटियों का भंडार समझ कर कभी इसे ’’औषिधीनां पराभूमिः हिमवान शैल उत्तमः’’ कहा तो कभी इस हिमवत के गिरी, कन्दराओं और प्रसन्नतादायक फल देने वाला बताया, ’’गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु’’। इसी कारण पर्वतीय निवासियों  में प्रकृति संरक्षण की भावना स्वाभाविक रूप से निहित होती है। लोगों में वनों और प्राकृतिक संपदा के संरक्षण की प्रक्रिया किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है, जैसे-सीढ़ीदार खेत जल स्रोंतों की परम्परागत व्यवस्था, व वृक्षों की पूजा।[7]

सत्तर के दशक में विश्व विख्यात चिपकों ऑदोलनयहाँ कि प्राकृतिक वन संपदा के साथ अन्योन्याश्रितता की ही परिणित थीं, 1970 में जब सरकार के तथाकथित ठेकेदार यहॉ की वन संपदा को अपने व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अंधाधुंध कटान शुरू किया तो यहाँ कि भोली-भाली महिलाओं ने अपने प्राणों की परवाह किए बिना, वृक्षों पर चिपककर उनकी रक्षा की, वृक्षों को काटने से बचाने वाली इन महिलाओं ने इस वन संपदा को मायकापुकारकर माता-पिता के जैसा स्थान प्रदान किया। दूसरी ओर ग्लेशियरों, बर्फ के मैंदानों नदी-घाटी क्षेत्रों ने हिमालय को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए निवास स्थान बनाया है। सामाजिक आर्थिक उन्नति के लिए संसाधनों के दोहन के बीच एक अच्छा संतुलन जरूरी है।

संपूर्ण हिमालय क्षेत्र 2500 किलोमीटर में फैला है, यह भारत में 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में स्थित है। इस पूरे क्षेत्र में 5 करोड़ से भी अधिक की जनसंख्या निवास करती है। यहाँ पाये जाने वाले औषधीय पेड़-पौधों के लिए आजीविकी का साधन भी है। भारत और विश्व कल्याण के लिए इस प्राकृतिक धरोहर का संरक्षण बेहद जरूरी है। हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र देश के उन भागों में से एक है, जो प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी आर्थिक विकास की दृष्टि से उपेक्षित रहा है। इसी वजह से स्थानीय निवासियों के प्रयासों से इस क्षेत्र को 2000 में भारत का 27वाँ राज्य बनाया गया। किन्तु यहाँ की प्रचुर मात्रा में पायी जाने वाली प्राकृतिक संपदा का उपयोग स्थानीय निवासियों के हित में न होने कारण, प्रशासकों, नीति-निर्धारकों की समझ की कमी के कारण राज्य विकास की अनेक समस्याओं से जूझ रहा है, जिसके कारण इस राज्य का निर्माण हुआ। राज्य के मूल संसाधन, यहॉ कि प्राकृतिक संपदा है। इन प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन किये बिना उत्तराखण्ड राज्य का विकास का मॉडल तैयार करना संभव नहीं है? क्योंकि राज्य के कुल क्षेत्रफल के 64 प्रतिशत भाग पर वन व 13 प्रतिशत भाग पर कृषि रूपी भूमि संसाधन है। इसके अतिरिक्त उत्तराखण्ड में अनेकानेक हिम नदियों व सरिताओं का उद्गम स्थल है। किन्तु वर्तमान में प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, दुरूपयोग, विकास योजनाओं को बिना सोचे-समझे धरातल पर उतारने से कई तरह की प्राकृतिक आपदाएं सामने आ रहीं हैं। असामान्य मानसूनों की अवाक, अनियोजित, जल प्रबन्धन के कारण भूमि तथा वनों के तीव्रता से दोहन होने से अनेक प्रकार की प्राकृतिक आपदाएं सामने आ रही है।[8]           

हिमालय पर्वत दुनियाँ की सबसे नई और सबसे ऊबड-खाबड पर्वत श्रृंखला है, इसका एक अपना अत्यन्त संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र है। अत्यधिक बारिश और मानव जनित गतिविधियों से इसकी  संवेदनशीलता और भी बढ़ गई है। नाजुक पहाड़ों का पारिस्थितिकी तंत्र जीवमंडल, जलमंडल, थलमंडल, औेर वायुमंडल का सह अस्तित्व है। जलवायु परिवर्तन ग्लेशियरों, नदी प्रणाली, भू-आकृति विज्ञान, भू-क्षरण जैव-विविधता, आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड रहा है। हिमालय में भूस्खलन, आकस्मिक बाढ़ एवलांच, झीलों के फटने, से होने वाली आपदाओं के लिए सभी भू-आकृतिक, जलवायु और मानव जनित कारक जिम्मेदार हैं, इसके साथ ही हिमालय भूकंप के प्रति संवेदनशील है, पहाड़ी नगरों में सामंजस्य पूर्ण सह-अस्तित्व या पारिस्थितिकी तंत्र की गड़बड़ी खतरे को बढ़ा देती है। मानवीय गतिविधियों या पर्यावरण में गिरावट के चलते बाहरी शक्तियाँ आपदाओं और अचानक बाढ़ का मुख्य कारण बन जाती है।

हिमालय की गोद में ग्लेशियरों के बीच सतह में घंटी बज रही है। मानसून सीजन में हिमनद झीलों के आकार में लगातार बढ़ोत्तरी से विशेषज्ञ चिंतित हैं और इसके भविष्य के खतरे का संकेत बता रहे हैं, ऐसी झीलों के फटने से प्राकृतिक आपदा आ सकती है। हिमनदों के झीलों पर किए गये एक ताजा अध्ययन में ये चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। सिंचाईं अनुसंधान संस्थान रुड़की के विशेषज्ञों ने अध्ययन किया है। ऐसी झीलों के आकार में 20 से 40 प्रतिशत तक अंतर दर्ज किया गया है। रूडकी सिंचाईं अनुसंधान संस्थान के विशेषज्ञ रिर्मोट  सेंसिंग तकनीक से पिथौरागढ़ जिले में 43 तथा चमोली  में 192 हिमनद झीलों को मानसून काल में हो रहे जल प्रसार क्षेत्र का लगातार अध्ययन कर रहे हैं। राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (एन0आर0एस0सी) हैदराबाद द्वारा हिमनद झीलों के वर्ष 2016 के ऑकडों आधार मानते हुए मौजूदा स्थिति के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस कारण विभिन्न प्राकृतिक आपदा, हिमस्खलन, भूस्खलन, और हिमनदीय झीलों के विस्फोट से बाढ़ हिमालय की तलहटी में धरती को चीर देने वाले भूकंप भी पहले आ चुके हैं ।

हरिद्वार के पास लालढांग में कम से कम दो बार वर्ष 1344 और 1505 में आठ से ज्यादा मैग्नीट्यूट के भूकंप आने के सबूत मिले हैं, जिनसे एक इलाके मेें जमीन 13 मीटर ऊपर उठ गईं थी। हरिद्वार से नेपाल तक धरती पर पड़ी दरार के कारण प्राकृतिक स्वरूप में विशेषकर जलस्रोतों में बड़ा बदलाव हुआ है, पिछले 100 वर्षों में अंधाधुंध निर्माण हुए हैं। बहुमंजिला इमारतों का प्रचलन बढ़ा है, अब यदि 13वीं सदी जैसा शक्तिशाली भूकंप आया तो स्वाभाविक रूप से जनहानि कई गुणा अधिक होगा, त्रासदी का अनुमान लगाना भी कठिन हैं क्या वैसी बडी आपदा का सामना करने के लिए हम तैयार हैं?[9]          

संम्पूर्ण भारत में मौसम अब चिंता का विषय बनता जा रहा है । ग्रीन हाऊस गैंसों के उत्सर्जन और इससे पैदा हो रही वैश्विक गर्मी मौसम व सेहत पर भारी पड़ रही है। धरती पहले ही सन् 1850 के औद्यौगिक पूर्वकाल से 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक गरम हो चुकी है। विशेषकर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे पहाडी क्षेत्रों में यह वृद्वि अधिक भी हो सकती है। हर एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढनें से वातावरण में नमीं का स्तर सात से आठ फीसदी तक बढ़ जाता है। नतीजतन बादल सामान्य से कहीं अधिक बड़े ऊँचे व भारी हो जाता है, जिससे तेज बारिश की आशंका बढ़ जाती है।[10]          

सवाल यह है कि क्या पहाड़ी शहर इतना ट्रैफिक इतनी आवाजाही झेलने में सक्षम है। शिवपुरी, कलियासौड, धारचूला, गरम पानीं, कैंची धाम लेपुलेख, लामबगड जोशीमठ जैसी जगहों पर कई दशकों से लगातार भूस्खलन जोन बने हुए हैं। बदरीनाथ-केदारनाथ में मास्टर प्लान के नाम पर पहले से ही अधिक भारी निर्माण कार्य उच्च हिमालय क्षेत्र की संवेदनशीलता को चुनौती दे रहा है।

पहाड़ों में विकास योजना के क्रियान्वयन में रणनीतिक उन्नति जैव विविधता और पारिस्थितिकीय तंत्र के संरक्षण में तालमेल जरूरी है । प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ जीने और हिमालय में सुरक्षित जीवन के लिए लचीलापन व जलवायु फ्रेंडली माहौल बनाने की आवश्यकता है। वाडिया संस्थान ने आपदा जोखिम न्यूनीकरण हरित ऊर्जा उत्पादन सरफेस मॉरफोलॉजी के अध्ययन की दिशा में कुछ प्रगति हुई की है। इन रिर्पोटों में बढ़ती सतही गतिशीलता या भूकंपीय अग्रदूत पहचाने गए हैं। मौसम विज्ञान भूकंपीय स्टेशन से रीयल टायम डेटा ट्रांसमिशन एआई/एमएल का उपयोग करके डाटा विश्लेषण किया गया। ऋषि गंगा, धौलीगंगा, मसूरी, नैंनीताल, भागीरथी, गौरी गंगा, के जलग्रहण क्षेत्र में ढ़ाल वक्रता दिशा, ऊॅचाईं लिथोलॉजी, सरचनाएँ, भू-आकृति विज्ञान, चट्टान की ताकत, वन आवरण, क्षेत्र का भू-स्खलन जोखिम मानचित्र बनायाऐसे मानचित्र ग्रीन कारिडोर, स्मार्ट शहरों के विकास के लिए भूमि उपयोग मानचित्र तैयार करने में उपयोगी मदद देंगे चूंकि भू-स्खलन वर्षा के कारण होता है।

वर्ष 2023 में उत्तराखण्ड और हिमाचल राज्यों में बरसात के मौसम के दौरान हुई भारी तबाही का सबसे प्रमुख कारण वहाँ हुई भारी बारिश है। पर्वतीय क्षेत्रों में ज्यादा बारिश भी मौसमी चक्र की वजह से ही हो रही है। मौसम चक्र में बदलाव की जिम्मेदारी भी काफी हद तक मानवीय गतिविधियों पर ही है। ग्लेशियर धरती के जल भंडार हैं, यदि वे प्रभावित होंगें तो बहुत कुछ प्रभावित होगा नतीजा प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती संख्या के रूप में सामने हैं। हिमालय को लेकर हो रहे हैं शोधों में लगातार ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार को लेकर चिंता जताई जा रही है।

पर्यावरणविद् पद्मविभुषण चंडी प्रसाद का कहना है कि ब्रह्मकपाल से लेकर तप्तकुंड के निचले हिस्से तक अलकनंदा का फैलाव है, नदी अपने प्राकृतिक स्वभाव और रूप में बह रही है। माणा से ऊपर पूर्व में ग्लेशियर टूटकर अलकनंदा के वेग को बढ़ा चुके हैं। रीवर फ्रंट बनाए जानें से अलकनंदा के स्वरूप को संकलित करने अथवा उसमें परिवर्तन से भविष्य में खतरनाक स्थिति भी आ सकती है। मंदाकिनी नदी किनारे बगड क्षेत्र में वन विभाग ओर लोनिवि के भवन बनें हैं वे भी नदी के रूख की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील स्थान पर है। कर्णप्रयाग में पिंडर नदी के किनारे बनें होटल भवन भी पिंडर नदी के अधिकार क्षेत्र पर हस्तक्षेप करते हुए नजर आते हैं । देवाल में नदी के ठीक किनारे एक विद्युत परियोजना निर्माणाधीन है। नदी के किनारे नारायणबगड में 100 से आवासीय भवन के साथ ही बाजार अलकनंदा, मंदाकिनी और पिंडर नदी के किनारे लोंगों नें बड़े-बड़े भवनों के साथ बाजार विकसित कर दिए हैं, बरसात में नदियों का उफान तटीय क्षेत्र के साथ ही दूर-दूर तबाही का मंजर ला रहा है। नदी के तटों पर रहने वाले लोगों इसका खामियाजा भी भुगत रहे हैं।

हिमालय की संवेदनशीलता को नजर अंदाज कर बड़े-बड़े प्रोजेक्ट बनाने शुरू कर दिए हैं। निर्माण कार्य के साइड इफैक्ट अब साफ दिख रहे हैंविकास के नाम पर अनियोजित निर्माण कराया जा रहा है उससे हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरणीय चक्र बदल रहा है। हाइड्रो प्रोजेक्ट डाउन स्ट्रीम क्षेत्रों मे आपदाओं ने बड़ा आकार ले लिया है। इन क्षेत्रों में हुए निर्माण कार्यों ने संवेदनशीलता की ओर भी बढ़ा दिया है। पर्यावरण मानकों को दरकिनार कर जरूरत से अधिक चौड़ी सडकें बनाईं हैं।

बढ़ते वाहन तात्कालिक रूप से सुविधाएँ तो जरूर दे रहे हैं लेकिन साथ ही प्रदूषण का जहर भी यहाँ के वातावरण को दूषित कर रहा है। हाल के वर्षों में वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई हैं वाहनों से निकलने वाला जहरीला धूंआ बढ़ाने का कारक बन रहा है। प्रदूषण बढ़ने के कारण हिमालयी क्षेत्रों में प्रकृति का स्थापित ताना-बाना प्रभावित हो रहा है। ग्लेशियर के पिघलनें की दर में लगातार वृद्वि हो रही है। जलवायु परिवर्तन व अनियोजित विकास के कारण प्रदेश में भू-स्खलन की घटनाओं में 50 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी हैं। सबसे चिंताजनक तस्वीर पौड़ी जिले की है, जहाँ वर्ष 2023 में भूस्खलन की 1481 घटनाएँ दर्ज कीं गई हैं पूरे प्रदेश में अब तक पहाड़ दरकनें की 1659 घटनाऐं सामनें आ चुकी हैं पिछले वर्ष महज 245 घटनाऐं हुईं थीं। औद्योगिकीकरण के पिछलें करीब 350 साल में जलवायु परिवर्तन की रफ्तार इतनी बढ़ गई हैं कि अनेकों पेड़-पौधों और जीव-जन्तु इसके साथ साथ संतुलन नहीं बना पा रहे हैं। आईपीसीसी रिर्पोट में आशंका जताई गईं है कि ग्रीन हाऊस गैंसों के उत्सर्जन से इस सदी के अंत तक इस धरती का तापमान 2 डिग्री से 4.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जायेगा। यह हिमालय की नदियों के व्यवहार को बदलेगा, बड़ी आबादी के सामने खाद्यान का संकट पैदा हो सकता है।

मुख्यतौर पर पर्यटन, तीर्थाटन और शहरी जीवन का हिस्सा बन चुका प्लास्टिक वेस्ट भी उत्तराखण्ड में तबाही के निर्माण के लिए जिम्मेदार है। एक अनुमान के अनुसार उत्तराखण्ड भर में एक महिनें में ही एक करोड़ किलो प्लास्टिक कचरा पैदा होता है। जिसका बहुत कम वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण से हो पाता है, शेष प्लास्टिक, कचरा नदी नालों में फंसकर शहरों से लेकर पर्यटन स्थलों तक व्यापक नुकसान का कारण बनता है। पर्यटन जैसी गतिविधियाँ और जनसंख्या का दबाव बढ़ने के कारण ,पहाडी क्षेत्रों में वाहनों की संख्या बढ़ रही है। राज्य की अनुमानित जनसंख्या 1.30 करोड़ मानते हुए इस समय प्रदेश में प्रति माह करीब एक करोड किलो कचरा पैदा होता है। एस0डी0एफ फाऊण्डेशन की रिर्पोट के अनुसार कुल उत्पादित कचरे में सामान्य तौर पर 10% (दस प्रतिशत) तक प्लास्टिक वेस्ट होता हैं।  लाखों पर्यटकों  और तीर्थयात्रियों के प्लास्टिक वेस्ट को भी निस्तारित करने की जिम्मेदारी आन पड़ती है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के मानचित्र में उत्तराखण्ड के सभी जिलों को संवेदनशील माना गया हैै। संवेदनशील शीर्ष 10 जिलों में रूद्रप्रयाग पहले और टिहरी दूसरे नंबर पर है। देश के संवेदनशील 147 जिलों में चमोली-19 उत्तरकाशी-21, पौडी-23, देहरादून- 29, बागेश्वर-50, चंम्पावत-65, नैनीताल-68, अल्मोडा-81, पिथौरागढ-85, हरिद्वार-146, तथा उधमसिेहनगर-147वें स्थान पर है। टनकपुर-पूर्णगिरी धाम क्षेत्र में भू-धसाव से आई दरारें और गहरी होती जा रही हैं । कटौजिया स्थित मेला क्षेत्र में सितम्बर 2023 में आई करीब एक फीट की दरारें अब करीब दो फीट से अधिक गहरी हो गईं है।

तीन दशकों की यदि बात की जाये तो आपदाएं दो दोगुनी रफ्तार से बढ़ी है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इससे बचाव को लेकर अब तक कोई ठोस नीति नहीं बन सकी है। प्राकृतिक आपदाओं के साथ मानवजनित आपदाओं की संख्या भी बढ रही है। विकास के नाम पर भारी निर्माण में स्थिति को बिगाड दिया है। हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं को कम करनें के लिए विकास कार्यों को वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर नियंत्रित किया जाना होगा। हाल के सालों में बारिश के मिजाज में बदलाव साफतौर पर नजर आ रहा है। पिछले साल 20 सालों से न केवल उत्तराखण्ड बल्कि हिमाचल प्रदेश में भी प्राकृतिक आपदाओं की घटनाऐं बढी है। वर्ष 1970 में श्रीनगर गढ़वाल में व्यापक बाढ़ से शहर तबाह हो गया है। काफी जनधन की हानि हुई। उसके बाद 1998 में भी श्रीनगर में ऐसा ही मंजर देखने को मिला । 2010, 2013, 2021 में भी सिर्फ अलकनंदा में ऐसे मौके आये जब नदी खतरे के निशान से ऊपर रही और उसकी वजह से काफी नुकसान हुआ। 1979 में भागीरथी में बाढ़ से उत्तरकाशी में त्रासदी हुई थी। असी गंगा कैचमैंट में बारिश के बाद काफी बाद तक नुकसान हुए। टिहरी की झील बनने के बाद कई आपदाएं झील से छिप गईं है। लेकिन 2000 के बाद से सड़क, हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट के काम नें ज्यों-ज्यों रफ्तार पकड़ी, उसी तेजी से आपदाएं इस बात की तस्दीक करती है कि विकास बनाम विनाश एक दूसरे के पूरक हैं। बड़े-बड़े प्रोजेक्ट में मलबे का निस्तारण बेतरतीब तरीके से घाटियों में डंप किया गया, जिससे तेजी से बारिश होने ओर पानी का फ्लो होने पर ये मलबा बाढ़ की मारक क्षमता को बढ़ा रहा है। यही स्थिति हिमाचल के साथ भी हुई है, हिमाचल में भी इसी तरह के बडे प्रोजेक्ट में काम चल रहा है। बड़ी नदियाँ हो या पहाड़ की छोटी-छोटी नदियों (गदेरे) इनके स्वाभाविक बहाव मार्ग और इनके और ही जब निर्माण हो तो अब तक अनुभव जन्य परिणामों बताता है, कि अचानक रौद्र रूप धारण करनें वाले गदेरे किस तरह की तबाही मचाते है। वर्ष 2013 में आई केदारनाथ आपदा के बाद अलकनंदा और मंदाकिनी सतह से ऊपर उठ गई है। इसी का नतीजा है कि हर साल बरसात में दोनों नदियों का जलस्तर शीघ्र ही खतरे के निशान को पार कर लेता है जबकि इससे पहले ऐसा बहुत कम देखने को मिला है। सितम्बर 2022 में केदारनाथ धाम मंदिर के ठीक पीछे सुमेरू पर्वत का अचानक हिमस्खलन हुआ जिससे काफी देर तक धुएं का गुब्बार सा देखा गया, बडी मात्रा में बर्फ ऊपरी पहाडी से नीचे टुटकर गिरी । इस वर्ष अभी तक बारह छोटे-छोटे एवलाँच आ चुके हैं , यह मौसम में परिवर्तन के दौरान अधिक होती है। फरवरी (2023) में जोशीमठ में तकनीकी लापरवाही अंदरूनी विस्फोट को कारण बताया गया स्थानीय लोग आपदा के लिए एन0टी0पी0सी को जिम्मेदार मानते हैं।

जनसंख्या की वृद्धि, शहरीकरण और पर्यावरण परस्पर जुड़े हुए हैं, कारगर पुख्ता नियोजन है, जो सामाजिक तानें बानें को ध्यान में रखे और पर्यावरण पर इसके प्रभावों को कम करते हुए, बढती आबादी की जरूरतों को समायोजित करे। आज के समय में जब जनसंख्या में ज्यादा वृद्धि पर्यावरणीय तनाव की वजह बन सकती है। इस समस्या के व्यापक संदर्भ पर विचार करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए विकसित देशों के प्रति व्यक्ति संसाधन खपत और कार्बन फुट प्रिंट भारत की तुलना में बहुत अधिक है। कम खपत का सद्गुण भारत को पहले ही सीख लेंना चाहिए, ताकि विकसित देशों की तरह अंधाधुंध उपयोग से बचा जा सके। अपनी बढ़ती आबादी के साथ भारत को संसाधनों के हिसाब से दोहन के रास्ते पर नहीं बढ़ना चाहिए। भारत इस साल चीन को पीछे छोडते हुए दुनियां का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। कोई आश्चर्य नहीं की आबादी का बढना उसकी पर्यावरणीय स्थिरता, संसाधन प्रबंधन और सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियाँ पेश करनें लगा है। बढ़ती आबादी, भूमि क्षरण पानी की कमी, वायु प्रदूषण, कचरा प्रबंधन, और जैव विविधता को बहुत नुकसान पहुँचाती है।

वर्तमान जलवायु परिवर्तन परिदृश्य के चलते पिछले एक दशक में पहाड़ो पर कम समय में ज्यादा वर्षा की आवृत्ति बढ़ गई है। कोई आश्चर्य नहीं कि प्राकृतिक कारणों की वजह से ही भूस्खलन की स्थिति बनती है। कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं है। जलाशय की कमी, अनुचित जल निकासी प्रणाली, ढ़लान की कटाई, अवैज्ञानिक खनन, अवैध निर्माण, अत्यधिक चराई इत्यादी से भी भूस्खलन का संकट बढ़ता है। मोटे तौर पर इसके तीन कारण गिनाए जा सकते हैं - प्राकृतिक कारण, जलवायु प्रेरित कारण और मानव जनित कारण। भारत में बदलता मौसम अब चिंता का विषय बनता जा रहा है। ग्रीन हाउस गैंसों का उत्सर्जन और इससे पैदा हो रही वैश्विक गरमी मौसम व सेहत पर भारी पड़ रही है। धरती पहले ही सन् 1850 के औद्योगिक-पूर्व काल से 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक गरम हो चुकी है। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में विशेषकर उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी क्षेत्रों यह वृद्धि अधिक भी हो सकती है। हर एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढने से वातावरण में नमी का स्तर सात से आठ फीसदी तक बढ़ जाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण पहाड़ी राज्यों के ऊपरी हिस्सों में कहीं अधिक तेज बारिश देखी जा रही हैजिससे अचानक बाढ़ और निचली घाटियों में जलप्रवाह की स्थिति बन जाती है। पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश ने ऐसा ही नुकसान झेला और वह अभी संभल नहीं पाया। जुलाई 2023 वैश्विक स्तर पर अब तक का सबसे गरम महीना रहा, इसके ठीक उलट यह भी पढ़ने को मिला कि उत्तर भारत में 2016 के बाद की यह सबसे ठंडी जुलाई रही। जाहिर है, इसकी जटिलताओं  की परतें जलवायु परिवर्तन से जुड़ी है। पानी  कें साथ जलवायु परिवर्तन का अटूट रिश्ता है, जो सूखे और बाढ़ से लेकर ध्रुवीय के पिघलनें के कारण समुद्री जल-स्तर में वृद्धि जैसे अलग-अलग रूपों में दिखाई देता है। डब्ल्यू आरआई एक्विडक्ट के नए आँकडों के संकेत मिलते हैं कि वैश्विक तापमान वृद्धि को यदि पेरिस लक्ष्य के 1.3 डिग्री सेल्सियस पर भी सेहत पर भी सीमित रखने में हम सफल होते हैं, तब भी साल 2050 तक अतिरिक्त एक अरब लोंगों (अनुमानित आबादी से 12 फीसदी अधिक) को अत्यधिक जल तनाव के बीच जीना पड सकता है। चरम मौंसम की घटनाओं की आवृत्ति बढ़ाने के लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है। वैश्विक गरमी बढ़ने जलवायु परिवर्तन ही जिम्मेदार है। वैश्विक गरमी बढ़ने के साथ इसमें और वृद्धि होने की आशंका है। हिमालय की 436 प्रजातियाँ हो चुकी संकट ग्रस्त, विश्व के 36 जैवविविधता हॉट-स्पॉट में एक हिमालय है।


निष्कर्ष
पहाड़ी नगर निर्माण नीतियों को सख्ती से लागू किया जाना चाहिएपहाड़ी बस्तियों में उचित जल-निकासी व्यवस्था के साथ उपयुक्त नगर-नियोजन को अपनाया होगा।  अब हमें सुरक्षा और स्थिरता के साथ जलवायु-अनुकूलन और आपदा प्रतिरोधी समाज का निर्माण करना होगा। जहाँ लकडी और पत्थरों से मकान बनाए जाने थेवहाँ अब कंक्रीट खड़े किये जा रहे हैंमकानों को ज्यादा बड़ा और आकर्षक बनाने की चाह में पहाड़ी क्षेत्रों में जल प्रवाह व अन्य जरूरतों की अनदेखी की जा रही है। कमजोर मिट्टी पर ज्यादा दबाव डाला जा रहा है। इस कारण भी पहाड दरक रहे हैं। यह जरूरी है कि पहले जमीन की सहन शक्ति परखी जाय। आम आदमी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। नालियाँ व डूब क्षेत्र के अतिक्रमण जैसी मानसिकता से हमें पार पाना होगा। ताकि पानी के बहने का प्राकृतिक रास्ता बाधित ना हों। आपदा प्रबंधन और जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों द्वारा समय-पूर्व चेतावनी की बढती मांगों के कारण अब मौसम व जलवायु वैज्ञानिकों का काम कई गुना बढ गया है। जब भी पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण कार्य कराएं तो वहाँ की जमीन की सहन शक्ति का परीक्षण कर लेना चाहिए। गरम मौसम की परिस्थितियों से बचने के लिए ठोस कदम उठाएं जाएं। सभी विकास योजनाओं को विभिन्न तरह के जोखिम के संदर्भ में तैयार करना होगातभी हम बाढ़ से अपनी आर्थिक गतिविधियों को बाधित होने से बचा सकेंगें। बारिश की अधिकता को ध्यान में रखते हुए अब हमें हर किसान परिवार को खेत तालाब बनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
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